ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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भारत में तकनीकी परिवर्तन का ग्रामीण महिलाओं पर प्रभाव

मनोज कुमार सिंह
बहराइच
  वर्तमान समय विज्ञान और तकनीकी का समय है। आज प्रौद्योगिकी के बिना जीवन की कल्पना करना मुश्किल लगता है। यहां तक की विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने हमारी सांस्कृति में अपनी जगह बना ली है। सामान्यतः तकनीकी विकास ऐसे परिवर्तनों का समुच्चय है जिनसे किसी कार्य के होने के तौर-तरीकों में बदलाव आता है। ऐसे परिवर्तन, जो मानव जीवन को व्यापक तौर पर प्रभावित करते हैं; मानव के सामाजिक संबंधों से सीधे तौर पर जुड़े होते हैं। इस प्रकार कोई तकनीकी खोज मानवीय मूल्यों व दृष्टिकोण को बदलने की क्षमता रखती है। जैसे यदि कोई तकनीकी परिवर्तन उत्पादन को प्रभावित करता है तो वह इस कारण से नए रोजगार सृजन, नवीन व्यापार, नवीन बाजारीकरण, मानव के सामाजिक जीवन को भी प्रभावित करता है। तकनीकी परिवर्तन के सकारात्मक, नकारात्मक व मिश्रित प्रभाव हर क्षेत्र में देखने को मिल रहे हैं। इन परिवर्तनों ने सरकार के स्वरूप में भी काफी बदलाव किए हैं। इन परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने भी विभिन्न मंत्रालयों व विभागों की स्थापना की है। ग्रामीण समाज जो कि वर्तमान समय में भी कृषि पर ही निर्भर है, के सामाजिक तानेबाने को भी तकनीकी परिवर्तन व्यापक रूप से प्रभावित कर रहे हैं।
ग्रामीण महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में भारत के ग्रामीण परिवेश का संक्षिप्त विवरणः
    भारत का लैंगिक समानता के मामले में प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। ‘‘वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक 2022 में कुल 146 देशों में भारत 135वें स्थान पर है और ‘स्वास्थ्य और उत्तरजीविता’ उप-सूचकांक में दुनिया का सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला देश है जहां इसे 146वां स्थान मिला है।’’(1) इस संदर्भ में ग्रामीण महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में महिलाओं की अधीनता वर्तमान समय में भी बहुआयामी है। ग्रामीण भारत में यह अधीनता भू-स्वामित्व, उत्पादन के साधनों में भागीदारी, आर्थिक स्वावलंबन में भूमिका, परिवार के मुखिया जोकि सामान्यतः घर का उम्र में सबसे बड़ा पुरुष ही होता है या उसके न होने पर सबसे बड़ा पुत्र होता है, सामाजिक रीति-रिवाज, अंधविश्वास आदि पर टिकी हुई है। तेजी से बदल रहे समय के सापेक्ष ग्रामीण भारत वर्तमान समय में भी बहुत धीमें सामाजिक बदलाव से गुजर रहा है। आज भी ग्रामीण परिवेश का सामाजिक ताना-बाना लिंग आधारित पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के दौर से पूरी तरह से बाहर नहीं निकल पाया है। भूस्वामित्व, पारिवारिक रणनीति और कृषि क्षेत्र में उत्पादन की विधियों में हो रहा बदलाव ग्रामीण महिला द्वारा उसके परिवार दिए जा रहे योगदान को बहुत प्रभावित करता है। एक ग्रामीण परिवार में सदैव ही एक महिला की स्थिति बेहद संवेदनशील बनी रहती है और सूक्ष्म परिवर्तन भी उसकी स्थिति को प्रभावित करते हैं। जेंडर आधारित श्रम विभाजन में महिला पति व परिवार के अन्य सदस्यों की देखभाल, भोजन पकाना, बर्तन साफ करना, घर की साफ-सफाई करना, बच्चों की देखभाल करना आदि बेहद महत्वपूर्ण परंतु गैर आर्थिक व पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण से कम महत्व के काम ही करती है। ग्रामीण परिवेश में तकनीकी परिवर्तन को समझने की दृष्टि से पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखने की विशेष आवश्यकता है।
   तकनीकी परिवर्तन का कृषि क्षेत्र पर प्रभाव एवं कृषि से जुड़ी ग्रामीण महिलाओं की स्थिति (आर्थिक, सामाजिक व स्वास्थ्य परिप्रेक्ष्य में)ः
   वर्तमान समय में भी भारत में ’’ग्रामीण समुदायों में कृषि और इससे संबद्ध क्षेत्र ही आर्थिक रूप से सक्रिय 80 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं की आजीविका का मुख्य साधन हैं। इनमें से 33 प्रतिशत महिलाएं खेतिहर मजदूर हैं, जबकि 48 प्रतिशत की खुद की खेती है। महिलाएं बड़े पैमाने पर कृषि संबधी गतिविधियों से जुड़ी हैं। उदाहरण के लिए, प्रमुख फसलों के उत्पादन, बुआई, गोबर की खाद बनाने, खाद/कीटनाशकों के इस्तेमाल, बीज के चुनाव, आरोपण, थ्रेशिंग, ओसाई आदि में महिलाओं की भूमिका अहम है। ये महिलाएं पशुओं की देखभाल, दूध उत्पादन, मछली पालन, भोजन पकाने के लिए ईंधन यथा लकड़ियां, सूखे घास-फूस इकठ्ठा करने आदि कार्यों में भी सक्रिय हैं। हालांकि, ग्रामीण महिलाओं को इन गतिविधियों में कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और इस वजह से उनकी उत्पादन क्षमता पर भी असर पड़ता है। इन महिलाओं के पास आमतौर पर शिक्षा और कौशल का अभाव होता है और औसत मजदूरी के मामले में भी उन्हें असमानता झेलनी पड़ती है।’’(2) स्पष्ट है कि वर्तमान समय में भी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की आजीविका का प्रमुख साधन कृषि पर ही है। किसी परिवर्तन का प्रभाव उससे संबंधित लोगों पर पड़ता ही है। कृषि पर ग्रामीण महिलाओं की अतिनिर्भरता की वजह से कृषि क्षेत्र में तकनीकी परिवर्तन का गहरा प्रभाव ग्रामीण महिलाओं के आर्थिक, सामाजिक व उनके स्वास्थ्य पर भी पड़ना लाजिमी है।
  सन् 1967-68 भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण वर्ष रहा। इससे पहले अपनी उद्योग केंद्रित नीति में तकनीकी विकास में तो आगे तरक्की की परंतु कृषि व ग्रामीण विकास को विशेष प्राथमिकता न देने की वजह से भारत सूखे, अकाल, दुर्भिक्ष के दौर के कारण विशेषकर महिलाओं और बच्चों में कुपोषण, भुखमरी, अनाज की कमी, अनाज आयात पर अतिनिर्भरता आदि जैसी समस्याओं से जूझता रहा। इसके कारण विदेशी मुद्रा भंडार सदैव दबाव में रहता, अनाज के साथ कुछ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक विदेशी खरपतवार भी भारत आईं, जो आज भी फसलों के उत्पादन व सभी जीवों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। इन सभी कारणों से भारत में उद्योगों के विकास का कोई विशेष लाभ भारतीय जनता को नहीं मिल पाया। इस कारण देश के नीति निर्धारकों को अपनी नीतियों में परिवर्तन की आवश्यकता महसूस हुयी। वे समझ चुके थे कि खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बने बिना देश के विकास को गति प्रदान नहीं की जा सकती है। इस कारण ही तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66) में कृषि क्षेत्र में विकास को प्राथमिकता दी गई और भारत को खाद्यान्न उत्पादन में स्वावलंबी बनाने का स्वप्न देखा गया। इस सपने को साकार करने के लिए कृषि क्षेत्र में विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं अनुसंधान के प्रयोग का रास्ता चुना गया। डॉ एम एस स्वामीनाथन और डॉ नाॅर्मन बोर्लाेग ने इसमें बहुमूल्य योगदान दिया। कृषि में वैज्ञानिक अनुसंधान व प्रौद्योगिकी के प्रयोग का परिणाम यह हुआ कि भारत के खाद्यान्न उत्पादन में रिकार्ड वृद्धि हुयी। इस प्रकार भारत ने ’’हरित क्रांति’’ के दौर में प्रवेश किया। हरित क्रांति तो शुरूआत भर थी। समय के साथ-साथ भारत ने तकनीकी परिवर्तनों के कारण कृषि क्षेत्र में उत्तरोत्तर प्रगति की और यह प्रगति आज वर्तमान समय में जारी है।
जिस विज्ञान, तकनीकी व प्रौद्योगिकी का स्वाद उद्योग जगत आज़ादी से पहले से ही चखता आ रहा था। उस विज्ञान, तकनीकी और प्रौद्योगिकी का स्वाद व्यापक तौर पर ग्रामीण भारत ने हरित क्रांति के माध्यम से चखा। हरित क्रांति के परिणामस्वरूप भारत खाद्यान्न उत्पादन में आयातक से निर्यातक बन चुका है। हरित क्रांति के बाद श्वेत क्रांति व नीली क्रांति ने दुग्ध व मत्स्य उत्पादन में भारत को सबल बनाने का काम किया है। अब बागवानी और कृषि वानिकी पर भी विशेष ध्यान दिया जा रहा है।
हर क्रांति की सफलता की कुछ पूर्व शर्तें होती हैं। जाहिर है कि भारत में भी हरित क्रांति की सफलता की कुछ पूर्व शर्तें थीं। जैसे भूमि सुधार, कृषि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित उच्च किस्म के बीजों का प्रयोग, मानव निर्मित रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग, फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों व खरपतवारों को नष्ट करने के लिए कीटनाशकों व खरपतवार नाशकों का प्रयोग, कृषि क्षेत्र में मशीनों का प्रयोग, कृषकों के लिए ऋण की उपलब्धता, ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे का विकास, सिंचाई के लिए मशीनों का उपयोग, .षि विकास व अनुसंधान के लिए कृषि विश्वविद्यालयों व अनुसंधान केंद्रों की स्थापना। ग्रामीण क्षेत्र के विकास में हरित, श्वेत, नीली इत्यादि क्रातियों का एक पहलू ये है कि तकनीकी प्रयोग ने भारत की खाद्यान्न निर्यात पर निर्भरता को कम करके भारत को सबल राष्ट्र बनने में अहम भूमिका निभाई है। वहीं दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में तकनीकी प्रयोग से भूमिहीन मजदूर, विस्थापित मजदूर, गरीबी, बेरोजगारी, पलायन, पर्यावरण व जैव विविधता संकट, स्वास्थ्य संकट तथा गैर कामकाजी महिलाओं की संख्या को बढ़ावा दिया है। इसकी दोहरी मार भूमिहीन अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की महिलाओं पर पड़ी है। जहां हरित क्रांति से पहले खेती में मानव संसाधन के रूप में महिलाओं, भूमिहीन किसानों व पशुओं को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वहीं हरित क्रांति के बाद खेती में मशीनों के प्रयोग ने ग्रामीण महिलाओं, खेतिहर गरीब मजदूरों एवं पशुओं को एक झटके में ही महत्वपूर्ण से गौण बना दिया। इससे पहले एक निर्धन परिवार में महिलाएं अपने परिवार के भरण-पोषण और जीवनयापन के लिए पारिवारिक आय में अपना अहम योगदान दे रही थीं। तकनीकी परिवर्तन के कारण यानि कृषि क्षेत्र में मशीनीकरण के कारण ग्रामीण महिलाओं की आय के साधन कम हो जाने से उनकी परिवार निर्वहन की क्षमता पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। हम इस तथ्य को अधिक प्रभावी ढंग से समझने के लिए गांवों में कृषि में जुताई, खेतों में मेंढ़ डालने, अनाज की थ्रेसिंग करने, अनाज ढुलाई में प्रयोग होने वाले जानवरों यथा बैल, भैंसा, घोड़ा, गधा आदि और जानवरों की मदद से चलने वाली बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, भैंसागाड़ी, कोल्हू, रेहट आदि के खत्म होते या न के बराबर चलन से समझ सकते हैं। जहां कृषि मशीनीकरण से पहले बैलों व भैंसों का विशेष महत्व था और वे पशुधन के रूप में भी महत्वपूर्ण थे। ग्रामीण उन्हें बेचकर नकदी प्राप्त कर सकते थे। इसके साथ ही ये पशु ग्रामीण परिवेश में बेहद सम्मानित, प्रिय व परिवार के सदस्य की भांति रखे जाते थे। कृषि मशीनीकरण के बाद बैल व भैंसे पशुधन नहीं रहे और न ही उनका कोई आर्थिक लाभ रहा। उनके हिस्से के सभी काम मशीनों ने छीन लिए। इसी कारण गांवों में बैल व भैंसे के प्रति सम्मान, स्नेह और परिवार के सदस्य की तरह से उनका पालन पोषण सबकुछ छिन गया। वे हाशिए पर चले गए। आज वर्तमान समय में बैल व भैंसे लगभग विलुप्त ही हो चुके हैं। हम देखते हैं कि गांवों में हजारों वर्षों से कृषि कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बैल व भैंसे जैसे जानवर कोई पचास- साठ वर्ष में ही हाशियाकरण के कारण विलुप्ति के कगार पर खड़े हैं। उन्हें घरेलू पशु के रूप में पालना न्यून ही पसंद करते हैं। जहां थोड़ी ज्यादा संख्या में ये बचे हैं। वहां ये कृषकों के लिए समस्या बन गए हैं। अब बैलों व भैंसों को जंगली व आवारा पशु कहा जाता है। ये सब हैरान व दुखद करने वाला है। विडंबना ये है कि कभी इसपर कोई व्यापक विचार विमर्श ही नहीं हुआ। हम देखते हैं कि किस तरह ग्रामीण क्षेत्रों में तकनीकी परिवर्तनों ने पशुओं की दशा पर बेहद नकारात्मक प्रभाव डाला। हालांकि पर व्यापक प्रकाश डालने की आवश्यकता है परंतु यहां इसकी अधिक चर्चा करने से हमारा मूल विषय धूमिल होने की संभावना है। अपने मूल विषय के संबंध में हमें इससे यह समझने में मदद मिलती है कि तकनीकी परिवर्तन किस हद तक किसी को भी सकारात्मक, नकारात्मक या फिर दोनों तरह से प्रभावित कर सकते हैं?
  कृषि में तकनीकी परिवर्तन से पहले भूस्वामी होना एक सामान्य बात थी परंतु कृषि में मशीनों का प्रयोग होने से बड़ी जोत के किसान पुरुष भूस्वामियों का आर्थिक पक्ष मजबूत होने के कारण लाभ की कृषि जेंडर आधारित विभेदीकरण में अपनी भूमिका निभाने लगी। इसने बड़ी जोत के पुरुष भूस्वामियों के वर्चस्व को एकाएक बढ़ा दिया। बड़ी जोत के पुरुष भूस्वामी अपने परिवार की महिलाओं से कोई भी कृषि कार्य कराना अपनी शान के खिलाफ समझने लगे। जहां तकनीकी परिवर्तन से पहले सभी कृषि कार्य एक समान समझे जाते थे , वहीं तकनीकी परिवर्तन के बाद कृषि कार्यों में भी लैंगिक व सामाजिक विभेद किया जाने लगा। इस कारण जहां एक ओर लैंगिक असमानता को बढ़ावा मिला। वहीं दूसरी ओर जातिगत भेदभाव को भी मजबूती मिली।  तकनीकी परिवर्तन यानि कृषि मशीनीकरण से ग्रामीण क्षेत्रों की भूमिहीन महिला किसान जिनमें सबसे अधिक संख्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की है; सबसे अधिक प्रभावित हुयी। तकनीकी परिवर्तनों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं पर बेहद नकारात्मक प्रभावित हुयी हैं। कृषि मशीनीकरण के बाद निम्न दर्जे के समझे जाने वाले कृषि कार्य जैसे- जमीनों की सफाई, फसलों की नराई-गुड़ाई, अनाज की ढुलाई, गन्ना छिलाई, दुधारू पशुओं के लिए चारा कटाई, भूसे की ढुलाई या निस्तारण आदि श्रमसाध्य, निम्न दर्जे के समझे जाने वाले एवं कम आय वाले कार्य भूमिहीन महिलाओं विशेषकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के हिस्से मे़ शेष रह गए। इस कारण से भूमिहीन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की स्थिति आर्थिक व सामाजिक दोनों ही रूप से कमजोर हुयी।
भारत के ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों में जहां तकनीकी परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा, वहां कृषि कार्यों में महिला भागीदारी में भी गिरावट आयी। तकनीकी परिवर्तन ने ग्रामीण महिलाओं के खाली समय में वृद्धि कर दी और साथ ही महिलाओं को आर्थिक रूप से कमजोर कर उनकी आर्थिक व सामाजिक जीवन में महत्ता को घटा दिया। इसके साथ ही कृषि में तकनीकी परिवर्तन से छोटी जोत के महिला व पुरुष भूस्वामियों पर कोई विशेष सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा। मशीनों के उच्च दाम उनकी पहुंच से बाहर रहे हैं इस कारण उनके उत्पादन में वृद्धि के साथ लागत में भी बहुत वृद्धि हुयी। हालांकि सरकारों ग्रामीण महिलाओं के लिए वित्त की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए गंभीर प्रयास किए हैं परंतु इनसे अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आए हैं।
  ग्रामीण महिलाओं के लिए तकनीकी ने नई समस्याओं को जन्म दिया है। जेंडर व जातिगत विभेदीकरण के कारण कृषि में मानव संसाधन के तौर पर ग्रामीण महिलाओं की उपयोगिता व महत्व बेहद घट गया है।  गांव में रहने वाली भूमिहीन महिला मजदूरों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की स्थिति, छोटी जोत वाले कृषकों की स्थिति को तकनीकी प्रयोग ने नकारात्मक रूप से प्रभावित किया। जब मानव संसाधन की जगह तकनीकी यानि मशीनों ने ली तो इनके प्रयोग से सृजित रोजगार के बहुत कम अवसर उपलब्ध हुए। ग्रामीण महिलाओं विशेषकर भूमिहीन अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की महिला मजदूर किसानों व छोटी जोत वाले किसानों के लिए ये अपेक्षा.त मंहगे उपकरण खरीदना दिवास्वप्न जैसी बात है और उन्हें चलाना तो सपना ही है। पितृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था के कारण जनित समस्याओं के कारण महिलाएं स्वयं की खेती के लिए या फिर खेती में मशीनीकरण के प्रयोग से सृजित हुए सीमित नवीन रोजगारों यथा ट्रैक्टर से जुताई, बुवाई, खाद डालना, समतलीकरण, ट्रैक्टर ट्राली की मदद से माल ढुलाई, फसलों की कटाई के लिए प्रयोग होने वाले थ्रेसर इत्यादि के लिए अयोग्य थीं। आज वर्तमान में भी कमोबेश यही स्थिति बनी हुई है। सरकारी आंकड़ों के इस बात की ओर स्पष्ट संकेत देते हैं। कृषि में मशीनों को चलाने के काम में पुरुषों का एकाधिकार है। ‘‘टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक भारत में 2014 में 21 राज्यों में केवल 4 प्रतिशत महिला ड्राइवर पंजीकृत थीं। उपलब्ध ड्राइविंग लाइसेंस के आंकड़े बताते हैं कि भारत में ऑटोमोबाइल ड्राइविंग गतिविधि मुख्यतः पुरुष गतिविधि है।’’ (3) ‘‘2015-16 में ये आंकड़ा 11 प्रतिशत हो गया।’’ (4) ‘‘परिवहन मंत्रालय (एमओआरटीएच) की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 31-09-2019 तक कुल ड्राइविंग लाइसेंस में केवल 6.76 प्रतिशत महिला ड्राइविंग लाइसेंस हैं।’’ (5) यह ध्यान देने योग्य है कि उपरोक्त आंकड़े संपूर्ण भारत की स्थिति को प्रदर्शित कर रहे हैं। ग्रामीण भारत में महिलाओं की स्थिति का तो बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है। परंतु उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण महिलाओं की वास्तविक स्थिति का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। ‘‘केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (डवैच्प्) के अनुसार, भारत में महिलाओं के लिए श्रम शक्ति भागीदारी दर (स्थ्च्त्) शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में 2020-21 में केवल 25.1 प्रतिशत था। साथ ही विश्व बैंक के नवीनतम अनुमानों के अनुसार, भारत में श्रम शक्ति भागीदारी दर ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका की तुलना में काफी कम है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि साल 2021 में दक्षिण अफ्रीका में महिलाओं के लिए एलएफपीआर 46 फीसदी था।’’ (6)
‘‘ऑक्सफैम इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि भारत में महिलाओं के लिए एलएफपीआर 2004-05 में 42.7 प्रतिशत था जो कि 2021 में मात्र 25.1 प्रतिशत रह गया है। ये आंकड़े इस समयावधि में तेजी से हुए आर्थिक विकास के बाद भी बड़ी संख्या में महिलाओं द्वारा नौकरी छोड़ने को दिखाता है।’’ (7) घटती हुई महिला श्रम भागीदारी के साथ ही भारतीय महिलाओं के आय के साधनों में भागीदारी व आय में भी बहुत असमानता व्याप्त है। ‘‘2019-20 में, 15 वर्ष या उससे अधिक आयु के सभी पुरुषों में से 60 प्रतिशत के पास नियमित वेतन और स्वरोजगार की नौकरी है, जबकि समान आयु वर्ग की केवल 19 प्रतिशत महिलाओं को नियमित और स्वरोजगार मिलता है।’’ (8) वहीं भारत के ’’शहरी क्षेत्रों में नियमित और स्वरोजगार के मामले में पुरुषों और महिलाओं की आय में भी काफी अंतर है। स्वरोजगार में पुरुषों के लिए औसत कमाई प्छत् 15,996 और शहरी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए केवल प्छत् 6,626 है। पुरुषों की औसत कमाई महिलाओं की कमाई का लगभग        2.5 गुना है।’’ (9) ये आंकड़े भी भारत और भारत के शहरी क्षेत्रों से संबंधित हैं परंतु इनसे ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं की रोजगार व आय की स्थिति का आंकलन सहज ही लगाया जा सकता है। भारत की कुल जोतों में ‘‘वर्ष 2010-11 में महिला परिचालन जोतों की संख्या 12.78 प्रतिशत थी और 2015-16 में यह आंकड़ा बढ़कर 13.78 प्रतिशत हो गया है (कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय, 2019)।’’ (10) स्पष्ट है कि ग्रामीण महिलाओं के पास भूस्वामित्व भी बहुत कम है।
  यह पहले ही विवरणित किया जा चुका है कि ग्रामीण महिलाओं पर तकनीकी परिवर्तन का प्रभाव अधिकांशतः कृषि में तकनीकी परिवर्तन से ही जुड़ा है क्योंकि 80 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं की आजीविका का साधन वर्तमान में भी कृषि ही है पर यह चिंताजनक स्थिति है कि भारत में ‘‘सन् 1999 से लगातार, प्रतिदिन लगभग 2000 किसान कृषि का त्याग कर रहे हैं तथा हमारे देश के आधे से ज्यादा (54.6 प्रतिशत) किसान, .कृषि को त्याग कर मज़दूर बन गए हैं (जनगणना 2011)। कृषि सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर वर्ष 2016-17 में 6.27 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2018-19 में मात्र 2.90 रह गई है। साथ ही, कृषि क्षेत्र का देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद में योगदान भी वर्ष 1951 में 60 प्रतिशत के मुकाबले घटकर वर्ष 2017 में मात्र 17 प्रतिशत रह गया है हालांकि 2019 में इसमें थोड़ी वृद्धि हुई है। कृषि की घटती महत्ता निसंदेह कृषि स्टार्टअप्स एवं उद्यम विकास के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है।’’ (11)
      कृषि क्षेत्र में तकनीकी व अनुसंधान के प्रयोग के फलस्वरूप मानव निर्मित रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों व खरपतवार नाशकों का व्यापक तौर पर प्रयोग किया गया। रासायनिक उर्वरकों ने फसलों के लिए अत्यावश्यक पोषक तत्वों को उपलब्ध कराकर मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता पर निर्भरता कम कर दी। रासायनिक कीटनाशकों ने फसलों को हानि पहुंचाने वाले कीटों को खत्म किया और खरपतवार नाशकों से फसलों के अलावा फसलों के साथ उगने वाले पौधों को खत्म करने का काम किया। इन सबका परिणाम ये हुआ कि भारत में खाद्यान्न उत्पादन में रिकार्ड वृद्धि दर्ज की गई। आज भारत सबसे अधिक खाद्यान्न उत्पादन करने वाले देशों में शुमार है। परंतु इसका द्वितीय पक्ष ये रहा कि रसायनों के अत्यधिक व लगातार प्रयोग से भूमि की प्राकृतिक उर्वरता खत्म होने लगी है, भूमि की बंजरता में वृद्धि होती जा रही है, जैव विविधता को भारी नुकसान पहुंचा है, पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, पीने योग्य जल भी प्रदूषित हो रहा है, फसलों के लिए लाभकारी कीट भी लगातार कम होते जा रहे हैं, अनेकों औषधीय गुणों वाले पौधे खरपतवार नाशकों के कारण विलुप्त हो रहे हैं, खेतों में काम करने वाले खेतिहर मजदूर जिनमें बड़ा वर्ग ग्रामीण महिलाओं का है, छोटी जोत वाले कृषकों के स्वास्थ्य पर गंभीर कुप्रभाव पड़ा है और इससे उत्पादित अनाज, सब्जियां, मांस इत्यादि सभी पर भी कम या ज्यादा इन रसायनों का दुष्प्रभाव पड़ा है। व्यापक नजरिए से देखें तो जैवमंडल के सभी सदस्यों पर इसका दुष्प्रभाव भी पड़ा है। ग्रामीण महिलाएं लैंगिक भेदभाव के कारण पहले ही स्वास्थ्य व इलाज के मामले पिछड़ी हुयी हैं। कृषि में रसायनों के प्रयोग ने उनके स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। इन रसायनों के प्रयोग ने कृषि संबंधित कार्यों में लगे सभी स्त्री-पुरुषों को कैंसर, विभिन्न शारीरिक अक्षमताओं, शरीर के विभिन्न अंगों को नुकसान पहुंचाने जैसे गंभीर खतरों को बढ़ा दिया है। ‘‘भारत में कीटनाशकों और रसायनों के बेजा इस्तेमाल के कारण नेपाल ने हमारे फलों-सब्जियों पर रोक तक लगा दी थी। इसके अलावा दिल्ली हाईकोर्ट ने भी सब्जियों में कीटनाशकों के इस्तेमाल से संबंधित जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान कहा था कि फलों को पकाने के लिए कीटनाशक व रसायनों का प्रयोग उपभोक्ता को जहर देने के समान है।’’ (12)
‘‘आज भारत दुनिया का चैथा सबसे बड़ा कीटनाशक उत्पादक देश है। वहीं देश में बड़े पैमाने पर प्रतिबंधित कीटनाशकों का भी धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है। आंकड़ों की मानें तो 2019-2020 में देश में 60,599 टन कैमिकल कीटनाशकों का छिड़काव किया गया। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, हरियाणा व पंजाब में रसायनों का सर्वाधिक इस्तेमाल किया जा रहा है। खेती को लाभ का सौदा बनाने के लिए किसान ने खेती में जहर घोल दिया है। लेकिन दुर्भाग्य देखिए, कृषि विशेषज्ञ, पर्यावरणविद् यहां तक कि सरकार भी इसे रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं कर रही।’’ (13) तथ्य कृषि में रसायनों के बढ़ते प्रयोग से उत्पन्न हो रहे खतरों की गंभीरता की ओर इशारा करते हैं। इस समस्या को कम करने के लिए तत्काल ही गंभीर प्रयास करने की जरूरत है परंतु यह दुखद और चिंतनीय है कि भारत में इस विषय को पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया। हालत यह है कि वर्तमान समय में भी इन खतरों को कम करने का कोई विकल्प नहीं है इसलिए देश के कुछ राज्यों व भारत सरकार ने सीमित स्तर पर जैविक खेती को बढ़ावा दिया है।
निष्कर्ष:
     भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में तकनीकी परिवर्तन के कारण गांवों में निवास करने वाले नागरिकों के जीवन में आये  सामाजिक व आर्थिक बदलावों के संबंध में कुछ तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। हरित क्रांति और उसके बाद कृषि कार्यों में उत्तरोत्तर तकनीकी प्रयोग आरोही क्रम में है। तकनीकी परिवर्तनों ने ग्रामीण क्षेत्रों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। निश्चित रूप से कृषि क्षेत्र में तकनीकी प्रयोग से गांवों में रहने वाले लोगों के जीवन स्तर में सुधार किया है परंतु जेंडर विभेदीकरण पर आधारित पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था व कुछ विशेष समुदायों के प्रति जातिगत भेदभाव के कारण इसके कुछ नकारात्मक प्रभाव भी उभरकर सामने आए हैं। तकनीकी किसी के साथ भेदभाव नहीं करती। वह सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध रहती है परंतु उसका प्रयोग करने वाले उसे भेदभाव करने का हथियार बना सकते हैं। भारतीय संदर्भ में तकनीकी परिवर्तन का लाभ बड़ी जोत वाले .षक वर्ग को अधिक प्राप्त हुआ है और वे धनाड्य वर्ग के रूप में उभरे हैं। तकनीकी परिवर्तन पुरुषों के लिए अत्याधिक मुफीद साबित हुए हैं जबकि ग्रामीण महिलाओं, खेतिहर मजदूरों, पर्यावरण, कृषि में संलग्न पशुओं, छोटी जोत वाले कृषकों पर इनका नकारात्मक ज्यादा दिखाई देता है। मानवीय आधार पर ये परिवर्तन ग्रामीण महिलाओं के लिए आर्थिक व सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में कोई विशेष सकारात्मक प्रभाव नहीं डालते हैं। ग्रामीण महिलाओं के लिए समानता, तकनीकी का स्वयं प्रयोग, तकनीकी का आर्थिक लाभ, कृषि अनुसंधान क्षेत्र में भागीदारी, तकनीकी प्रशिक्षण, तकनीकी के उनके स्वास्थ्य व सामाजिक जीवन सकारात्मक प्रभाव अभी दूर की कौड़ी हैं। वर्तमान समय में भी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक परिवर्तन केवल सरकारों का दायित्व है। ग्रामीण भारत में सामाजिक जीवन में परिवर्तन का जिम्मा कभी भी स्थानीय लोगों ने नहीं उठाया अन्यथा ग्रामीण महिलाओं पर तकनीकी परिवर्तन के दुष्प्रभाव अधिक न पड़ते। समस्त भारत में व्याप्त लैंगिक असमानता, ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की कम आर्थिक भागीदारी, श्रम शक्ति में ग्रामीण महिलाओं को बेहद कम भागीदारी इत्यादि संकेतों से पता चलता है कि सरकारों के द्वारा ग्रामीण इलाकों की महिलाओं के जीवनस्तर को ऊपर उठाने के जो भी प्रयास हुए हैं; वे नाकाफी हैं और उनसे आशाजनक परिणाम नहीं आए हैं। आज भारत जब तकनीकी परिवर्तन, विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी सहित के नए दौर में प्रवेश कर रहा है तब ग्रामीण महिलाओं को विषम स्थिति चिंतनीय है।
सुझाव:
  मानव जीवन में तकनीकी प्रयोग व्यापक संभावनाओं का क्षेत्र है। तकनीकी प्रयोग, तकनीकी परिवर्तन, मानव व पर्यावरण के बीच बेहतर तालमेल बेहतर संभावनाएं लेकर आएगा। जो सभी के लिए हितकारी होगा। वहीं दूसरी ओर इन सभी  बेहतर तालमेल नहीं होने पर इसके परिणाम निराशा, अस्थिरता उत्पन्न करने वाले या फिर विनाशकारी भी हो सकते हैं। ग्रामीण महिलाओं के विशेष संदर्भ में ग्रामीण महिलाओं/लड़कियों की उच्च गुणवत्तायुक्त शिक्षा तक बेहतर पहुंच, लैंगिक व जातिगत असमानता को कम करने के प्रभावी उपाय कर ग्रामीण महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी में स्तरीय वृद्धि, ग्रामीण महिलाओं की औसत आय को पुरुषों की औसत आय के समान करने के लिए प्रभावी रणनीति, घरेलू कार्यों तथा बच्चों का पालन-पोषण में पुरुष भागीदारी में वृद्धि के उपाय कर, ग्रामीण महिलाओं को प्रौद्योगिकी प्रयोग में सरकार द्वारा सुरक्षा प्रदान कर, महिलाओं को प्रौद्योगिकी में प्रशिक्षण प्रदान करने वाले संस्थानों की संख्या बढ़ाकर, ग्रामीण भूमिहीन महिला मज़दूरों, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की महिलाओं व छोटी जोत केन्द्रित नीतियां बनाकर, रसायनों के कृषि में प्रयोग का बेहतर प्रबंधन इत्यादि भारत में ग्रामीण महिलाओं की स्थिति पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं।
संदर्भ सूची:
1- India ranks 135 out of 146 in Global Gender Gap Index, The Hindu https://www.thehindu.com/news/national/india-ranks-135-out-of-146-in-global-gender-gap-index/article 65636167 .ece Date 14.07.2022
2. पटेल डॉ0 नीलम, सेठी डॉ तनु (2022) आत्मनिर्भर भारत के लिए महिला सशक्तिकरण, कुरूक्षेत्र नई दिल्लीः प्रकाशन विभाग पेज 6
3- In India, driving an automobile is largely a male activity, Times of India date 13.08.2014
https://m.timesofindia.com/india/statoistics-in-india-driving-an-automobile-is-largely-a-male-activity-articleshow-4015477 2.cms
4. No ban but plenty of bias: Why so few women drive in India, Times of India date 01.07.2018 https://m.timesofindia.com/ home/Sunday-times/no-ban-but-plenty-of-bias-why-so-few-women-drive-in-india/articleshow/64809217-cms
5. Road Transport Year Book 2017-18 & 2018-19 https://morth-nic.in//print//road-transport-year-books.
6. शुक्ला शिव शरण (2022) ग्रामीण भारत में महिलाएं होती हैं 100 फीसदी रोजगार असमानता की शिकार, ये कारण है जिम्मेदार अमर उजाला दिनांक 15.09.2022https://www.amarujala.com/amp/business/business-diary/oxfam-says-discrimination-accounts-for-100-percent-employment-inequality-for-women-in-rural-India
7. शुक्ला शिव शरण (2022) ग्रामीण भारत में महिलाएं होती हैं 100 फीसदी रोजगार असमानता की शिकार, ये कारण है जिम्मेदार अमर उजाला दिनांक 15-09-2022https://www.amarujala.com/amp/business/business-diary/Oxfam-says-discrimination-accounts-for-100-percent-employment-inequality-for-women-in-rural-India
8. VP Abhirr (2022) इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्टः भारत में महिलाओं के लिए कम कमाई और कम रोज़गार पाने के लिए भेदभाव मुख्य कारण हैDate 15.09.2022https://www.ofamindia.org/press-release/ idrhindipressrelease
9. VP Abhirr (2022) इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट- भारत में महिलाओं के लिए कम कमाई और कम रोज़गार पाने के लिए भेदभाव मुख्य कारण है 15-09-2022 https://www.Ofamindia.org/press-release/idrhindipressrelease
10. पटेल डॉ नीलम, सेठी डॉ तनु (2022) आत्मनिर्भर भारत के लिए महिला सशक्तिकरण, कुरूक्षेत्र नई दिल्लीः प्रकाशन विभाग पेज 6
11. कुमार सन्नी (2019) कृषितर क्षेत्र- स्थानीय संसाधनों पर आधारित विकास माॅडल ही टिकाऊ, कुरूक्षेत्र नई दिल्ली, प्रकाशन विभाग पेज 5
12. रासायनिक खेती मानव और पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक (2022) पंजाब केसरीडी date 03.02.2022 Date 03-02-2022 https://www.punjabkesari.in/blogs/news/chemical-farming -is-harmful-to-both-human-and-environment-1539999
13. रासायनिक खेती मानव और पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक (2022) पंजाब केसरी क्ंजम 03-02-2022 https://www/punjabkesari.in/blogs/news/chemical-farming-is-harmful-to-both-human-and-environment-1539999

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