डॉ0 मुकेश चन्द्र श्रीवास्तव
असि०प्रो ०प्रा०इतिहास
जी०वी०पी०जी० कॉलिज, रिसिया, (बहराइच) (उ०प्र०)
प्रस्तुत शोध पत्र में प्राचीन भारत में राज्य एवं उसकी उत्पत्ति पर प्रकाश डाला जायेगा। इस पर विद्धानों के बीच मतभेद की स्थिति है। आधुनिक लेखक राज्य की उत्पत्ति में विकासवाद एवं वैज्ञानिक प्रणाली पर बल देते हंै।
राज्य एक व्यापक अवधारणा है,इसकी उत्पत्ति के बारे में कोई ठोस निष्कर्ष नही प्रस्तुत किया जा सका है। भारतीय इतिहास में सामाजिक एवं राजनीतिक संघटन के बारे में चर्चा तो मिलती है परन्तु उन्होंने किस आधार पर राज्य की स्थापना की, इस बारे में कोई ठोस आधार उपलब्ध नहीं है।इसकी कल्पना मात्र वेदों, पुराणों, धर्मशास्त्रों एवं किवदंतियों के आधार पर की गई है।आधुनिक लेखक वैज्ञानिक प्रणाली एवं विकासवाद के आधार पर अपना मत प्रतिपादित करते है।प्राचीन विचारक राज्य की उत्पत्ति के लिए दैवीय सिद्धान्त पर बल देते है।
महाभारत1 एवं दीघनिकाय2 दोनों राज्य की उत्पत्ति विषयक अवधारणा में साम्यता रखतें हैं। दोनों ग्रंथों का कहना है कि सतयुग में लोग सुख एवं शान्तिपूर्ण ढंग से जीवन यापन करते थे।पश्चिम में भी आदिकाल में स्वर्णयुग की कल्पना की गई है।
प्लेटो एवं कुछ यूनानी विचारकों ने भी सृष्टि के आदिकाल में शान्ति एवं स्वर्णयुग की कल्पना की है।उसके सामने वर्तमान समय के अच्छे-से-अच्छे राज्यों की चमक फीकी है।3 रुसों ने भी स्वर्ण युग की कल्पना की है।
महाभारत में भी शान्ति पर्व मंे राज्यों के उत्पत्ति विषयक चर्चा मिलती है।4 युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा कि राजा की उपाधि का उद्गम क्या है? किस प्रकार समान दैहिक एवं मानसिक स्थ्तिि वाला व्यक्ति कैसे शासन करता है? उपर्युक्त दोनों प्रश्न एक ही सिक्के के दो पहलू है। भीष्म नें उत्तर दिया कि प्रारम्भ में ;कृतयुगद्ध न राजा था एवं न ही कोई प्रशासन, सभी मनुष्य प्रेम से रहते थे। लोग धार्मिक भावना के साथ प्रेम पूर्वक रहते थे न दण्ड था और न दण्ड देने वाला। शनैः-शनैः लोगों में मोह की भावना जाग्रत हो गई। धर्म का नाश हो गया। देवों को आहुतियाॅ मिलना बन्द हो गई और वे ब्रम्हा जी के पास गये।ब्रम्हा जी ने एक महान ग्रन्थ का प्रणयन किया और लोगों के कल्याणार्थ चार मत प्रतिपादित किये और वे ज्ञान के उत्तमांश कहलाये। इसके उपरान्त देवगण विष्णु के पास गये और उन्होंने मनुष्यों में सर्वाेत्तम व्यक्ति को राजा बनाने की प्रार्थना की। विष्णु ने विरजा नामक पुत्र को अपने मन से पैदा किया…………और बाद में ब्रम्हा जी ने मनु को पैदा किया। विरजा के पाॅचवीं पीढी मंे वेन नामक व्यक्ति पैदा हुआ ।उसने धर्म का नाश कर दिया। ऋषियों ने मन्त्र शक्ति से बध कर दिया। विरजा के असफल होने के बाद मनु को आपसी सहमति के आधार पर राजा बनाया।5 लोगों से धार्मिक आचरण के आधार पर मनु ने शासन करना स्वीकार किया।
यूरोप मे भी मध्ययुग में शासन सत्ता को दैवीय माना जाता था। राजा को साक्षात् ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था।् इस्लाम में भी राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि ;नियाबत्-ए-खुदाई माना गया है।
दीघनिकाय का विवरण भी महाभारत से मिलता-जुलता है। बौद्ध दर्शन नास्तिक दर्शन है उन्हें ब्रम्हा द्धारा राजा की उत्पत्ति विषयक मत मान्य नहीं है। परन्तु उनका भी मत साम्यपरक है, कि पहले लोग आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। धीरे-धीरे समाज अधःपतन की ओर अग्रसर हुआ, अन्त में महाजन सम्मत नामक दिव्य एवं अयोनि पुरुष का आविर्भाव हुआ,सब लोगों ने उसे अपना राजा स्वीकार किया। बदले में लागों ने कर देना स्वीकार किया।
जैन ग्रंथकार जिनसेन ने भी इसी प्रकार का मत प्रस्तुत किया है जिसके अनुसार तीर्थंकर ऋषभदेव ने पृथ्वी पर अनुशासन रखने के लिए अधिकारियों एवं राजा की नियुक्ति किया। उन्होनें लोगों के लिए अपने-अपने धन्धे अपनाने पर जोर दिया ।
उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट होता है कि पौराणिक सत्युग की चाहे जो अवस्था रही हो, जहाॅ तक समस्त इतिहासकार यह मानते है कि बिना शासक के कोई भी समाज नहीं चल सकता।6 धर्मशास्त्रकारेंा का भी मत है कि राजा प्रजा का सेवक है तथा प्रजा की आय का 1/6 वाॅ भाग अपने वेतन के रुप में मिलना चाहिए।7
पाश्चात्य विचारधारा जिसके समर्थक हाब्स, लाॅक, रुसों हैं। इस विचारधारा का उदय प्रोटेस्टेंट आन्दोलन के उपरान्त हुआ। हाब्स ने भी भारतीय विचारधारा का अनुसरण करते हुए बताया कि प्रारम्भ में सतयुग था किन्तु बाद में लोग अराजक होते चले गये। बाद में आपसी सहमति के आधार पर राजा बना, परिणाम स्वरुप सत्ता नियंत्रित होने लगी। हाब्स के विचारधारा में महाभारत की कल्पना दिखायी पडती है। महाभारत के अनुसार पहले राज्य बना वह अराजकता के दैार से गुजरा फिर सहमति के आधार पर राजा बना। राजा एवं प्रजा एक-दूसरे में बन्धे दिखायी पडते है। यदि इकरारनामे का दोषी राजा को पाया गया तो प्रजा उसे पद्च्युत कर सकती है। वास्तविक रुप से प्रजा ही राज्य सत्ता की वास्तविक अधिकारी है।
कुछ विचारकों के अनुसार बहुत पुराने काल में लोगों ने स्वेच्छा से कुछ विशेष प्रकार के गुणी व्यक्ति को सत्ता सौंपना स्वीकार किया। इसमें कुछ विशेष गुण थे, जैसे-पुरोहित हां, मन्त्रवेत्ता हो, वैद्य हो, पानी बरसा सकता हो। इस प्रकार अधिकार पा जाने के बाद बल प्रयोग द्धारा अधिकार को कायम रखना कठिन न था।8
आर्यांे में पितृ प्रधान सम्मिलित कुटुंब-पद्धति के बीज से धीरे-धीरे राज्य के विकास का तर्क अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। इन कुटुम्बों में दादा ,पिता ,चाचा ,भतीजे ,लड़के एवं पतोहू थे।9 होमरकाल में 200-200 तथा 300-300 लोग एक परिवार में रहते थे।10
जे एस फिनिग्स ने दैवी अधिकारों के 4 प्रमेंय स्थापित किये।11
1-राज्य दैवी संस्था है इसकी स्थापना में दैवीय हाथ है ।
2-राजत्व पर आनुवंाशिक अधिकार है ।
3-राज्य पूर्णतया स्वतंत्र है वह मात्र परमात्मा के प्रति उत्तरदायी है ।
4-बिना किसी आग्रह के पूर्ण आज्ञाकारिता के साथ राजाज्ञा माननी होगी, ऐसा ईश्वर द्वारा निर्धारित है अर्थात् किसी भी स्थिति में राज्य का विरोध पाप है ।
यूरोप में यह सिद्धान्त 16-17 वीं शताब्दी में भलीभाॅंति प्रचलित था क्योंकि उन दिनों वहां धर्मशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र दोनों एक साथ चल रहे थे ।
अतः हम देखते है कि राजा साक्षात् ईश्वर है, या ईश्वर का प्रतिनिधि ,जो देवांे के समान कार्य करता है । यह स्पष्ट तौर पर मनुस्मृति एवं महाभारत में सर्वत्र दिखायी पड़ता है। दूसरे प्रमेंय में यह कहना है कि राजत्व की प्राप्ति में आनुवांशिकता का नियम लागू होता है । किन्तु कुछ अपवाद भी पाए जाते हैं। जिसके विषय में कहना है कि राजा मनमानी नहीं कर सकता है उसको धर्मानुसार आचरण करना ही है। नवीन नियमांे के निर्माण में उसकी शक्ति सीमित है। यदि वह धर्मानुसार आचरण नहीं करेगा, तो उसे मार डाला जाएगा।12
प्रश्न यह है कि किसे राजा होना चाहिए? इस विषय में कई मत है –
1- मनु ने क्षत्रिय को ही योग्य माना है ।
2- कल्लूक राजा शब्द किसी जाति के व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हो सकता है । जो व्यक्ति प्रजा के रक्षण का कार्य करता है वही राजा है । यही बात अवेष्टि नामक इष्टि के सम्पादन के विषय में कही गई है । धर्मशास्त्र साहित्य में राजा शब्द उसके लिए आया है जो किसी देश पर शासन करता है।13 यही बात अवेष्टि नामक इष्टि के सम्बन्ध में भी लागू होती है । अवेष्टि राजसूय का एक भाग है।14 अवेष्टि के सुसंचालन के लिए ब्राम्हणों, क्षत्रियों एव वैश्यांे की चर्चा हुई है । इसका तात्पर्य यह है कि राजसूय करने वाला उपर्युक्त तीनांे वर्गों में से एक हो सकता है।
बहुत से ब्राम्हण वंशांे का उल्लेख मिलता है। शुंग वंश का संस्थापक ब्राह्मण वर्ग का था।15 कण्व, सातवाहन, वाकाटक, कदम्ब …………..आदि ब्राह्मण वंश थे। वैदिक वाड्मय में आपद्धर्म की चर्चा की गयी है। मनु लिखते है कि वेदज्ञ ब्राह्मण, राजा, सेनापति एवं दण्डाधिपति दोनों हो सकता है।16 जैमनि के व्याख्याकार कुमारिल ने लिखा है कि सभी जाति के लोग शासक हो सकते है।17 शांतिपर्व में आया है कि जो दस्युओं अथवा डाकुओं से रक्षा करते है तो उसे राजा समझना चाहिए। कुछ पुराणों में लिखा है कि कलियुग में शूद्र राजा होंगे। युवान च्वांग ने अपने यात्रा वृतान्त में 7 वीं सदी में सिन्ध में शूद्र राजा का उल्लेख किया है ।
विजय एवं निर्वाचन को छोड़कर राजा का पद आनुवांशिक था और ज्येष्ठ पुत्र को ही सिंहासन मिलता था। शतपथ ब्राह्मण में 10 वीं पीढ़ियों तक चले आ रहे शासन का वर्णन है।18 ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित है कि देवों में इन्द्र को ज्येष्ठ्य पद से अस्वी.त कर दिया था। अतः इन्द्र ने वृहस्पति द्वारा द्वादशाह यज्ञ सम्पादित कराकर अपनी पूर्व स्थिति प्राप्त की।19 निरुक्त में देवापि एव शान्तनु की भी कथा आयी है। शान्तनु छोटे थे उन्हें राजपद दे दिया गया, फलस्वरूप 12 वर्षों तक राज्य में वर्षा नहीं हुई। शान्तनु के पुरोहित बनने के लिए देवापि तैयार हो गए। जल बरसाने के लिए देवापि नें मन्त्र प्रकट किये। ऋग्वेद में ऐसे उदाहरण भरे पड़े है ,अर्थात् निरुक्त का लेखक यास्क बड़े भाई के राजपद न मिलने का विरोध करता है। जब ययाति ने अपने छोटे पुत्र को शासक बनाना चाहा तो ब्राह्मणों ने उसका विरोध किया उन्होंने कहा कि बड़े भाई के रहते छोटे भाई को शासक कैसे बनाया जा सकता है? रामायण के उद्धरण से भी स्पष्ट है कि ज्येष्ठ पुत्र के रहते छोटे पुत्र को शासक नहीं बनाया जा सकता।20
मनु ने लिखा है कि ज्येष्ठ पुत्र की उत्पत्ति से वह पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है। राजधर्म कौस्तुभ में कालिकापुराण एवं रामायण को उद्घृत करके निम्न प्रमेय उद्घोषित किये गये—
1- 11 प्रकार के गौण पुत्रों के स्थान पर औरस पुत्र को प्राथमिकता मिलती है, चाहे वह अवस्था में बड़ा हो अथवा छोटा ।
2- यदि ;अपनी ही जातिद्ध छोटी रानी का पुत्र अवस्था में बड़ी रानी के पुत्र से बडा हो तो उसे प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
3- यदि बडी रानी से जुड़वाँ पुत्र पैदा हो तो पहले जन्मे पुत्र को शासन मिलना चाहिए।
यदि ज्येष्ठ पुत्र अन्धा अथवा पागल हो तो छोटे पुत्र को राजपद मिलना चाहिए। धृतराष्ट्र एव पाण्डु के सम्बन्ध में यह देखा जा सकता है।गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त ने छोटे पुत्र समुद्रगुप्त को युवराज बनाकर शासन सौंप दिया था।21
संक्षेप में कौटिल्य ने कहा कि राजा ही राज्य है लेकिन उन्होंने लुई 14 वें के मैं ही राज्य हूँ के सापेक्ष नही कहा है।22 कौटिल्य ने कहा है कि चूॅकिं राजा ही राज्य के समस्त पदाधिकारियों की नियुक्ति करता है। यदि राजा सम्पत्तिवान एवं शक्तिशाली है तो वह अपनी प्र.तियों को समृद्ध करता है। राजा यदि खरा न उतरे तो उसे मार डालना चाहिए ।
बहुत प्राचीन काल से ही राजाओं को कई श्रेणियों में बॅाटा गया है। ऋग्वेद में कई स्थानों पर राजा शब्द आया है।यह शब्द मित्र एवं वरुण के लिए प्रयुक्त हुआ है।
1-राजा-के अर्थ में। जैसे-राजा इंद्र क्या आप मुझे लोगों का रक्षक बनायेंगे।23
2-भद्र व्यक्ति के अर्थ में। जहाँ पौधे उसी प्रकार साथ आते है,जिस प्रकार भद्र लोग सभा में आते है।24
ऋग्वेद से पता चलता है कि वह चित्र जिसने सहस्र एवं दससहस्र दिए केवल वही राजा है अन्य लोग सरस्वती के तट पर छोटे-छोटे सामन्त मात्र हैं। सम्राट शब्द का उल्लेख इन्द्र एवं वरुण के लिए प्रयुक्त हुआ है।25 साम्राज्य शब्द का भी उल्लेख हुआ है।26 ऋग्वेद में इन्द्र को एकराट् भी कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि एकराट् की कल्पना ऋग्वेद में बहुत पहले की गयी थी । दशराज्ञ युद्ध में इन्द्र एवं वरुण ने राजा सुदास की सहायता की थी । बहुत स्थल पर अनेक राजाओं के नाम आये है। अथर्ववेद में राजा के लिए उग्र शब्द का प्रयोग किया गया है।27 तैतिरीय संहिता में आया है कि मनुष्य राजा द्वारा पालित एवं नियंत्रित होते है।28 इसी संहिता में अधिपत्य एवं जनराज्य शब्दों का वर्णन मिलता है। ये शब्द वाजसनेयी एवं काठक उपनिषद में भी वर्णित है।29 ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित है कि जो कोई अन्य राजाओं पर प्रभुत्व रखना चाहता है,सम्राट पद चाहता है ……….और अभिलाषा करता है कि वह सबसे बड़ा शासक हो तथा उसका शासन समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर एकराट् होना चाहता है उसे शपथ लेने के बाद एन्द्रमहाभिषेकयों से अभिषिक्त होना चाहिये।30 इसे आधिपत्य होने के अर्थ में भोज्य, स्वराज्य, वैराज्य, पारमेष्ठेî शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पन्नता दिखाने के लिए भारी-भरकम उपाधियों का प्रयोग किया गया हो। वैदिक साहित्य में ऐसा स्पष्ट पता चलता है कि यदि ब्राह्मण प्रभुत्व प्राप्त करना चाहे तो बाजपेय का सम्पादन कर सकता है। परमेष्ठी शब्द का प्रयोग दैवी शक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ लगता है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार वृत्र को मारने के पूर्व इन्द्र केवल इन्द्र था ,किन्तु इन्द्र को मारने के उपरान्त वह महेन्द्र हो गया। इस विवेचना से स्पष्ट पता चलता है कि सार्वभौमिक शासक की कल्पना का आरम्भ वैदिक काल से प्रारम्भ हो गया था। ऐतरेय ब्राम्हण में 12 सार्वभौम राजाओं के नाम का पता चलता है। पाणिनि ने सार्वभौम का अर्थ सम्पूर्ण प्रथ्वी का स्वामी बताया है।31
अमरकोश में बताया गया है कि राजा, पार्थिव, क्षमामृत,नृप, भूप तथा महीक्षित एक दूसरे के पर्याय है और इनका अर्थ शासक या राजा जिसके समक्ष सभी सामन्त झुक जाते है। अधीश्वर, चक्रवर्ती आदि शब्द एक दूसरे के पर्याय है। भीरस्वामी का कथन है कि चक्रवर्ती ऐसे राजा को कहा जाता है जो राजाओं के वृत्त पर शासन करता है अथवा राजाओं के मंडल पर शासन करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सार्वभौम शब्द चक्रवर्तिन के उपरान्त ख्याति में आया है किन्तु वह भी अत्यन्त प्राचीन।32 गौतमबुद्ध ने अपने को धर्मराज कहा है और धर्मचक्र चलाने वाला माना है।33 नानाघाट अभिलेख में खारबेल ने अप्रतिहतचक्र (=चक्रस्य ) शब्द आया है। खारबेल की रानी ने उसे कलिंग चक्रवर्ती कहा है।कौटिल्य ने चक्रवर्तिन की अवधारणा को बताया है कि समुद्र से लेकर उत्तर में हिमालय तक एक सीधी पंक्ति में एक सहत्र योजन लम्बी है। कौटिज्य नें ‘’चतुरन्तो राजा‘’ कहा है अर्थात् उसे चारों दिशाओं का स्वामी बताया गया है।34 हर्षचरित में हर्ष को सात चक्रवर्तियों का शासक बताया गया है। छः चक्रवर्ती इस प्रकार है- मान्धाता, धुन्धुमार ,हरिश्चन्द्र ,पुरुरवा ,भरत ,एवं कीर्तिवीर्य। सभापर्व में 5 प्राचीन भारतीय चक्रर्विर्तयों के नाम बताये है- यौवनाश्च (मान्धाता ) ,भगीरथ ,कीर्तिवीर्य ,भरत ,एवं मरुत। चक्रवर्ती पद पाने के लिए राजा आपस में लड़ा करते थे, यदि चक्रवर्तिन का आदर्श न रहा होता तो युद्ध बंद हो गए होते। राजाओं के निर्वाचन के भी उदाहरण भारतीय साहित्य में दिखाई पड़ते है। इसके कई ऐतिहासिक उदाहरण है।–
1- क्षत्रप रुद्रदामन को (130 ।क्) सौराष्ट्र की जनता ने चुना था।
2- बंगाल का पाल शासक गोपाल को चुना गया था।
3- हर्षवर्धन का चुनाव राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद मंत्रिपरिषद् ने किया था।
4- पल्लव शासक परमेश्वरवर्मन ससस की मृत्यु के बाद अराजकता फैल गई ,जिसे समाप्त करने के लिए राजा को चुना गया।
5- राजतरंगिनी में यशस्कार नामक राजा का वर्णन है जो सामान्य व्यक्ति था ,ब्राह्मणों ने उसे राजपद् प्रदान किया था।
डॉ0 अल्तेकर ने राजा के उत्त्तराधिकारी न होने पर आमात्य एवं अन्य उच्च अधिकारी में से किसी को चुन लेते थे।
इस प्रकार स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि राजा एवं राज्य एक-दूसरे के पर्यायवाची है। राज्य का सर्वप्रथम विवरण ब्राह्मण संहिताओं/ग्रंथों में मिलती है, चूँकि वैदिककालीन राजा का निर्वाचन होता था। वह प्रजातान्त्रिक होता था। यदि हम फ्रांस के इतिहास का अवलोकन करें तो लुई 14वाॅ कहता है कि मैं ही राज्य हूँ। राज्य एवं राजा एक-दूसरे के पूरक हैं। राजा का प्रमुख कार्य प्रजा का रंजन करना है। जिसकी उत्पत्ति ‘’रंजयति क्रिया धातु से हुआ है। प्रजा का ध्यान रखना तथा उसे प्रसन्न रखना राजा का दायित्व था। लेकिन प्रजा को आ.ष्ट करने के लिए वह क्या करंे ? इसका उल्लेख नहीं मिलता है। इस प्रकार राजा पूर्णतया स्वेच्छाचारी न था।
सन्दर्भ ग्रन्थ-
1- महाभारत,शान्तिपर्व अध्याय 58
2- दीघनिकाय भाग 3 पृष्ठ 84-96
3- कुछ निरीक्षकों का अनुमान है कि 19 वीं शदी में भी अफ्रीका एवं आस्टृेलिया में ऐसी जंगली जातियाॅ निवास करती थी, जो शासन तन्त्र से अपरिचित होने पर भी पूरे सौहार्द के साथ रहती थी परन्तु सम्भव है कि ये निरीक्षक उनकी भाषा न जानने एवं अधिक देर तक उनके साथ न आने के कारण इन जातियों की वास्तविक स्थिति न जान पायें हों।
4- शान्तिपर्व अध्याय 67
5- अल्तेकर, ए.एस- प्राचीन भारतीय शासन पद्धति पृष्ठ 20,
6- अराजक नाम रट्ठ पालेतु सक्का।
7- षड्भाग मृतो राजा रक्षेत प्रजान।
बौधायन धर्मसूत्र .1.10.6
8- अल्तेकर ए.एस- प्राचीन भारतीय शासन पद्धति पृष्ठ 25
9- अधिकांश यूरोपीय ;प्दकव.म्नतवचमवदद्ध भाषाओं में चाचा,भतीजा,श्वसुर,सास…….आदि एक ही शब्द से निकलें है।
10- प्राथम के 50 बेटे एवं 12 बेटियाॅ थी वे अपनी पत्नी,पति एवं सन्तान के साथ ही घर में प्राथम के साथ रहती थीं।
11- फिनिग्स,जे.एस- द डिवाइन राइटर आॅफ किग्स 1934, पृष्ठ 5-6
12- शुक्रनीतिसारय अनुशासन पर्व में उद्घृत अंश मनु, 7.111-112 नारद-प्रकीर्णक
13- काणें, धर्मशास्त्र का इतिहास
14- राजा राजसूयेन यजेत्।
;राजसूय राजा के द्धारा सम्पादित होना चाहिए।
15- हरिवंश पुराण 3.2.35
16- मनुस्मृति 12.100
17- जैमनी 2.3.3
18- शतपथ ब्राह्मण 12.9.3.11-12
19- ऐतरेय
20- रामायण य अयोध्या काण्ड 2.110.136
21- कालिदास य रघुवंश 18.39
22- कौटिल्य 8.2
23- ऋग्वेद 4.4.1
24- राजानः समिताविव।
25- वही 8.37.3
26- वही 7.83.7-8
27- अथर्ववेद 2.4.1, 6.8.1
28- तैत्तिरीय संहिता 1.8 10.2
29- वाजसनेयी संहिता 9.40 10.18
30- ऐतरेय ब्राह्मण 39.1
31- पाणिनी, 5.1.41-42
32- मैत्री उपनिषद् सामविधान ब्राह्मण 3.5.2
33- मंचपुरी अभिलेख
34- कौटिल्य 9.1