डां0 डी0आर0 यादव
एसो0प्रो0 एवं अध्यक्ष
गायत्री विद्या पीठ (पी0जी0) कालेज, रिसिया बहराइच
सन् 1857 ई0 के विप्लवों के शान्त होने के बाद सन् 1963 में उन्तालीस वर्षीय स्वामी दयानन्द ने स्वामी विरजानन्द से अपनी शिक्षा पूरी कर ली और वह संकल्प लिया कि वे अपना शेष जीवन वैदिक धर्म के प्रचार और आचरण में लगायंेंगे तथा भारतीयों को अन्धविश्वास से मुक्ति दिलायेंगे। यह प्रतिज्ञा राष्ट्र सेवा की प्रतिज्ञा थी। राष्ट्रीय क्रान्ति के लिए तत्पर स्वामी दयानन्द की शिक्षा केवल वेदो के अध्यन मात्र से ही पूरी नही हुई बल्कि सन् 1857 की क्रान्ति की घटनायें इसके उद्देश्य के कारण देश की सन् 1857 ई0 की क्रान्ति को अंग्रजों ने सैैन्य शान्ती से दबा दिया। अतः अंग्रेजों के विरूद्ध एक शक्तिपूर्ण अन्दोलन का मार्ग बचा रहता है। स्वामी दयानन्द ने अपने चिन्तन में वेदो के प्रचार प्रसार के माध्यम से राष्ट्रीय जागरण का उद्देश्य निर्धारित किया होगा। राष्ट्रीय जागरण स्वयं एक शक्तिपूर्ण आन्दोलन है जिसकी नींव ठोस एवं सबल होती है तथा जिसके अभाव में राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करना असम्भव है।
स्वामी जी के सार्वजनिक जीवनकाल (1864-1983) में भारत ब्रिटिश समाजवाद के लौह प्रशासन में जकड चुका था। सन् 1845 ई0 में जिस समय उन्होने घर छोडा़ उस समय पंजाब, सिन्ध और मध्य-भारत के भाग स्वतन्त्र थे , किन्तु सन् 1957 ई0 के स्वतन्त्रता संग्राम की विफलता के फलस्वरूप अंग्रेजी शासन सर्वत्र सुदृढ़ हो गया था। इसके अतिरिक्त ई0 सभ्यता भारत देश की प्राचीन संस्कृति पर प्रहार कर रही थी। इ्रसाई धर्म प्रचारक अपना कार्य करते जा रहे थे। केशव चन्द्र जैसे ब्रह्म समाज के नेताओं पर भी ईसाईयत का प्रभाव था । ऐसे समय से दयानन्द राष्ट्रीय पुनजार्गरण के नेता होने के साथ-साथ हिन्दू पुनर्रूत्थानवाद के आक्रामक समर्थ केे रूप में प्रकट हुए। स्वामी दयानन्द भारतीय चरित्र की दुर्बलताओं को देश के पतन के लिए उत्तरदायी मानते थे। अतः उन्होने उदासीनता, निश्क्रियता, प्रमाद, आलस्य तथा भाग्यार्पण के स्थान पर शक्ति की सर्वाेच्चता, पराक्रम, उत्साह तथा उत्तरदायित्व की सक्रिय भावना की शिक्षा दी। कर्म की सफलता के लिए आदर्श का होना आवश्यक मानते थे।
तत्कालीन समय में अछूतों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। वे सवर्ण हिन्दूओं के साथ नही रह सकते थे तथा वे मन्दिर में भी नही जा सकते थे। अस्पृश्यता एवं छुवाछूत की भावना संकीर्ण भेदभाव की दृष्टि से सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता के लिए घातक सिद्ध हो रही थी। स्वामी जी ने दलितोद्धार का कार्य प्रारम्भ किया। इस कार्य की प्रमुख विशेषता थी कि स्पृश्य और अस्पृश्य जातियों के परम्परागत भेद को मिटाकर समान स्तर पर लाने का प्रयत्न किया जाए।
आर्य समाज के प्रारम्भ में शुद्धि का प्रयोग अछूत कहलाने वाले हिन्दुओं और अहिन्दूओं के वैदिक धर्म में प्रवेश के लिए होता था। इसका मुख्य उद्देश्य अछूत अस्पृश्य एवं अन्त्यज वर्गो के आर्यीकरण के लिए दलितोद्धार एवं ईसाई मुस्लिम मतावलम्बियों के वैदिक धर्म में प्रवेश के लिए शुद्धि शब्द का प्रयोग होने लगा। आर्य समाज का मन्तव्य यह रहा है कि ऊँच नीच और वर्ण का आधार मनुष्य के अपने कर्म है,
जन्म नही। यह मनुष्य मात्र के प्रति समानता का दृष्टिकोण है, जिससे प्रेरित होकर आर्य समाज के अस्पृश्य बन्धुआंे को यज्ञोपवीत देकर सवर्णो के समान अधिकार देने का कार्य आरम्भ किया था।
लाला लाजपत राय के शब्दों में – “राष्ट्रीय पतन के बीच दूसरों पर किये गये अत्याचारों में निहित होते हैं और यदि हम भारतीय, राष्ट्रीय आत्मसम्मान की प्राप्ति की इच्छा करे तो हमे अपने अछूत भाई-बहनों के लिए अपने हाथ खोल देने चाहिए और उनमें मानवीय गौरव की प्रबल भावना भर देनी चाहिए। जब तक हमारे देश में बहुसंख्यक अछूत भाई रहेंगे, तब तक हम अपना वास्तविक राष्ट्रीय उत्थान नही कर सकते। राष्ट्रीय उत्थान के लिए उच्च नैतिक स्तर की आवश्यकता होती है। जहाँ कमजोर वर्गो के साथ अन्याय का व्यवहार होता हो, वहाॅ उच्च नैतिक स्तर की कल्पना नही की जा सकती। अपने अपने भाई दुर्बलता पर कोई भी अपनी महत्ता का निर्माण नही कर सकता।1
अक्टूबर 1885 में मिर्जा इमामुद्दीन रईस और मुंशी मुराद अली खाॅ नामक दोकादियान मुसलमानों को आर्य धर्म में वापस लाया गया। इसी वर्ष अमृतसर आर्य समाज के उद्योग से कम से चालीस हिन्दू विधर्म बनने से बचे। लाहौर के प्रसिद्ध पत्र-“हिन्दुस्तान“ ने लिखा है कि शुद्धि सभा के प्रति मुसलमानों का रूख अत्यन्त सौहार्दपूर्ण है, यद्यपि उनका शुद्धिकरण उसका उद्देश्य है।2
शुद्धि कार्यक्रम का अधिकाॅश हिन्दू समाज ने दिल खोलकर स्वागत किया। अनेक कट्टर सनातन धर्मों पण्डित और कार्यकर्ता जी जान से शुद्धि के कार्य में सहयोग देने लगें। हिन्दू जाति में ऐसी मानसिक क्रान्ति उत्पन्न हो गयी थी जैसी शताब्दियों से दिखाई नही दी थी।
उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी में स्वामी दयानन्द के रचनात्मक कार्यों को निरन्तर गतिमान करने का श्रेय आर्य समाज संस्था को है जिसकी स्थापना स्वयं स्वामी जी ने धार्मिक और संास्कृतिक पुर्नजारगण हेतु की थी। इसका आरम्भ हरिद्धारी के कुम्भ मेले में सन् 1967 में “ पाखण्ड खण्डनी ध्वाजा “ के नीचे से किया परन्तु उसका मूर्त रूप सन् 1871-72 में स्थिर हो सका। अन्ततः 10 अपै्रल, सन् 1875 में बम्बई तथा सन् 1877 ई0 में लाहैार में आर्य-समाज की स्थापना हुई।
स्वामी जी द्वारा स्थापित आर्य समाज एक धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण का स्थल था जिसने भारत को नव जीवन प्रदान किया। प्रार्थना समाज एवं ब्रह्मसमाज की देश भक्ति क्षीण थी, वह आर्यावर्त में जन्मे उसी का अन्न खाकर आर्यों का धर्म भूल बैठे थे। आर्यवर्त के स्थान पर उनका सुझाव विदेशी धर्मों की ओर नित्य प्रति बढता जा रहा था। साथ इन धर्मों पर इसाईयत का प्रभाव था तथा लोकतांत्रिक नियमो से अलग हटकर थी। इन संस्थाओं का आधार बिन्दु जनता के लिए शासन था, पर जनता के द्वारा नही था, परन्तु स्वामी जी का उद्देश्य “स्वराज्य“ था सुराज नहीं।
स्वामी जी आर्य समाज का आधार वैदिक धर्म बनाया क्योंकि वे राष्ट्रीय भावना का पालन पोषण करना चाहते थे। विदेशी पंथ (ईसाईयत) को अंगीकार कर लेने से राष्ट्रीय भावना के लिए संकट उपस्थित हो सकता था आर्य समाज के नेताओं के अनुसार-देश भक्ति वेद भक्ति की दासी है। एक उच्च प्रेरणा दायक, शक्तिदायिनी, एकीकरण करने वाली शक्तिदायक, सन्तोषप्रद तथा स्फूर्तिदायक वस्तु है।3 आर्य समाज का गठन लोकतंत्रीय सिद्धान्तो के आधार पर किया गया। स्वामी जी को लोकतांत्रिक व्यवसथा में अटूट श्रद्धा थी। प्रत्येक स्तर पर वे प्रत्येक व्यक्ति के मत का आदर करते थे, यही विचार वे शासन में चाहते थे, यही उन्होने आर्य समाज के लिए किया। आर्य समाजी नेंताओं का मत था कि स्वराज्य को अपना आदर्श मानकर चलेंगे तभी भारत को स्वतंत्र कराने में अपना योगदान दे सकेंगे। “जिस देश के पदार्थों से अपना शरीर बना, अब भी पालन होता है और आगे भी होगा, उसकी उन्नति तन-मन धन से सब जने मिलकर प्रतिपूर्वक करें।“4 स्वामी जी के इस स्वदेश प्रेम से निहित कथन को अन्तनिर्हित करके आर्य समाज में अपने रचनात्मक कार्य करने को दिशा प्रदान की। अनाथ बच्चों, महिलाओं के लिए बाल सुधार गृह, विधवा आश्रम आदि की स्थापना आर्य समाज के द्वारा की गयी। पहला हिन्दु अनाथालय फिरोजपुर में स्वामी दयानन्द के जीवन काल में ही स्थापित हो गया था। जब तक देशवासियों को अपनी दीन-हीन स्थिति से उबारा नहीं जाता तब तक राष्ट्रीय क्रान्ति में गति आना सम्भव नहीं।
वैदिक भारत में स्त्रियों को पुरूषों के समान शैक्षिक, संास्कृतिक, सामाजिक अधिकार प्राप्त थे। ऋग्वेद में महिलाओं को कन्या, पत्नी, माता आदिरूपों में वन्दनीय माना गया है। उस काल में बालिकाओं को बालको के समान शिक्षा एवं ज्ञान विज्ञान के अध्ययन का अधिकार था वे वैदिक धर्मानुकूल विवाह करती थी, उनके विवाह की न्यूनतम आयु 16 वर्ष तथा बालकों की 25 वर्ष थी। विवाह के सम्बन्ध में बालक-बालिका दोनों को समान स्वतंत्रता एवं अवसर उपलब्ध थे।
आर्य समाज में वेद कालीन सभ्यता के पुर्नागमन का उद्घोष किया। बाल-विवाह, सती प्रथा आदि को वेद-विरूद्ध बताया और समाज को अवैज्ञानिक, अवैदिक रूढ़ियों से मुक्त होने का आग्रह किया। बाल-विवाह का एक ही दुष्परिणाम था कि वयस्क अवस्था तक पहुंचने तक अधिकांश स्त्रियां विधवा हो जाया करती थीं। इन विधवाओं को सोचनीय स्थिति हिन्दु समाज पर एक कलंक थी। उन्हे पुनर्विवाह करने की अनुमति नहीं थी, बल्कि पुरूष एक से अधिक विवाह कर सकते थे। पर्दा-प्रथा ने हिन्दु पारिवारिक जीवन को नाटकीय बना रखा था। शिक्षा से वंचित इन स्त्रियों की स्थिति अत्यन्त सोचनीय थी। अपनी अज्ञानता, अशिक्षा, अन्धविश्वास – अवयस्क मातृत्व एवं वैधव्य के बोझ से दबी स्त्रियां पुरूष की दासी मात्र थी। आर्य समाजी द्वारा स्त्री जागरण के भगीरथ प्रयासों नें मध्य युगीन रूढ़िगत मतों के स्थान पर उन शक्तियों को जन्म दिया, जिसने आधुनिक भारत की नीवं रखी।
सामाजिक कुप्रथाओं और रूढ़ियों को समाप्त करने के साथ आर्य समाज में देश में प्रकृतिक प्रकोपों से भी संघर्ष किया। सन् 1876ई0 से सन् 1900 ई0 तक भारत में प्रकृतिक प्रकोपों का कहर टूटता रहा। सन् 1896-97 ई0 में सबसे बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा जिससे लगभग 7 करोड़ आबादी प्रभावित हुई। आर्य समाज द्वारा संगठित हिन्दु समाज ने सभी भेद, भावों को बुलाकर अकाल राहतकोष में भरपूर चंदा दिया। शिक्षित – अशिक्षित, अमीर, गरीब, छोटे-बड़े परस्पर समीप एवं सहानुभूमि सें भर उठे। हिन्दु युवक, छात्र, छात्राएं अकाल पीड़ित मानवता की सेवा में जी जान से जुट गये। जनवरी, 1877 में महारानी विक्टोरिया को ’भारत की मलिका’ घोषित करने का शान, शौकत भरा दरबार उस समय किया गया था, जबकि इसी वर्ष भारतीय जनता भूखों मर रही थी, भारत से इंग्लैण्ड को 80 लाख पौंड के अन्न का निर्यात किया गया। ऐसे समय में आर्य समाज द्वारा स्थापित एवं संचालित अकाल सहायता कार्य करमों ने राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय भावनाओें को परिपुष्ट किया।
भूंख से पीड़ित बालक-बालिकाओं की धर्म-परिवर्तन की रक्षा अति आवश्यक हो गयी थी, क्योंकि ईसाई मिशनरी जगह-जगह बच्चों को ढ़ूंढकर ईसाई मिशनों में भेजते फिरते थे। हिन्दु अकाल सहायता कार्यक्रम केे नेताओं ने अपने भाषणों, लेखों आदि के द्वारा आर्य जनता को ईसाई मिशनरियों की चालों से बार-बार सावधान किया।
‘‘इलाहाबाद के सुन्दर लाल एवं गोवर्धन दास को अकाल पीड़ित शिविरों में अंग्रेजों के प्रति रोष भड़काने के आरोप में जेल की सजाएं भी हुयी। हमीरपुर जिले में चित्रसेन ने अकाल सहायता शिविर में भाषण करते हुये कहा कि 7 पैसे प्रतिदिन की आजीविका के लिए तिल-तिलकर मरने की बजाय देश के लिए बारगी शहीद होना ज्यादा बेहतर है। जिलाधीश बांदा के अनुसार सहायता शिविर धर्मार्थ कम, राजनीतिक उद्देश्यों से ज्यादा प्रेरित थे।’’5 अकाल सहायता कार्यक्रम का आर्य सामाज के नेताओं ने राष्ट्रीयवाद की भावना के पोषण में भरपूर सदुपयोग किया। आर्य समाजी नेता विभिन्न सहायता शिविरो में राजनीतिक एकता एवं संगठन के लिए प्रचार करते रहे। यद्यपि अकाल सहायता कार्यक्रम देखने में धर्मार्थ कार्य लगता था, लेकिन यह जनता को सरकार के विरूद्ध संगठित करनें का सुनियोजित अभियान था। इस सहायता शिविरों के संचालक आर्य समाज के सिद्धान्तों से प्रतिबन्ध राष्ट्रीय कार्यकर्ता होते थे। इसलिए यह शिविर राष्ट्रीयता का प्रचार केन्द्र बन गये थे।
समय के साथ-साथ परिस्थितियों को देखते हुए आर्य-समाज के नियम एवं क्षेत्र विशाल होते गये, परन्तु आर्य सामाजी नेताओं का विश्वास कभी भी सहस्त्र क्रान्ति में नहीं रहा। आर्य समाज, कांग्रेस, स्वराज्यवादी दल, राष्ट्रवादी दल, हिन्दु महासभा एवं विभिन्न क्रान्तिकारी संगठनों के माध्यमों से राष्ट्रीय आन्दोलनों को अग्रिम पंक्ति में लड़ता रहा । स्वामी दयानन्द की धार्मिक विद्धता एवं सांस्कृतिक प्रतिभा का यह प्रभाव था कि देश में राष्ट्र चेतना जाग्रत करनें में आर्य-समाज एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में भारतीयों के समक्ष प्रस्तुत हुआ। आर्य – समाज आन्दोलन अन्तारित रूप से संगठनात्मक तथा सुधारात्मक आन्दोलन था और बाह्य आक्रमणों से बचाव के लिए यह एक रक्षात्मक संगठन था। आर्य-समाज भारत में स्वतंत्रीयता का संदेशवाहक बना। सामाजिक चिन्तन तथा धर्म के क्षेत्र में बौद्धिक स्वतंत्रता का उदय राजनीतिक स्वतंत्रता की नींव बन गया ।
स्वामी जी वेदवादी एवं कर्मवीर थे। उनके वेदपाठ का उद्देश्य देश की सोयी हुयी शक्ति को पुनः जाग्रत करना था। वह वेदों के आधार पर इस्लाम और ईसाईयत के मदोन्पत रवैये के विरूद्ध संतुलन रखने वाली प्रभावित की प्राथमिकता देते थे। उन्होने किसी भी धर्म पर किसी दुर्भावना अथवा घृणा के कारण कुठाराघात नहीं किया, बल्कि रूढ़िवादी क्रियाकलापों पर प्रहार किया । वह कहते थे, ’’यद्यपि मैं आर्यवर्त में उत्पन्न व और वही अब भी रह रहा हूं, फिर भी इस देश में प्रचलित धर्म की असत्यता का समर्थन नहीं करता, बल्कि उसका पूर्णतः भण्डाफोड़ करता हूं। जहाँ तक मनुष्य जाति के उत्थान का सम्बन्ध है, मैं विदेशियों के साथ वैसा ही आचरण करता हूं, जैसा कि अपने देशवासियों के साथ। सब मनुष्यों के लिए ऐसा करना उचित है। दूरदर्शी महर्षि ने वैदिक धर्म और संस्कृति को पुनर्जीवित करना अपना एकमात्र ध्येय बनाया, परन्तु इस ध्येय की पूर्ति के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक था कि वह प्रचलित कुप्रथाओं तथा अन्धविश्वास का विरोध करके जनसाधारण के हृदय में आत्म विश्वास जाग्रत करते । मूर्ति पूजा पर एक व्याख्यान में स्वामी जी ने कहा, मूर्ति जड़ है, इसे ईश्वर मानोगे तो ईश्वर भी जड़ सिद्ध होगा, अथवा ईश्वर के समान एक और ईश्वर मानों तो परमात्मा का परमात्मापन नहीं रहता। यदि यह कहो कि प्रतिभा में ईश्वरांस आ जाता है तो ठीक नहीं। इससे ईश्वर अखण्ड नहीं सिद्ध हो सकता है । भावना में भगवान है, यह कहो तो मै कहता हूं कि काष्ठखण्ड में इक्षुदण्ड की और लोष्ठ में मिश्री की भावना करने से क्या मुख मीठा हो सकता है? मृगतृष्णा में मृग जल को बहुतेरी भावना करता है, परन्तु उसकी प्यास नही बुझती। विश्वास, भावना और कल्पना के साथ सत्य का होना भी अति आवश्यक है। मूर्तिपूजा से जो अनिष्ट हो रहा है उसके विषय में वे लिखते हैं- मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है, जिसमें गिरकर मनुष्य चकनाचूर हो जाता है। पुनः उस खाई से निकल नहीं सकता, किन्तु उसी में मर जाता है।6 राजा राम मोहन राय ने साधारणतया और स्वामी दयानन्द ने विशेषतयः इस बात का समर्थन किया कि मूर्तिपूजा के लिए वैदिक धर्म ने काई स्थान नहीं है। उनका मूर्तिपूजा का निषेध शास्त्र प्रमाण से सम्बन्धित और अनुमोदित एवं युक्तिपूर्ण था। ऐंसी स्थिति में धर्म में व्याप्त इस मौलिक बुराई से समझौता करना उनके लिए असम्भव था।
स्वामी जी मूर्ति पूजा के विरोधी थे, किन्तु इस्लाम के कट्टर अनुयायियों की भाँति मूर्तिभंजक भी नहीं थे। वे मन्दिरों अथवा अन्य धर्म स्थलों के पक्षपाती थे। फरूखाबाद बाजार मेें नाप का कार्य हो रहा था और राजमार्ग अधिक चैड़ा बनाया जा रहा था। बाजार के ठीक बीच सड़क पर एक छोटा सा देव मन्दिर था। मूर्तिपूजा के प्रति विरक्ति रखने वाले दयानन्द से बापू मदन मोहन लाल ने कहा, कि यदि वे जिला मजिस्ट्रेट को थोड़ा भी संकेत दे दें, तो यह मूर्ति-स्थान अबिलम्ब हटा दिया जाएगा। परन्तु स्वामी जी जड़-मूर्तियों को नष्ट करने के पक्ष-पाती नहीं थे। उनका लक्ष्य तो सच्चिदानन्दादि लक्षण युक्त परमात्मा के स्थान पर प्रचलित जल-पूजा को समाप्त करना था। इसलिए उन्होने स्पष्टतः कहा,- मेरा कार्य लोगो केे मन मन्दिरों में सुदृढ़ता स्थापित मूर्ति पूजा के भागों को समाप्त करना है न कि पत्थर के मन्दिरों को नष्ट करना है, और उनके भीतर स्थापित मूर्तियों को हटाना।7
स्वामी जी का सबसे महत्वपूर्ण कार्य हिन्दू धर्म को एक ऐसी कट्टरता प्रदान करना था, जो इस्लाम और ईसाई धर्म में ही पाई जाती थी। हिन्दू धर्म ग्रन्थ और स्वयं वेदो ने भी कही यह नहीं कहा कि वे ही सत्य का एकमात्र मार्ग हैै। जिसमें उदारता और सहनशीलता पाई जाती है। वे स्वंय कहते हैं कि सत्य और ईश्वर प्राप्ति के विभिन्न मार्ग है। ईसाई और इस्लाम धर्म के मुकाबले में हिन्दु धर्म की सबसे बड़ी दुर्बलता यही थी कि इस्लाम और ईसाई दोनो धर्म अपने-अपने धार्मिक ग्रन्थों और धर्मों को ही एकमात्र सत्य और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताते हैं। उन्होने हिन्दू धर्म की इस दुर्बलता को समझा तथा अनुभव किया कि हिन्दू धर्म की इसी दुर्बलता के कारण इस्लाम एवं ईसाई धर्म, हिन्दू धर्म पर विजय प्राप्त करते चले जा रहे हैं। इस कारण उन्होने वेदों को भी यही श्रेष्ठता और एक मात्रा का स्थान दिया जो मुसलमान कुरान को और ईसाई बाइबिल को देते है। हिन्दू धर्म की उदारता और व्यापक दृष्टिकोण का लाभ अन्य सभी धर्मों ने भी उठाया था। स्वामी जी का कथन था कि वेद ही संसार में सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शक है और सत्य मार्ग केवल वेदों में ही है। इससे हिन्दू धर्म अपनी क्षुद्रता की भावना से धीरे-धीरे मुक्त हो सका और इस्लाम एवं ईसाई धर्म की तुलना मेें मस्तक उठाकर खड़ा हो सका। यह वह भावना भी जितने तत्कालीन समय के हिन्दू धर्म के सभी सामाजिक एवं धार्मिक की सुधारों की आधारशिला का कार्य किया और देश में राष्ट्रीयता की भावना को भी जन्म दिया।
उनका धर्म राष्ट्रीयता को एक उत्तेजना प्रदान करने वाला धर्म था। उन्होने भारतीय राष्ट्रवाद को राष्ट्र धर्म से मिलाया। राष्ट्र धर्म का अभिप्राय भारत की उस परम्परागत गरिमा से था जिसने समस्त देशवासियों की एकता के सूत्र में बांध रखा था। राष्ट्र तथा धर्म के प्रति श्रद्धा की भावना प्रन्तीयवाद, सम्प्रदायवाद तथा जातिवाद की घोर विरोधिनी है। राष्ट्र प्रेम तथा धर्म निष्ठा एवं दूसरे के पूरक हैं। धर्म बन्धन से मुक्त का साधन भी है। बन्धन मुक्त या स्वतंत्र होकर जीवित रहना ही मनुष्य की भंाति जीना है। स्वामी जी को भी स्वतंत्रता से अत्यधिक प्यार था। उन्होने अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु स्वतंत्र रहने के कारण विवाह नहीं किया। आत्म की स्वतंत्रता की खेाज करने के लिए पिता का घर छोड़ा। मनुष्य की आत्माकार्य करने में स्वतंत्र हैं किन्तु फल की प्रप्ति में वह ईश्वर के आधीन है। इसलिए उन्होने बौद्धिक स्वतंत्रता की घोषणा की और सभी धर्म सम्बन्धी रूढ़िवादी साहित्य की स्वतंत्र तथा ओजपूर्ण आलोचना की। आन्तरित स्वतंत्रता के पक्ष में स्वामी जी के योगदान का मूल्यांकन करते हुए जायसवाल लिखते हैं- सन्यासी दयानन्द ने हिन्दुओं की आत्मा को उसी प्रकार स्वतंत्रता प्रदान की जिस प्रकार लूथर ने यूरोपीय आत्मा को प्रदान की थी और उन्होने उस स्वतंत्रता का निर्माण भीतर से अर्थात् हिन्दू संस्कृति के आधार पर ही किया है।8 लूथर के समय में रोम में चर्च के पादरी भ्रष्ट हो गये थे। उनके स्वार्थी आचरण के कारण भ्रष्टाचार समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त था। लूथर ने दस प्रकार पादरियों को भ्रष्ट राजनीति से जनमानस को उभारने के लिए बाइबिल की ओर लौटो का नारा लगाया । इसी प्रकार भारत ने हिन्दू समाज में आई रूढ़ियों कुप्रथाओं अन्धविश्वासों आज से स्वतंत्र होने के लिए वेदों का अनुसरण करने का उपदेश दिया जिससे भारतीयों की मानसिकता अविवेक के बन्धनों से मुक्त हो सके।
यदि किसी देश के नागरिक व्यक्तिगत आन्तरिक और बौद्धिक रूप से परतन्त्र है तो इससे राजनैतिक तन्त्र में विदेशी राज्य को बल मिलता है, परन्तु यदि वे स्वतन्त्रता के पक्षपातीे होते हैं, तो इससे स्वराज्य का उदय होता है। स्वराज्य का आदर्श सर्वप्रथम स्वामी दयानन्द के मस्तिष्क में उपजा। प्रचीन समय में आर्यवर्त में आर्यों का अखण्ड, स्वतंत्र, स्वाधीन एवं निर्भय राज्य था, जो कि इस समय नहीं था, जो कुछ था भी, उस पर विदेशियों ने अपना अधिकार कर रखा था। परतन्त्रता की इस स्थिति में प्रत्येक देशवासी को दुख भोगना पड़ता है इसलिए स्वदेशी राज्य ही सर्वोत्तम है जबकि विदेशी राज्य पूर्णतया सुखदाई नहीं है। ब्रह्म समाज अथवा प्रार्थना समाज आन्दोलन से प्रभावित भारतियो की इस धरणा की ब्रिटिश सरकार सर्वोत्तम प्रशासन है, कि आलोचना में समय नष्ट न करते हुए उन्होने सीधे शब्दों में सूरज (अच्छा राजा) और स्वराज्य (स्वशासन) में अन्तर स्पष्ट किया।
स्वामी जी के विचार मेें स्वराज्य प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण देश एक सूत्र में बंधा होना चाहिए, जिसके सम्मुख विरोधी उद्देश्य न हो। भारत की दुखद फूट को देर करने के लिए तथा सामाजिक दृष्टि से देश को एकताबद्ध करने के लिए जातियों तथा वर्गों के भेदभाव को नष्ट करना आवश्यक था। आपस की फूट के कारण ही विदेशियों का भारत पर आधिपत्य हो सका। आपस की फूट से गैर, पाण्डव और यादवों का सत्यानाश हो गया, परन्तु अब तक भी वही रोग पीछे लगा है, न जाने यह भयंकर राक्षस कब टूटेगा
यह आर्यों से सब सुखों को छुड़ाकर दुखो के सागर में डूब मरेगा। इसी दुष्ट दंुर्योधन गोत्र हत्यारे स्वदेश विनाशक, नीच के मार्ग मे आर्य लोग अब तक भी चलकर दुःख बढ़ा रहे है। परमेश्वर कृपा करें की यह राज रोग हम आर्यों में सें नष्ट हो जाए। यही कारण भारतीयों की तत्कालीन दासता की नियति बना। विदेशियों के आर्यावर्त में राज्य होने के कारण आपस का फूट, मत, भेद आदि है।
स्वराज्य की प्राप्ति के लिए आपस की फूट को दूर करना अनिवार्य है। इस विरोध के छूटे बिना परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्रायः सिद्ध होना कठिन है।9
स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संगठन होना आवश्यक है। दूसरे यह कि स्वराज्य के बढ़कर कोई राज्य नहीं। स्वामी जी देश में वर्तमान विभिन्न सम्प्रदायों को एकता की आवश्यकता को अनुभव करते हुए सर सैयद अहमद खाँ आदि को बुलाकर भारत के इतिहास में सबसे पहला एकता या सर्वदल सम्मेलन किया, परन्तु यह सम्मेलन सफल न हो सका। सम्मेलन तो समझौते के आधार पर बना सकते हैं, एकता का नहीं। समझौते से तत्कालीन समस्या का हल भले ही हो जाए किन्तु वह व्यापक नही हो सकता, उसका प्रभाव तो स्थाई होता है, क्योंकि एकता का कर्मस्थल तो मन होता है। एकता के बिना किसी भी प्रकार की उन्नति करना असम्भव है। जब तक एक मन, एक हानि-लाभ, एक सुख दुख परस्पर न माने तब तक उन्नति होना कठिन है। जब तक भारत में वेदों के प्रति निष्ठा को और परस्पर सुख-दुख को समझते थे, तभी तक भारत में सुख था परन्तु उच्छंखल मनुष्यों के कारण दुख एवं विरोध बढ़ने लगा। इस दुख का निवारण सिद्धान्त मनुष्यांे द्वारा ही सम्भव है। प्रत्येक भारतीय सत्यपथ का अनुगामी बने। भिन्न-भिन्न भाषा, प्रथक शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। विचारों में विरोध रहते हुए एकता सम्वत नही। एक धर्म एक भाषा और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्णहित और जातीय उन्नति का होना दुष्कर है। जब उन्नतियों का केन्द्र स्थान एक है जहां भाषा, भाव और भावना में एकता आ जाए वहां सागर में नदियों की भांति सारे सुख एक-एक प्रवेश करने लगते हैं। स्वामी जी चाहते थे कि देश के राजे-महाराजे अपने शासन में सुधार और संशोधन करें। अपने राज्य में धर्म, भाषा और भावों में एकता पैदा करें। फिर भारत में अपने आप ही सुधार हो जाएगा।
राष्ट्र एकता का प्रमुख आधार भाषा है। इसलिए स्वामी जी ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाना चाहा एवं प्रत्येक आर्य के लिए हिन्दी भाषा को जानना आवश्यक बताया, जबकि स्वामी जी को जन्मूमि की भाषा गुुजराती थी। संस्कृत में पठन पाठन करने के बावजूद भी उन्होने अपने ग्रन्थों हिन्दी में लिखी इसीलिए वह कहते थे जिन्हे सचमुच मेरे भावों को जानने की इघ्छा होगी वे इस आर्य भाषा का सीखना अपना कर्तव्य समझेंगे। अनुवाद तो विदेशियों के लिए होता है।10
हिन्दी इस देश की भाषा है और उसका आधार भारतीय सभ्यता, संस्कृति परम्परा आत्मगौरव और हमारी राष्ट्रीयता हमें विश्व करते है। कि हम उसी भाषा को राष्ट्र भाषा के रूप में अपनाए, जिसकी आत्मा एवं शरीर पूर्ण रूप से स्वदेशी हो। इसलिए स्वामी जी ने अपने जोधपुर प्रवास के दौरान महाराजा को सलाह दी थी कि वे राजकुमार के हिन्दी पठन-पाठन की व्यवस्था करें।
राष्ट्रभाषा हिन्दी होने के कारण भारत में वैदिक ज्ञान पपर जहां ब्राह्मण वर्ग का आधिपत्य था वहीं अन्य वर्गों का भी अधिकार होने लगा। इससे उनमें बौद्धिक आत्मविश्वास की भावना जागृत हुई। हिन्दी के प्रयोग को सभी क्षेत्रों मेें प्रोत्साहित करने के लिए स्वामी जी ने स्वयं भी हिन्दी में रचना की एवं उपदेश दिए।
हिन्दी के स्वामी जी ने स्वदेशी भाषाओं के आन्दोलन को भी प्रोत्साहन दिया। भारत महादेश है किन्तु वह एक राष्ट्र है। अनेक भाषाओं के होने पर भी इस देश में पन्द्रह भाषाओं में साहित्य पाया जाता है। इन देशी भाषाओं को आधार मानने से स्वदेशी की संकल्पना को बल मिला।
स्वामी जी की स्वराज्य की संकल्पना केवल आर्यवर्त, एकता व संगठन, राष्ट्र भाषा तक ही सीमित नहीं थी, परन्तु इसके साथ स्वदेशी वस्तुओं का भारतीय द्वारा अनिवार्य रूप से उपयोग भी सम्मिलित है। उन्होने स्वदेशी का समर्थन बंग-भंग विरोधी आन्दोलन से बहुत पहले की थी। मार्च 1885 में जब स्वामी दयानन्द जोधपुर रियासत में गये थे तो उन्होने वहां के महाराजा से अपने राज्य मेें उत्पन्न होने वाले स्वदेशी वस्त्र उद्योग की करने की सहायता करने की सलाह दी थी। रियासत में महाराजा से लेकर चपरासी तक प्रत्येक व्यक्ति राज्य में निर्मित खादी का प्रयोग करते थे। स्वामी जी के आचार्य-विचार रहन-सहन सभी पर स्वदेशी की छाप थी। ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी जी द्वारा स्वदेशी वस्तुओं पर जोर मैकाले के विरूद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप है। मैकाले भारतीयों को विदेशी आचरण में बांधकर गुलाम बनाये रखना चाहता था और बहुत से भारतीयों को ऐसा बना भी दिया गया था। वे अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपना साहित्य अपनी भूमि और स्वयं अपने को भी भूल बैठे थे। इनका एकमात्र निराकरण स्वदेशी प्रचार स्वदेशी से स्वामी जी का आषय अपनी संस्कृति और साहित्य के रंग, अपनी भाषा का प्रयोग अपने देष में निर्मित वस्तुओं के प्रयोग से है। स्वराज्य प्राप्ति हेतु प्रत्येक भारतीय को तन-मन-वेशभूषा आचरण से स्वदेषी बनना अनिवार्य हैै।
राष्ट्र की पताका और स्वराज्य का आधार स्वामी जी ने गौ को माना है। उनकी मातृत्व को संकल्पना मातृभूमि और गौ दोनो में समान रही है। सम्पत्ति का आधार भी गोधन है जब आर्यों का राज्य था तब ये गाहोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे। तभी आर्यवर्त व अन्य भूगोल देशों में बड़े आनन्द में मनुष्यादी प्राणी रहते थे, क्योंकि दूध, घी, तेल आदि पशुओं की बहुतायी होने से अन्न पुज्जवल प्राप्त होते थे। जबसे विदेशी मांसाहारी इस देश में आकर गौ आदि पशुओं को मारने वाले मद्यपायी राजधिकारी हुये हैं, तबसे क्रमशः आर्यों के दुखो की बढ़ती होती जाती है क्योंकि नष्टे मूले नैव फलम न पुष्पम, स्वामी जी ने गौ को सब सुखों का आधार माना है। गवादि पशु और कृष्याादि कार्यों की रक्षा और वृद्धि होकर सब प्रकार के उत्तम सुख देखिए गाय आदि पशु और कृषि आदि कर्मों से सब संसार को असंख्य सुख होते हैं व नहीं?11 उन्होने पशुओं की रक्षा का आदेश देते हुए सबसे अधिक बल गौ रक्षा पर ही दिया है, गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश होता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं तो दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों की भी घटती होती है। स्वामी जी ने गौ की उपयोगिता और उसके राष्ट्रीय महत्व को देखते हुए गौ हत्यारे को उतना ही अपराधी माना है जितना मनुष्य की हत्या करने वाले को। अहिंसा का अभ्यास करने का सर्वोत्तम उपाय गौ सेवा है।
गौ ही ऐसी वस्तु है जिससे सभी मनुष्य एक हो सकते हैं और पारस्पारिक संगठन का आधार बनाकर देश की सर्वागीण उन्नति कर सकते है। इसी उद्देश्य से महर्षि दयानन्द ने ग्राम-ग्राम गोकृष्यादि रक्षिणी सभाओं की स्थापना का आदेश दिया है यदि भारत ने उद्देश्य को अपने सम्मुख रखकर कार्य किया होता तो भुखमरी इतना भयंकर रूप न ले पाती। गोधन का ह्नास ही आर्थिक ह्नास का कारण है जब तक गौ की पूजा की जाती रही हमारा सुख और वैभव बढ़ता रहा। गौ राष्ट्रीयता का आधार है। उसकी सेवा प्रत्येक देशभक्ति का प्रथम कर्तव्य है। स्थाई स्वराज्य के लिए गौ रक्षा अनिवार्य हैै।
स्वामी दयानन्द ने भारतीय स्वतंत्रता के नैतिक एवं वैद्धिक नींव रखी। स्वराज्य को वैदिक कल्पना को पुर्नजाग्रत किया। इसीलिए अंग्रेज शासक स्वामी जी को उग्र राष्ट्रयवादी एवं आर्य समाज को अर्थ-राजनीतिक संगठन मानते थे। आर्य भिविनय, वेदभाश तथा सत्यार्थ प्रकाश में चक्रवती राज्य की प्रार्थना एवं राज्यधर्म के प्रतिपादन को लेकर अंग्रेजी शासन ने आर्य-समाज के प्रति अविश्वास एवं आशंका का भाव व्यक्त किया। तत्कालीन परिस्थितियों में स्वामी आलाराम जो पहले आर्य-सामाजी के बाद में संनातन धर्मी बन गये थे, उन्होने आर्य समाज को राजद्रोही संस्था सि0 करते हुए एक पुस्तक प्रकाशित की इससे आर्य जगत में तीव्र प्रतिक्रिया हुयी और स्वयं सरकार ने आलासाम पर मुकदमा चलाया। सन् 1902 में इस मुकदमें के फैसले में मजिस्ट्रेट नि0 हैरिसन ने लिखा था। मुझे दयानन्द की श्ेिाक्षा का अभिप्रायः यह प्रतीत होता है कि शिक्षा जगत में हिन्दु जाति की बुराइयों को दूर किया जाए, जिससे अन्त में देश का शासन देशवासियों के हाथ में आ जाए। उनके उपदेशों और प्रार्थनाओं का अर्थ यह नही है कि विदेशी सरकार को एकदम उखाड़कर फेक दिया जाए, अपितु यह है कि उनमें ऐसा सुधार हो जो उन्हे अपने शासन के योग्य बनाए। स्वामी दयानन्द ने न कहीं हथियार उठाने की प्रेरणा दी है और न युद्ध का डंका बजाया। वास्तव में स्वामी जी के कार्यों का अभिप्रायः मात्र जन्म-जागरण करना था। इस जनजागरण के फलस्वरूप स्वामी जी आगामी वर्षों में भी राष्ट्रीय आन्दोलन का मुख्य स्तर बने रहेंगे।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:-
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5. भारतीय राष्ट्रवाद एवं आर्य समाज अन्दोलन पृष्ठ सं0 83 – 84
6. सत्यार्थ प्रकाश, एकादस समुल्लास, पृष्ठ सं0 214
7. नव जागरण के पुरोधा: दयानन्द सरस्वती , पृष्ठ 373
8. के0पी0 जायसवाल: दयानन्द कामामोरेशन वा0 पृ0सं0 162-163 उद्धत डाॅ0 पी0पी0 वर्मा, आध्ुानिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन, लक्ष्मी नारायन अग्रवाल प्रकाशन आगरा, 1971 पृ0सं0 42
9. वदर, प्रथम संबभव सह स्वाराज्यपिभाय यस्मानान्यत्परमस्ति भूतम। अथर्व0 7/31
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11. स्वामी दयानन्द सरस्वती: अथ गोकरूणानिधी, दिल्ली आर्श साहित्य प्रचार ट्रस्ट 1987 पृ0सं0-1