ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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जीवात्मा की अवस्था-बंधन, मुत्यु, जीवन, मुक्ति आदि

डाॅ0 सत्यकान्त
असिस्टेंट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग
डी॰ए॰वी॰ (पी॰जी॰) काॅलेज,
बुलन्दशहर
जीवात्मा का सम्बन्ध इस मनुष्य के जीवित शरीर से है। यद्यपि मानव शरीर पृथिवी, जल, वायु अग्नि, आकाश-इन पांच तत्त्वों का समन्वय है। मात्र शरीर रूप से ही यह निष्क्रिय है। जब आत्मा का तत्त्व इसमें प्रवेश नहीं करता है तब तक पांच-भौतिक शरीर का कुछ महत्त्व नहीं है। इसका स्पष्ट प्रमाण यही है कि जब मनुष्य का शरीर आत्मा छोड़ देती है तब शरीर पूर्ण होने पर भी शरीर निश्चिल व चेतना रहित रहता है। इस प्रमाण से जीवात्मा के अस्तित्त्व का पता चलता है। जीवात्मा अपनी रक्षा नहीं कर सकता। इसलिए नाश को प्राप्त हो जाता है। इस स्थूल शरीर में यह जीवात्मा ही महत्वपूर्ण है।1 जीवात्मा वह अणु है जिसमें जानने, क्रिया करने और सुख-दुख भोगने की शक्ति होती है यह लक्षण समस्त सजीव पदार्थाे पर लागू होता है- न केवल मनुष्य पर इसके अतिरिक्त एक बात और हैं कि जीव का भेक्तृत्व परिच्छिन्न है, विभु नहीं। अर्थात् हम किसी एक वस्तु के विषय में ही ज्ञान सकते है सबके विषय में नहीं। हमारा ज्ञान, हामरी क्रिया और हमारी सुख-दुःख परिमित है, अपरिमित नहीं जीवात्मा अनेक हैं और जीवात्मा विभिन्न अवस्थाओं में रहता है जैसा बन्धन मृत्यु, जीवन, मुक्ति आदि।
बन्धन
भारतीय दार्शनिक परम्परा में अधिकांश चिन्तक इस संसार की असारता और जीवात्मा के बन्धन को स्वीकार करते है। न्याय सूत्रकार ने दुःख को बन्धन-लक्षण वाला स्वीकार किया है।2 बाधना, प्रतिकूलता और बन्धन आदि शब्द प्रायशः जिस स्थिति को लक्षित करते है वह दुख है। इस प्रकार बन्धन और दुःख दोनों में परस्पर कार्य कारण भाव हैं दुःख कार्य है और बन्धन उसका कारण है। योग सूत्रकार के अनुसार द्रष्टा अर्थात् जीवात्मा का दृश्य अर्थात प्रकृति और तद्उपरान्त महदादि विकृति के साथ संयोग ही बन्धन अथवा दुख का कारण है3 और उसी पुरूष-प्रकृति संयोग का हेतु अविद्या है।4 जीवात्मा के बन्धन के विषय में सांख्य सम्मत सिद्धान्त में भी उक्त प्रकार से आत्मा का स्वरूप नित्य शुद्ध, नित्य, चेतन तथा नित्य-मुक्त माना गया है। इसका अभिप्राय यही है कि आत्मा किसी भी अवस्था में अपने वास्तविक स्वरूप से परिवर्तित नहीं होता। ब्रह्म जगत् में उसके साथ जितनी विविधता दृष्टिगोचर होता है, वह उसके ब्रह्म आवरण और साधनों के कारण है। वह नित्य चेतन और अपरिवर्तनशील आत्मतत्त्व प्रकृति के संयोग के कारण बन्धन में आ फँसता है।5 गीता में भी इसी सिद्धान्त को स्वीकारा गया है।
वहां लिखा है कि प्रकृति के साथ सम्पर्क में आता हुआ पुरूष प्रकृतिजन्य गुणों का उपभोग करता है। शुभ-अशुभ योनियों में इसके जन्म लेने का कारण गुणसंग है।
उक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि पुरूष अथवा आत्मा के बन्धन का कारण प्रकृतियोग, गुणसंग अथवा क्षेत्रक्षेत्रज्ञ संयोग है।6 यजुर्वेद संहिता के अनुसार जो जीव परमेश्वर को छोड़ कर सत्व-रजस-तमोगुणरूप जड़प्रकृति से उत्पन्न महदादि की उपासना करते है वे अन्धकार में प्रवेश करते हैं।7 यहां इस तथ्य की प्रतीति इस प्रकार स्पष्ट रूप से हो रही है कि प्रकृति की उपासना अर्थात् उसके संग के कारण जीवात्मा अन्धकार में प्रवेश करते हैं। अन्धकार में प्रवेश करने से अभिप्राय यहाँ बन्धन ही प्रतीत होना है।
उद्धृत मन्त्र से सम्भूति और अस्म्भूति पदों की भाष्यकारों ने भिन्न भिन्न प्रकार से व्याख्या की है। आचार्य शंकर ने असम्मभूति के कारण (प्रकृति) और सम्भूति को हिरण्यगर्भ का कार्य ब्रह्म माना है।8 आचार्य ऊव्वट ने असम्भूति पद का अर्थ जन्म और सम्भूति पद का अर्थ आत्मज्ञान किया है।9 स्वामी दयानन्द ने असम्भूति और सम्भूति पदों को क्रमशः प्रकृति तथा महदादि विकृत स्वीकार किया है।10
विभिन्न आचार्याे की व्याख्याओं में यद्यपि अन्तर हैं तथापि आचार्य शंकर, आचार्य महीधर और स्वामी दयानन्द तीनों ही व्याख्याकारों ने असम्भूति पद को कारण (प्रकृति) स्वीकार किया है। इस प्रकार प्रकृति की उपासना अर्थात् संयोग ही बन्धन है।
एक अन्य मन्त्र में वरूण देव से उत्तम-मध्यम अधम पाशों के बन्धन से मुक्त होने की प्रार्थना की गई है।11 स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती मन्त्र में आये हुए उत्तम, मध्यम-अधम-पाशों का अर्थ क्रमशः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण वाला पाश करते हैं। यदि यहां उत्तम, मध्यम और अधम क्रमशः सत्व, रजस् और तमस् के बोधक हैं जैसा कि प्रतीत हो रहा है – यही जीवात्मा का गुणसंग क्षेत्र-क्षेत्रज्ञसंयोग या प्रकृति संयोग है, जो बन्धन है। सांख्य शास्त्र के अनुसार तमोगुण भारी अवरोधक तथा मोह उत्पन्न करने वाला है, रजोगुण चंचल, प्रेरक और दुख कारक है12 तथा सत्वगुण हल्का, प्रकाशन और सुख उत्पन्न करने वाला है। इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। जब आत्मा प्रकृति और स्वयं में विवेक न करता हुआ प्रकृति की उपासना अर्थात् प्रकृति संग में फँस जाता है तब वह जीवात्मा सुख-दुख और मोह के पाशों में बंध जाता है।
यह विचारणीय तथ्य यह ही है कि सत्वगुण जो स्वरूपतः लघु (हल्का) प्रकाशक और सुख कारक है।13
वह पाश या बन्धन की कोटि में क्यों आता है ? यहां यह स्मरणीय है कि सांख्य सिद्धान्त के अनुसार तीनों गुण अन्योन्याश्रित है।14 अतः ऐसी अवस्था कभी नही हो सकती कि केवल सत्त्व ही हो और रजोगुण और तमोगुण न हो। सत्त्व का आधिक्य या प्राधान्य तो हो सकता है किन्तु उस अवस्था में भी रजोगुण और तमोगुण अभिभूत हुए बने रहते हैं। इसलिए सांसारिक सुख सदैव मोह और दुख से मिश्रित रहता है। अतः नीतिशास्त्रीय दृष्टि से यह सुख शुभ तो हो सकता है परम शुभ नहीं है। तर्क भाषाकार केशव मिश्र ने अपवर्ग के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए सांसारिक सुख को भी दुख ही माना है।15
यजुर्वेद संहिता के एक अन्य मन्त्र में स्पष्ट रूप से बन्धन से छूटने की प्रार्थना की गयी है। शरीर को शुद्ध एवं पुष्ट करने वाले-तीनों कालों में रक्षण करने वाले परमात्मा का हम भजन करें तथा जिस प्रकार परिपक्व होने पर ककड़ी या खरबूजा लता से मुक्त हो जाता है उसी प्रकार हम भी ज्ञानादि से परिपक्व होकर इस मृत्युरूप बन्धन से छूटे। आचार्य उव्वट प्रस्तुत मन्त्र के भाष्य में लिखते है जेसे पका हुआ फल अपने (वृक्ष) बन्धन से छूट जाता है वैसे ही मैं मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाऊ।16 उक्त मन्त्र में परिपक्व हुए फल के समान मृत्यु बन्धन से छूटने की जो प्रार्थना की गयी है, उससे प्रतीत होता है कि जीव का पुनः पुनः जन्म लेना और पुनः पुनः मृत्यु को प्राप्त होना उसका बन्धन है और तब तक रहेगा जबतक उसके कर्मफल का परिपाक नही हो जाता।
मृत्यु
यह कथन सत्य है कि मृत्यु अवश्यं-भावी मार्ग है। यह सृष्टि का नियम है। जो वस्तु उत्पन्न होती है वह एक समय पश्चात् नष्ट हो जाती है। मनुष्य की मृत्यु कर्म भोग के अनुसार होती है। सृष्टि के काल चक्र में जीवन और मृत्यु होती है जगत् में प्राणी के मरजाने के बाद परिवार और समाज को कष्ट होता है वह इसलिए नहीं कि प्राणी हमें अधिक प्रिय था अपितु हमारा स्वार्थ था। उस प्राणी के प्रति हमारी इच्छायें-हमारी मनोकामनायें थी जो पूरी नहीं हो पाती। तब हमे कष्ट होता है और मन दुःखी होता है।
बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा है कि मृत्यु का दुख स्वार्थ वश है। निश्चय पति की कामना के लिए पत्नी का पति प्रिय नहीं हेाता किन्तु अपनी कामना के लिए पति प्रिय है।17 माता-पिता को पुत्रों की कामना के लिए पुत्र प्रिय नहीं अपितु अपनी कामना के लिए पुत्र प्रिय है।18
अब प्रश्न उठता है कि स्वार्थ क्या है स्वार्थ का तात्पर्य है (स्व $ अर्थ) अपनी कामना अपनी गरज। ’’स्व’’ और ’’आत्मा’ पर्याय वाचक हैं। दोनों का अर्थ एक ही है। स्वार्थ तीन प्रकार के होते हैं। (1) उत्कृष्ट (2) मध्यम (3) निकृष्ट
1. उत्कृष्ट
उत्कृष्ट स्वार्थ वह है जिसमें मानव स्वच्छ रूप में रहकर अपने अर्थ की ओर प्रवृत्त होता है।
2. मध्यम
मध्यम स्वार्थ वह है जिसमें मानव आत्मा मन और इन्द्रिय से युक्त होकर सम्मिलित अर्थ की सिद्धि करता है।
3. निकृष्ट
निकृष्ट स्वार्थ ही वह वस्तु है जिससे मनुष्य को मृत्यु दुख से दुखी होना पड़ता है।19
जीवनमुक्ति
बन्धन और मुक्ति अर्थात् मोक्ष के बीच में एक ऐसी अवस्था है जिसे विद्वानों ने जीवनमुक्तावस्था में कहा है। वस्तुतः यह बन्धन और मोक्ष के बीच का सन्धिकाल है। एतद्विषय सांख्य में कहा गया है20 कि विवेक हो जाने की अवस्था में भी कर्मों की अनुवृत्ति चलते रहने से उपभोग बना रहता है। विवेक से जिस स्थिति की बाधा-निवृत्ति की जाती है वह बाधित कहलाती है। विवेक ज्ञान समस्त संचित कर्मो को भस्म कर देता है। परन्तु     प्रारब्ध कर्म अर्थात् जो कर्म फलोन्मुख हो चुके हैं, जिनके फलों को भोगने के लिए वर्तमान शरीर प्रारम्भ हुआ है – वह विवेक ज्ञान के द्वारा नष्ट नहीं होता। उस शरीर की समाप्ति कर्म फल भोगकर होती है। इसीलिए प्रारब्ध कर्मो से जनित दुख तथा क्षुधा, तृष्णा, निन्द्रा, आसन, वासना आदि का क्रम चलते रहने से विवेक अवस्था चलती रहती है अर्थात यह समय जीव का भोग व मोक्ष का सन्धिकाल है।21 यजुर्वेद के अन्दर एक मन्त्र है – उसकी व्याख्या में स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि जो जीव शरीर छोड़ते हैं वे वायु, औषधि आदि पदार्थों में भ्रमण करते करते गर्भाशय को प्राप्त हो कर नियत समय पर शरीर धारण करके प्रकट होते हैं।22
जीवनमुक्ति की उपयुक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि जीवनमुक्तावस्था में कारण शरीर नष्ट हो जाता हैं तथा स्थूल और सूक्ष्म शरीर उस आत्मा के प्रारब्ध भोगों के भोगने तक बने रहते  हैं। उस अवस्था में जीवनमुक्त आत्मा मोह, शोक आदि की सामान्य अवस्था से उपर उठ जाता है। यजुर्वेद के 40वें अध्याय के सातवें मन्त्र में इस अवस्था का वर्णन     उपलब्ध होता है। वहां लिखा है कि सर्वज्ञ – एक आत्मत्त्व का अनुभव कर लेने वाले ज्ञानी मनुष्य को उस अवस्था में मोह, शोक कहीं भी कष्ट नहीं पहुचाते।23 इसी मन्त्र के भावों को स्पष्ट करते हुए भाष्यकर उव्वट लिखते हैं कि जिस अवस्थाविशेष में चेतन और अचेतन समस्त भूत आत्मा ही हो जाता है उस समय योगी पुरूष को कोई शोक-मोह नहीं रहता क्योंकि शोक-मोह तो तत्त्वज्ञानरहित व्यक्ति को ही होते है।24 यह चिन्तन का विषय है क्या कि आत्मा की मुक्ति स्वाभाविक है? यदि मुक्ति को जीव का स्वाभाविक धर्म माना जाय तो जितने साधन शास्त्र में वर्णित हैं वे सब व्यर्थ सिद्ध हो जायेंगे, क्योंकि वह सदैव मुक्त ही रहेगा। इस दृष्टिकोण से उसका बन्धन कभी नहीं होगा। जैसे परमेश्वर मुक्तस्वभाव होने के कारण कभी भी नस नाड़ी के बन्धन में नहीं आता है।25 इसके विपरीत जीवात्मा सदैव मुक्त नहीं रहता है, अपितु मुक्त होने की जिज्ञासा एवं प्रकृति दृष्टिगोचर होती है।
जिज्ञासा सदैव प्राप्त वस्तु की होती है और यह भी स्पष्ट है कि यदि मुक्ति जीवात्मा का स्वाभाविक गुण होता तो उसमें मुक्त्यर्थ कामना उत्पन्न नहीं हो सकती। क्यांेकि स्वभावजन्य धर्म उस पदार्थ अथवा वस्तु से कभी भी पृथक् नहीं होता है। फिर उसकी इच्छा कैसे मोक्ष साधनों के द्वारा उत्पन्न होती है? अथवा आरम्भ होती है जो उत्पन्न होता है वह एक समय पश्चात नष्ट हो जाता है अब अन्त कैसे होता है? महर्षि वेद व्यास ने गीता में कहा कि जो उत्पन्न हुआ है उसका अन्त अवश्य है और अन्त की उत्पत्ति निश्चित है।26
कुछ विद्वान् मुक्ति को नित्य मानते है। नित्य का अर्थ है कि आदि और अन्त दोनों ही न हो। अनित्य का अर्थ है कि जिसका आदि और अन्त दोनों हो परन्तु जिसका आदि और अन्त में से आदि तो हो किन्तु अन्त न हो ऐसी वस्तु संसार में उपलब्ध नहीं होती है। अर्थात एक सीमा युक्त संसार में कोई वस्तु नहीं है। उपरोक्त कथन से सिद्ध होता है जीव की मुक्ति स्वभाविक है बन्धन में तो वह प्रकृति के कारण बंधता है न कि स्वयं के कारण।
सन्दर्भ सूची –
1. डाॅ0 विजय श्री अध्याय रामायण
एक विवेचनात्मक अध्याय पृष्ठ 63
2. बाधना लक्षण दुःख
न्याय सूत्र 1.1.21
2. प् द्रष्ट्रदृश्यायोः संयोगो हेय हेतु:
योग सेत्र 2.17
प्प् स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोग योग सूत्र 2.23
3. तस्य हेतुरविद्या योग सूत्र 2.24
4. न नित्यशुद्ध बुद्धमुक्तस्वभवस्य
तंदयोगास्तदयोगाद्ऋते
साख्य सूत्र 1.19
5. भगवत् गीता 13.21
पुरूष प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृति जान्गुणान्
कारणं गुणसड गोऽस्य सद्सदृयोनि जन्मसु।।
6. भगवत् गीता 13.26
यावत्स जायजते किन्चित् सत्तवं स्थानानरजडमम्
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगान्तद्विद्धिभरतर्षभ।
7. यजुर्वेद 40.9
प् अन्धतमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य तु सम्भूत्यां रताः।।
प्प् द्र0 वही, द0 भ0
ये जनाः सकल जड जगतोऽनादिनित्यं कारणप्रयास्यतया स्वीकुर्वन्ति तेडद्यिं प्राप्य सदा क्लिप्यन्ति। ये च तस्मात्कारणादुत्पन्त पृथिव्यादि स्थूलं सूक्ष्म कार्य कारण ख्यमनित्यं संयोगजन्यं कार्य जगदिष्टमुपास्यं मन्यन्ते ते गाढामविद्याा प्राप्याधिकतरं क्लिष्यन्ति
8. असम्भूतिः प्रकृतिः कारण सम्भूत्या कार्य ब्रह्मणि हिरणयगर्भाख्य
9. उव्वट भाष्य यजुर्वेद 40.9
येऽसंभूतिमुपासते – मृतस्य पुनः सम्भवों नास्ति अतः
शरीरग्रहणादस्माकं मुक्तिरेव…
ये सम्भूत्यामेव रता ……………………… आत्मज्ञान एव रता।
10. दयानन्द भाष्य 40.9
11. यजुर्वेद अ0 12.21
उदुत्तमं वरूण पाशमस्यदवाधमं वि
मध्यमं श्रथाय अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम
12. वेदों में योग विद्या
13. सांख्या कारीका 13
सत्त्व लघु प्रकाशकमिष्टमुपपटम्भंक
चलंच रजः गुरू वरूणकमेव तमः प्रदीपनच्याथ्र ती वृत्तिः
11 प्र्रात्यप्रीतिनिषादात्मकाः स
सांख्य कारिका सांख्य 13
14. सांख्य कारिका 2.16
सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः ……………….
15. 16 सांख्य कारिका 12
अन्योन्याभिभवाश्रयाजननमिथुनवृत्तयश्च गुणाः
16. 17 पृ0 सख्या 260
मोक्षोेऽपवर्गः स च एकविंशति प्रभेदभिन्नस्य दुःख स्यात्यान्तिकी निवृत्तिः। एक विंशति प्रभेदास्तु शरीर षडिन्द्रियाणि षड्विषयाः षडबुद्धयः सुखं दुःख चेति गौण मुख्यभेदात्। सुखस्तु दुःखमेव दुःखानुषडिगकत्वात्। तर्कभाषा
17. यजुर्वेद 3.60
त्र्मम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टि वर्धनम
उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
18. न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रिये भवति
आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति
19 बृहदारण्योकोपनिषद्
19. न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राःप्रिया भवन्ति
आत्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति।।2
20. (21) पृष्ठ सख्या = 18
मृत्यु ओर परलोक
चैथा परिच्छेद स्वार्थ मीमांसा
21. (22) साख्य सूत्र 71
प् बाधितानुवृत्या मध्यविवे कतोऽव्युपभोगः
22. सांख्य सूत्र पृष्ठ सांख्य 78
प्प् जीवन्मुक्तश्च
23. साख्य सूत्र व्याख्या प0 उदयवीर शास्त्री पृष्ठ संख्या 6 (23)
24. यजुर्वेद दयानन्द भष्य अध्याय 12.मा0 36
(24) ये जीवाः शरीर व्यजन्ति ते वायवोषध ययादिषु च भ्रान्त्वा
गर्भ प्राप्य यथा समय सशरीरा भूत्वा नर्जयन्ते।
25. (25) वेदा सा0 सूत्र 208 पृष्ठ 118
जीवन मुक्ती गम स्वस्वरूपाखण्ड ब्रह्म जाने
न तदज्ञानबाधनद्वारा स्वरूवरूपपाखण्ड
ब्रह्मणि साक्षात्कृतेडज्ञानतव्कार्य संचितकर्म
संशयविपर्थयादि नामपि बाधितत्वादखिल बन्धरहितो ब्रह्मनिष्ठः
26. यतुर्वेद भाष्य 40/7
(26) उव्वट भाष्य
27. (27) यतुर्वेद अ0 40.8
सपरर्यगाच्छुक्रम ………………..
28. गीता। अध्याय 2 – श्लोक 27
(28) जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्र्रुवं जन्म मृतरय च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।

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