दरख्शाँ शहनाज
अर्थशास्त्र विभाग,
जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल पी0 जी0 काॅलेज, बाराबंकी।
लोकतंत्र की सुदृढ़ता इस बात पर निर्भर करती है, कि किन-किन मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से चर्चा और परिचर्चा होती है साथ ही मीडिया की खामोशी भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं की समस्याओं के हल को और भी कठिन बना देती है। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में अधिकतर सार्वजनिक विचार विमर्श में सामाजिक कल्याण का स्वास्थ्य जैसा विशय लगभग गायब है। भारत के गरीब जनताएं सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का अपर्याप्त, अकुशल, असंगठित होना, निजी स्वास्थ्य सेवाओं की निरंकुशता पर नियंत्रण का अभाव, डाॅक्टरों की दया व लापरवाही, धोखा अनावश्यक दवाओं का भार, शल्यक्रिया की शोषण कारी कीमतें इन सबके बीच जूझता हुआ भारतीय समाज किसी ईश्वरीय चमत्कार की आशा करता हुआ अंततः अपनी जीवन लीला को समाप्त होते देखने के लिए विवश है। वर्ष 2019 से चीन के वुहान शहर से प्रारंभ हुई कोविड-19 नामी महामारी ने जहां पूरे संसार को अपनी चपेट में ले लिया वहीं भारत पर भी इसके भयानक प्रभाव पड़े, जिसने भारत की पूरी स्वास्थ्य प्रणाली की पोल खोल कर रख दी। भारत के स्वास्थ्य तथा पोषण संबंधी संकेतक काफी खराब हैं, जो किसी भी अमीर या गरीब देशों की तुलना में कहीं बेहतर नहीं है। कई वर्ष पहले भोरे कमेटी ने सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा के मूल सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए कहा था कि, इसका लक्ष्य समुदाय के सभी सदस्यों को चाहे कोई कीमत चुकाने में सक्षम हो या ना हो बेहतर स्वास्थ्य देना ही हो सकता है। इस उद्देश्य हेतु स्वास्थ्य सेवाओं तक सब की पहुंच सुनिश्चित कराना मूलरूप से सार्वजनिक उत्तरदायित्व है।
मुख्य बिंदुः सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली, टीकाकरण, ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, कोविड-19 महामारी, विकेंद्रित नियोजन।
जीवन की अनिवार्यताओं के बाद मानव जीवन में उसके स्वास्थ्य से अधिक महत्वपूर्ण विाय स्वास्थ्य से संबंधित सबसे कम विचार किया जाना उसकी उपेक्षा किया जाना, अकल्पनीय है। भारत के अधिकांश विचार विमर्श तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक कलयाण वाला स्वास्थ्य जैसा विषय लगभग गायब है। स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित आवश्यक पहलुओं की ना तो पिं्रट मीडिया और न ही इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में ही कोई चर्चा होती है। 2012 के अंतिम महीनों में भारत के प्रमुख समाचार पत्रों के संपादकीय विमर्श में स्वास्थ्य संबंधी मामलों को कुल मिलाकर 1ः स्थान ही मिला 2012 का जिक्र इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि स्वास्थ्य नीति की दृष्टि से यह काफी महत्वपूर्ण रहा जब स्वास्थ्य जैसे विषय को 12वीं पंचवर्षीय योजना की प्रमुख प्राथमिकताओं में शामिल किया जा रहा था और स्वास्थ्य नीति की रूपरेखा को बनाने हेतु गंभीर प्रश्न किए जा रहे थे, किंतु यह व्यापक सार्वजनिक बहस का हिस्सा नहीं बन पा रहे थे।
टीकाकरण की दरें, 2012
टीकाकरण करवा चुके एक साल के बच्चों का अनुपात (प्रतिशत में)
बी सी जीडी पी टीपोलियाखसराहेप0 बी
भारत 87 72 70 74 37
दक्षिण एशिया 88 76 75 77 51
उप-सहारा अफ्रीका 84 77 79 75 74
मध्य-पूर्व और उ. अफ्रीका 92 91 92 90 89
लतीन अमेरिका, कैरिबिया 96 93 93 93 90
पूर्वी एशिया, प्रशान्त 97 94 96 95 94
सीईई/सीआईएस 96 95 96 96 94
औद्योगिक देश … 95 95 93 66
विश्व का औसत 90 85 86 85 75
’न्यूनतम विकसित देश’ 84 80 80 78 78
बांग्लादेश 94 95 95 94 95
भारत से पिछड़े देश 26 16 13 25 0
स्रोतः यूनिसेफ (2012)
मीडिया और लोकतांत्रिक राजनीति में स्वास्थ्य संबंधी मामलों खासकर बच्चों के स्वास्थ्य की चर्चा नहीं के बराबर थी जैसे बच्चों का टीकाकरण। भारत में टीकाकरण की दरें अन्य देशों की दरों से काफी नीची है।
विश्व भर के बच्चों की स्थिति पर यूनिसेफ रिपोर्ट से लिए गए आंकड़ों से पता चलता है कि टीकाकरण की भारतीय दरें (बीसीजी) को छोड़कर उप सहारा अफ्रीका की औसत दरों से भी नीची है। यहां तक कि, नेपाल और पाकिस्तान समेत किसी भी दक्षिण एशियाई देश से संबंधित अनुमानों के मुकाबले में भी यह दरें नीची है। इसके अलावा बांग्लादेश ने हर प्रकार के टीके के संदर्भ में तकरीबन 95ः की टीकाकरण दर प्राप्त कर ली है। भारत की दरों से नीची दर वाले देश केवल उप सहारा अफ्रीका, युद्धग्रस्त अफगानिस्तान, हाइती, इराक, पापुआ न्यू गिनी है। रोचक तथ्य तो यह है कि भारत में टीकाकरण के खराब प्रदर्शन पर ना तो सवाल उठाए जाते हैं और ना ही उसे सुधारने की कोशिश की जाती है। हाँ, परन्तु भारत में पोलियो उन्मूलन एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है किंतु इसकी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है जैसे पिछले 20 वर्षों में पोलिया उन्मूलन के वर्टिकल कार्यक्रम में बाल टीकाकरण समेत कई दूसरे आवश्यक स्वास्थ्य कार्यक्रमों को गौण कर दिया।
स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च, 2010
टीकाकरण करवा चुके एक साल के बच्चों का अनुपात (प्रतिशत में)
जीडीपी में अनुपात
;ःद्ध स्वास्थ्य पर कुल खर्च में अनुपात
;ःद्ध सम्पूर्ण सन्दर्भ में (2005 पीपीपी अन्तर्राष्ट्रीय डाॅलर)
भारत 1.2 29 39
दक्षिण एशिया 1.2 30 36
उप-सहारा अफ्रीका 2.9 45 66
पूर्वी एशिया, प्रशान्त 2.9 53 167
मध्य-पूर्व और उ. अफ्रीका 3.8 50 199
लतीन अमेरिका, कैरिबिया 3.8 50 424
यूरोप, मध्य एशिया 3.8 65 585
विश्व का औसत 6.5 63 641
यूरोपीय संघ 8.1 77 2499
ंण् ः स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च और स्वास्थ्य पर कुल खर्च में सार्वजनिक खर्च के अनुपात के मद्देनजर गणना।
इण् केवल विकासशील देश।
स्रोत: विश्व विकास संकेतक (आॅलाइन, 1 जनवरी, 2013)
पिछले 20 वर्षों में भारत की जी.डी.पी. में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय का अनुपात लगभग 1ः से भी कम रहा है विश्व के केवल 9 देशों में (जिसमें अफगानिस्तान, हाईती) यह अनुपात भारत से नीचे हैं चीन में यह अनुपात 2.7ः है लैटिन अमेरिका में 3.8ः और विश्व का औसत लगभग 6.5ः है स्वास्थ्य सेवा के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता में कमी की एक विशेषता यह है कि स्वास्थ्य पर कुल खर्च में से सार्वजनिक खर्च का अनुपात एक तिहाई से भी कम है। यूरोपियन संघ और उत्तरी अमेरिका जैसे देशों में स्वास्थ्य पर कुल खर्च में सार्वजनिक खर्च का अनुपात 70ःए यूरोपीय देशों में 77ः, अमेरिका देशों में 50ः, न्यूनतम विकसित देशों में 46ः, विश्व का औसत 63ः है यह सभी भारत के 29ः के औसत से ऊपर हैं।
भारत की स्वास्थ्य सेवा संसार की सबसे व्यावसायिक स्वास्थ्य सेवा है। यह इस बात का संकेत है कि भारत की निजी स्वास्थ्य सेवा पर असामान्य निर्भरता है इसका कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है और उनकी संचालन की खराब दशा है। गरीब राज्य बिहार, उड़ीसा जैसे प्रदेशों की स्थिति और ज्यादा खराब है। जहाँ स्वास्थ्य सुविधाएं हैं भी, वहाँ पर उनकी बेहतर उपयोग की आवश्यकता है। 2002-2003 में किए गए अध्ययन के मुताबिक विभिन्न राज्यों की स्वास्थ्य सेवाओं की गैर हाजिरी का अनुपात 35 से 58ः प्रतिशत तक पाया गया।
राजस्थान के उदयपुर में एक स्वास्थ्य सेवा के अध्ययन में पाया गया कि जिन स्वास्थ्य केंद्रों को जिस अवधि के दौरान खुला होना चाहिए था वे बन्द पाए गए पी0एस0सी0 और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को जिस अवधि के दौरान खुला होना चाहिए था वे बन्द पाए गए।
इस बीच लोग बीमारियों से बुरी तरह ग्रसित रहे। भारत की गरीब जनता सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का अपर्याप्त व अकुशल व असंगठित होना, स्वास्थ्य सेवाओं पर नियंत्रण का अभाव गरीबों की पहुंच से दूर डाॅक्टरों की दया व लापरवाही, धोखा जरूरत से ज्यादा दवाओं का बोझ, अनावश्यक शल्यक्रिया, इन सबसे जूझता हुआ भारतीय समाज किसी ईश्वरीय चमत्कार की आशा में अंततः अपनी जीवन लीला समाप्त होते देखने को विवश है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं या गरीबों को उपलब्ध सेवाओं में, बल्कि पूरे स्वास्थ्य विभाग में है, जिसमें जनता की सहभागिता भी बेहद आवश्यक है। 1946 में भोरे कमेटी की रिपोर्ट में यह बताया गया है सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का उद्देश्य सभी को स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाना है।
वास्तव में स्वास्थ्य नीति आज बेहद भ्रमित स्थिति में है, जैसे भारत में एक ओर तो राश्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (छत्भ्ड) से लेकर जनता को जेनेरिक दवाएं उपलब्ध कराने जैसे सकारात्मक कदम उठाए जा रहे हैं दूसरी ओर निजी स्वास्थ्य बीमा पर निर्भरता बढ़ाने की भी बात की जा रही है। किंतु भविष्य में भारत की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था किन सिद्धांतों पर आधारित होगी इसको वर्तमान में नहीं स्पष्ट किया जा सकता है। कई अन्य देश जैसे चीन, ब्राजील, मेक्सिको, वियतनाम आदि सबको स्वास्थ्य देने की अच्छी कोशिश कर रहे हें। भारत को भी महत्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे। मेक्सिको अपनी सोशल हेल्थ प्रोटेक्शन सिस्टम के अधीन तेजी से विकास कर रहा है 2003 में शुुरू किए गए इस कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम ळैंपतव च्वचनसंत की महत्वपूर्ण भूमिका रही। 2012 तक मैक्सिको ने सबको स्वास्थ्य देने का अपना मिशन पूरा कर लिया।
विगत वर्षों 2019 से लेकर अब तक पूरा विश्व एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या से जूझ रहा है। वर्श 2019 से चीन के वुहान प्रांत से प्रारंभ हुई कोविड 19 जैसी महामारी ने पूरे संसार को अपनी चपेट में लिया है, जिससे भारत भी अछूता नहीं रहा। यह वायरस सरलता से उन लोगों को निशाना बनाता है जिनके पास इसके विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता का अभाव है। पहली लहर के दौरान ग्रामीण भारत सौभाग्यवश लगभग अछूता रहा परन्तु दूसरी लहर ने ग्रामीण क्षेत्रों को भी सहजता से अपना निशाना बनाया। मई 2021 में ग्रामीण जिलों में 45ः और मौतों में 50ः भागीदारी थी। वायरस की प्रकृति के कारण इसे टाल पाना असंभव था जबकि भारतीय समाज दूसरी सामान्य बीमारियों से निपटने हेतु भी सक्षम नही है। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल तथा सेंट्रल हेल्थ प्रिकाॅशन ब्यूरो की रिपोर्ट कहती है कि भारत की 65ः जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है जबकि क्षेत्रों के अस्पतालों में केवल 36ः बेड ही उपलब्ध हैं।
कोविड 19 महामारी के प्रबंधन पर 21 दिसंबर 2020 को राज्यसभा में संसदीय समिति की रिपोर्ट ने इस बीमारी के ग्रामीण क्षेत्रों में फैलने की आशंका जताई थी परन्तु सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में जांच व प्राथमिक स्वास्थ्य की जर्जर सेवाओं के ढांचे को मजबूत बनाने की सलाह दी गई थी। छभ्त्ड के तहत सरकार को अपना खर्च बढ़ाने को कहा गया। मई 2021 में केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने उपशहरी ग्रामीण व जनजातीय क्षेत्रों में कोविड 19 की रोकथाम हेतु एक मानक संचालन प्रक्रिया लागू की, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में आवश्यक तैयारियों को सामने रखकर रोगियों की निगरानी, रेफरल, जैसे आवश्यक प्रयास किये गए। इसमे एक त्रिस्तरीय ढांचे का प्रस्ताव रखा। इस ैव्च् को लागू करना कठिन नहीं था, क्योंकि भारत में पहले से ही त्रिस्तरीय स्वास्थ्य प्रणाली (प्राथमिक, द्वितीय, तृतीय प्रणाली) है तो फिर हम कहाँ पर विफल हुए यह सोचने की बात है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली की प्रोफेसर रितु प्रिया कहती हैं कि ऐसी स्वास्थ्य प्रणाली जो आम समय में काम नहीं करती उसका महामारी के दबाव वाले समय में काम करने की क्या संभावना हो सकती है ?
हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था वर्षों से आर्थिक तंगी से जूझ रही है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन जो सभी के लिए एक समान किया गया, गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं की परिकल्पना करता है। बजटीय आवेदन का 50 प्रतिशत ही प्राप्त कर पाता है। गंभीर बात तो ये है कि इस आवेदन में पिछले साल की तुलना में 3 प्रतिशत की कटौती की गई है। स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता का कारण मूलभूत ढाँचे को अभाव हैं 2018 तक भारत में 2188 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 6430 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ;च्भ्ब्ेद्ध ओर 32,900 उपकेंद्रों की कमी का सामना करना पड़ा। वल्र्ड बैंक के अध्ययन के अनुसार 2016 में भारत में 1000 लोगों पर 0.5 बिस्तर थे जो 2.9 प्रतिशत के औसत स्तर से कम थे। इसके अलावा डाॅक्टर्स, विशेषज्ञों व शल्य चिकित्सकों की कमी है। 2018 तक 46 प्रतिशत डाॅक्टर्स, 82 प्रतिशत विशेषज्ञों की कमी थी जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन 10ए000 की जनसंख्या पर 44 स्वास्थ्यकर्मियों की संतुष्टि देता है, जबकि भारत में सिर्फ 22 स्वास्थ्यकर्मी ही उपलब्ध है।
आशा कर्मियों व फ्रंटलाइन वर्कर्स ने महामारी में अच्छा काम किया पर उनको पर्याप्त सुरक्षा न देने के कारण बहुत से लोग महामारी की चपेट में आए। महाराष्ट्र जैसे राज्यों में उनको पारिश्रमिक का भुगतान तक नहीं किया गया। भारत में इस महामारी से निपटने तथा बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने हेतु इस तरह के सामुदायिक स्तर के स्वास्थ्य कर्मियों की जरूरत हैं उड़ीसा सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं को सुरक्षा उपकरण खरीदने हेतु रू0 10000 की रकम देने का निर्देश दिया था। इस मिशन में बिना डिग्री धारक डाॅक्टर जो ग्रामीण क्षेत्रों में 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी को सेवाएं देते हैं, उनको भी शामिल करना होगा। पश्चिम बंगाल व कुछ अन्य राज्यों ने यह जागरूकता दिखाई है कि वहां इन्हें ग्रामीण स्वास्थ्य सेवक के रूप में मान्यता दी जा रही है। एक गैर लाभकारी संस्था ‘साथी’ ने दूसरी लहर के दौरान रोगियों की जांच, कहाॅ जाएं? कैसे इलाज कराएं? इसके लिए 30 हेल्पडेस्क बनाएं। यह काफी उत्साहजनक कदम रहा, इसे संपूर्ण देश में फेलाया जा सकता हैं। केवल जैसे राज्य ने, जिसे महामारी से निपटने का थोड़ा अनुभव था, महामारी को रोकने और समाज की भागीदारी की वजह से काफी अच्छा काम किया क्योंकि लोगों को 2009 में भ्1छ1, 2018 में निपाह, 2019 में लैप्टोस्पाइरोसिस वायरस से निपटने का अनुभव था। वास्तव में केरल ने 2008 से ही विकेन्द्रीकृत नियोजन हेतु जन आंदोलन के माध्यम से स्वयं सेवकों की सहायता लेना शुरू कर दिया था। वहां स्वयंसेवियों की संख्या 26310, आशा कार्यकर्ता 3315, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की संख्या लगभग 45 लाख है, जिन्होंने पिछले साल हवाई अड्डे बस टर्मिनल, रेलवे स्टेशनों, तथा अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर संक्रमितों का पता लगाने, उन्हें आइसोलेट करने, क्वाॅरेंटाइन करने, मरीजों, बुजुर्गों व बेघरों को खाना बांटने, सूखा राशन वितरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वास्तव में मेरे विचार से संपूर्ण भारत में विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण को अपना कर इस महामारी का मुकाबला किया जा सकता है। स्थानीय स्तर पर सरकार के साथ संपूर्ण समाज को एक साथ आगे आना होगा। मंुबई की धारावी बस्ती में हमें सरकार व समुदाय की सहभागिता का अच्छा उदाहरण देखने को मिला जबकि निजी क्षेत्र ने काफी निराश किया। इसने अपनी भूमिका का सही निर्वहन नहीं किया। संपर्कों की तलाश व ग्रामीण क्षेत्रों में जाने की इसकी संभावना नहीं के बराबर रही।
जहां तक महामारी से मुक्ति पाने का प्रश्न है, वैक्सीन ही इसका एकमात्र उपाय है। विशेषकर उन ग्रामीण क्षेत्रों में जहां स्वास्थ्य सेवाएं बहुत खराब है। यह प्रशंसनीय बात है कि भारत ने वैक्सीन विकसित करने में दुनिया को पीछे छोड़ दिया है बल्कि एक सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम का जारी रहना भी अपने में अद्धुत है। केंद्र ने इन टीकों को लगाने की एक निर्बाध व्यवस्था लागू करने हेतु 28 दिसंबर 2020 में टीकाकरण के दिशा निर्देश जारी किए जिसमे जुलाई 2021 तक स्वास्थ्यकर्मियों, फ्रंट लाइन वर्करों, 50 वर्ष से अधिक आयु वाले, रोगो से जूझ रहे, 30 करोड़ लोगों को टीका देने का लक्ष्य तय किया। 19 अप्रैल 2021 को सरकार ने एक लिबरलाइज्ड व एक्सीलरेटेड फेज-3 रणनीति पेश की जिसमें राज्य व निजी अस्पताल देश में उत्पादित होने वाली 50 प्रतिशत वैक्सीन खरीद सकते हैं। भारत बायोटेक ने अपनी वैक्सीन….रू0 400 प्रति डोज देने की घोषण करी, सीरम इंस्टीट्यूट ने अपनी वैक्सीन रू 300 प्रति डोज तय की, एस0आई0आई0 ने निजी क्षेत्र के लिए अपनी वैक्सीन की एक डोज की कीमत रू0 600 रखी। इन कंपनियों के पास वैक्सीन की कमी को पूरा करने के लिए पर्याप्त वैक्सीन नहीं है। इसलिए राज्यों ने टीकाकरण प्रक्रिया हेतु टेंडर जारी किए किंतु, राज्य टेंडरों के जरिए वैक्सीन खरीदने में सफल नहीं हुए। भारत के पास वैक्सीन खरीदने हेतु एक विकेंद्रित प्रणाली है। जबकि वैक्सीन लगाने हेतु एक केंद्रीकृत तंत्र है। जिन चीजों को विकेंद्रिकृत किया जाना चाहिए था उन्हें केंद्रीकृत कर दिया गया और जिन्हें केंद्रीयकृत किया जाना था उन्हें विकेन्द्रीकृत कर दिया गया।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप से चुनौती यह हेै कि इन उपायों को और मजबूती दी जाए। ना केवल संस्थागत परिवर्तन करके बेहतर स्वास्थ्य सेवा प्रदान की जाए बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का ज्यादा अनुपात खर्च करने की भी आवश्यकता है। साथ ही सार्वजनिक सेवाओं में ज्यादा कार्यकुशलता और जवाबदेही विकसित की जानी चाहिए। तथा स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े मामलों को लोकतांत्रिक नीतियों का केंद्र बिंदु बनाया जाना चाहिए जैसे कि थाईलैंड की हेल्थ असेंबली, ब्राजील, मेक्सिको जैसे देशों तथा स्वयं भारत के कई प्रदेश जिनमें तमिलनाडु, केरल जैसे राज्य आते हैं। स्वास्थ्य से जुड़े मामलों में लोकतांत्रिक भागीदारी ने स्वास्थ्य संबंधी नीतियों में बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्रधानमंत्री की आयुष्मान भारत योजना भी सही दिशा में एक कदम हैं किंतु राह अभी लंबी हैं कोई भी देश तब तक विकसित नहीं हो सकता जब तक वहां के नागरिकों को मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाएं ना मिले।
संदर्भ सूची –
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10. प्रोफेसर रितु प्रिया, सेंटर आॅफ सोशल मीडिया एंड कम्युनिटी हेल्थ, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली.
11. ूूूण्कवूदजवमंतजीण्वतहण्पद