‘‘बौद्धदर्शन: भारतीय संविधान का दार्शनिक आधार’’
जितेन्द्र कुमार विश्वकर्मा
एसोसिएट प्रोफेसर,
राजनीतिशास्त्र
वर्धमान काॅलेज, बिजनौर
अरस्तू ने कहा था कि संविधान जीवन की एक शैली है जो राज्य के बाह्य संगठन को निर्धारित करती है।1 इस प्रकार प्रत्येक संविधान का अपना दर्शन होता है। भारतीय संविधान की दार्शनिक मान्यताएं अनुपम है। भारत का संविधान किसी ‘वाद’ से जुड़ा विशिष्ट-सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक दर्शन का अनुयायी नहीं वरन् भारतीयों के मानस, आशाओं एवं आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है।2 देखा जाए तो देश के अतीत की नींव पर ही संविधानों के प्रासाद खड़े होते हैं। भारत में सभ्यता और संस्कृति की एक पुरानी और अटूट परम्परा रही है। यह देश अनेक मुसीबतों से गुजरा है, गिर-गिर कर उठा है, बदला है, पर कुछ बात है कि कभी भी टूटा नहीं। इसके चरित्र में कुछ ऐसी आन्तरिक दृढ़ता, सहज लोच और प्राणवत्ता है, कुछ ऐसी शक्ति है जो बड़े से बड़े झटकों को सहकर भी कहानी का सिलसिला टूटने नहीं देती।3कहानी लगभग चार-पाँच हजार वर्ष पूर्व प्रारम्भ होती है। भारत में शासनतंत्र और संविधान के प्रथम सूत्र मिलते हैं, वेद, पुराण, स्मृति, महाभारत, रामायण और फिर बौद्ध और जैन साहित्य में, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में तथा शुक्रनीति जैसे ग्रन्थों में।4 ऐसे समय में जब लोगों का नैतिक जीवन निष्प्राण हो रहा था। लोग जीवन के कर्तव्य को भूल रहे थे। वे संसार में रहकर भी संसार से कोसों दूर थे। जिस प्रकार विचार क्षेत्र में पूरी अराजकता थी, उसी प्रकार नैतिक क्षेत्र में भी अराजकता थी। उस समय एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो लोगों को नैतिक जीवन की समस्याओं के प्रति जागरूक बनाने में सहायक हो। महात्मा बुद्ध इस माँग की पूर्ति करने में पूर्ण रूप से सफल हुए।5वैशाख मास की पूर्णिमा बुद्ध के जीवन की तीन महत्वपूर्ण घटनाओं से संबद्ध है- जन्म, संबोधि-प्राप्ति, परिनिर्वाण।6 बुद्ध का जन्म ईसा की छठी शताब्दी पूर्व हुआ था। इनका जन्म हिमालय की तराई में स्थित कपिलवस्तु नामक स्थान के राजवंश में हुआ था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। राजवंश में जन्म लेने के फलस्वरूप इनके जीवन को सुखमय बनाने के लिए पिता ने भिन्न-भिन्न प्रकार के आमोद-प्रमोद का प्रबन्ध किया, ताकि सिद्धार्थ का मन, विश्व की क्षणभंगुरता तथा दुःख की ओर आकर्षित न हो। पिता के हजार प्रयत्नों के बावजूद सिद्धार्थ का मन संसार की दुःखमय अवस्था की ओर जाने से न बच सका। कहा जाता है कि एक दिन घूमने के समय सिद्धार्थ ने एक रोगग्रस्त व्यक्ति, एक वृद्ध और श्मशान की ओर ले जाये जाते एक मृतक शरीर को देखा। इन दृश्यों का सिद्धार्थ के भावुक हृदय पर अत्यन्त ही गहरा प्रभाव पड़ा। इन दृश्यों के बाद सिद्धार्थ को यह समझने में देर न लगी कि संसार दुःखों के आधीन है। संसार के दुःखों को किस प्रकार दूर किया जाय-यह चिन्ता निरन्तर सिद्धार्थ को सताने लगी। पत्नी का प्रेम, पुत्र की महत्ता, महल का वैभव एवं विलास का आकर्षण सिद्धार्थ को सांसारिकता की डोर में बाँधने में असमर्थ साबित हुआ। विभिन्न प्रकार की यातनाएं झेलने के बाद उन्हें ज्ञान मिला। उन्हें जीवन के सत्य के दर्शन हुए। तत्वज्ञान अर्थात् बोधि प्राप्त कर लेने के बाद वे बुद्ध की संज्ञा से विभूषित किए गए। इन नाम के अतिरिक्त उन्हें तथागत (जो वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को जानता है) तथा अर्हता की संज्ञा दी गई। किन्तु, इसके साथ संविधान की यात्रा समाप्त नहीं हुई। यह तो कहानी का आरंभ था। इसके बाद संविधान का कार्यकरण शुरू हुआ। अदालतों द्वारा इसकी व्याख्या हुई। विधान पालिका द्वारा इसके अन्तर्गत कानून बने। सांविधानिक संशोधन हुए। इन सबके द्वारा संविधान निर्माण की प्रक्रिया जारी रही। संविधान विकसित होता रहा, बदलता रहा। समय-समय पर जिस प्रकार और जैसे-जैसे लोगों ने संविधान को चलाया, वैसे ही वैसे नए-नए अर्थ इसे मिलते गए।
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