डाॅ0 मोहित मलिक
असि0प्रो0 (राज0शास्त्र)
राजकीय महिला महाविद्यालय, खरखौदा, मेरठ
भारत की राजनीति में यह परम्परा बन गई है कि केन्द्र में जिस राजनीतिक दल की सरकार बनती है, वह शीघ्र-अतिशीघ्र इस प्रयास में लग जाती है कि सभी या अधिकांश राज्यों में भी उसकी सरकार बन जाए। वहाँ निर्वाचन के माध्यम से तथा ‘‘जहाँ विधान सभा का कार्यकाल देर में पूरा होना होता है, वहाँ राष्ट्रपति शासन लगाकर सŸाा परिवर्तन कराने का प्रयास किया जाता है’’1 इस राजनीतिक महत्वाकांक्षा की सदैव राजनीतिक क्षेत्र में बुद्धिजीवियों द्वारा आलोचना की जाती है इसे संविधान द्वारा प्रदŸा संघात्मक व्यवस्था को आघात पहुँचाने वाले कार्य समझा जाता है, इस कार्य को सभी पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दल सŸाा में आते ही करने से अपने आपकों रोक नहीं पाते। यह कार्य राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाकर होता है। राष्ट्रपति शासन संविधान के अनुच्छेद-356 के तहत् लगाया जाता है। यह अनुच्छेद प्रारम्भ से ही विवाद एवं चर्चा का विषय रहा है।
भारत संविधान के ‘‘अनुच्छेद-356 के तहत् भारत की केन्द्र सरकार को किसी भी राज्य की सरकार को भंग करने का अधिकार है,’’2 बशर्तें कि राज्य में संवैधानिक तन्त्र विफल हो गया हो राज्यपाल भी विधान सभा को भंग कर सकते हैं अगर किसी को स्पष्ट बहुत न मिला हो। ऐसी स्थिति में राज्यपाल विधान सभा को 6 महीने के लिए निलम्बित अवस्था में रखते हैं उसके बाद भी अगर स्पष्ट बहुमत न जुट पाए, तो फिर चुनाव कराए जाते हैं इसे राष्ट्रपति शासन भी कहा जाता है, क्योंकि मुख्यमंत्री की जगह भारत के राष्ट्रपति शासन सँभालते हैं और प्रशासनिक सŸाा राज्यपाल के हाथों में होती है।
1970 से 1980 के दौरान राष्ट्रपति शासन का भारतीय राजनीति में अहम् इतिहास था। इस दौरान कई बार संविधान के अनुच्छेद-356 के तहत् विभिन्न राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। इसे बदले का हथियार भी माना जाता रहा है। सन् 1977 में जैसे ही केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार बनी, वैसे ही 3 दिन के अन्दर 8 कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। इसके बाद सन् 1980 में जब इन्दिरा गांधी ने सŸाा की बागडोर सँभाली, तो 3 दिन के अन्दर ही 9 गैर-कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया था।
अगर कोई राज्य संवैधानिक तरीके से अपने दायित्वों को नहीं पूरा कर रहा है तो वहां संविधान सम्मत व्यवस्था बहाली के लिए राष्ट्रपति शासन का प्रावधान है। संविधान सभा में इसे डेड लेटर कहा गया लेकिन बहस में खड़ी हुई आशंकाओं के बाद सभा की यह भावना उभरी कि अव्वल तो इसके इस्तेमाल की नौबत ही नहीं आएगी। अगर आती भी है तो तमाम शक्तियों से निहित राष्ट्रपति अपने जिम्मेदारी भरे कदमों से राज्य में संवैधानिक व्यवस्था बहाल करने में सक्षम होंगे। किसी राज्य में उपजे संवैधानिक संकट को दूर करने का अनुच्छेद 356 एक उपचार था। कालांतर में इसका इस्तेमाल दूसरे दलों की सरकारों को बर्खास्त करके राजनीतिक लाभ लेने में किया जाने लगा। एक दौर तो ऐसा भी आया जब इसे केंद्र का ब्रह्मास्त्र कहा जाने लगा।
संविधान सभा की ड्राफ्टिंग समिति के चेयरमैन डाॅ भीमराव अंबेडकर ने इसे संविधान का ‘डेड लेटर’ कहा। संविधान सभा में हुई बहस के दौरान यह आशंका जताई गई कि राजनीतिक लाभ लेने के लिए इस अनुच्छेद 356 का दुरूपयोग किया जा सकता है। डाॅ अंबेडकर ने कहा, ‘मेरा मानना है कि ऐसे अनुच्छेद का कभी इस्तेमाल नहीं होगा और ये हमेशा डेड लेटर ही बना रहेगा। इन सबके बावजूद अगर कभी इसका इस्तेमाल होता है, तो मेरा विश्वास है कि इसकी तमाम शक्तियों से लेस राष्ट्रपति किसी राज्य के प्रशासन को भंग करने से पहले यशोचित सावधानी बरतेंगे। मेरा मानना है कि अपने पहले कदम के तहत वे संबंधित राज्य को सिर्फ चेतावनी जारी कर कहेंगे कि संविधान में जिस बात का उल्लेख है उस तरीके से वहां काम नहीं हो रहा है। यदि ये चेतावनी विफल रहती है तो दूसरे कदम के तहत वे राज्य में चुनाव कराने का फैसला करेंगे। ऐसा करके वे राज्य के लोगों को अपना मसला खुद हल करने की अनुमति देंगे। इन दोनों आरंभिक उपचारों के विफल रहने के बाद ही वे अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करेंगें।
यदि राष्ट्रपति को किसी राज्य के विषय में राज्यपाल द्वारा या किसी और स्त्रोतों से यह समाधान हो जाता है कि राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा-(क) सरकार के सभी कार्य राज्यपाल को या राज्य के किसी विधानमण्डल के अतिरिक्त निकाय या प्राधिकारी को सौंप सकता है अथवा स्वयं भी अपने हाथ में ले सकता है। (ख) राज्य विधानमण्डल की समस्त शक्तियाँ संसद के अधीन की जा सकती है। (ग)राज्य के किसी प्राधिकारी या निकाय से सम्बन्धित उपबन्धों के प्रवर्तन का पूर्णतः या भागतः निलम्बित करने के लिए राष्ट्रपति उपलब्ध कर सकता है। (घ)इस इस उद्घोषणा का प्रभाव उच्च न्यायालय पर नहीं पड़ेगा। (च)राज्यों में घोषित आपातकाल संसद द्वारा 2 मास के अन्तर्गत अनुमोदित हो जाना चाहिए। (छ)यदि यह उद्घोषणा वापस नहीं ली जाती, तो अनुमोदन के पश्चात यह 6 मास तक लागू रहेगी। (ज)संसद प्रत्येक संकल्प द्वारा एक बार में 6 माह के लिए इसकी अवधि बढ़ा सकती है, किन्तु ऐसी घोषणा किसी भी दशा में 3 वर्ष से अधिक समय के लिए लागू नहीं रहेगी, लेकिन पंजाब के लिए यह 5 वर्ष तक बढ़ा दी गई थी। एक वर्ष से अधिक उद्घोषणा तभी बढ़ायी जा सकती है, जब चुनाव आयोग यह प्रभावित कर दे कि राज्य में अभी चुनाव कराना सम्भव नहीं है। ‘‘42वें संविधान संशोधन में यह अवधि एक बार में 6 माह से बढ़कर एक वर्ष कर दी गयी थी, परन्तु 44वें संविधान संशोधन द्वारा यह अवधि पुनः 6 माह कर दी गयी है। 44वें संविधान के पूर्व राज्य में राष्ट्रपति शासन की अवधि अधिकतम 3 वर्ष तक हो सकती थी लेकिन अब 44वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गयी है कि किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन में एक वर्ष से अधिक समय के लिए वृद्धि का प्रस्ताव संसद के दोनांे सदनों द्वारा तभी किया जा सकता है, जबकि-(1) सम्पूर्ण देश या राज्य के किसी भाग में तत्सम्बन्धी प्रस्ताव पारित करने के समय अनु.352 के अन्तर्गत संकटकाल लागू हो, और (2) निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित कर दे कि राज्य में चुनाव कराना सम्भव नहीं है। किसी भी परिस्थिति में 3 वर्ष से अधिक राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू नहीं रखा जा सकेगा।’’3
अनुच्छेद-356 के अधीन की गई घोषणा के अधीन विधायी शक्तियों का प्रयोग (1)जहाँ यह घोषणा की गई है कि राज्य के विधानमण्डल की शक्तियाँ संसद द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन प्रयोग की जाएगीः- (क) संसद को यह अधिकार होगा कि वह राज्य विधानमण्डल की विधि बनाने की शक्ति राष्ट्रपति को या उसके द्वारा नियुक्त प्राधिकारी को सौंप दें। (ख)संघ या उसके प्राधिकारी को शक्तियाँ सौंपने के लिए विधि बनाने की क्षमता संसद को या राष्ट्रपति को या अन्य प्राधिकारी को जिसमें ऐसी विधि बनाने की शक्ति उपखण्ड (क) के अधीन निहित है, क्षमता होगी। (ग) लोक सभा के सत्र में न होने पर राज्य की संचित निधि से व्यय करने के लिए राष्ट्रपति की क्षमता होगी। (2) राज्य विधानमण्डल की शक्ति का प्रयोग करते समय बनायी गई विधि उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर तब तक लागू रहती है, जब तक कि सक्षम विधानमण्डल या अन्य प्राधिकारी द्वारा उसका परिवर्तन या निरसन या संशोधन नहीं कर दिया जाता।
अगस्त, 1988 में जनता पार्टी से एसआर बोम्मई कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। सितंबर, 1988 में जनता पार्टी और लोकदल ने मिलकर जनता दल बनाया। दो दिन बाद जनता दल से एक विधायक ने पार्टी छोड़ दी। साथ ही अपने साथ 19 अन्य विधायकों के पार्टी छोड़ने संबंधी शपथ-पत्र राज्यपाल के समक्ष पेश किया। 19 अप्रैल, 1989 को राज्यपाल ने सŸााधारी दल के बीच टूट की जानकारी राष्ट्रपति को दी। अपनी सूचना में राज्यपाल ने लिखा कि विधायकों के अलग होने के बाद सरकार अल्पमत में है। लिहाजा अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करके राज्य में संवैधानिक स्थिति बहाल की जाए। दूसरे ही दिन बागी विधायकों में से सात ने राज्यपाल को पत्र भेजकर बताया कि सरकार में उनका विश्वास बरकरार है। मुख्यमंत्री और कानून मंत्री ने राज्यपाल को सभी घटनाओं से अवगत कराया और शक्ति परीक्षण कराने की मांग की। उन्होेंने राष्ट्रपति को भी इस आशय का एक टेलेक्स भेजा। हालांकि राज्यपाल ने 20 अप्रैल को ही दूसरी रिपोर्ट भेजकर राष्ट्रपति से अनुच्छेद 356 लगाने की सिफारिश की। राष्ट्रपति ने उसी दिन सिफारिश मंजूर कर ली।
अनुच्छेद-356 को क्रियान्वयन करने की प्रक्रिया एवं उदद्ेश्य को लेकर उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों में अनेक बार निर्णय हुए हैं एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय में राष्ट्रपति शासन लागू करने के महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिए हैं, जो इस प्रकार हैंः-
1. अनुच्छेद-356 के अधीन किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करना तथा विधान सभा भंग करना असीमित अधिकार नहीं है यह सशर्त है तथा इसका न्यायिक पुनर्विलोकन हो सकता है। 2. राज्य में राष्ट्रपति शासन सम्बन्धित राज्य के राज्यपाल की लिखित रिपोर्ट के बिना लागू नहीं किया जा सकता। 3. ‘पथ निरपेक्षता’ संविधान का आधारभूत ढाँचा है अतः किसी राज्य द्वारा इसके उल्लंघन पर अनुच्छेद-356 का प्रयोग किया जा सकता है। 4. नई राजनीतिक पार्टी द्वारा केन्द्र में सŸाारूढ़ होने पर विपक्ष द्वारा शासित सभी राज्य सरकारों को एक साथ अपदस्थ नहीं किया जा सकता। 5. यदि राष्ट्रपति शासन केवल राजनीतिक उद्देश्य से लगाया जाता है, तो न्यायालय विधान सभा को पुनर्जीवित कर सकता है। 6. राष्ट्रपति शासन लागू करना एवं विधान सभा को भंग करना एक साथ नहीं किया जा सकता। 7. विधान सभा तभी भंग की जा सकती है, जब संसद राष्ट्रपति शासन का अनुमोदन कर देती है, तब तक विधान सभा को निलम्बित किया जा सकता है। 8. जिस सामग्री को मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए संस्तुति करते समय राष्ट्रपति को प्रेषित करती है, उसे न्यायालय देख सकता है।
1984 में एनटी रामाराव के नेतृत्व वाली आंध्र प्रदेश की टीडीपी सरकार बर्खास्त कर दी गई। केंद्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ वे दिल्ली पहुंचे। उन्होंने राष्ट्रपति के सामने 295 सदस्यों वाली विधानसभा के 161 विधायकों की परेड कराई। 2005 के चुनाव नतीजों ने बिहार विधानसभा की त्रिशंकु स्थिति कर दी। खरीद-फरोख्त पर तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग की सिफारिश की। माॅस्को गए तत्कालीन राष्ट्रपति कलाम को केंद्रीय कैबिनेट द्वारा फैक्स भेजा गया। 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने बूटा सिंह के प्रति तल्ख टिप्पणी की। कोर्ट ने उनके कदम को किसी खास राजनीतिक दल को सŸाा में आने से रोकने वाला बताया और कहा कि उन्होंने अपने गरिमा के विपरीत केंद्र को भ्रमित किया। इस फैसले के बाद बूटा सिंह ने पद से त्याग पत्र दे दिया।
अब तक देश के लोकतांत्रिक इतिहास में अनुच्छेद 356 के इस्तेमाल से 132 से अधिक बार चुनी गई सरकारों को बर्खास्त या निलंबित करके राष्ट्रपति शासन लगाया गया। इनमें से कुछ सरकारें तो ऐसी भी रहीं जिन्हें बहुमत प्राप्त था। लेकिन सियासी दांवपेंच के तहत इनकी विधानसभाओं को निलंबित करके पसंदीदा धड़े की सरकार बनाने के लिए उन्हें आंकड़ा जुटाने लायक समय मुहैया कराया गया। एक दौर तो ऐसा भी आया जब अनुच्छेद 356 को केंद्र सरकार का विरोधियों के लिए अचूक हथियार माना जाने लगा।
अतः ‘‘शासन जनहित और देशहिते की भावना से चलाया जाना चाहिए। क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति का इसे हथियार नहीं बनाया जाना चाहिए।’’4 इसके साथ ही संविधान के ‘‘अनुच्छेद 356 के संदर्भ ‘जब राज्य की सरकार संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप काम नहीं कर रही हो’ की स्पष्ट व्याख्या के लिए संविधान में संशोधन होना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर इसी तरह इस अनुच्छेद की भिन्न अर्थों में व्याख्या होती रहेगी।’’5 हमारे संविधान निर्माताओं की परिकल्पना में राज्पाल वह पद था, ‘‘जिसके पास शक्ति नहीं प्रभाव होगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के मुताबिक भी राज्यपाल को ऐसे आदमी के तौर पर देखा गया जो सब पर नैतिक प्रभाव डाले।’’6 भारतीय लोकतंत्र में करीब सवा सौ से अधिक बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है। ‘‘इनमें कई मौकों पर राज्यपाल ऐसे पेश आए हैं जैसे कि उन पर न कोई कानून लागू होता है और न ही सिद्धांत।’’7 केन्द्र सरकारों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों और विधान सभा अध्यक्षों के साथ विधायकों ने ‘‘क्या-क्या कलाकारी दिखाई है और किस-किस मर्यादा का उल्लंघन किया है, यह सब जाना हुआ किस्सा है’’8 और हर दल के लोग इसमें शामिल हैं अनुच्छेद-356 का इस्तेमाल रूके, ‘‘इसके लिए राजनीतिक दलों को राजनीतिक सुधारों की दिशा में बढ़ना होगा।’’9 इसमें सबके लिए सबक है कि ‘‘मर्यादाओं का उल्लंघन जायज नहीं है क्योंकि यह होता रहा तो लोगों का संसदीय और संघीय व्यवस्था में आस्था डिगने लग सकती है।’’10
राज्य और केंद्र के बीच शक्ति संतुलन के संबंधो की पड़ताल पर सरकारिया आयोग गठित किया गया। 27 अक्टूबर, 1987 को इसने अपनी सिफारिशें सौंपी। राज्यपाल की नियुक्ति, भूमिका को लेकर इसने अपनी सिफारिशों में कई अहम बातें कहीं। राष्ट्रपति शासन के बारे में आयोग ने कहा कि यह तभी इस्तेमाल किया जाए जब सारे विकल्प खत्म हो जाएं। अंतिम विकल्प के रूप में इसका इस्तेमाल हो।
सभी दिशा-निर्देशों के पश्चात् भी अनेक बार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया है और कभी-कभी इनका उल्लंघन भी हुआ है।
संदर्भ:-
1. बी.एस. रावत ‘चंचल’ प्रतियोगिता दर्पण; क्या है अनुच्छेद-356; जून/2016/103;
2. अनुच्छेद 356; दैनिक जागरण; 3 अप्रैल 2016
3. डाॅ. एसी.सी. सिंहल; भारतीय शासन एवं राजनीति; लक्ष्मी नारायण; आगरा; 2016-17; पृष्ठ 78 तथा देंखें सुषमा गर्ग; राजनीति विज्ञान; अग्रवाल पब्लिकेशनस; आगरा; 2013; पृष्ठ 162, तथा डाॅ. बी.एल.फड़िया, भारतीय राजव्यवस्था एवं भारत का संविधान; प्रतियोगिता साहित्य सिरीज; साहित्य भवन आगरा; 2010; पृष्ठ डी-66-67
4. सुभाष कश्यप (संविधान विशेषज्ञ); बतौर आखिरी विकल्प हो प्रयोग; दैनिक जागरण; नई दिल्ली; 3 अप्रैल 2016
5. योगेन्द्र नारायण (पूर्व महासचिव राज्यसभा); संघीय संरचना का कमजोर चरित्र; दैनिक जागरण; नई दिल्ली; 3 अप्रैल 2016
6. योगेन्द्र नारायण (पूर्व महासचिव राज्यसभा); कानून से ऊपर नहीं राज्यपाल; दैनिक जागरण; नई दिल्ली; 17 जुलाई, 2016
7. आश नारायण राय (डायरेक्टर, इंस्टीटयूट आॅफ सोशल साइंसेज, दिल्ली); अनुपयोगी शीर्ष पद; दैनिक जागरण; नई दिल्ली; 17 जुलाई, 2016
8. अरविंद मोहन; पूर्ण विराम से प्रारंभ; (उŸाराखंड); राष्ट्रीय सहारा; नई दिल्ली; 11 मई 2016
9. संजय गुप्त; सवालों में घिरा अधिकार; दैनिक जागरण; नई दिल्ली; 17 जुलाई, 2016
10. लोकतंत्र का सबक; (सम्पादकीय); राष्ट्रीय सहारा; नई दिल्ली; 11 मई 2016 तथा देंखें उŸाराखंड में खंड-खंड मर्यादा; (सम्पादकीय); पंजाब केसरी; दिल्ली; 09 मई, 2016