डाॅ॰ अर्चना गिरि
एसोसिएट प्रोफेसर
संस्कृत विभाग
बरेली काॅलेज, बरेली।
योगशास्त्र के प्रवर्तक महर्षि पतंजलि हैं। जिस प्रकार उत्तम खेती करने के लिए जमीन को उपजाऊ बनाया जाता है और फिर बीज बोया जाता है। उसी प्रकार महर्षि पतंजलि ने ब्रह्म को जानने के लिए ज्ञान की आवश्यकता के साधन के रूप में योगशास्त्र की रचना की। उत्तम अधिकारी वही होता है जिसका चित्त समाहित हो। महर्षि ने योग की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ को योग का अनुशासन कहा है। अनुशासन का तात्पर्य है जिसके द्वारा लक्षण, भेद, उपाय और फलों सहित शिक्षा दी जाय उसको अनुशासन कहते हैं। योग नाम समाधि का है और वह सर्वभूमियों में होने वाला चित्त का धर्म है। भूमि का अर्थ अवस्थाओं से है जो तीन अवस्थाओं में या भूमियों में दबा रहता है और केवल दो अवस्थाओं में प्रकट होता है। चित्त की पाँच भूमियाँ हैं क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ध। न्यायशास्त्र यहाँ पर योग से प्रश्न करता है कि- चित्तवृत्ति निरोध का नाम समाधि है और वृत्ति नाम ज्ञान का है, जो आत्मा में रहता है। अतः इन वृत्तियों का निरोध भी आत्मा में ही होना चाहिये। महर्षि पतंजलि ने स्पष्ट शब्दों में बताया है कि ये पाँच चित्त की भूमियाँ हैं, आत्मा की नहीं। क्योंकि अत्यन्त चंचलचित्त को क्षिप्त और निद्रा, तन्द्रा, आलस्य वाले चित्त को मूढ़ कहते हैं। क्षिप्त और मूढ़ चित्त में तो योग हो ही नहीं सकता विक्षिप्त थोड़ा श्रेष्ठ है तो उसमें कभी-कभी ही स्थिरता रहती है। इसलिये योग में इसकी अवस्था भी सही नहीं है। ‘‘जिसका एक ही अग्र विषय हो अर्थात् एक ही विषय में विलक्षणवृत्ति के व्यवधान से रहित सदृश वृत्तियों के प्रवाह वाले चित्त को एकाग्र कहते हैं। यह पदार्थ के सत् स्वरूप को प्रकाश, क्लेश को नाश, बन्धन को ढीला और निरोध के अभिमुख करता है। यह सम्प्रज्ञात समाधि और सम्प्रज्ञात योग कहलाता है। सर्ववृत्तियों के निरोध वाले चित्त को निरूद्ध कहते हैं उस निरूद्ध चित्त में असम्प्रज्ञात समाधि होती है, उसी को असम्प्रज्ञात योग कहते हैं।’’1
योग शब्द युज् धातु धातु से निष्पन्न हुआ हे। धातुपाठ में युज् धातु दो हैं। एक ‘युजिर् योगे’ और दूसरा ‘युज् समाधौ’ उनमें युजिर् योगे सामान्य संबन्धवाचक होने से उसका यहाँ ग्रहण नहीं है किन्तु युज् समाधौ से जो योग शब्द निष्पन्न हुआ है। उसका विशेष शब्द समाधि होता है। उसी का यहाँ ग्रहण है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा है कि- हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः अर्थात् योग शास्त्र के प्रथम वक्ता भगवान हिरण्य गर्भ हैं। अन्य नहीं। श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण आदि में भी योगशास्त्र की अनादिता सिद्ध होती है तो फिर महर्षि पतंजलि कैसे इसके प्रणेता हुये। इस शंका का समाधान भी स्वयं महर्षि पतंजलि ने ही किया है कि अनुशासन शब्द में अनु उपसर्ग का प्रयोग किया है। इससे ध्वनित होता है कि हम योगशास्त्र के आदि कत्र्ता नहीं हैं किन्तु अनुशिष्यते इति अनुशासनं अर्थात् अनु पश्चात् शासन, गुरू परम्परा से प्राप्त योग का फिर से उपदेश प्रारम्भ होता है। इसी से महर्षि पतंजलि ने भी योगशास्त्र की अनादिता सिद्ध की है। इसीलिए स्वरचित ग्रन्थ में महर्षि ने प्रामाण्य का भी वर्णन किया है। योग द्वारा स्वरूपस्थिति कराना इस शास्त्र का प्रयोजन है। स्वरूपस्थिति एवं परमात्मप्राप्ति का जिज्ञासु एवं मुमुक्षु साधक इसका अधिकारी है। योग साधन है। स्वरूपस्थिति साध्य है। महाभारत और गीता में भी हिरण्यगर्भ को योग का पुरातन वक्ता बताया गया है।
सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमर्षि स उच्यते।
हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः।।2
इदं हि योगेश्वर योगनैपुण्यं हिरण्यगर्भो भगवान जगाद् यत्।3
अर्थात् हे योगेश्वर यह योग कौशल वही है जिसे भगवान हिरण्यगर्भ ने कहा था। हिरण्यगर्भ किसी भौतिक मनुष्य का नाम नहीं है। अपितु महत् तत्त्व के सम्बन्ध से शबल ब्रह्म का वाचक है। ऋग्वेद और यजुर्वेद में भी हिरण्यगर्भ का वर्णन प्राप्त होता है-
हिरण्यगर्भः समवत्र्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।4
यह वही हिरण्यगर्भ है जिसकी वेदों में स्तुति की गई है। इनका एक नाम विभु है। इसे बुद्धि भी कहते हैं। योगी लोग इसको महान्, विरळिज और अज कहते हैं। यही जगत के अन्तरात्मा हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद में भी योग का स्वरूप बताया गया है-
‘‘शरीर के तीन अंगो (छाती, गर्दन और सिर) को सीधा रखकर इन्द्रियों को मन के साथ हृदय में प्रवेश करके, ओंकार की नौका पर सवार होकर भय के लाने वाले सारे प्रवाहों से पार उतर जाय। शरीर की सारी चेष्टाओं को वश में करके प्राणों को रोके और प्राण के क्षीण होने पर नासिका से श्वास ले। सचेत सारिथ जैसे घोड़ों की चळचलता को रोकता है। वैसे ही अप्रमत्त होकर मन को रोकें। इस प्रकार निरन्तर अपने आप को योग में लगाये हुये तथा मन को निग्रह किये योगी मुझमें (परमात्मा में) स्थित रहने वाली तथा परम निर्वाण को देने वाली शान्ति को प्राप्त होता है।’’5
‘‘श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है कि योगी तपस्वियों में श्रेष्ठ है। शास्त्र को जानने वाले ज्ञानियों में भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्मकाण्डियों में भी श्रेष्ठ है। इसलिये हे अर्जुन तू योगी बन। वह भक्तियुक्त पुरूष अन्तकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी तरह से स्थापित करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम पुरूष परमात्मा को ही प्राप्त होता है। हे अर्जुन! सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर अर्थात् इन्द्रियों को विषयों से हटाकर तथा मन को हृदयदेश में स्थिर करके निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परमात्मा को ही प्राप्त होता है। जो पुरूष ऊँ का चिन्तन करता हुआ शरीर त्यागता है वह परमगति को प्राप्त होता है।’’6
छांदोग्य उपनिषद और कठोपनिषद में भी योग का स्वरूप बताया गया है-
‘‘एक सौ एक हृदय की नाड़ियाँ हैं उसमें से एक सुषुम्ना नाड़ी मूर्धा की ओर निकलती है। उस नाड़ी से ऊपर चढ़ता हुआ योगी अमृत तत्त्व अर्थात् ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। दूसरी नाड़ियाँ निकलने में भिन्न-भिन्न गति वाली होती हैं। जो योगी प्रत्याहार द्वारा मन को हृदय में स्थित करके पूरे मनोबल से सारे प्राण को ब्रह्मरन्ध्र में ले जाता है। ईश्वर का चिन्तन करता हुआ शरीर का त्याग करता है। वह परम गति को प्राप्त होता है। इसको वही कर सकता है जिसने जीवन भर अच्छे से अभ्यास किया हो।’’7
श्वेताश्वतर उपनिषद में तो योग करने के स्थान का भी वर्णन है कि योग का अभ्यास ऐसे स्थान पर करें जो सम है, शुद्ध है, कंकड़, बालू और अग्नि से रहित है जो शब्द, जलाशय और लता आदि से मन के अनुकूल है। आँखों को शान्ति प्रदान करने वाला हो, एकान्त में हो और वायु के झोकों से रहित हो। इसी प्रकार जब अभ्यास का प्रभाव बढ़ने लगता है तब-
नीहारधूर्माकनिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फटिक शशीनाम्।
एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे।।
पृथ्व्यप्तेजोऽनिल खे समुत्थिते पळचात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीर।।8
अर्थात् मन को एकाग्र करने पर कुहरा, धुआँ, सूर्य, वायु, अग्नि, जुगनू, विद्युत, विल्लौर, चन्द्र आदि दिखकर शान्त हो जाते हैं तब ब्रह्म का प्रकाश होता है। जब पाँचों तत्त्व पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश प्रकट होकर लय को प्राप्त हो जाते हैं तब योगी के लिए न रोग है, न जरा है, न दुःख है। क्योंकि उसने वह शरीर पा लिया है जो योग की अग्नि से बना है। यही योगी का शरीर हल्का हो जाता है। आरोग्य से युक्त हो जाता है। विषयों की लालसा मिट जाती है। कान्ति बढ़ जाती है। स्वर मधुर हो जाता है। गन्ध शुद्ध होता है। मल-मूत्र थोड़ा होता है। ऐसे शुद्ध चित्त वाले मन में आत्मा का साक्षात्कार होता है। जिस प्रकार मिट्टी से सना हुआ रत्न धोने पर प्रकाशित हो उठता है उसी प्रकार योगी को आत्मतत्त्व का साक्षात् होता है और वह शोक को पार कर जाता है। पुनः योगयुक्त होकर दीपक के तुल्य आत्मतत्त्व से ब्रह्म तत्त्व को देखता है जो अजन्मा, अटल और सब तत्त्वों से विशुद्ध है तो उस परमात्मतत्त्व को जानकर सब फाँसों से छूट जाता है। इस प्रकार श्वेताश्वतर उपनिषद योग के द्वारा परमतत्त्व को जानने, समझने और प्राप्त करने का सरल मार्ग स्वीकार करता है। जब मन शान्त होता है तभी एकाग्र होकर वह योगी के लिए योगकारक बन जाता है। कठोपनिषद के अध्याय 2 के तृतीय वल्ली में भी योग की महिमा बताई गई है-
यदा पश्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिं।।
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।।9
अर्थात् जब पाँचों इन्द्रियाँ मन के साथ स्थिर हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टारहित हो जाती है। अर्थात् चित्त की सब वृत्तियों का निरोध हो जाता है। उसको परमगति कहते हैं। वही इन्द्रियों की निश्चल धारणा योग कहलाती है। उस समय योगी प्रमाद रहित अर्थात् अपने स्वरूप को भूला हुआ रहता है। शुद्ध परमात्मस्वरूप में अवस्थित रहता है। क्योंकि योग प्रभव और अभिभव अर्थात् संस्कारों के उठने और दबने का नाम है। तभी तो गीता कहती है कि- ‘‘योगी अकेला एकान्त में बैठकर, एकाग्रचित्त होकर आशा और संग्रह को त्यागकर निरन्तर आत्मा को परमात्मा से जोड़े रखता है। वह कुशा के आसन पर बैठकर एकाग्रचित्त होकर आत्म शुद्धि के लिए योगाभ्यास करता है। वह अचल होकर नासिका के अग्र भाग में दृष्टि रखता है। शान्तचित्त होकर ब्रह्मचर्य में स्थित होकर, मन का संयमन करके मुझमें (परमात्मा में) परायण होकर योग करता है। निरन्तर परमात्मा में स्थित रहते हुये निर्वाण को देने वाली शान्ति को प्राप्त होता है।’’10
योग दर्शन ने अपने ग्रन्थ में जिस योग को वर्णित किया है उसके सर्वदर्शन समन्वय जैसे-सांख्य, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा आदि को मिलाकर एक सुगम सरल, ज्ञान से युक्त क्रियात्मक रूप बताया है। योग के साधनों के अनुसार योग के भेद हैं जैसे ध्यान योग (राज योग), ज्ञान योग (सांख्य योग), कर्म योग (अनासक्ति योग), भक्ति योग, हठ योग आदि हैं। इस शास्त्र का मुख्य विषय राज योग अर्थात् ध्यान योग है। परन्तु सभी योग इसमें समाहित हैं। सारे ज्ञेयतत्त्व का ज्ञान कराना सांख्य योग से अभिन्नता दर्शाता है। अनासक्त कर्म कर्मयोगी बनाता है। और योगी उपास्य के गुण विकसित करता है। इसी उपासना से भक्ति योग सिद्ध हो जाता है। हठ योग का सम्बन्ध शरीर और प्राण से है। जो योग के आठ अंबों के अंदर आते हैं। हठ योग ध्यान योग का साधन है। इसमें आसन और प्राणायाम मुख्य हैं हठ में ‘ह’ का अर्थ सूर्य पिबला नाड़ी है। ‘ठ’ का अर्थ चन्द्रमा (इडा नाड़ी) है। इनके योग को हठयोग कहते हैं। इन सूर्य और चन्द्र नाड़ियों में बहने वाले प्राण-प्रवाहों अथवा प्राण और अपान वायु के मिलने को हठयोग कहते हैं समाधिपाद में जो लय योग बताया गया है। वह कुण्डलिनीयोग ही है। जो सम्मोहन और वशीकरण होता है। वह भी प्रत्याहार, और धारणा के अन्दर आता है। यम और नियम तो समस्त मानव जाति के लिए अनिवार्य धर्म है। इसलिए पतळजलि ने कहा है-
योगः चित्तवृत्तिनिरोधः
यहाँ पर महर्षि ने चित्त के स्वरूप पर मुख्य ध्यान दिया है। क्योंकि सांख्य में महत् तत्त्व के लिए ‘बुद्धि’ शब्द का प्रयोग किया गया है और योग में ‘चित्’ शब्द का प्रयोग हुआ है। सांख्य ने बुद्धि में चित् को मिलाया है तो योग ने चित्त में बुद्धि को मिला दिया है। सिद्धान्त का ज्ञान कराने के कारण सांख्य बुद्धि द्वारा सब पदार्थों का विवेकपूर्ण निर्णय करता है। वहीं क्रियात्मक होने से योग में चित्त द्वारा अनुभव और साक्षात्कार करना बताया गया है। चित्त में ही सुख-दुख, मोहादि रूप तथा तीनों गुणों के परिणाम होते हैं। चित्त ही वृत्तिमात्र से सूक्ष्म शरीर के साथ स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है। पुरूष केवल दृष्टा है। चित्त में ही अहंकार बीज रूप में रहता है। सारा प्रयास गुणों के परिणाम का है। उसी के भोगने का नाम सम्प्रज्ञात योग है और गुण-परिणाम के साक्षात्कार के पश्चात् स्वरूपास्थिति में आना अपवर्ग है जो असम्प्रज्ञात योग या समाधि है। यह असम्प्रज्ञात समाधि सब अवस्थाओं में चित्त का धर्म है। यह धर्म छिपा रहता है और तम, रज की प्रधानता से 16 विकृतियों में मनुष्य का सारा व्यवहार घूमता रहता है। इसी में आसक्ति होने से राग, द्वेष, अभिनिवेश रूप आवरण और अस्मिता, क्लेश संस्कार रूपी आवरण चित्त पर चढ़ जाता, जिससे चित्त मलिन हो जाता है। इनके परिणाम ही वृत्ति कहलाते हैं। इस प्रकार मन के सब विषयों की ओर जाने की प्रवृत्ति में यथार्थ तत्त्व का प्रकाशक और चित्त की एकाग्रता का धर्म दबा रहता है। अभ्यास और वैराग्य द्वारा तम और रज को दबाकर सत्त्वगुण प्रकट होता है और विवेक ज्ञान होता है। यही सम्प्रज्ञात योग है। इससे भी वैराग्य द्वारा आसक्ति निवृत्ति होने पर सब वृत्तियों का निरोध रूप असम्प्रज्ञात समाधि दृष्टा की स्वरूप स्थिति होती है। उस समय चित्त में केवल निरोध के संस्कार शेष रहते हैं। निरन्तर अभ्यास से ये भी निवृत्त हो जाते हैं। पुनः न उठने के कारण वही स्वरूपास्थिति कैवल्य कहलाती है। इसमें चित्त सात्विक हो जाता है। इस प्रकार योगशास्त्र चित्त को ही सब कुछ मानता है। चित्त की वृत्तियों को कैसे रोका जाय, कैसे ज्ञान प्राप्त किया जाये, कैसे परमात्म तत्व को प्राप्त किया जाये इसके लिये चित्त को किन क्रियाओं से जोड़ा जाये यही योग है। योग प्रत्येक मनुष्य को जीवन का महत्व और जीने की कला सिखाता है।
सहायक सन्दर्भ सूची
1. पातळतजल योग प्रदीप-पृष्ठ संख्या 156
स्वामी ओमानन्द तीर्थ
प्रकाशक-मोती लाल जालान
गीता प्रेस, गोरखपुर
2. महाभारत- 12/349/65
3. श्रीमद् भगवद्गीता- 5/19/13
4. ऋग्वेद- 10/121
यजुर्वेद-अ॰ 13/मन्त्र-4
5. श्वेताश्वतर उपनिषद्- अध्याय 2
8, 9, 46वाँ मन्त्र
6. श्रीमद्भगवद् गीता- अध्याय 9/10, 12, 13
7. छान्दोग्य उपनिषद-8/6/6
कठोपनिषद- 2/31/6
8. श्वेताश्वतर उपनिषद-अध्याय 2
10, 11, 12, 13, 14, 15वाँ मन्त्र
9. कठोपनिषद अध्याय-2 तृतीय वल्ली
10, 11वाँ मन्त्र
10. श्रीमदभगवद् गीता-अध्याय-6
10, 11, 12, 13, 14, 15वाँ श्लोक