शोधार्थी
पूनम चैहान
हिन्दी विभाग
कु0 मायावती राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
बादलपुर, गौतमबुद्ध नगर
‘धर्म‘ भारतीय संस्कृति का प्राण-तत्व है। ‘धर्म‘ के बिना भारतीय जन-मानस का कोई भी कार्य सम्पन्न हो जाय, यह असम्भव है। माँ के गर्भ में आने से पहले ही धार्मिक आदेशों-अनुदेशों से जीवन का नियमन शुरू हो जाता है। सीमन्तोन्नयन संस्कार, पुंसवन संस्कार, जातकर्म संस्कार,नामकरण संस्कार, मुण्डन संस्कार, उपनयन संस्कार, विवाह संस्कार यहाँ तक कि मृत्यु के अनन्तर भी अन्त्येष्टि संस्कार के बाद ही जीवन की चरम परिणति होती है। लड़के और लड़कियों दोनों के लिए यह धार्मिक नियमन लगभग समान हैं परन्तु लड़कियों के मामले में कुछ संस्कारों के प्रतिपादन में कुछ ढिलाई अवश्य दृष्टिगत होती है। लड़कियों के लिए ‘असूर्यपश्याः‘ के नियम बड़ी कड़ाई से लागू थे। एक तरह से उस पर घर की कोठरी में कैद रहने का नियम लागू था। स्मृति काल में मनु ने नारी को एक ओर पूज्य स्थान ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवताः‘ प्रदान किया था वहीं दूसरी ओर ‘पिता रक्षति कौमारे, भार्या रक्षति यौवने‘ के द्वारा इसकी स्वतंत्रता को अवरूद्ध किया था। ‘न स्त्री स्वातंष्यर्महति‘ के अनुसार, स्त्री को पुरूष की कारा मंे आबद्ध कर दिया गया था। बिना पिता व पति की आज्ञा के वह एक कदम भी इधर से उधर न कहीं जा सकती थी न कहीं आ सकती थी और न अपनी मर्जी से किसी प्रकार का सामूहिक, यहाँ तक कि व्यक्तिगत निर्णय भी नहीं ले सकती थी। पिता, सास-ससुर अथवा पति की इच्छा के विपरीत न वह मर सकती थी न जी सकती थी। वैदिक काल में जो स्त्री ‘ब्रहमज्ञानी‘ वाक् शक्ति तथा लक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित थी वही नारी आगे चलकर शिक्षा के अधिकार से वंचित होकर ‘ढोल, गंवार, शूद और पशु‘ की श्रेणी में गिनी जाने लगी।
मध्यकाल में मुसलमानों के आक्रमण एवं मुगलकालीन शासन के बाद स्त्रियों की भूमिका बदलती गई। उस पर नियन्त्रण और कड़ा हो गया। शिक्षा के अधिकार खत्म हो गये। पर्दा-प्रथा एवं सती-प्रथा का चलन बढ़ा। स्त्री पति के घर की चारदीवारी की शोभा बन गई। स्त्री समाज की सबसे निम्नकोटि की जीव बनकर रह गयी, उसका अपना कोई अस्तित्व और अस्मिता नहीं रह गई। इस प्रकार दसवीं सदी से 19वीं सदी तक स्त्री अपने समाज के अंधेरे गर्त में हाथ-पांव पटकती रही। ब्रिटिश राज्य के अगमन के फलस्वरूप गांव व शहर की खाई चैड़ी हो गई, जिसका प्रभाव भी नारी की स्थिति पर पड़ा। ऐसे ही समय समाज चेताओं और समाज सुधारकों- महर्षि दयानन्द, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महात्मा गांधी तथा राजा राममोहन राय आदि के अभ्युदय ने अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों का पर्दाफाश करके सतीप्रथा का उन्मूलन, बाल विवाह पर रोक, विधवा विवाह की स्वीकृति तथा निरक्षरता समाप्ति का अभियान चलाकर शिक्षा का प्रचार-प्रसार तथा नारी के लिए सम्पत्ति का अधिकार कानून बनवाकर नारी जाति का मार्ग-प्रशस्त किया। इस प्रकार वैदिक काल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक नारी की स्थिति एवं उसके सांस्कृतिक परिवेश में निरन्तर उतार-चढ़ाव एवं परिवर्तन आते रहे, किन्तु नारी ने सर्वत्र साहस का परिचय दिया और अपने कदम पीछे नहीं हटाये।
स्वातन्ष्योत्तर काल को नारी का अभ्युदय काल कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी। अपनी दीन-हीन दशा से छुटकारा पाने और अपना स्थान बनाने में उसने संघर्ष का सहारा लिया। उसमें विद्रोह की आग भड़की और उन्नति के शिखर पर पहुँचने की उदात्त-लालसा ने उसे बेचैन किया। अपने अधिकारों, अपनी आजादी और अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ने के लिए वह स्वयं उद्यत हुई। समाज में फैले धार्मिक आडम्बरों, कुरीतियों, कुप्रथाओं से लड़ने को वह बेचैन हो उठी। परन्तु तमाम धार्मिक पेचीदगियों के कारण उसकी लड़ाई अभी भी जारी है। उसे अभी और संघर्ष करना होगा। उसकी यह लड़ाई बाह्य कम आन्तरिक ज्यादा है,उसके अपने ही लोग लड़ाई को कमजोर करने में जुटे हैं।
इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक तक आते-आते नारी जाग चुकी है। अपने खोये हुए अधिकारों के प्रति वह सचेष्ट होकर उसे बलात हथियाने को वह आतुर है। उसे मताधिकार, पति की सम्पत्ति में अधिकार एवं भारतीय नागरिकता के वे समस्त अधिकार प्राप्त भी हो चुके हैं जिनकी उसे अपेक्षा है। कानूनी रूप से वह एकदम सुदृढ़ हो चुकी है परन्तु समाज की दृष्टि अभी उसके लिए संकुचित ही बनी हुई है। उससे अब भी प्राचीन मान्यताओं, परम्पराओं, अन्धविश्वासों, कुरीतियों एवं कुप्रथाओं के प्रति यथास्थिति बनाये रखने की उम्मीद परिवार तथा समाज बनाये हुए है। समाज आज भी पूर्ण आशान्वित है कि नारी अपने प्राचीन आदर्शों, रीतिरिवाजों तथा प्राचीन धार्मिक बन्धनों एवं धार्मिक रूढ़ियों का परिपालन स्वेच्छा से प्रतिपादित करे। समाज चाहता है कि नारी अब भी पर्दे में रहे, अवगुण्ठन में रहे, धार्मिक रीति-रीवाजों का पालन करते हुए सास-ससुर व पति की सेवा करे व उनकी आज्ञा का पालन करे। पति की मृत्यु पर समस्त साज-श्रृंगार छोड़कर वैधव्य व्रत का पालन करे, बाजारवादी संस्कृति से दूर रहकर पतिव्रता नारी का आदर्श प्रस्तुत करे। आज नारी जाग चुकी है अपने अस्तित्व और अस्मिता को पहचान चुकी है। भारतीय समाज और इक्कीसवीं सदी की नारी के बीच यही विवाद की जड़ भी है,नारी का यही संघर्ष भी है। उसके मन में तमाम तरह के प्रश्न उद्वेलित हो रहे हैं। पति के मरने के बाद वह धवल-वस्त्र धारी, साज-श्रृंगार से रहित होकर वैधव्यता का जीवन व्यतीत करे किन्तु क्या पत्नी की मृत्यु की दशा में पति भी ऐसा ही कुछ करेगा? क्या वह पुनर्विवाह नहीं करता है? वैवाहिक जीवन में ही क्या उसके सम्बन्ध कई-कई स्त्रियों से नहीं होते हैं? क्या वह एक पत्नी-व्रत का पालन करता है? यदि वह ऐसा नहीं करता तो, नारी ही क्यों?
आज भरतीय समाज और संस्कृति तथा इक्कीसवीं सदी की नारी के बीच संघर्ष, मन-मुटाव, असमंजस और विवाद का मुख्य मुद्दा यही है कि नारी को पवित्रता, सहनशीलता एवं शान्ति का पाठ पढ़ाने वाला पुरूष खुद पवित्रता व ब्रह्मचर्य व्रत का लेशमात्र भी अनुसरण नहीं करता है। यौन हिंसा व बलात्कार से त्रस्त नारी जन्म-जन्मान्तर के लिए अपवित्र और बलात्कारी पुरूष एकदम पवित्र जरा सा भी न दाग, न धब्बा, चैबीस कैरेट सोने की तरह शुद्ध एवं बेदाग? क्या यही सामाजिक न्याय है? क्या यही धार्मिक भाव है? पुरूष एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन शादियाँ रचा कर धर्म-मूर्ति बना रहता है परन्तु क्या नारी को भी समाज ऐसी ही स्वतंत्रता देता है? पति की मृत्यु के बाद पत्नी का उसकी चिता में शहीद हो जाना सती हो जाना धर्म है क्या पति से भी ऐसी अपेक्षा की जा सकती है? यदि नहीं तो इक्कीसवीं सदी की नारी का उत्तर भी अब ना में ही है? क्यों माने वह ऐसे धर्म को? क्यों माने वह ऐसी संस्कृति को? क्यों अनुसरण करे वह ऐसी परम्पराओं का? आधुनिक समाज और इक्कीसवीं सदी की नारी के बीच संघर्ष की यही प्रतिध्वनि यही अनुगूँज इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक की महिला कहानीकारों की कहानियों में सस्वर सुनायी देती है। नासिरा शर्मा, ऋता शुक्ल, मुक्ता, सारा राय, जया जादवानी,अलका सरावगी, विभा रानी, सोमा भारती, पंखुरी सिन्हा, अल्पना मिश्र, क्षमा शर्मा, मनीषा कुलश्रेष्ठ, नीलाक्षी सिंह, शरद सिंह आदि कहानी लेखिकाओं की कहानियों में एक स्वर से यही अलख यही अन्तर्नाद यही मानसिक द्वन्द्व यही कातर पुकार हर कहानी के हर पृष्ठ पर काले-काले अक्षरों में उकेरी गई है। हर कहानीकार की कहानी में एक स्वर से यही आक्रोशपूर्ण विद्रोह गुंजायमान है कि आखिर नारी के साथ ऐसी विभेदकारी नीति क्यों अपनाई जाती रही है? अब नारी यह सब कुछ सहने की स्थिति में नहीं है। वह न्याय चाहती है। आजादी चाहती है और प्राचीन सड़ी-गली मान्यताओं, परम्पराओं और रीतिरिवाजों से मुक्ति चाहती है। अब नारी समाज की यथास्थितिवाद से मुक्त होकर संघर्ष के मार्ग पर प्रयाण कर चुकी है।
ऋता शुक्ल की कहानी ‘जनम अकारथ‘ की सुरम्या एक सभ्य सुशील नारी है। उसका पति प्रवीर जब उसके मान-सम्मान के साथ खिलवाड़ करता है उसकी अस्मिता खतरे में दिखती है पहले तो वह संघर्ष का मार्ग चुनती है, अन्त में हारकर प्राण-न्यौछावर कर अपनी अस्मिता बचाती है। ‘‘मनुष्य देह में वासना का ऐसा पैशाचिक उन्माद!…… सुरम्या मुक्ति चाहती थी। उसने अपने चारों तरफ मंडराते हुए खतरों को भांप लिया था……. उसका चैकीदार मान बहादुर थाने में बयान दे चुका है, सुरम्या पर बल प्रयोग किया गया था। प्रवीर का मित्र अविनाश भेड़ की खाल में भेड़िया। सुरम्या ने अपनी रक्षा के लिए प्रवीर से अनुनय की थी। लेकिन उसके बचाव में सारे रास्ते बन्द थे। उस नर देह धारी मगरमच्छ के खुले जबड़े उसे पूरी तरह लील जाते……। उसने अपनी बन्दूक लेकर सुरम्या का पीछा किया…… उसने घबराहट में जल्दी से नदी पार करना चाहा था कि तभी एक छोटी सी चट्टान खिसक गई थी और नदी के बहाव ने उसे अपने भीतर सहेज लिया।‘‘(1)
ऋता शुक्ल की ही एक और कहानी ‘प्रतिकार‘ में एडवोकेट अवनीकांत पल्लवी का टयूटर है। धोखा देकर शिष्या के साथ बलात्कार करता है, फिर शादी। कुछ समय बाद एडवोकेट अवनीकांत अपनी वकील साथी इन्दुमती शास्त्री के प्रेमपाश में बँधकर रखैल की तरह उसका उपयोग करने लगता है। पल्लवी के प्रतिरोध करने पर उसे जान से मारने की धमकी देता है। कुछ समय बाद इन्दुमती शास्त्री की हत्या के जुर्म में अवनीकांत जेल की सींकचों के अन्दर होता है। पल्लवी ही उसकी वकील है जो मजबूत गवाही देकर उसे आजन्म करावास की सजा दिलवाती है। देश में आज ऐसी ही संघर्षशील और दृढ़ विचारों वाली विद्रोही आक्रोश से भरी महिलाओं की नितान्त आवश्यकता है-‘‘इन्दुमती शास्त्री का कसूर सिर्फ इतना ही था, मी लार्ड कि वह वहशी व्याघ्र के चंगुल में फंस गई थी। स्त्री को अपने मनोरजंन का जिंस मात्र समझने वाले समाज के सफेदपोश ठेकेदारों में एक नाम सामने खड़े इस व्यक्ति का भी है। जिसने इन्दुमती जैसी अनेक युवतियों को अपनी उन्नति का सोपान बनाया था। इस आदमी की ऐयाशी और इसके वहशीपन के एक से बढ़कर एक सबूत हैं मेरे पास……….। सती सवित्री की अवधारणा वाले हमारे समाज में अत्याचारी पति को दंड दिलाने का दुस्साहस कितनी स्त्रियाँ कर पाती हैं?…… तिरिया जन्म की आन से जुड़े उस सच को दांव पर चढ़ता देखकर पल्लवी जैसी स्त्रियों की एक जमात खड़ी हो, तभी इन अपवादोंका कुहरा छटेगा।‘‘(2)
आक्रोशपूर्ण विद्रोह का उक्त स्वर इक्कीसवीं सदी की महिला कहानीकारों की कहानियों में सर्वत्र रच-बस गया है। घर के दायरे में कैद नारी अब परम्परागत संस्कारों को छोड़कर अपनी अस्मिता की तलाश में बाहर निकल पड़ी है। क्षमा शर्मा की कहानी ‘ढाई आखर‘ का उदाहरण द्रष्टव्य है- दो प्रेमी युगल एक सुनसान स्थान पर रंगरेलियाँ मनाते पकड़े जाते है, पूरा गांव इकट्ठा हो जाता है। बुजुर्ग मेहता जी उस प्रेमी युगल से सवाल पूछे जा रहे हैं। तभी एक अन्य बुजुर्ग ने समझाते हुए कहा,े जाने दीजिए, बहुत डांट फटकार लिया। तभी मेहता का पारा गरम हो गया-‘‘अजी साहब बहुत कैसे हुआ? हमारी बहन बेटियों पर इस लुच्चई का असर क्या पड़ेगा? सोचा है कभी आपने?‘‘ तभी उस लड़की का कर्कश स्वर गुस्से में फूट पड़ा- ‘‘हमारी हरकतों से आपके बच्चे लुच्चे-लफंगे बन जाते हैं, टी0वी0 पर, वीडियो पर आप सब मिलकर जब नंगी-नंगी फिल्मंे देखते हैं, तब नहीं बिगड़ते आपके बच्चे और आपको पक्का पता है कि घर से बाहर निकल कर आपके बच्चे शरीफ बने रहते हैं। ‘‘ये जो मेहता साहब इस वक्त बहुत बन रहे हैं, जरा अपनी लड़की से पूछ कर बताएं कि दो रोज पहले प्रिया सिनेमा के सामने क्या कर रही थी। पुलिस आयेगी तो हम भी अपनी बात कहेंगे। जुबान है हमारे मुँह में। हम गरीब हैं। मगर शरीफ भी है।‘‘(3) स्त्री के अन्दर कितना विद्रोह और आक्रोश भरा हुआ है, अपने बच्चे का बिगड़ना किसी को नहीं दिखता पर दूसरे के बच्चे की छोटी गलती भी पहाड़ बन जाती है। नई पीढ़ी की लड़कियाँ अब पुरानी केंचुल उतारकर फेंक चुकी हैं।
इक्कीसवीं सदी की नारी अब दहेज हत्या और सती प्रथा जैसी प्राचीन परम्पराओं को बिलकुल स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है, अब उनमें विद्रोह की ज्वाला धधक रही है। इन प्रथाओं का समर्थन करने वाले ही अब दण्ड के भागीदार बना दिये जायेंगे। डाॅ0 क्षमा शर्मा की कहानी ‘कौन है कि जो रोता है‘ का एक दृश्य आधुनिक नारी के तेवर का नमूना मात्र है।‘‘………. कि अचानक बचाओ बचाओ की आवाजंे आने लगी। पता चला कि चुड़ैल बनी रूपकुंवर ने रामसिंह की आत्मा के गले में पैने नाखून चुभों दिये। फिर अट्ठाहस करती बोली ‘महसूस कर रामसिंह इन नाखूनों की चुभन और जलन को और फिर सोच कि एक जिंदा औरत की चिता में झोंके जाने के बाद कैसा लगता होगा? मेले की बात कर रहा है न! मेला लगे, कमाई हो, इसीलिए तो तुमने मुझे मारा था। ……. कमाई के लिए किसी की जान लेना मामूली बात है।‘‘(4)
नासिरा शर्मा की कहानी ‘दादगाह‘ की लीना शादी-ब्याह जैसे सामाजिक बन्धनों को छल, प्रपंच और धोखा मानती है। नारियों को ठगने का जरिया मानती है। लीना का इन धार्मिक आडम्बरों से विश्वास टूट चुका है। वह स्वतंत्र रहकर जीना ज्यादा उचित समझती है। ‘‘जानते हो! यह शादी-ब्याह, यह सामाजिक बन्धन दरअसल एक दूसरे का शील भंग करने का एक सभ्य तरीका हो गया है। जानवरों से इन्सान को अलग करने की एक बोगस, बेकार कोशिश।‘ …..शादी करके तलाक लेना, फिर दूसरी शादी करने में और कई मर्दों के सम्पर्क में आने में फर्क क्या है? …… औरत बरसों बाद आजाद हुई है। वह अगले पिछले हिसाब चुकाना चाहती है। उसकी मंजिल अपने को सुधारना नहीं, बल्कि मर्दों का मुकाबला करना है।‘‘(5)
इक्कीसवीं सदी की नारी अब पूर्णतः जाग चुकी है, पुराने रीति-रिवाजों और धार्मिक आडम्बरों को वह अब स्वीकारने के पक्ष में कतई नहीं है। धर्म की चादर ओढ़ाकर पति अब उसे धोखा नहीं दे सकता है। ‘‘स्त्री-यौनिकता की लौह वर्जनाओं और कमर पेटियों के टूटने पर देह की स्वतंत्रता और अपने शरीर पर अपने स्वयं के अधिकार के स्वर भी बुलन्द होने लगे हैं। कहीं पर यह दैहिक स्वतंत्रता उत्सवधर्मी हो रही है तो कहीं बीच बाजार में वस्तु बनकर अपनी कीमत तय कर रही है। फर्क इतना है कि अब यह खुली हवा में सांस लेती स्त्री का स्वयं का निर्णय है। …… सामंती, कबीलाई समाज में धर्म की बेड़ियों से जकड़ी स्त्री के लिए आज भी ये सवाल किसी सपने की तरह है। वहाँ स्त्री आज भी पत्थर की मूर्ति है, हुक्म बजाती, चलती-फिरती मशीन है, जिसका एक मात्र उद्देश्य पति की सेवा करना, उसे हर हाल में खुश रखना है।‘‘(6)
इक्कीसवीं सदी की नारी को अब सास और पति में देवात्मा का स्वरूप नहीं दिखता। उसके मन में दोनों के लिए गहरा आक्रोश व्याप्त है। जो पति पत्नी की अस्मिता की रक्षा नहीं कर सकता, जो उसके सुख-दुःख का साथी नहीं है वह पति कैसा? ‘मरद‘ कहानी की नायिका सुन्दरा सरपंच के दुव्र्यवहार से खीझी हुई है। सरपंच पहले तो सुन्दरा का बलात्कार करता है फिर उसकी बेटी चमेली पर भी उसकी गन्दी निगाह है। माँ के रूप में सुन्दरा बेटी की रक्षा का पैगाम बना चुकी है। इसके लिए वह सास और अपने पति को भी खरी-खोटी सुनाती है। ‘‘…… चुप कर बाई। नशे की औलाद बहकेगी नहीं तो क्या करेगी? सुन्दरा ने झिड़क दिया सास को। ….. खूब समझती हूँ तेरे को भी और तेरे सरपंच को भी। वो भी नामरद तू भी नामरद। एक को झाड़ियों की ओट चाहिए तो एक को कमरे की ओट….. तभी दिखती है तुम लोगों की मरदानगी। तेरे से कुछ नहीं होगा…….. तू तो सो रह अपनी बुढ़िया के साथ…………… जो बनवाना है, करना है, मैं बनवाऊँगी, करूँगी। लुगाई भी मैं हूँ और मरद भी मैं ही। ……क्रोध से उबलती दहाड़ उठी सुन्दरा।‘‘(7) अब नारी को पति वेशधारी ऐसे भेड़ियों से घृणा हो गई है जो नारी को मात्र ‘यौनि‘ समझकर उन पर अत्याचार और जुल्म ढाते रहते हैं। जया जादवानी की कहानी ‘कयामत का दिन उर्फ कब्र से बाहर‘ की नारी के मन में उपजा आक्रोश उसे संघर्ष करने के लिए बेचैन कर रहा है। इसका उदाहरण द्रष्टव्य है-‘‘रात में जो आदमी मेरे पैरों पर गिरता, मेरा थूक चाटता है, वह दिन की रोशनी में किस तरह केंचुल बदल डालता है।…….. मैंने आगे बढ़कर एक करारा थप्पड़ उसे रशीद किया। वह इतना अप्रत्याशित था कि वह कई कदम पीछे हट गया है। …… और औरतें पड़ी होगी घर के किसी कोने में बास छोड़ती हुई, बर्तन मांजती, झाड़ू लगाती, बच्चों की टट्टी साफ करती, तमाम नफरत के बावजूद मुस्कुराती हुई पति के साथ हम बिस्तर होती और सुबह घृणा से अपने अंग धोती………..।(8)
भारतीय समाज में पति ही स्त्रियों का सर्वस्व माना गया है उसके बिना वह अपूर्ण और विवश है। शायद इसीलिए वह धर्म की आड़ लेकर बराबर से अत्याचार करता चला आ रहा है, परन्तु नारी अब उसे सहने को तैयार नहीं है। धर्म के नाम हत्या, हिंसा व आनन्द का बोलबाला है। धर्म के सही सिद्धान्तों को भूलकर उसके गुणों को भूलाकर जाति, वर्ग सम्प्रदाय तक जोड़ा जा रहा है। धर्म का प्रयोग अपने निजि स्वार्थ पूर्ति के लिए किया जा रहा है। मानव भावना शून्य होती जा रही हंै। आज रास्ते चलते हिंसा, बलात्कार व हत्या को देख गुजर जाते हैं, मन में वेदना उठती है पर वह सब कुछ देखकर भी मौन बना रहता है। वह किसी के पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता है। आज के समय का यह सबसे बड़़ा प्रश्न है।
आज की नारी के मन में आक्रोश है, विद्रोह की ज्वाला है। वह धार्मिक यथा स्थितिवाद को पीछे छोड़ संघर्ष का बिगुल फँूक चुकी है। जहाँ तक घरेलू हिंसा की बात है, सरकार भी उसके साथ है। अब ‘‘घरेलू हिंसा में सिर्फ प्राण लेना, हाथ-पैर तोड़ना या सेहत को नुकसान पहुँचाना ही नहीं है, बल्कि मानसिक भावनात्मक और आर्थिक क्षति का भी प्रावधान है। किसी तरह की गैर कानूनी दहेज, गहने या धन की मांग करना घरेलू हिंसा मानी जायेगी। गालियाँ देना, अपमानजनक व्यवहार करना, सन्तान न होने पर या लड़का पैदा न होने पर प्रताड़ित करना या मजाक उड़ाना भी मानसिक प्रताड़ना के अन्तर्गत शामिल किया गया है।‘‘(9) अब आवश्यकता है नारी के उठ खड़ी होने की, हिंसा से निबटने के लिए भीतर के डर पर काबू पाने की तथा घर के भीतर व बाहर छिपे हिंसा के अदृश्य राक्षसों का उठकर मुकाबला करने की। धार्मिक आडम्बरों का जाल बनाकर नारी को ठगने वाले पुरूष-समाज से मजबूती से निपटने की। सम्भवतः नारी अब पूरी तरह सतर्क व जाग्रत है।
सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची-
1. ऋता शुक्ल – भूमिकमल- जनम अकारथ – पृ0- 90-91
2. ऋता शुक्ल – भूमिकमल- प्रतिकार – पृ0- 174-175
3. डाॅ0 क्षमा शर्मा – रास्ता छोड़ो डार्लिंग – ढाई आखर – पृ0- 155
4. डाॅ0 क्षमा शर्मा – रास्ता छोड़ो डार्लिंग – कौन है कि जो रोता है – पृ0- 41
5. नासिरा शर्मा – शामी कागज – दादगाह – पृ0- 40-41
6. नमिता सिंह – स्त्री प्रश्न – पृ0- 227
7. डाॅ0 शरद सिंह – तीली तीली आग – मरद – पृ0- 18
8. जया जादवानी – अन्दर के पानियों में कोई सपना कांपता है- कयामत का दिन उर्फ कब्र से बाहर –
पृ0- 1-2
9. नमिता सिंह – स्त्री प्रश्न- पृ0- 138