डाॅ0 ऋचा सिंह
प्राचार्या
वी0जी0आई0 दादरी, गौतमबुद्धनगर
भारतीय संविधान का सबसे विवादास्मद लक्षण उसका संघात्मक स्वरूप है। ऐसा संविधान के प्रथम अनुच्छेद से ही विदित हो जाता है, ‘‘जिसमें भारत को ‘राज्यों का संघ’ कहा गया है। कुछ न्यायविद् व राजनीति शास्त्री व टिप्पणीकार इसे संघात्मक (मिकमतंस), कुछ इसे एकात्मक तथा कुछ विचारक मध्यवर्ग का अनुसरण करते हुए अर्द्ध-संघात्मक कहते हैं।’’1 यह इस कारण है कि संविधान के पहले भाग में भारतीय संघ और उसके प्रदेश के बारे में प्रावधान हैं, ग्यारहवें भाग में केन्द्र व राज्यों के विधायी व प्रशासकीय सम्बन्धों तथा बारहवें भाग में केन्द्र व राज्यों के विŸाीय सम्बन्धों का वर्णन है। सातवीं अनुसूची में केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों के वितरण की तीन सूचियाँ हैं। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय है, जो समय-समय पर संविधान की व्याख्या करता है तथा केन्द्र व राज्यों के बीच संवैधानिक विवादों का निपटान करता है। संघीय व्यवस्था से सम्बन्धित प्रावधानों में संशोधन के लिए केन्द्र व राज्यों की भागीदारी सुनिश्चित की गयी है।
विश्व के अनेक देशों में संघीय व्यवस्था प्रचलित हैं, किन्तु हर देश की व्यवस्था की अपनी विचित्रताएँ होती हैं। यह नहीं हो सकता कि कोई देश किसी अन्य देश की संघीय व्यवस्था का अंधानुकरण करे। यही कारण है कि हमारे संविधान-निर्माताओं ने देश की आवश्यकताओं व परिस्थितियों को देखते हुए ऐसी संघीय व्यवस्था अपनायी जिसमें प्रान्तों की अपेक्षा केन्द्र बहुत शक्तिशाली है जैसा कनाडा के प्रतिमान में देखा जा सकता है।
सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों मंे होने वाले परिवर्तनों से संघवाद के पुराने अर्थों में कायाकल्प हुआ है। केन्द्रीय सरकारों की शक्तियों में अधिक अभिवृद्धि हो रही है, जिससे इकाइयों की शक्तियों का पतन होता है। इससे विश्व की हरेक संघात्मक प्रणाली में केन्द्रवाद (बमदजतंसपेउ) की निश्चित प्रवृŸिा उभरने लगी है। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय व क्षेत्रीय सरकारें, यद्यपि काफी हद तक स्वायŸाशासी व सहभागी होती हैं, अब एक ऐसी एकल व्यवस्था का गठन करने लगी है, जिनके भीतर कई उप-व्यवस्थाएँ परस्पर व्याप्त हो जाती हैं। इसी कारण, आधुनिक संघात्मक शासन एकात्मक शासन तथा प्रभुता-सम्पन्न राज्य के शिथिल संघ के बीच कहीं स्थित है। यह परिसंघ नमूने से मूलतः भिन्न है, किन्तु एकात्मक शासन से कुछ मात्रा में भिन्न है। अतः आधुनिक संघात्मक शासन के विकास के परिपे्रक्ष्य में भारतीय संघीय शासन के गतिशील अर्थों और विशिष्ट लक्षणों की विवेचना उपयोगी होगी।
1. संविधान के उपबन्धों द्वारा औपचारिक रूप में स्थापित, भारतीय संघीय व्यवस्था का स्वरूप प्रादेशिक है, अर्थात् यहाँ दोहरे शासन की व्यवस्था है। केन्द्र पर संघ व परिधि पर राज्यों की सरकारें हैं और उन्हें अपने-अपने क्षेत्र में संविधान द्वारा प्रदŸा सम्प्रभु शक्तियों के प्रयोग करने का अधिकार है। 1973 के मौलिक अधिकारों वाले या केशवानन्द भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार संसद संविधान की आधारभूत संरचना नहीं बदल सकती, जिसका एक तत्व संघात्मक व्यवस्था है।
2. भारतीय संघवाद क्षैतिज है जिसका एक सशक्त केन्द्र के प्रति झुकाव है। यद्यपि केन्द्रीय और क्षेत्रीय सरकारों के मध्य शक्तियों का वितरण किया गया है, केन्द्र की स्थिति निःसन्देह शक्तिशाली और शायद सुदृढ़तम् है यदि हम विश्व की अन्य संघात्मक प्रणालियों से अपने संघ की तुलना करें। हमारे राष्ट्रीय हितों को विकसित करने, न कि किसी संघात्मक व्यवस्था को शास्त्रीय धारणा के प्रति निष्ठा व्यक्त करने के लिये ऐसा किया गया है। हमारे संविधान के जनकों ने इतिहास से यह महत्वपूर्ण सबक सीखा कि जब भी केन्द्र कमजोर हुआ, हम तबाह हुए। यही कारण है कि केन्द्र का राज्यों पर अधिक नियन्त्रण इस बात को प्रमाणित करता है कि हमारे यहाँ शक्ति वितरण की मुख्य प्रवृŸिा केन्द्रोन्मुखी है।
3. भारतीय संघ इस रूप में लचीला है कि वह विशेषतया संकटकाल में एकात्मक स्वरूप में सहजता से बदला जा सकता है। इसके लिए किसी संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता नहीं है। राष्ट्रपति की घोषणा मात्र ही देश की स्वतन्त्रता व प्रदेश की अखण्डता को आसन्न खतरे से बचाने के लिए संविधान की संरचना को बदल सकती है। संकटकाल के हटते ही, संघात्मक व्यवस्था पुनः स्थापित हो जाती है। साथ ही, संवैधानिक संशोधन की योजना इस प्रकार बनायी गयी है कि राज्यों की पुष्टी वाली भूमिका केवल संघीय संरचना से सम्बन्धित विषयों तक सीमित है।
4. भारत की संघीय व्यवस्था इस अर्थ में सहकारी है कि वह सामान्य हितों के मामले में केन्द्र व राज्यों से सहयोग की अपेक्षा करती है। यहाँ राज्यों के राज्यपालों व मुख्यमन्त्रियों के नई दिल्ली में होने वाले वार्षिक सम्मेलन, विŸा आयोग, क्षेत्रीय परिषदें, अन्तः राज्य परिषद् की व्यवस्था और राष्ट्रीय विकास परिषद् की स्थापना को उदाहरण के लिए, उद्धृत किया जा सकता है।
5. कभी-कभी केन्द्र पर एक दल के आधिपत्य के कारण संघ का स्वरूप एकात्मक हो जाता है। केन्द्र पर एक विशेष दल का शासन और उसके साथ राज्यों में उस दल द्वारा संचालित सरकारों के साथ उसका सम्बन्ध औपचारिक दृष्टि से संविधान की व्यवस्था के अनुरूप न होकर, उच्च कमान के नेतृत्व के अधीन उसकी भूमिका से निर्धारित होता है। इस दल का सर्वोच्च कमान ही राज्यों में मन्त्रिपरिषद्ों के बनाने या बदलने, राज्यपालों की नियुक्ति या निष्कासन करने, अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत आपातकाल लागू करने या उसे रद्द करने, राज्य की व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन को बनाने या उसका उन्मूलन करने या किसी राज्य के क्षेत्र को किसी अन्य राज्य या विदेशी राज्य को हस्तान्तरित करने आदि के बारे में निर्णय लेता है।
भारतीय संघात्मक व्यवस्था के ये विशिष्ट लक्षण इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि यद्यपि भारतीय संविधान में कहीं भी संघ-राज्य शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है, उसके स्थान पर राज्यों का संघ शब्दों का प्रयोग किया गया है, फिर भी हमारी संवैधानिक व्यवस्था में संघीय संस्थाओं के महत्व की पूर्वकल्पना की गयी है व उनसे यह अपेक्षा की गयी है कि वह ‘राजनीतिक पर्यावरण’ के अनुरूप होगी। अन्य देशों की तरह औपचारिक तौर से संघीय संरचना स्थापित करने के बजाय हमारे यहाँ केन्द्र व राज्यों के बीच सौदेबाजी की अपेक्षा की गयी है, ताकि प्रतिस्पर्धा, संघर्ष और दबाव के स्थान पर अनुभव, सहकारिता और अनुग्रह का अनुपालन हो। हमारी संघीय व्यवस्था केन्द्र व राज्यों के बीच सहयोग पर टिकी है, इसीलिए ग्रनवायल आस्टिन ने इसे सहयोगी संघवाद कहा है, लेकिन मोरिस जोन्स ने इसे लेन-देन युक्त संघवाद कहा है। आस्टिन ने विश्वासपूर्वक यह टिप्पणी की है कि ‘‘केन्द्र का सबल होना राज्यों की सरकारों को निर्बल नहीं बनाएगा, बल्कि केन्द्रीय नीतियों के हेतु उन्हें विशाल प्रान्तीय अभिकरणों का रूप प्रदान करेगा।’’2
संघीय व्यवस्था में शक्तियो का विकेन्दªीकरण और प्रशासन में विभिन्नता का होना आवश्यक माना जाती हैं। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का अरध्येता इस बात से चाकित होता हैं कि केन्द्र की सर्वोपरी सत्ता मे से एकात्मक शासन प्रणाली की गंध आती हैं । हमारे यहाॅ विकेन्दªीकरण के स्थान पर शक्तियो का अधिक केन्दªीकरण देखा जा सकता हैं। राजनीतिक व आर्थिक प्रशासन के महत्वर्पू क्षेत्रो मे विभिन्नता के स्थान पर एकरुपता के अधिक लक्षण विदित होते हैं। परिणामस्वरुप, भारतीय संघीय व्यवस्था को उसके आलोचक एकात्मक प्रणाली का स्वरूप मानते हैं। जिसमें उसकी विपरीत व्यवस्था के कुछ लक्षण मौजूद हैं। केन्द्रीकरण की प्रवृत्तियो के निम्न लक्षण हैं-
1. संघीय सि़द्धान्त के दृष्टिकोण से शक्तियो का विभाजन आत्यधिक अनुचित हैं, जबकि केन्द को संघ सूची के 97 विषयो पर अधिकार हैं साथ ही समवर्ती सूची के 47 विषयों पर उसे अतिव्यापी अधिकार प्राप्त हैं , राज्य सरकारो को राज्य सूची के केवल 66 (वास्तवः61)विषयो पर अधिकार प्राप्त हैं ,
2. केन्दª और राज्यो के बीच राजस्व का इस प्रकार विभाजन किया गया हैं कि राज्यों को सामान्यतः केन्द्र की वितीय सहायता पर निर्भर कर दिया है।
3. किसी राज्य की निरंन्तरता की कोई प्रत्याभूति नही है। केन्द्र देश के मानचित्र को नये सिरे से बदल सकता हैं केन्दª को राज्यों के नामों व सीमाओं में परिवर्तन कराने का अधिकार प्राप्त हैं।
4. संविधन के संशोधन की प्रक्रिया में भी केन्दª की अपेक्षा राज्यांे को बहुत कम अधिकार प्राप्त हैं केवल संघीय व्यवस्था की संरचना से सम्बन्धित प्रावधानों के संशोधन के लिए आधे राज्यो की पुष्टि हैं।
5. संघिय प्रणाली में संसद के द्वितीय सदन में राज्यांे को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता हैं चाहे उनका आकार या जनसख्या कुछ भी हो। लेकिन भारत की राज्यों की जनसंख्या के आधार पर स्थानो की संख्या निर्धारित की गयी है।
6. केन्दªीय सरकार राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश दे सकती हैं। राज्यों की सरकारो के लिए ऐसे निर्देशो का माना अनिवार्य हैं
7. राज्यो का कोई कानून मान्य नही होगा यदि वह संसद द्वारा बनाये कानूनो का उल्लंघन करता है। तथा कोई राज्य अपनी प्रशासकीय शक्तियों का इस प्रकार उपयोग नही करंगे जिससे केन्दªीय प्रशासन मे अवरोध आये।
8. संविधान में अति-केन्दªीकरण की यह भी व्यवस्था हैं कुछ विशेष प्रकार के विधेयक (जिनका उद्देश्य संसद द्वारा किसी वस्तु को आवश्यक घोषित किये जाने के बाद उस पर करारोपण हो, उच्च न्यायालय की शक्तियो को कम करना हो, या केन्दªीय सरकार के कानूनी या नीतियो के विरुद्ध हो) राज्य के विधानमण्डलों से पारित होने के बाद राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित किये जायेंगें।
9. राज्यसभा द्वारा इस आशय का प्रस्ताव पारित किये जाने के बाद कि राज्य सूची के किसी विषय को केन्दªीय सूची या समवर्ती सूची मे स्थानान्तरित करना रास्ट्रीय हित मे होगा , अमुक विषय को विधायन कार्यों के लिए केन्दª अपने हाथ मे ले सकता है। केन्द्र किसी अन्तराष्ट्रीय सन्धि या समझौता को क्रियान्वित करने के लिए भी राज्य सूची के किसी विषय पर कानूनी बना सकता हैं।
10. सबसे बढकर, राष्ट्रपति को आपातकालीन शक्तियां दी गयी हैं जिनका वह युद्ध, बाहरी आक्रमण, देश मे सशस्त्र विद्रोह राज्य की संवैधानिक व्यवस्था के भंग होने व भारत या उसके किसी भाग की वित्तीय स्थिति या साख के गम्भीर खतरे मे पड जाने पर कर सकता हैं राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियां इतनी व्यापक हैं कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का संघीय रुप एकात्मक रुप मे बदला जा सकता हैं इसके अतिरिक्त, उन तत्वो का भी उल्लेख किया जाना चाहिए, जिससे विविधता के स्थान पर एकरुपता के लक्षण विदित होते हैं जो क्रंमशः संघात्मक तथा एकात्मक प्रणालियों के आधरभूत लक्षण माने जाते है। ये अग्रलिखित-
1. भारतीय संघ के किसी राज्य को अपना संविधान बनाने का अधिकार नहीं है। (जम्मू व कश्मीर राज्य के विषय को अनुच्छेद 370 के कारण अपवाद कहा जा सकता है, जो अब खत्म किया जा चुका है)
2. भारत में एकल नागरिकता की व्यवस्था है। संघीय व्यवस्था के बावजूद इकहरी नागरिकता (भारतीय नागरिकता) की व्यवस्था की गयी हैं, ताकि हम ‘एक लोग, एक देश’ के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।
3. देश की वैधानिक संस्थाओं के ढाँचे में भी एकरूपता देखा जा सकती है। देश में दीवानी और फौजदारी कानून व प्रक्रिया की समान संहिताएँ हैं।
4. उच्च सार्वजनिक सेवाओं के क्षेत्र में भी तथाकथित एकरूपता देखी जा सकती है। राष्ट्रपति राज्यपालों को नियुक्त करता है जो ‘केन्द्र के अभिकर्Ÿाा- और राज्य सरकार के ‘संवैधानिक अध्यक्ष’ की भूमिका निभाते हैं। राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है।
5. अन्तिम, एकीकृत न्यायपालिका है जिसके शिखर पर सर्वोच्च न्यायालय है। राज्यों के उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन है। सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश सभी न्यायालयों पर लागू होता है।
इन तथ्यों की लम्बी सूची से यह विदित होता है कि भारत की संघात्मक प्रणाली में एकात्मक प्रणाली के लक्षण विद्यमान हैं। इसी कारण कुछ आलोचक भारत को अर्द्ध-संघात्मक या एकात्मक राज्य कहने का साहस करते हैं। के.सी.व्हीयर के शब्दों में, भारत एक एकात्मक राज्य है, जिसमें संघात्मक राज्य के कुछ सहायक लक्षण हैं, न कि एक संघीय राज्य है जिसमें एकात्मक राज्य के कुछ सहायक लक्षण हों।
उपरोक्त व्यवस्था से यह स्पष्ट होता है कि भारत का संविधान अमेरिका, स्ट्जिरलैंड और आॅस्ट्रेलिया की तरह एक परंपरागत संघीय व्यवस्था से भिन्न संविधान है और इसमें कई एकात्मक या गैर-संघीय विशेषताएं हैं-जैसे केंद्र के पक्ष में शक्ति का संतुलन है। यह संविधान विशेषज्ञों द्वारा भारतीय संविधान के संघीय चरित्र को चुनौती देने के लिए पर्याप्त है। इसलिए के.सी.व्हेयर ने भारतीय संविधान को ‘‘अल्प संघीय’’3 करार दिया है।
के.संथानम के अनुसार, भारतीय संविधान के एकात्मक होने के उŸारदायी दो कारण हैं- (1) विŸाीय मामले में केंद्र का प्रभुत्व एवं राज्यों की केन्द्र पर निभरता और (2) शक्तिशाली योजना आयोग द्वारा राज्य की विकास प्रक्रिया को नियंत्रित करने की व्यवस्था। उनका मानना है कि ‘‘भारत एक तरफ तो एकल व्यवस्थागत देश हैं, फिर भी केन्द्र और राज्य अपना कार्य विधिक और औपचारिक रूप में संघीय रूप में करते हैं’’4
हालांकि अन्य राजनीति शास्त्री उक्त मतों से सहमत नहीं है। पाॅल अप्लेबी कहते है- ‘‘यह पूरी तरह संघीय है।’’5 मोरिस जाॅन्स इसे ‘‘सहमति वाला संघ’ कहते हैं।’’6 आइवर जेनिंग्स कहते हैं-‘‘यह मजबूत केंद्र वाला संघ’’7 है। ग्रेनवाइल आॅस्टीन कहते हैं-‘‘यह सहकारी संघ व्यवस्था है। यद्यपि भारत के संविधान ने मजबूत केंद्र सरकार का निर्माण किया है, इसके राज्यों को भी कमजोर नहीं किया गया है। यह एक नये प्रकार का संघ है जो इसकी खास विशेषताओं को पूरा करता है’’8
भारतीय संविधान की प्रकृति पर संविधान सभा के डाॅ.बी.आर. अंबेडकर महसूस करते हैं- ‘‘संविधान उतना ही संघीय संविधान है जिनती दोहरी राजपद्धति। केंद्र राज्यों का संघ नहीं है जो कमजोर संबंधों से एकीकृत हों! न ही राज्य ‘संघ की एजेंसिया’’9 हैं संघ एंव राज्यों दोनों को संविधान द्वारा बनाया गया है। दोनों की शक्तियां संविधान में निहित हैं।’’ यद्यपि संविधान ने कड़ा संघीय स्वरूप नहीं दिया तथापि यह समय और परिस्थिति के अनुसार एकात्मक और संघीय हो सकता है। केंद्रीकरण की आलोचना का जवाब देते हैं हुए उन्होने कहा, ‘‘एक गंभीर शिकायत यह आई कि बहुत ज्यादा केंद्रीकरण किया गया हैं।’’10 यह स्पष्ट करना जरुरी हैं कि इसको गलत समझा गया है। कंेद्र एवं राज्यों के संबंध के बारे में संबंधांे के समय-निर्देशित
सिद्धांतो को ध्यान में रखा जाना चाहिए। संघीयता का मूल सिद्धंात ही यह है कि केंद्र एवं राज्यों के बीच विभेद वाला कोई कानून बनाया ही नहीं जा सकता। विधायी एवं कार्यपालिका के मामलें में केंद्र एवं राज्य समान हैं। यह देखना मुश्किल है कि संविधान कितना केंद्रोन्मुखी है। इसलिए यह कहना अनुचित है कि राज्य केंद्रों के अधीन कार्य करते हैं। केंद्र अपनी इच्छा से इनकी सीमाओं को बदल नहीं सकता, न ही न्यायिक क्षेत्र को।’’11 बोम्मई मामले (1994) में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि संविधान संघीय है और संघीय यह इसकी ‘मूल विशेषता’ है।’’12
उपर्युक्त विवेचन के बाद यह कहा जा सकता है भारत में केन्द्रीय सरकार को अत्याधिक शक्तिशाली बनाया गया है, परन्तु इससे संविधान के संघात्मक स्वरूप पर कोई आंच नहीं आती है। भारत में इस तत्व ने एक शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया है। भारतीय संघ का संविधान अन्य संविधानों की तरह परिस्थितियों की उपज है और संघवाद के कठोर सिद्धान्त से दूर हटना इसे विश्व के संघीय संविधानों में अनौखा लक्षण प्रदान करता है।
संदर्भ:-
1. डाॅ0 जे.सी. जौहरी; राजनीति विज्ञान; संघीय व्यवस्था एवं केन्द्र-राज्य सम्बन्ध; एस0बी0पी0डी0 पब्लिकेशन्स 2020; आगरा पृ0-148
2. ळतंदअपससम ।नेजपद रू ज्ीम प्दकपंद ब्वदेजपजनजपवदए च्ण्.186
3. के.सी. व्हीयर; फेडरल गवर्नमेंट, 1951 पृ0-28
4. के. शांतनम; यूनियन-स्टेट रिलेशन इन इंडिया, 1960 पीपी. 50-70
5. पाॅल एप्लेबी; पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन इन इंडिया, 1953 पृ0-51
6. मोरिस जोन्स; द गवर्नमेंट एंड पालिटिक्स इन इंडिया, 1960 पृ0-14
7. आइवर जेनिंग्स; सम करैस्टेटिस्टिक आॅफ द इंडियन कांस्टीट्यूशन, 1953 पृ0-1
8. ग्रेनविले आॅस्टीन; द इंडियन कंस्टीट्यूशनल-कार्नरस्टोन आॅफ ए नेशन, आॅक्सफोर्ड 1966, पीपी. 186-188
9. कांस्टीट्यूऐंट असेंबली डिबेट्स, खंड टप्प्प् पृ0-33
10. वही, खंड टप्प् पीपी. 33-34
11. डाॅ.बी.आर. अंबेडकर के संविधान सभा में भाषण ‘द कांस्टीट्यूशन एंड द कांस्टीट्यूएंट असेम्बली’ 25.11.1949 को पुनः प्रस्तुत किया गया, लोकसभा सचिवालय 1990 पृ0-176
12. एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ; 1994