ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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परिवार में पुरूष वर्चस्व के समक्ष स्त्री समानता के प्रश्नों को उठाते गीतांजलि श्री के उपन्यास ’माई’  और ‘तिरोहित’’

कु॰ दुर्गेश (शोध छात्रा)
हिन्दी विभाग
डी॰ए॰वी॰ (पी॰जी॰) काॅलेज, बुलन्दशहर (उ॰प्र॰)
मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनाने की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण व प्रारम्भिक इकाई परिवार ही है। वस्तुतः यदि हम मानव सभ्यता की विकास यात्रा पर दृष्टि डालें तो आदिम युग में खाना-बदोश जीवन जीने के पश्चात् सर्वप्रथम व्यक्ति में जिस संस्था के माध्यम से स्वयं को सभ्यता के पथ पर अग्रसर किया, वह परिवार ही था। परिवार व्यक्ति की कुछ मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अस्तित्व में आया- भूख, सुरक्षा, काम तथा भावात्मक सन्तुष्टि हेतु परिवार संस्था अस्तित्व में आई। प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक अरस्तू परिवार को मानव की प्रथम पाठशाला मानते हैं। डाॅ0 डी0डी0एन0 मजूमदार भारतीय सन्दर्भ में परिवार की महत्ता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- ‘‘वैदिक काल से तो परिवार नामक संस्था का स्पष्ट स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। पारिवारिक प्रक्रिया भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग बनी हुई है जिसका उद्भव और विकास मानव संस्कृति की पृष्ठभूमि में हुआ है।’’
वस्तुतः डाॅ0 मजूमदार ने भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में परिवार को सर्वाधिक प्राचीन व महत्वपूर्ण संस्था बताया है जो न केवल भारत अपितु विश्व समाज में केन्द्रीय स्थान रखता है। परिवार में सामान्यतः एक या अधिक पति-पत्नी व उनके बच्चों की परस्पर घनिष्ठता व सामूहिकता को सम्मिलित किया जाता है। परिवार को विभिन्न पीढ़ियों व पति-पत्नी के जोड़ों के आधार पर संयुक्त व एकल परिवार के रूप में रेखांकित किया जाता है। भारतीय परिवार में तो संयुक्त परिवार की महत्ता के चलते परिवार मानव जीवन के केन्द्र बिन्दु के रूप में रहा है। कैलाश चन्द जैन इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं- ‘‘परिवार का सामाजिक संगठनों में एक विशिष्ट स्थान है जिसका व्यक्ति, समाज के विकास और उत्थान में बड़ा योगदान रहा है। जन्म के समय मनुष्य सामाजिक प्राणी के रूप में नहीं होता। उसको सुसंस्कृत बनाने में परिवार सबसे महत्वपूर्ण संस्था है।’’
गीतांजलि श्री ने भी अपने दोनों उपन्यासों ‘माई’ व ‘तिरोहित’ में मुख्यतः पारिवारिक स्थितियों में स्त्री दशा व उसके संघर्ष का चित्रण किया है। ‘माई’ में जहाँ परम्परागत तीन पीढ़ियों के केन्द्र में घुटती व कोल्हू के बैल की तरह दूसरों के लिए स्वयं को स्वाह कर देने वाली स्त्री का चित्रण है तो वहीं ‘तिरोहित’ में अपेक्षाकृत एकल व नगरीय परिवार में स्त्री की स्वयं के जीवन को चेतना व अस्मिता के साथ जीने की चाह को आधार बनाया गया है। एक परिवार में स्त्री की विभिन्न स्थितियों पर डाॅ0 ओम प्रकाश शर्मा की टिप्पणी बड़ी सार्थक जान पड़ती है कि ‘‘वास्तव में नारी परिवार का प्राण होती है और परिवार नारी का शरीर। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। नारी ही वह धुरी है जिस पर परिवार टिका रहता है और परिवार ऐसा वातावरण है जो नारी के लिए स्वर्ग या नर्क का निर्माण इसी लोक में करता है।’’
परिवार नामक इस संस्था में स्त्री व पुरुष दोनों का समान योगदान रहता है किन्तु दुनिया के तमाम धर्मशास्त्रों व परम्परागत साहित्य में स्त्री को पुरुष के समक्ष नगण्य माना गया। डाॅ0 गोपी जोशी की टिप्पणी इस सन्दर्भ में विचारणीय है- ‘‘नए कानूनी प्रावधानों में भी स्त्री को पुरुष के समान दर्जा नहीं दिया गया। स्त्री को नागरिक      अधिकारों से वंचित रखा गया। यूरोपीय कानूनों और अध्यादेशों के स्रोत कैनन लाॅ, रोमन लाॅ और जर्मन लाॅ थे। कैनन का धार्मिक, नैतिक मामलों सम्बन्धी नियम कानून, इसाई धर्म सूत्र रोमन लाॅ आदि सभी स्त्री असमानता के द्योतक थे।’’
उपर्युक्त टिप्पणी परिवार में स्त्री-पुरुष की वास्तविक स्थिति को स्पष्ट करती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री को पुरुष की अपेक्षा कमतर आँका गया। घर-परिवार, आॅफिस अथवा जीवन के दूसरे क्षेत्रों में पुरुष वर्चस्व ही कायम रहा। तमाम मतों और विमर्शों के बाद भी स्त्री की स्थिति में कोई ज्यादा परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ता है। भले ही आज मीडिया और दूसरे संस्थानों द्वारा यह प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा हो कि 21वीं सदी महिलाओं के लिए है किन्तु फिर भी सच्चाई यह है कि चन्द महिलाएँ जिनका बार-बार नाम गिनाकर यह भ्रम फैलाया जाता है कि आज स्त्री-पुरुष सम्बन्ध समानता का दृष्टिकोण लिए है। ये कुछ नाम भारतीय महिला समाज की दो या तीन प्रतिशत महिलाओं का ही प्रतिनिधित्व करती है। आंकड़ें इस तथ्य को पुष्ट करते हैं कि मीडिया, निजी क्षेत्रों, स्कूल, राजनीति आदि क्षेत्रों में पुरुष वर्ग का वर्चस्व कायम है तथा स्त्री के प्रति उनका दृष्टिकोण तथा मानसिकता में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं आया है। गीतांजलि श्री एक सजग एवं संवेदनशील उपन्यासकार है। उनके उपन्यासों में स्त्री जीवन की पारिवारिक समस्याएँ एवं मुद्दों को गहनता से उठाया गया है। अपने उपन्यास ‘माई’ में लेखिका ने पितृसत्तात्मक समाज में परिवार की कैद में स्त्री की समस्याओं को बहुत ही संवेदना रूप से उठाया है। गीतांजलि श्री ने इस उपन्यास में तीन पीढ़ियों की कथा को आधार बनाकर ‘माई’ नामक चरित्र के माध्यम से एक परिवार में स्त्री की घुटन, पीड़ा एवं त्रासदीपूर्ण स्थिति को बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषित किया है। इस सन्दर्भ में एक उदाहरण दृष्टव्य है- ‘‘हमी ने देखा कि बाबू ने आँख उठा भर दी और माई सिमटकर दरवाजे की ओट में भेड़ की तरह सट गई और हम उस बेचारी को बचाने के लिए आगे आकर खड़े हो गए।’’
उपर्युक्त उदाहरण में पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष वर्चस्व स्पष्ट देखा जा सकता है। पुरुष समाज स्त्री को सदियों से अपनी सम्पत्ति मानता रहा है। वहाँ स्त्री की इच्छाओं, आकांक्षाओं एवं भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को पशु सम्पत्ति से अधिक कुछ नहीं समझता। उदाहरण में प्रयुक्त ‘भेड़’ शब्द और ‘बेचारी’ सम्बोधन इस तथ्य को भली-भांति पुष्ट करते हैं। गीतांजलि श्री ने ‘माई’ के माध्यम से परिवार में स्त्री अस्मिता, स्त्री की पहचान के संकट और पुरुष के समक्ष उसकी दयनीय और तुच्छ स्थिति को उजागर किया है। योजना रावत की टिप्पणी इस सन्दर्भ में उचित प्रतीत होती हैं कि- ‘‘माई एक चरित्र प्रधान उपन्यास है जिसमें गीतांजलि श्री ने माई के माध्यम से स्त्री अस्मिता स्त्री की पहचान का संकट, उसे उसकी बंधी-बंधाई भूमिक में स्वीकारने की त्रासदी और स्त्री का अपनी संतति के पूर्ण विकास के लिए संघर्ष जैसी समस्याओं को कथानक का केन्द्र बिन्दु बनाया है।’’
यह टिप्पणी परिवार में स्त्री अस्मिता के संकट व उसकी अन्तःहीन त्रासदी को उजागर करती है। उपन्यास की केन्द्रीय पात्र ‘माई’ जो परिवार के लिए अपना सब कुछ स्वाह करती है। वही परिवार उसे दबी स्त्री से अधिक कुछ नहीं समझता। लेखिका ने बड़ी सूझ-बूझ से उपन्यास में केवल तीन पीढ़ियों की कथा भर नहीं कही अपितु समाज के सामंती ढाँचे पर चोट की है। सामंती मानसिकता स्त्री को भोग-विलास और वंशवृद्धि के अतिरिक्त कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं देती। गीतांजलि श्री उपन्यास में इस तथ्य को बड़ी कुशलतापूर्वक रेखांकित करती हैं कि जो माई परिवार की इच्छाओं, जरूरतों के समक्ष झुक जाती है परिवार उसी स्त्री को भोली, कत्र्तव्य परायण, पतिपरायण के खिताब से नवाजता है। यह पुरुष मनोवृत्ति स्त्री की आजादी के प्रति एक षड्यन्त्र है। ‘माई’ की पीठ झुकना एक सांकेतिक प्रतीक है, जिसकी अनुगूँज सम्पूर्ण उपन्यास में सुनाई पड़ती है। यह अनुगूँज पुरुष वर्चस्व के लम्बे इतिहास को अपने में समेटे हैं। माई और बाबू नामक पात्रों के माध्यम से भी उपन्यास में स्त्री पर पुरुष वर्चस्व की कहानी उद्घटित होती चलती है। माई जो अपने पति बाबू को अपना सर्वस्व समझती है तथा उसकी सेवा में रात-दिन लगी रहती हैं वहीं बाबू उसे हिकारत की नजर से देखता है। उपन्यास की नैरेटर (कथावाचक) सुनैना के शब्दों में इस स्थिति का एक उदाहरण दृष्टव्य है- ‘‘इसी तरह बीती माई की बाबू के संग उनकी तीमारदारी, परहेजीखाना, स्नान-ध्यान का इन्तजाम कुछ भी माई न भूली। बाबू कहीं से आते अपने कमरे में गलीचे पर जाते, दतर का पैंट कोट बटन खोलकर नीचे खिसकाते उनमें से हाथ-पैर यों सफाई से निकाल के चलते बनते। माई आती कपड़े उठाके बाबू के आकार को झटक के उन्हें खाली कर देती और अगले दिन के लिए उन्हें हैंगर में टाँग देती या धुलने को उठा ले जाती।’’
स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक भी है और एक-दूसरे से भिन्न एवं स्वायत्त भी किन्तु समाज विकास के क्रम में स्त्री की स्वायत्त पहचान का शनैः शनैः लोप होता चला गया और पहचान के नाम पर मात्र वह एक शरीर (देह) भर रह गई। जिस पर भी उसका अपना कोई अधिकार नहीं रहा बल्कि उस पर भी पुरुष वर्चस्व प्रदान कर दिया गया। उपन्यास की पात्र चाहे दादी हो या माई या आधुनिक दृष्टि सम्पन्न नारी सुनैना सभी को कदम-कदम पर पितृसत्तात्मक समाज की रूढ़ परम्पराओं, मान्यताओं और मर्यादा, सुरक्षा के नाम पर अपनी इच्छाओं का दमन करना पड़ता है। माई के पति बाबू व घर के मुखिया दादा को पुरुष होने के नाते सभी अधिकार सहज ही सुलभ है। घर की बैठक में तख्त पर बैठे दादा की मौज-मस्ती संगीत आदि के सब अधिकार प्राप्त थे किन्तु स्त्री की सीमा ड्योढ़ी तक सीमित थी तथा पुरुषों के परामर्श से कार्य करना ही उनका परम कत्र्तव्य था। एक उदाहरण इस सन्दर्भ में देखें- ‘‘दिन भर का यही कार्यक्रम दादा हाँक लगाते भोन्दू आँगन के पिछले दरवाजे से हरदोई के पास पहुँचता माई हरदोई के हाथ पर फरमाइशों को तश्तरियों में परोसकर ट्रे में लगाकर दे देती। कभी रात बारह बजे तक यह मसला खिंच जाता खासकर शरबत और चाय की। दादा किसी सोच में डूबे भूल से कह जाए- ‘आज मटर और चावल खायेंगे।’ तो बना बनाया खाना एक तरफ सरका के माई दोबारा जुट जाती। फ्रिज नहीं आय था तब भी।’’
माई का चरित्र पूरी तरह ड्योढ़ी को समर्पित है। उनका पूरा दिन रसोई में बीतता था। दादा तथा परिवार के दूसरे लोगों की इच्छाओं को पूरा करते-करते माई का पूरा शरीर झुककर दोहरा हो जाता और माई की रीढ़ की हड्डी कमजोर हो गई। यह एक बड़ी मार्मिक व्यंजना है, जो दूर तक पीछा करती है और स्त्री विमर्श के अनेक पहलुओं को छू जाता है। उपन्यास के प्रारम्भ में ही सुनैना का कथन इसकी ओर संकेत करता है- ‘‘हम तो शुरू से जानते थे कि माई की रीढ़ की हड्डी कमजोर है। डाॅक्टर ने भी बाद में यही कहा कि हरदम झुकने का यही हश्र होता है कि यों झुकने वाले को झुके रहने में भी दर्द होता है तनन में भी दर्द होता है। माई हमेशा झुकी रहती थी हमें तो पता है हम उसे शुरू से देखते आए हैं। शुरू से ही वह एक मौन झुकी हुई साया थी। इधर से उधर फिरती सबकी जरूरतों को पूरा करने में जुटी।’’
उपर्युक्त उदाहरण में सामन्ती मानसिकता के मकड़जाल में फँसी व पिसती स्त्री का मूक रुदन एवं घुटन को बड़े ही सांकेतिक एवं प्रतीकात्मक ढंग से लेखिका ने उजागर किया है। माई की त्रासदी यह है कि इस झुकी हुई स्त्री को उसके चुप रहने और सहने के लिए सराहा जाता है। इला कुमार की टिप्पणी इस सन्दर्भ में औचित्यपूर्ण लगती है- ‘‘आज के भारत में स्त्रियों की जगह पुरुषों के समकक्ष नहीं है वह पत्नी है तो कमतर, बहन है तो निरीह, बेटी है तो तब तो जन्म लेने में भी दुराग्रहों के बीच फँसी हुई है। वर्तमान समय में भारतीय स्त्रियों की जो स्थिति है वह अत्यन्त दयनीय है।’’
उपन्यास का उदाहरण और इला कुमार की टिप्पणी पुरुष के दम्भ, वर्चस्व और स्त्री के प्रति उसकी मानसिकता को उजागर करती है। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को लेकर भारतीय समाज में दोनों के अलग-अलग मानक रहे हैं। लेखिका ने पुरुष मानसिकता की इस प्रवृत्ति पर भी उपन्यास में चोट की है। माई का पति बाबू पर स्त्री के साथ सम्बन्ध रखता है क्योंकि वह पुरुष है उसे रोकने-टोकने वाला कोई नहीं है। उसकी महिला मित्र भी उससे मिलने आ सकती है और वह भी उससे मिलने जाता रहता है। इस स्थिति का माई न तो कोई विरोध कर पाती और न ही पितृसत्तात्मक समाज उसे कोई अधिकार देता है जबकि वही माई यदि विवाह पूर्व किसी के प्रति अनुराग रखती है। तब सदियों का कुण्डली मारे पुरुष अहंकार फूँफकार उठता है। इस स्थिति का एक उदाहरण दृष्टव्य है- ‘‘बाबू को देखते ही दादा का तार और जोरों से छिड़ जाता, ‘‘बेशर्मी देखिए साहब हम शराफत से चुप रह गए तो उसे हमारी बुजदिली समझेंगे।’’ फिर बात-बात में बोले, कहीं बहू ने खत-वत तो नहीं लिख दिया था? पता करो! पहले भी तो वह बिना बताए लिखती थी छिपके मिलती थी। हम कहना नहीं चाहते पर वे लोग… और पुरोहित जी और उनके साहबजादे…।’’
उपर्युक्त उदाहरण की ये पंक्तियाँ मैथिलीशरण गुप्त की पंक्ति का स्मरण कराती है कि-
‘‘नरकृत शास्त्रों के बन्धन है सभी नारी को लेकर।
अपने लिए सभी सुविधाएँ पहले ही कर बैठे नर।’’
इन पंक्तियों के सन्दर्भ में उपन्यास के पात्र दादा व बाबू के चरित्र का काईयाँपन व दोहरी मानसिकता स्पष्टता से उजागर होती है। लेखिका इन छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से ही पुरुष वर्चस्व के तमाम विद्रूप, अहंकार, भोगलिप्सा और सदियों से स्त्री को मूक-बधिर बनाए रखने की प्रवृत्ति को उजागर करती है। उपन्यास में        सुबोध व सुनैना के माध्यम से भी पुरुष वर्चस्व को रेखांकित किया गया है। सुबोध का पढ़ाई के लिए विदेश जाना जबकि सुनैना की पढ़ाई के लिए दादा व बाबू का रोक-टोक करना, सुबोध का अपनी मित्र जूडिथ का घर पर लाना जबकि सुनैना के मित्र एहसान व विक्रम का सुनैना से मिलने घर आने पर विवाद उठना पुरुष वर्चस्व को रेखांकित करता है। माई के माध्यम से सुनैना पर दबाव बनाना इस उदाहरण में स्पष्ट देखा जा सकता है- ‘‘घर से बाहर औरत के लिए बस बद्कारी है। ड्योढ़ी की दीवारों से टकराकर किसी के बोल फिसले और हमारे देखते-देखते माई एक निर्णायक खामोशी में चली गई। बाबू पीछे पड़े रहे किसी भी तरह करो, तुम्हारी वे सुनते हैं, ऐसा बिगाड़ दिया है कि दूसरों का तिरस्कार करते हैं, याचना करो, धमकी दो, तुम समझाओ, खानदान को सर्वनाश से बचाओ, उसके पैरों पर गिरके गिड़गिड़ाओं, मारो उसे, माँ हो, हक है तुम्हारा… वे सुनेंगे तुम्हारी।…’’
योजना रावत ने भी इस सन्दर्भ में ठीक ही कहा है- ‘‘बाबू का हस्तक्षेप बाबू तक सीमित नहीं रहा। पुरुष स्त्री की सुरक्षा हेतु स्वयं को उसका संरक्षक समझते हुए उसकी भावनाओं व इच्छाओं को भी नियन्त्रित करना चाहता है। पत्नी की किसी पर पुरुष के प्रति कोमल भावना का विरोध करने वाला पुरुष हो तो लड़की का समव्यस्क लड़कों से मैत्री सम्बन्ध होने पर भी आपत्ति प्रकट करता है। पत्नी, बेटी या फिर किसी भी रिश्ते से वह स्त्री के ऊपर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता है। सुनैना के बाबू सुनैना के पुरुषों से सम्बन्धों में हस्तक्षेप करना अपना अधिकार समझते हैं। सदा से अपने रोबदार पिता की छाया में दबे व्यक्तित्व वाले बाबू अपने आधुनिक विचारों व स्वतन्त्र व्यक्तित्व वाले बच्चों के जीवन में माई के माध्यम से हस्तक्षेप करते हैं।’’
वर्तमान समय में जब स्त्री पुरुष के समक्ष निरन्तर प्रत्येक क्षेत्र में अपनी बुद्धि व क्षमता को प्रमाणित कर रही है तब अचानक स्त्री के प्रति बढ़ती हिंसक घटनाएँ पुरुष वर्चस्व की चुनौती को दर्शाती है। सीत मिश्र की टिप्पणी इस सन्दर्भ में बड़ी सटीक जान पड़ती है- ‘‘स्त्री समुदाय के प्रति अपराध करने का दुस्साहस कहाँ से आता है क्यों ऐसी मानसिकता पनपी जिसमें पुरुष स्त्री को अपने मातहत अपनी इच्छा के अनुरूप पाना चाहता है और ऐसी इच्छा को किसी भी तरह से पूरा करना चाहता है। विशेषज्ञ व विश्लेषक मानते हैं कि यह मानसिकता पुरुष के वर्चस्ववादी सोच से आती है।’’  सीत मिश्र की यह टिप्पणी उपन्यास के पात्र दादा व बाबू की मानसिकता से पूर्णतः मेल खाती है जिन्हें सुनैना के माध्यम से अपने वर्चस्व को खतरा प्रतीत होता है।
गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘तिरोहित’ यद्यपि स्त्री जीवन को एक अलग दृष्टि से चित्रित करता है किन्तु उसमें भी पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता को स्पष्टता के साथ उजागर किया है। उपन्यास के प्रथम भाग में ही बिटवा व परेश के वार्तालाप में इस स्थिति को उठाया गया है। परेश को स्वयं के पुरुष होने का दम्भ है और वह पुरुष वर्चस्व को लैंगिंग दृष्टिकोण से भी सिद्ध करने का प्रयास करता है। परेश के दृष्टिकोण में पुरुष होने का अर्थ है सब कुछ (उचित/अनुचित) करने की पूर्ण आजादी। यह मात्र परेश का दम्भ नहीं अपितु अधिकांश पुरुष समाज का सच है- ‘‘हम मर्द हैं हम कुछ भी कर सकते हैं। परेश जब कहता तो मुझे लेबरन हाऊस में अंट-शंट बाते हेय लगने लगती है और मैं परेश को भी नहीं बताता कि ललना तो ललना, चाचा तो चच्चों के भी पास नहीं जाते।’’
इस प्रकार कहा जा सकता हैं कि गीतांजलि श्री ने परिवार में पुरुष वर्चस्व को विभिन्न सन्दर्भों में स्पष्ट रूप से चित्रित किया है। ‘माई’ उपन्यास में उन्होंने इसे मुख्यतः दादा तथा बाबू के माध्यम से दर्शाया है। वह चाहे स्त्री की इच्छाओं व भावनाओं का दमन हो या फिर पुरुष द्वारा अपने विचारों व स्थिति को श्रेष्ठ रखने की संकीर्ण मानसिकता हो। योजना रावत ने इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए ठीक ही कहा है- ‘‘माई उपन्यास में तीन पीढ़ियों की स्त्रियों, दादी, माई व सुनैना को दादा का वर्चस्व सहना पड़ता है। दादा स्वयं संगीत के शौकीन है लेकिन एक बार माई की गुनगुनाहट सुन ऐसे लहजे में गाने वाले के बारे में पूछा कि माई हमेशा के लिए गुनगुनाना भूल गई। माई की इच्छा है कि वह अपने बच्चों का नाच-गाना सीखने का शौक पूरा करे। दादा के डर से वह चोरी से नन्हें उस्ताद को पिछवाड़े से बुलवाकर बच्चों को नाच-गाना सिखाने का प्रबन्ध करती है लेकिन दादा नन्हें उस्ताद को हड़का कर भगा देते है और फिर वह कभी ड्योढ़ी में कदम नहीं रखता। स्त्रियों के प्रति दादा का यह दृष्टिकोण अति संकीर्ण एवं परम्परावादी है। यही संस्कार दादी और बाबू ने भी पाए हैं।’’
अपने उपन्यास ‘तिरोहित’ में गीतांजलि श्री ने पुरुष वर्चस्व की स्थिति को एक भिन्न शैली में दर्शाया है। यद्यपि यह उपन्यास दो स्त्रियों के अन्तरंग सम्बन्धों पर केन्द्रित है किंतु उनके प्रति पुरुष अहं की श्रेष्ठता का भी सांकेतिक रेखांकन किया गया है। ओम बाबू अपने पुरुष अहं में पहले तो अपनी किशोर पत्नी की उपेक्षा करते है, उसे मात्र उपहार व नई-नई चीजें देकर बहकाए रखना चाहते हैं। जब चच्चों ललना के रूप में अपने लिए एक अन्तरंग मित्र चुन लेती है, जिससे वह अपने मन की सब तरह की बात कर लेती है। तो ओम बाबू के पुरुष अहं को ठेस पहुँचती है और वे दोनों के बीच स्वयं को उपेक्षित अनुभव करते हैं तो वे फिर ‘चच्चो’ को विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित करते हैं।
अतः लेखिका ने जहाँ एक ओर परिवार में पुरुष वर्चस्व की स्थितियों को कई दृष्टिकोणों से दर्शाया है वहीं ‘माई’ में सुनैना तथा ‘तिरोहित’ में चच्चों व ललना के माध्यम से इसके विरुद्ध स्त्री के संघर्ष व चेतना को भी स्पष्टता के साथ चित्रित किया है। उनके यहाँ जहाँ एक ओर पुरुष वर्चस्व को मौन स्वीकृति देने वाले पात्र (माई व दादी) है वहीं इसके विरूद्ध आवाज उठाने वाले पात्र (सुनैना, ललना व चच्चो) भी है। साथ ही सुबोध के माध्यम से लेखिका ने आधुनिक चेतना सम्पन्न पुरुष पात्र द्वारा भी स्त्री समानता की वकालत की है।
संदर्भ सूची
1. डाॅ0 डी0डी0एन0 मजूमदार- भारतीय संस्कृति के उपादान, पृ0 5
2. डाॅ0 कैलाश चन्द जैन- प्राचीन भारतीय सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाएँ, पृ0 106
3. डाॅ0 ओमप्रकाश शर्मा- समकालीन महिला लेखन, पृ0 107
4. डाॅ0 गोपी जोशी- भारत में स्त्री असमानता: एक विमर्श, पृ0 17
6. गीतांजलि श्री- माई, पृ0 21
7. योजना रावत- स्त्री विमर्शवादी उपन्यास, पृ0 54
8. गीतांजलि श्री- माई, पृ0 31
9. गीतांजलि श्री- माई, पृ0 34
10. वही, पृ0 9
11. इला कुमार- समाज संस्कृति और स्त्रियाँ, रवि लेख, जनसत्ता 31 मार्च 2013
12. गीतांजलि श्री- माई, पृ0 51
13. डाॅ0 त्रिलोकनाथ श्रीवास्तव- आधुनिक हिन्दी काव्य, पृ0 25
14. गीतांजलि श्री- माई, पृ0 95
15. योजना रावत- स्त्री विमर्शवादी उपन्यास, पृ0 64
16. सीत मिश्र- तेजाब के फफोले, लेख रवि, जनसत्ता 21 अप्रैल 2013
17 गीतांजलि श्री- तिरोहित, पृ0 72
18. योजना रावत- स्त्री विमर्शवादी उपन्यास, पृ0 62

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