ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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पारिस्थितिक-आलोचना और भूमंडलीकरण के दौर की हिन्दी कविता

श्री संतोष कुमार यादव
असि0 प्रोफेसर (हिन्दी विभाग)
डी0ए0वी0 काॅलेज
बुलन्दशहर

 पारिस्थितिक-आलोचना साहित्य आलोचना के क्षेत्र में एक नवीन आलोचनात्मक सिद्धान्त है जो जितना सैद्धान्तिक है उतना ही व्यावहारिक भी है। सामान्यतः यह पाश्चात्य इको-क्रिटिसिज्म का हिन्दी रूपान्तरण है, किन्तु भारतीय साहित्य के समक्ष, संभव है कि इसका रूप भारतीय साहित्य के अनुसार कुछ परिवर्तित हो क्योंकि भारतीय पर्यावरणवाद और पाश्चात्य पर्यावरणवाद में अंतर है जैसा कि मुकुल शर्मा कहते हैं “पश्चिम में पर्यावरण को सुंदर बाग-बगीचों, वनों और भू-.श्यों के संदर्भ में देखा जाता है। लेकिन हम जानते हैं कि पश्चिम का यह पर्यावरण-प्रेम पूरब के शोषण और दोहन के बाद ही स्थापित हुआ है। इसे आप अमीरों का पर्यावरणवाद कह सकते हैं, जो भारत के भी अमीर तबके में पाया जा सकता है। …इसे यदि रामचंद्र गुहा गरीबों का पर्यावरणवाद कहते हैं, तो एक हद तक सही है।”1 पारिस्थितिकीवाद या पर्यावरणवाद एक ऐसी वैश्विक विचारधारा है जिसमें मनुष्य के उन तौर-तरीकों की आलोचना की जाती है, जिनके साथ वह पृथ्वी पर रह रहा है।  पारिस्थितिक-आलोचना साहित्य आलोचना के क्षेत्र में एक नवीन आलोचनात्मक सिद्धान्त है जो जितना सैद्धान्तिक है उतना ही व्यावहारिक भी है। सामान्यतः यह पाश्चात्य इको-क्रिटिसिज्म का हिन्दी रूपान्तरण है, किन्तु भारतीय साहित्य के समक्ष, संभव है कि इसका रूप भारतीय साहित्य के अनुसार कुछ परिवर्तित हो क्योंकि भारतीय पर्यावरणवाद और पाश्चात्य पर्यावरणवाद में अंतर है जैसा कि मुकुल शर्मा कहते हैं “पश्चिम में पर्यावरण को सुंदर बाग-बगीचों, वनों और भू-.श्यों के संदर्भ में देखा जाता है। लेकिन हम जानते हैं कि पश्चिम का यह पर्यावरण-प्रेम पूरब के शोषण और दोहन के बाद ही स्थापित हुआ है। इसे आप अमीरों का पर्यावरणवाद कह सकते हैं, जो भारत के भी अमीर तबके में पाया जा सकता है। …इसे यदि रामचंद्र गुहा गरीबों का पर्यावरणवाद कहते हैं, तो एक हद तक सही है।”1 पारिस्थितिकीवाद या पर्यावरणवाद एक ऐसी वैश्विक विचारधारा है जिसमें मनुष्य के उन तौर-तरीकों की आलोचना की जाती है, जिनके साथ वह पृथ्वी पर रह रहा है।       पर्यावरण-चिंतन एक गंभीर विषय है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में यह मान लिया गया था कि पृथ्वी को बचाए रखना इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी चिंता होगी। द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात पर्यावरण-संरक्षण को लेकर दुनिया भर में एक नई चेतना उदित हुई। धीरे-धीरे पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर विश्व स्तर पर कई संगठन बने और विभिन्न आंदोलन प्रारम्भ हुए। दुनिया भर के पर्यावरण आंदोलनों का प्रभाव साहित्य और संस्कृति पर भी पड़ा जिसके फलस्वरूप मानविकी के प्रत्येक क्षेत्र में पर्यावरणवाद को संश्लिष्ट रूप में अपनाया गया। इसी विचारधारा के अंतर्गत इको-क्रिटिसिज्म या पारिस्थितिक-आलोचना आती है। पारिस्थितिक-आलोचना वस्तुतः पर्यावरणिक .ष्टिकोण से साहित्य की आलोचना करना है। ग्लोटफेल्टी ने 1996 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द इको-क्रिटिसिज्म रीडर’ (ज्ीम म्बवबतपजपबपेउ त्मंकमत) में पारिस्थितिक-आलोचना को ‘भौतिक पर्यावरण और साहित्य के मध्य के संबंधों का अध्ययन’ कहा है। ख्ॅींज जीमद पे मबवबतपजपबपेउ? ैपउचसल चनज, मबवबतपजपबपेउ पे जीम ेजनकल व िजीम तमसंजपवदेीपच इमजूममद सपजमतंजनतम ंदक चीलेपबंस मदअपतवदउमदज.”2  ग्रेग गैरेड जिनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘इकोक्रिटिसिज्म’ 2004 में प्रकाशित हुई, ने इसे मनुष्य और मनुष्येतर संबन्धों का अध्ययन कहा है। ष्प्दकममक, जीम ूपकमेज कमपिदपजपवद व िजीम ेनइरमबज व िमबवबतपजपबपेउ पे जीम ेजनकल व िजीम तमसंजपवदेीपच व िजीम ीनउंद ंदक जीम दवद-ीनउंद.ष्3 उन्होंने पारिस्थितिक-आलोचना को समकालीन साहित्यिक और सांस्.तिक सैद्धांतिकी में सबसे भिन्न माना है, क्योंकि इसका संबंध पारिस्थितिकी-विज्ञान से है। ष्म्बवबतपजपबपेउ पे नदपुनम ंउवदहेज बवदजमउचवतंतल सपजमतंतल ंदक बनसजनतंस जीमवतपमे इमबंनेम व िपजे बसवेम तमसंजपवदेीपच ूपजी जीम ेबपमदबम व िमबवसवहल.4               सरल शब्दों में पारिस्थितिक-आलोचना को हम साहित्य और पर्यावरण के संबंधों का पर्यावरणोन्मुखी अध्ययन कह सकते हैं। जिसमें साहित्य, पर्यावरण-विज्ञान और पारिस्थितिकी के अंतर्संबंधों की व्याख्या की जाती है। मनुष्य के भौतिक वातावरण से उसके संबंध साहित्य में कैसे अभिव्यक्त हुए हैं, यह इस बात की तस्दीक करती है। पर्यावरण-विज्ञान और सौंदर्यशास्त्र के विकसनशील संयुक्त दृष्टिकोण के माध्यम से साहित्यालोचन पारिस्थितिक-आलोचना का आधार है। इस नजरिये से यह साहित्य और पर्यावरण का अंर्तअनुशासनात्मक अध्ययन है, जिसमें साहित्य के अध्येता यह अवलोकन करते हैं कि पाठ में पर्यावरण-चिंतन किस प्रकार आया है तथा इस तथ्य का आकलन करते हैं, कि लेखक ने प्र.ति-संरक्षण के विषय को कैसे ग्रहण किया है। पारिस्थितिक-आलोचना का स्पष्ट उद्देश्य ‘हरित सांस्कृतिक अध्ययन’ है। यह अध्ययन साहित्य को पर्यावरण से जोड़कर सामाजिक पारिस्थितिकी तक ले जाता है। पारिस्थितिक-आलोचकों ने इसे समकालीन पर्यावरणीय चिंतन को खँगालने में सहायक माना है। यह आलोचना साहित्य के पाठक में पर्यावरण-चेतना का विकास करती है और वैश्विक पर्यावरणिक संस्.ति का उत्थान करती है।         पारिस्थितिक-आलोचना का प्रारम्भ सन् 1990 से प्रारम्भ होता है। सन् 1992 में ‘द एसोसिएशन फॉर द स्टडी ऑफ लिट्रेचर एंड एनवायरमेंट’ (।ैस्म्) का गठन होता है और यह शीघ्र ही एक विश्वव्यापी आंदोलन बन जाता है तथा यूरोप से होते हुए पूर्वी एवं दक्षिण एशिया, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंग्लैंड और अमेरिका तक फैल जाता है। पारिस्थितिक-आलोचना से संबंधित पहली महत्वपूर्ण पुस्तक ‘जोसेफ मीकर’ की ‘द कॉमेडी ऑफ सरवायवल’ (ज्ीम बवउमकल व िैनतअपअंस) मानी जाती है। भारत के उत्तर-औपनिवेशिक अंग्रेजी साहित्य को लेकर कई महत्वपूर्ण कार्य पारिस्थितिक-आलोचना के क्षेत्र में हुए हैं। इस संदर्भ में अरुंधति रॉय और अमिताव घोष जैसे भारतीय लेखकों की कृतियों का उल्लेख किया जाता है। हिन्दी साहित्य में पारिस्थितिक-आलोचना जैसी कोई अवधारणा नहीं मिलती है किन्तु पारिस्थितिक-अध्यात्म और दर्शन को लेकर चिंतन अवश्य मिलता है। अप्रत्यक्ष रूप से इसके तत्त्व यत्र-तत्र हिन्दी आलोचना और निबंध साहित्य में मौजूद हैं। हिन्दी कविता में प्रकृति-प्रेम और उसके विराट रूप का वर्णन अपने-आप में विशेष महत्व रखता है। छायावादी कविता इसका अनूठा उदाहरण है। पश्चिम में इसे साहित्य तक सीमित नहीं रखा गया है बल्कि सिनेमा और मीडिया को भी इसकी परिधि में लाया गया है। अंग्रेजी में उत्तर-औपनिवेशिक साहित्य की भी पारिस्थितिक-आलोचना की जा रही है। यहाँ तक कि ‘हरित-शेक्सपियर’ जैसे अध्ययन किए जा चुके हैं।              पारिस्थितिक-आलोचना पर चर्चा करते समय इस प्रकार की आलोचना के उपकरणों संबंधी जटिल प्रश्न सामने आते हैं। जैसे कि हिन्दी साहित्य में इस प्रकार की आलोचना के क्या सिद्धान्त होंगे ? सैद्धांतिक या वैचारिक .ष्टिकोण क्या होगा आदि-आदि। यद्यपि पारिस्थितिक-आलोचना का मूल तत्त्व साहित्य में पर्यावरण-चिंतन या पर्यावरणबोध ही है, किन्तु इसके साथ ही कुछ अन्य बिन्दु भी जुड़ते हैं जिनमें से कुछ हिन्दी आलोचना में पहले से विद्यमान हैं। सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण से प्राकृतिक-सांस्कृतिक सौंदर्यबोध इस प्रकार की आलोचना में सहायक होगा। साथ ही रोमानी साहित्य में प्रमुखतः कविता में, प्राकृतिक-सौंदर्य की चिंता और यथार्थवादी साहित्य में पारिस्थितिकी के प्रति सजगता भी इस प्रकार की आलोचना की परिधि में हैं। प्रमुख बात यह है कि आलोचना पर्यावरणोन्मुखी होनी चाहिए। पारिस्थितिक-आलोचना के साथ कुछ वैज्ञानिक अवधारणाएँ भी जुड़ती हैं। जैसे कि, अनुकूलनवाद, जैवक्षेत्रवाद, ‘डीप इकोलॉजी’, पर्यावरणिक मानव-विज्ञान इत्यादि। पर्यावरण-विज्ञान के अंतर्गत आने वाली सभी धाराएँ इसके दायरे में हैं जैसे- पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी-तंत्र, पर्यावरणिक-इतिहास, पर्यावरणिक-दर्शन, संकरण (भ्लइतपकप्रंजपवद), महानगरीय एवं ग्रामीण पर्यावरण, औद्योगिकीकरण, पर्यावरण-अवशोषण, प्राकृतिक-    संसाधनों का दोहन-अतिदोहन, जलवायु-परिवर्तन, जल-संकट, भू-ताप, धारणीयता या टिकाऊपन, हरित चेतना इत्यादि।         पारिस्थितिक-आलोचना के प्रमुख सिद्धांतों में पर्यावरणवाद, मानवेतर कल्पना या मानवेतरवाद, ग्राम्यवाद, ग्रामीणवाद या रोमानी ग्राम्यवाद, वनप्रान्तरवाद, प्रलयवाद या विनाशवाद, सामाजिक-पारिस्थितिकी और पारिस्थितिक-मार्क्सवाद, हाइडेगरवादी पारिस्थितिक-दर्शन, पारिस्थितिक-नारीवाद या इकोफेमिनिज्म, पर्यावरणिक न्याय आदि प्रमुख हैं। जिनके अंतर्गत साहित्य के पाठ में क्षेत्रीय या वैश्विक स्थान या वातावरण की कल्पना, पृथ्वी का भविष्य-चिंतन, लिंग, आदिम देशीपन, प्राकृतिक आवास-निवास, प्रदूषण, वन्य-जीव एवं जैव-विविधता, ग्राम्य-पारिस्थितिकी, गहन-पारिस्थितिकी, प्रचुरता आदि का अध्ययन किया जाता है। इन्हीं उपकरणों से साहित्य की पारिस्थितिक-आलोचना की जाती है। इसका उद्देश्य साहित्यालोचकों की आने वाली पीढ़ी में पर्यावरणीय नैतिकता का स्तर बढ़ाना है। कविता में इसके माध्यम से पारिस्थितिक-काव्य या हरित काव्य को चिह्नित किया जाता है तथा पारिस्थितिक-काव्यशास्त्र का विस्तार किया जाता है।              भारत में ही नहीं वरन विश्व भर में उत्तर-औपनिवेशिक समय से ही पर्यावरण संकट देखा जा सकता है। उपनिवेशवाद ने भारतीय पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचाया। वनों की सबसे अधिक कटाई ब्रिटिश राज में ही हुई। प्राकृतिक संसाधनों की लूट भी उसी समय से प्रारम्भ हुई। लेकिन तब विज्ञान पूँजी का उपकरण बनकर इतना विध्वंसक नहीं हुआ था। विज्ञान के भयानक, विध्वंसक रूप की झलक नाजीवादी गैस चैम्बरों और द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान पर गिराए गए परमाणु-बमों के साथ दिखती है। उन्नीसवीं शताब्दी का विज्ञान, नवीन खोजों, वैज्ञानिक आविष्कारों और दर्शन का ही एक विस्तार था, किन्तु बीसवीं शताब्दी के अंत तक विज्ञान पूरी तरह से पूँजीवादी शक्तियों का एक औजार बन गया। “इस तरह हमारे समय के विज्ञान का ध्यान विश्व दृष्टि के निर्माण की जगह विखंडन पर केन्द्रित है। आज वैज्ञानिकों का ध्यान अणुओं, परमाणुओं, कोशिकाओं, डी.एन.ए. आदि को खंडित कर इनके सूक्ष्म खंडों के गुणों के अध्ययन पर केन्द्रित है।”5 भूमंडलीकरण होते ही जैसे ही दुनिया एक ग्राम बन जाती है ,पर्यावरण और पारिस्थितिकी संकट भी ग्लोबल बन जाता है।                           भूमंडलीकरण पर पर्याप्त विचार भारत एवं अन्य देशों में किया जा चुका है। भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण को सम्पूर्ण विश्व को एक ग्राम बनाने की संकल्पना रूप में देखा गया था जिसका लक्ष्य वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीति के माध्यम से पिछड़े देशों का विकास करना, भौगोलिक सीमाओं से परे जाकर पूरी दुनिया को सुसंगठित करना, मानवता की रक्षा करना और विश्व-शांति को कायम करना बताया गया था लेकिन भूमंडलीकरण के परिणाम इन सभी अवधारणाओं के सापेक्ष नहीं हैं। वस्तुतः भूमंडलीकरण के पश्चात मानव जीवन में एक आक्रामकता, उपभोग की लालसा और बाजार पर निर्भरता बढ़ी है। सच्चिदानंद सिन्हा का कथन है कि “भूमंडलीकरण दरअसल पूँजीवाद की तात्कालिक एकछत्रता का उद्घोष है।”6 भूमंडलीकरण के कारण                         अंध-विकासवाद और तकनीकी प्रौद्योगिकी की शक्ति से अधिकाधिक उत्पादन और विनिर्माण के कारण सबसे        अधिक नुकसान पारिस्थितिकी या पर्यावरण को पहुँचा। पर्यावरण दूषण या पारिस्थितिकी का ह्रास तो औद्योगिक क्रांति के साथ ही प्रारम्भ हो गया था, किन्तु भूमंडलीकरण के पश्चात इसकी गति ज्यामितीय अनुपात में बढ़ी और प्रा.तिक संतुलन को खतरा उत्पन्न हो गया। अब यह खतरा सम्पूर्ण मानवता के लिए संकट बन गया है। “आज जमीन और खनिजों पर ही नहीं, जल और वायु तक की उपलब्धि पर प्रश्नचिह्न  लग गया है। यह बात दीगर है कि औद्योगिक उत्सर्जन से तेजाबी वर्षा, ओजोन परत में छेद, धरती के बढ़ते ताप आदि के निश्चित प्रमाण के बावजूद दुनिया के विशालतम औद्योगिक प्रतिष्ठानों के ज्ञानी व्यवस्थापक, जिनमें बड़ी संख्या में कम्प्यूटरों और सूचना क्रांति के देश अमेरिका में हैं, जीवन के अस्तित्व पर पैदा हुए खतरे की सूचना को ग्रहण करने से इनकार करते हैं।”7 इन्हीं परिस्थितियों के आधार पर अर्थशास्त्री कमलनयन काबरा कहते हैं, “अब यह दावा चकनाचूर हो गया है कि भूमंडलीकरण विश्वशांति और समृद्धि का अग्रदूत है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विकसित देशों की सरकारों का यह भूमंडलीकरण खून की होली खेलने को भी तत्पर रहता है। अब स्पष्ट हो गया है कि कोई भी राष्ट्रीय नीति तभी चल सकती है, जब वह अमेरिकी हित से न टकराए।”8 भूमंडलीकरण की इन प्रवृत्तियों ने तीसरी दुनिया के देशों में सांस्.तिक प्रतिरोध को जन्म दिया जो उनके कला-साहित्य आदि में निर्दिष्ट है। इस प्रकार भूमण्डलीकरण और पर्यावरण संकट का सीधा संबंध है।        भूमंडलीकरण के प्रति जो प्रतिरोध जन्मा वह साहित्य तक भी पहुँचा। कविता साहित्य की सबसे पहले प्रभावित होने वाली विधा है। समकालीन कविता का एक सांस्कृतिक स्वर प्रतिरोध भी है। भूमंडलीकरण के दौरान कविता की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ जाती है क्योंकि यह ऐसा समय है जब सांस्कृतिक परिवर्तनों की गति इतनी         अधिक रही है कि अन्य वस्तुएँ उससे बहुत पीछे छूट गईं या उसके बराबर नहीं चल पाईं। उत्तर- औपनिवेशिक हिन्दी कविता को भी पारिस्थितिक-आलोचना की परिधि में देखा जा सकता है। सत्तर-अस्सी के दशक में कई पर्यावरण-आंदोलन हुए, उनकी राजनीतिक निष्ठा भले ही अलग-अलग रही हो। चिपको और टिहरी आंदोलन महत्वपूर्ण रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्र में काव्य-रचना करने वाले या वहाँ से संबंध रखने वाले कवियों की कविता में इन पर्यावरण आंदोलनों का स्वर सुनाई देता है। सन् 1977 में प्रकाशित लीलाधर जगूड़ी के संग्रह ‘बची हुई पृथ्वी’ की कविताओं की पंक्तियों में यह स्वर देखा जा सकता है-“मेरे चुंबन अगर वृक्ष भी होंगेतो भी तुम उन्हेंअपने होंठों पर उगा लोगीओ मेरे आकाश मेंघूमती हुई पृथ्वी !”9 भूमंडलीकरण के दौर के कवियों में विनोद कुमार शुक्ल एक ऐसे कवि हैं जिन्हें पारिस्थितिक-कवि कहा जा सकता है। उनकी कविता ‘हरित-कविता’ की श्रेणी की कविता है। वे रोमानी ग्राम्यवाद और मानवेतर कल्पना के कवि हैं। उनकी कविता में आदिम देशीपन है। यद्यपि भारतीय कवियों और कविता के समक्ष अभी तक मनुष्य के अस्तित्व और उसकी अभावग्रस्त, अमानवीय जीवन की चिंता बनी हुई है, क्योंकि अन्य एशियाई देशों की तुलना में भारत में भी कम असमानता नहीं है। लेकिन वे सामाजिक न्याय से बढ़कर पर्यावरणिक न्याय की बात करते हैं। पर्यावरणिक न्याय प्राकृतिक न्याय है -“जो प्रकृति के सबसे निकट हैं जंगल उनका हैआदिवासी जंगल के सबसे निकट हैंइसलिए जंगल उनका है”10 पर्यावरणिक न्याय एक विशिष्ट अन्याय का विरोध करता है, जो प्रत्यक्ष नहीं है, जहाँ उस प्रक्रिया पर प्रश्न खड़े किए जाते हैं, जिसमें किसी मानव या मानवेतर प्राणी के प्रा.तिक पर्यावरण को नुकसान पहुंचाकर प्राप्त किए गए लाभ में उस समुदाय को कोई हिस्सा नहीं दिया जाता है। उल्टे वह उस पर्यावरण संकट से उत्पन्न खतरों का बराबर का हिस्सेदार है। इसी प्रकार ग्रामीण-पारिस्थितिकी को अपनी एक कविता में विनोद कुमार शुक्ल यों चित्रित करते हैं-“धान के फूलते हीधान की महक फैल गईखेतों में अभी भी पानी भरा हुआ है धान की जड़ों के पासछोटी-छोटी मछलियाँ इस तरह घूमती फिरती हैंजैसे धान की जड़ों की रक्षा करती हैं”11धान की जड़ों, पानी और मछलियों के संबंध को समझने के लिए पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को समझना जरूरी है। पानी और मछ्ली के संबंध को पूरे रोमान के साथ अभिव्यक्त करती नरेश सक्सेना की भी दो पंक्तियाँ ऐसी ही हैं-“पानी के प्राण मछलियों में बसते हैंआदमी के प्राण कहाँ बसते हैं, दोस्तो”12 आदिमपन या आदिम संस्कृति के प्रति इस दौर के मनुष्य का जो लगाव है वह उत्तर-आधुनिक समय के उपभोक्तावाद और कृत्रिम जीवन की ऊहा के प्रति उसकी प्रतिक्रिया भर नहीं है, बल्कि तमाम सांस्कृतिक ताम-झाम और सभ्य जीवन-पद्धति के बाद भी मनुष्य के भीतर का आदिमपन उसके प्राकृतिक-सहवास का मूलत्व है। इसीलिए आदिम जीवन की ओर उसका आकर्षण है। कवि जब वनवासी, जिप्सी या बंजारा जीवन की ओर आकर्षित होता है तो उसके मूल में यही बात होती है। हमारे समय के लीलाधर मंडलोई जैसे कवि इन्हीं आदिम तत्वों के बिम्ब अपनी कविता में उकेरते हैं-“अभी बिल्कुल अभी भुनी हैं मछलियाँऔर केकड़ों की महक में डूबी झोंपड़ी अभी बिल्कुल अभी लौटी है तोड़कर शहद का छत्ता और पसीने में गमक रही है उसकी कद्दावर देह”13 मानवेतर कल्पना वस्तुतः उत्तर-मानववादी है लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि काव्य-रचना में मानवेतर कल्पना मनुष्य के लिए नहीं है। पर्यावरण या पारिस्थितिकी-तंत्र को बचाने के लिए मानवेतर वस्तुओं को उसी गहनता के साथ अनुभूत करने की आवश्यकता होती है जिस तरह मनुष्य के अस्तित्व को अनुभूत किया जाता है। मानवेतरवाद दरअसल यह प्रश्न उठाता है कि एक प्राणी होते हुए भी मनुष्य को दूसरे प्राणियों से अधिक वरीयता क्यों दी जाती है ? क्योंकि पर्यावरणवाद पृथ्वी पर सभी प्राणियों के समान अधिकार की बात करता है। जब वन्य-जीवों की बात आती है तो उनके अस्तित्व का प्रश्न आता है और उनकी विलुप्तप्राय स्थिति का प्रश्न आता है। विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में मानवेतरवाद के सार्थक बिम्ब हैं-“यह चाहता हूँ कि जब पानी आए तो पहले आँखें भिगो दे फिर कोई चिड़िया मेरी बाहों की हरियाली में घोंसले बनाए अंडे दे।”14विलुप्तप्राय वन्य-जीवों का कविता में सीधे चले आना उस भयानक पारिस्थितिकी-संकट की त्रासदी की ओर संकेत है जो इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा प्रश्न है। जो एशियाई देशों के लिए और भी विकराल प्रश्न है क्योंकि वे अभी जीवन के उस स्तर का स्वप्न देख रहे हैं जो उत्तर के देशों ने उनसे एक सदी वर्ष पूर्व प्राप्त कर लिया था। मानवेतर प्राणियों को लेकर मनुष्य का नैतिक दायित्व क्या है ? उनके अस्तित्व पर संकट को लेकर साहित्य का पक्ष क्या है ? पारिस्थितिक-आलोचना के अंतर्गत पाठ में इन तत्त्वों की तलाश की जाती है। हमारे समय की कविता में इसकी अभिव्यक्ति मिलती है।  विनोद कुमार शुक्ल की कुछ और पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-“अंतिम चीता मराऔर चीता की जाति समाप्त हो गईमनुष्य से। चीता शब्द है, पर चीता नहीं चीते के चित्र और घटनाएँ, कहानियाँ हैं मनुष्यों में।”15 पेड़-पौधों और वनस्पतियों तथा पशु-पक्षियों को पुनर्स्थापित नहीं किया जा सकता है। मनुष्य को इस बात की     अधिक जैविक स्वतन्त्रता है कि वह अधिक चल है और वास-स्थल बदलने से वह स्वयं को नए वास-स्थल पर अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक अनुकूलित कर सकता है। किन्तु पेड़-पौधों की जड़ें और उनकी निश्चित विशेष जलवायु होती है।  इसी तरह पशु-पक्षियों का वास-स्थल ही उनकी जड़ होता है।             देशीपन या देशजता हमारे समय की कविता का मुख्य स्वर है। यह एक तरह से मनुष्य के सांस्.तिक, ऐतिहासिक ‘ओरिजन’ पर बात करना है। उसके मूलत्व की खोज है। आदिम युग से अभी तक हुए मनुष्य के संस्.तीकरण के बाद भी उसमें आदिम आंकाक्षाओं को लेकर जो प्रेम या आकर्षण है वह उसकी प्रजाति के मूल तत्त्वों का प्रतिबिंब है। सांस्.तिक रूप से अतिक्रमित होने के बाद भी अपनी अस्मिता और ओरिजिनलिटी को लेकर उसकी जो चिंता या दुरूख है वह साहित्य में उभरकर बार-बार आती है। मार्क्सवादी कवियों के यहाँ काव्य का यह रूप बार-बार सामने आता है। “मार्क्स ने प्रकृति को ‘मनुष्य के गैर-आवयविक शरीर’ के रूप में और मनुष्य को ‘प्रकृति के एक हिस्से’ के रूप में संदर्भित किया है। इकोनॉमिक एंड फिलोसफिकल मैनुस्क्रिप्ट ऑफ 1844 में उन्होंने लिखा है रू ‘मनुष्य प्रकृति के द्वारा जीवित रहता है, मतलब यह कि प्रकृति उसका शरीर है और यदि मनुष्य मरना नहीं चाहता है तो उसके लिए प्रकृति के साथ नियमित संवाद कायम रखना जरूरी है। यह कहना कि मनुष्य का भौतिक और मानसिक जीवन प्रकृति के साथ अंतर्संबंधित है, तो इसका समान्य तौर पर मतलब यह है कि प्रकृति स्वयं मनुष्य से सम्बद्ध है, मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है।’”16 हमारे समय के बड़े मार्क्सवादी कवि केदारनाथ सिंह की कविताओं में  देशजता (प्दकपहमदमपजल) के विभिन्न बिम्ब आते हैं। देशजता ऐतिहासिक स्थिति और सांस्कृतिक प्रैक्टिस के       मध्य अपने मूलत्व या ओरिजन को ढूँढने का प्रयास है। यह परिस्थितियों से प्रेरित है-      “शहर की ओर जाते हुए अपनी बीहड़ आजादी में सड़क के किनारे ठिठक गए थे बैल बगल के खेत में ट्रैक्टर के चलने का संगीत सुनते हुए”17 इसी क्रम में आलोक धन्वा की की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं- “अगर अनंत में झाड़ियाँ होतीं तो बकरियाँ अनंत में भी हो आतीं भर पेट पत्तियाँ टूँग कर वहाँ से………लेकिन चरवाहे कहीं नहीं दिखे सो रहे होंगे किसी पीपल की छाया में यह सुख उन्हें ही नसीब है।”18 बैल, बकरियाँ, चरवाहे और पीपल का पेड़ आदिम देशजता के सार्थक प्रतीक हैं। जब हम आदिवासी कविता की ओर देखते हैं तो यह ‘ओरिजन’ या देशजता और भी मुखर होती है। जैसे निर्मला पुतुल की पंक्तियों में-“अभी बहुत सारा काम पड़ा है घर-गृहस्थी कागाय गोहाल के गोबर में फंसी हैलानी हैं जंगल से लकड़ियाँ भी घड़ा लेकर जाना है पानी लाने झरने पर और पहुँचाना है खेत पर बापू को कलेवा”19 आदिम देशजता से यदि हम पारिस्थितिक-नारीवाद या इकोफेमिनिज्म की ओर बढ़ें तो पाते हैं कि निर्मला पुतुल पारिस्थितिक-नारीवाद की अप्रतिम कवयित्री हैं। उनके बाद हम यह रंग रणेन्द्र के संग्रह ‘थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ’ में देखते हैं। उदय प्रकाश, और आलोक धन्वा में भी यह रंग देखने को मिलता है जबकि पवन करण जैसे बेहतरीन और घोषित स्त्रीवादी कवि की कविताओं में यह पारिस्थितिक-नारीवादी रंग देखने को नहीं मिलता। पारिस्थितिक-नारीवाद स्त्रीवादी आलोचना के पर्यावरण-केन्द्रित होने का आग्रह करता है। इसके अनुसार स्त्री पर्यावरण को उतना नुकसान नहीं पहुंचाती जितना पुरुष पहुंचाता है। यह लिंग को लेकर सचेत रहता है। पुरुष स्त्री और पर्यावरण दोनों का शोषण करता है। ‘पृथ्वी’ का लिंग ‘स्त्री’ निर्धारित हुआ है। अंग्रेजी में इसे ‘मदर अर्थ’ (डवजीमत म्ंतजी) कहा गया है। भारतीय संस्.ति में भी इसे ‘वसुधा’ कहा गया है। इस लिहाज से निर्मला पुतुल की कविताएँ श्रेष्ठ हैं। कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं-“तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं  पेट हजारोंपर हजारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेटकैसी विडम्बना है कि जमीन पर बैठ बुनती हो चटाईयाँऔर पंखा बनाते टपकता है तुम्हारे करियाये देह से टप….टप…पसीना…!”20 पारिस्थितिक-नारीवाद पर्यावरण अवशोषण और स्त्री के दमन को समान .ष्टि से देखता है और इनमें बारीक        संबंध पाता है। ‘माँ के लिए, ससुराल जाने से पहले’ और ‘उतनी दूर मत ब्याहना बाबा !’ शीर्षक निर्मला पुतुल की कविताएँ उनकी उत्कृष्ट स्त्रीवादी रचनाएँ हैं जो पारिस्थितिक-नारीवाद की दृष्टि से भी अप्रतिम हैं-“प्यासा रह जाएगा घड़ा खूँटे में बंधी बकरियाँ मिमियाकर बुलाएंगी मुझे और जो यह लगा रही हूँ पेड़खिलेंगे एक दिन इसमें फूल और मुरझा-मुरझा कर गिर जाएँगेमेरे खोपे की आस में तब क्या रोओगी नहीं मुझे याद करके ?”21‘उतनी दूर मत ब्याहना बाबा!’ जैसी कविता में तो लड़की यहाँ तक कह रही है कि उसका ब्याह ऐसी जगह न किया जाय जहाँ पहाड़, नदी जंगल न हों। पारिस्थितिक-नारीवाद की दृष्टि से यह अद्भुत कविता है-“बाबा !मुझे उतनी दूर मत ब्याहना जहाँ मुझसे मिलने जाने की खातिरघर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हेंमत ब्याहना उस देश में जहाँ आदमी से ज्यादा ईश्वर बसते हों जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ वहाँ मत कर आना मेरा लगन”22   कुछ मार्क्सवादी पुरुष कवियों ने पारिस्थितिक बिंबों के साथ स्त्रीवादी कविताएँ लिखी हैं। उदय प्रकाश की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं-“पीपल होतीं तुमपीपल, दीदीपिछवाड़े का, तो तुम्हारी खूब घनी-हरी टहनियों में हारिल हम बसेरा लेते”23इस दौर की कविता में पारिस्थितिकी संबन्धित जो कविताएँ हैं वह भौतिक वातावरण की प्रवृत्तियों का प्रतिफल हैं। कवि यदि इरादतन पर्यावरण विषयक कविताएँ न भी लिखना चाहे तो भौतिक पर्यावरण की प्रवृत्तियाँ अकारण उसे इस दिशा में ले जाती हैं क्योंकि ऐंद्रिक अनुभूतियों में हमारे आस-पास का वातावरण बहुत मायने रखता है। पारिस्थितिक-आलोचना यह देखती है कि स्थान की कल्पना किस प्रकार की गयी है और उस स्थान के भौतिक वातावरण का सौंदर्य कैसा है। प्रा.तिक रूप से अवनयित या प्रदूषित वातावरण में मनुष्य स्वयं को आतंकित अनुभव करता है। स्थान परिवर्तन के साथ कविता के बिम्ब भी बदल जाते हैं। यदि किसी कवि को पेड़ पर बैठी हुई चिड़िया का बिम्ब कविता में लेना है, लेकिन वह लगातार पेड़ की बजाय किसी लोहे के खंभे पर बैठी हुई चिड़िया को देख रहा है तो वही बिम्ब उसकी कविता में चला आएगा। जन्म से पहाड़ पर रहने वाले कवियों, मैदान में रहने वाले  कवियों और औद्योगिक क्षेत्र में रहने वाले कवियों की कविता के बिम्ब भिन्न होंगे। मनुष्य प्राकृतिक रूप से सम्पन्न वातावरण में प्रसन्न रहता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की पंक्तियाँ हैं- “चिड़िया उदास है जंगल के खालीपन पर”24 और चिड़िया की  उदासी देखकर बच्चे भी उदास हैं। ऐसी ही अनेक कविताएँ और उन कविताओं में ऐसे ही तमाम बिम्ब देखे जा सकते हैं।  पृथ्वी के भविष्य को लेकर भी हमारे समय के कवियों ने चिंतन किया है। लीलाधर जगूड़ी लिखते हैं- “हालत किसी की न मेरी न पृथ्वी की न इतिहास की, हालत किसी की अच्छी नहीं है”25 यह ऐसा समय है जब नाभिकीय विकिरण पर भी कविताएँ रची जा रहीं है- “जादूगोड़ा के यूरेनियम कचरे मेंध्दम-दम दमकता है मुख्यधारा का चमकीला चेहरा, जिसकीध् सूर्य सी आभा नहीं झेल पा रही विकलांग हो रही, हमारी पीढ़ी”26 रणेन्द्र की ये पंक्तियाँ पर्यावरणिक-न्याय, सामाजिक-न्याय, प्रदूषण और प्रतिरोध को एक साथ प्रस्तुत करती हैं। इसी तरह तमाम कविताएँ जल संकट और वन-विनाश पर लिखी गयी हैं। कुल्हाड़ी के भय से पेड़ के तने का दर्द अनुभूत करती निर्मला पुतुल की पंक्तियाँ हैं- “क्या तुमने कभी सुना है। सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से पेड़ का चीत्कार?”27 कविता का शीर्षक ही ‘बूढ़ी पृथ्वी का दुख’ है। नदियों पर बहुत सी कविताएँ इस समय लिखी जा रही हैं और केवल उन्हें बचाने के लिए-“एक सूखी नदी दूसरे वर्ष भी सूखी रही तो रेत के बहुत नीचे वह और सूख जाएगी,सूखी नदी के नीचे सूखी नदी की परतें हैं।”28इस दौर की कविता का कोई निर्धारित सौंदर्यबोध तलाश करने में संभव है कुछ समस्याएँ हों क्योंकि इक्कीसवीं सदी जिसकी शुरुआत बीसवीं सदी के अंतिम दशक से ही मान ली गयी थी, में विचारधाराएँ परिवर्तित हुई हैं।       सौंदर्यबोध बहुआयामी हुआ है। इसलिए कविता की सांस्कृतिक संरचना में परिवर्तन हुए हैं। पारिस्थितिक       सौंदर्यबोध से कविता ने अपने बिम्ब और प्रतीक क्रांतिकारी ढंग से बदले हैं जहाँ, पेड़ की छाल को अपनी खाल की तरह कवि ने अनुभव किया है।              हिन्दी में अभी पारिस्थितिक-आलोचनात्मक .ष्टि विकसित नहीं हो सकी है न इसकी कोई पूर्व परंपरा ही है किन्तु आने वाले समय में इसके माध्यम से हिन्दी-साहित्य के व्यापक अध्ययन की संभावनाएँ बन सकती हैं। केवल भू-मंडलीकरण के दौर की कविता ही क्यों ? उत्तर-औपनिवेशिक गद्य और पद्य साहित्य की भी पारिस्थितिक-आलोचना आवश्यक है। एक ऐसे दौर में जब कवि कहता है-“अभी तक बारिश नहीं हुई ओह ! घर के सामने का पेड़ कट गया कहीं यही कारण तो नहीं”29
संदर्भ सूची:-1- उपाध्याय, संज्ञा, उपाध्याय रमेश (सं.), मुकुल शर्मा और संज्ञा उपाध्याय की बातचीत, पूँजीवादी प्रपंच में प्रकृति और पर्यावरण, शब्द संधान प्रकाशन, 2012 संस्करण, पृष्ठ- 182- उद्धृत, ळंततंतक ळतमह ख्म्बवबतपजपबपेउ, त्वनजसमकहम ज्ंलसवत – थ्तंदबपे ळतवनच, 2004 संस्करण, पृष्ठ-33- वही, पृष्ठ-54- वही5- सिन्हा, सच्चिदानंद, भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ, वाणी प्रकाशन, 2012 संस्करण, पृष्ठ- 1846- भूमिका, वही 7- वही, पृष्ठ- 1868- काबरा, कमलनयन, भूमंडलीकरण के भँवर में भारत, प्रकाशन संस्थान, 2005 संस्करण, पृष्ठ- 479- जगूड़ी, लीलाधर, मुझे उगाओ, बची हुई पृथ्वी, राजकमल प्रकाशन, 2003 संस्करण, पृष्ठ- 5110- शुक्ल, विनोद कुमार, जो प्रकृति के सबसे निकट हैं, कभी के बाद अभी, राजकमल प्रकाशन, 2003 संस्करण, पृष्ठ-2311- धान के फूलते ही, वही, पृष्ठ- 7512- सक्सेना, नरेश, पानी क्या कर रहा है, सुनो चारुशीला, भारतीय ज्ञानपीठ, 2012 संस्करण, पृष्ठ- 7113- मंडलोई, लीलाधर, वह कभी भी पहुँच सकता है वहाँ, काला पानी, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2008 संस्करण, पृष्ठ-4114- शुक्ल, विनोद कुमार, वृक्ष की सूखी टहनी, कवि ने कहा, किताबघर प्रकाशन, संस्करण, पृष्ठ-23, 2415- वही, पृष्ठ-4916- सिंह, रणधीर, गुप्ता जितेंद्र (अनुवादक), पारिस्थिकी संकट और समाजवाद का भविष्य, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, 2014 संस्करण, पृष्ठ-13917- सिंह, केदारनाथ, बैलों का संगीत प्रेम, सृष्टि पर पहरा, राजकमल प्रकाशन, 2014 संस्करण, पृष्ठ-9918- धन्वा, आलोक, बकरियाँ, दुनिया रोज बनती है, राजकमल प्रकाशन, 2015 संस्करण, पृष्ठ-1119- पुतुल, निर्मला, अभी खूँटी पर टाँग कर रख दो माँदल, नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, 2005 संस्करण, पृष्ठ-78 20- बहामुनी, वही, पृष्ठ- 1221- माँ के लिए, ससुराल जाने से पहले, वही, पृष्ठ- 4722- उतनी दूर मत ब्याहना बाबा !, वही, पृष्ठ- 4923- उदयप्रकाश, नींव की ईंट हो तुम दीदी, कवि ने कहा, किताबघर प्रकाशन, 2009 संस्करण, पृष्ठ- 4724- वाल्मीकि, ओमप्रकाश, खेत उदास हैं, बस्स! बहुत हो चुका, वाणी प्रकाशन, 2009 संस्करण, पृष्ठ-2425- जगूड़ी, लीलाधर, इतिहास से पहले भी, अनुभव के आकाश में चाँद, राजकमल प्रकाशन, 2003 संस्करण, पृष्ठ-1126- रणेन्द्र, अवसान वेला पर, थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ, शिल्पायन प्रकाशन, 2010 संस्करण, पृष्ठ-2227- पुतुल, निर्मला, बूढ़ी पृथ्वी का दुख, नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, 2005 संस्करण, पृष्ठ-3128- शुक्ल, विनोद कुमार, एक सूखी नदी, कवि ने कहा, किताबघर प्रकाशन, संस्करण, पृष्ठ-2829- शुक्ल, विनोद कुमार, अभी तक बारिश नहीं हुई, कभी के बाद अभी, राजकमल प्रकाशन, 2003 संस्करण, पृष्ठ-24

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