सुनील कुमार
शोध छात्र हिन्दी
महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय,
बरेली (उ0प्र0)
परिवर्तन इस जगत का शाश्वत सत्य है। यद्यपि जीवन के कुछ आधारभूत मूल्य एवं सत्य सदैव बने भी रहते है किन्तु उनके विविध पक्षों एवं बाह्य स्वरूप की व्याख्याएँ अपने युगानुरूप परिवर्तित सम्वर्द्धित होती रहती है। साहित्य भी इस नियम से अछूता नहीं है वह भी यद्यपि संवेदनात्मक पृष्ठभूमि को शाश्वत रूप से आधारस्वरूप ग्रहण करता हुआ आगे बढ़ता है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति की शैलियों एवं स्वरुपों में भी निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। प्रत्येक युग का साहित्य अपने तत्कालीन युग की मूलभूत स्थापनाओं और संवेदनाओं से सम्पृक्त रहता है। इस दृष्टि से विचार करें तो वर्तमान समय की ऐसी ही एक व्यापक स्थापना है- वैश्वीकरण, भूमण्डलीकरण एक बहुत व्यापक तथा विविधतापूर्ण अवधारणा है जिसके स्वरूप का अभी पूर्ण निर्धारण नहीं हो पाया है- ‘‘दर असल भूमण्डलीकरण उस सफर का नाम है जो उन्नीसवीं सदी के सातवें दशक में आधुनिकता ने शुरू किया था। आधुनिकता को इंसान के सोच-विचार में तरह-तरह की क्रांतियाँ करने का श्रेय दिया जाता है लेकिन उसकी व्याख्याओं में यह पहलू सबसे कम उभर कर आ पाता है कि वह भूमण्डलीकरण की वाहक भी है। जब तक भूमण्डलीकरण का यथार्थ अपने पूरे विस्फोट के साथ प्रकट नहीं हुआ था, विविधता और बहुलता को आधारभूत सिद्धान्त मानने वाले चिंतक किस्म-किस्म की आधुनिकताओं का विमर्श चलाने में लगे हुए थे, लेकिन नब्बे के दशक में जैसे ही भूमण्डलीकरण मुख्य धारा के ऊपर हावी हुआ वैसे ही यह असलियत एक बार फिर निकल कर सामने आ गई कि यूरोपीय ज्ञानोदय की कोख में जन्में आधुनिकता के सार्वभौम विचार में ‘एक विश्ववाद’ का पहलू एक शक्तिशाली अन्तर्धारा के रूप में मौजूद है।’’1 परिवर्तन इस जगत का शाश्वत सत्य है। यद्यपि जीवन के कुछ आधारभूत मूल्य एवं सत्य सदैव बने भी रहते है किन्तु उनके विविध पक्षों एवं बाह्य स्वरूप की व्याख्याएँ अपने युगानुरूप परिवर्तित सम्वर्द्धित होती रहती है। साहित्य भी इस नियम से अछूता नहीं है वह भी यद्यपि संवेदनात्मक पृष्ठभूमि को शाश्वत रूप से आधारस्वरूप ग्रहण करता हुआ आगे बढ़ता है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति की शैलियों एवं स्वरुपों में भी निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। प्रत्येक युग का साहित्य अपने तत्कालीन युग की मूलभूत स्थापनाओं और संवेदनाओं से सम्पृक्त रहता है। इस दृष्टि से विचार करें तो वर्तमान समय की ऐसी ही एक व्यापक स्थापना है- वैश्वीकरण, भूमण्डलीकरण एक बहुत व्यापक तथा विविधतापूर्ण अवधारणा है जिसके स्वरूप का अभी पूर्ण निर्धारण नहीं हो पाया है- ‘‘दर असल भूमण्डलीकरण उस सफर का नाम है जो उन्नीसवीं सदी के सातवें दशक में आधुनिकता ने शुरू किया था। आधुनिकता को इंसान के सोच-विचार में तरह-तरह की क्रांतियाँ करने का श्रेय दिया जाता है लेकिन उसकी व्याख्याओं में यह पहलू सबसे कम उभर कर आ पाता है कि वह भूमण्डलीकरण की वाहक भी है। जब तक भूमण्डलीकरण का यथार्थ अपने पूरे विस्फोट के साथ प्रकट नहीं हुआ था, विविधता और बहुलता को आधारभूत सिद्धान्त मानने वाले चिंतक किस्म-किस्म की आधुनिकताओं का विमर्श चलाने में लगे हुए थे, लेकिन नब्बे के दशक में जैसे ही भूमण्डलीकरण मुख्य धारा के ऊपर हावी हुआ वैसे ही यह असलियत एक बार फिर निकल कर सामने आ गई कि यूरोपीय ज्ञानोदय की कोख में जन्में आधुनिकता के सार्वभौम विचार में ‘एक विश्ववाद’ का पहलू एक शक्तिशाली अन्तर्धारा के रूप में मौजूद है।’’1 वस्तुतः कुछ विद्वान भूमण्डलीकरण की अवधारणा की शुरूआत पश्चामी देशों में आई आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के प्रारम्भ के पश्चात् उनके साम्राज्यवादी विस्तार एवं उपनिवेशिक युग से मानते है तथा उनका मानना है कि यह उस समय भी अपने आदिम रूप में विद्यमान थी तथा वैश्वीकरण का वर्तमान स्वरूप एक दृष्टि से उपनिवेशिक व्यवस्था का ही अगला चरण है। वैश्वीकरण उत्तर उपनिवेशिक संरचना का ही मुखौटा है। डाॅ पुष्पपाल सिंह इस स्पष्ट करते हुए कहते है कि- ‘‘भूमण्डलीकरण सामान्यतः एक ऐसी अवधारणा होनी चाहिए थी कि पूरे विश्व में ऐसी संस्कृति विकसित हो जो पूरे भूमण्डल को एक ‘विश्व ग्राम’ में परिवर्तित कर सारी दुनिया के मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध होती। . . . किन्तु आज वर्तमान रूप में वैश्वीकरण एक ऐसी धारणा है जिसका मूलाधार बाजार, बाजारवाद और उपभोक्तावाद है।’’2 इस प्रकार हम देखते हैं कि वैश्वीकरण अभी तक ‘अंधो का हाथी’ ही बनी हुई है जिसे जो जहाँ से पकड़ता है वह उसी के अनुसार इसके स्वरूप, प्रभाव और सम्भावनाओं को व्याख्यायित करने लगता है। वैश्वीकरण के बहुत से सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक पहलू रहे है यही कारण है कि इसकी अभी तक कोई सर्वसम्मत परिभाषा नहीं हो पायी है। इसके स्वरूप एवं विविध पक्षों एवं प्रभावों को लेकर हम अपनी अलग-अलग राय रख सकते है किन्तु बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में आई सूचना व तकनीकी क्रांति के फलस्वरूप वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में आई तीव्रता ने इसे इक्कसवी सदी के प्रारम्भ में ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थापनाओं के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित कर दिया है। हमारे चाहते न चाहते हुए भी हम वैश्वीकरण की इस अवधारणा से स्वयं को निरपेक्ष नहीं रख सकते हैं। अतः इसके प्रति सजगतापूर्वक दृष्टिकोण रखते हुए इसके जुड़ने की आवश्यकता है ताकि इसके नकारात्मक प्रभावों से बचाते हुए इसके सकारात्मक पहलुओं को अंगीकार किया जा सके। इस दृष्टि से समाज में साहित्य की भूमिका निश्चय ही अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि साहित्यकार वह सजग प्रहरी होता है जो युग-दृष्टा के साथ-साथ भविष्य-दृष्टा भी होता है तथा वह समाज में परिवर्तन की अप्रत्यक्ष व सूक्ष्म संवेदना का वाहक होता है। इस दृष्टि से साहित्य की एक महत्वपूर्ण संवेदनात्मक विधा होने के नाते हिन्दी ग़ज़ल वैश्वीकरण की प्रक्रिया तथा उससे उत्पन्न परिस्थितियों; विसंगतियों को किस रूप में तथा कितनी संवेदनात्मक दृष्टि से अभिव्यक्ति प्रदान कर रही है यही देखना इस शोध पत्र का अभीष्ट है। हिन्दी ग़ज़ल वर्तमान परिदृश्य में निश्चय ही हिन्दी पद्य की केन्द्रीय न सही किन्तु एक महत्वपूर्ण विधा बनकर उभरी है। अपने प्रारम्भिक विकास काल में यद्यपि हिन्दी ग़ज़ल भी उर्दू ग़ज़ल के प्रभावस्वरूप कोमल व प्रेमपूर्ण भावनाओं को अभिव्यक्त करने का माध्यम रही थी तथा भारतेन्दुयुगीन एवं परवर्ती काल के बहुत से साहित्यकार भी बीच-बीच में अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में ग़ज़ल विधा को चुनते रहे हैं किन्तु उन साहित्यकारों को प्रधानतः ग़ज़लकार हम नहीं कह सकते है- ‘‘भारतेन्दु तथा समकालीन हिंदी कवियों ने वास्तव में हिन्दी में गज़ल़ नहीं कही है बल्कि यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वे भी उर्दू वालों की तरह गज़ल़ कह सकते है। इनके द्वारा रूचि गई ग़ज़लों की भाषा में उर्दू के ठाठ को बनाए रखने का प्रयास ही नहीं किया गया, विषयवस्तु भी समकालीन उर्दू गज़ल़ से ही प्राप्त की गई और उर्दू-मुहावरे को बरकरार रखने की कोशिश भी की गई है।’’3 हिन्दी ग़ज़ल को अपनी एक पृथक एवं सशक्त पहचान प्रदान कराने का श्रेण्य कालजयी रचनाकार दुष्यंत को दिया जाता है। वे हिन्दी के सम्भवतः प्रथम साहित्यकार है, जो मूलतः ग़ज़लकार है यद्यपि उन्होंने साहित्य की अन्य विधाओं में भी अपनी लेखिनी चलाई। दुष्यंत से पूर्व ग़ज़ल को एक कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली विधा के रूप में जाना जाता था किन्तु दुष्यंत ने इसे न केवल तात्कालीन युगीन परिस्थितियों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया वरन् इसके तेवर में भी विद्रोह व आक्रमकता का संचार किया है। दुष्यंत के पश्चात् हिन्दी ग़ज़ल को साहित्य जगत में व्यापक स्वीकृति एवं सम्मान की प्राप्ति हुई और समकालीन ग़ज़लकारों की नवीन पीढ़ी इस और आकर्षित हुई। यद्यपि मुख्य धारा के हिन्दी कविता ने इसे बहुत महत्व नहीं दिया तथा न ही समीक्षकों ने हिन्दी ग़ज़ल के परिष्कार एवं रूचि संस्कार की ओर बहुत अधिक रुचि ही दिखाई। यहाँ तक कि उसे मंचीय विधा समझकर उसकी उपेक्षा ही कि गई। इस विषय में ‘डाॅ0 कुँवर बेचैन’ का कथन उचित ही जान पड़ता है कि ‘‘दुष्यंत के बाद की ग़ज़ल हिन्दी के काव्य मंचों पर भी पढ़ी जाने लगी और जनता के द्वारा सराही भी जा रही है। यहाँ यह स्पष्ट कर देने को मन कर रहा है कि जो व्यक्ति मंचीय कविता को स्तरहीन समझकर उसकी अवहेलना कर रहे है उन्हें ये समझना चाहिए कि मंच भी तो कविता के विकास का प्रमुख आधार है जिसके माध्यम से साहित्य लोक जीवन में अपनी पैठ बनाता है।’’4 वस्तुतः कुँवर बेचैन के वक्तव्य में ग़ज़ल के प्रति मुख्य द्वारा की हिन्दी कविता एवं उसके समीक्षों द्वारा किए गये उपेक्षापूर्ण व्यवहार की पीड़ा स्पष्ट झलकती है किन्तु यदि साहित्य का व्यापक जन सरोकार और अपने श्रोताओं व पाठकों से जुड़ाव की दृष्टि से विचार किया जाए तो निःसंदेह हिन्दी ग़ज़ल ने हिन्दी कविता के प्रति उदासीन होते हिन्दी जन मानस को उससे जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है तथा न केवल देश बल्कि विदेशों में भी हिन्दी काव्य के प्रचार-प्रसार एवं उसके प्रति जन समाज के जुड़ाव को भी बढ़ावा दिया है। प्रयोगवाद के बाद विभिन्न वादों एवं बौद्धिक कलाबाजियों के बीच आमजन मानस एवं भावात्मकता से दूर होती हिन्दी काव्य धारा को पुनः जन मानस के समीप लाने का कार्य दुष्यंत तथा परवर्ती ग़ज़लकारों ने किया है। वस्तुतः वर्तमान बौद्धिक, तर्कप्रधान आधुनिक रागात्मकता के क्षरण से भरे समय में हिन्दी ग़ज़ल काव्य में सरसता एवं लयात्मकता को बनाए रखते हुए अपने समय की तल्ख सच्चाईयों को हमारे सामने रखती है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न विभिन्न विसंगतियों को भी हिन्दी ग़ज़ल उसी संवेदनात्मक सूक्ष्मता के साथ अभिव्यक्ति प्रदान कर रही है जिसे हम संक्षेप में इस रूप में स्पष्ट कर सकते है। वैश्वीकरण के प्रक्रिया जैसे-जैसे अपनी तीव्रता एवं समग्रता में आगे बढ़ रही है वैसे-वैसे ही जीवन की प्राथमिकताओं और संवेदनाओं को अपने अनुसार परिवर्तित करती जा रही है। ऐसे में हम यह सोचने के लिए विवश है कि जो आज हमारे सामने प्रस्तुत किया जा रहा है वह किन मायनों में कल से बेहतर है। हिन्दी ग़ज़ल अपने समय की इन स्थितियों को बड़ी सूक्ष्मता से हमारे सामने उजागर करती है। ‘गिरिराजशरण अग्रवाल’ की ग़ज़ल का शेर दृष्टव्य है- ‘‘एक सवाल ऐसा नगर में सबके अधरों पर रहा।आज का दिन कल के बीते दिन से क्या बेहतर रहा?एक ही आँगन में रहते है, मगर है अजनबीअब न वैसे रिश्ते-नाते, अब न वैसा घर रहा।’’5निश्चय ही यह एक चिन्तनीय प्रश्न है कि क्या हमारा आज का दिन कल से बेहतर है। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में सबसे पहले बड़े शहर, नगर ही प्रभावित हुए है और इनका प्रभाव मानवीय संबंधों पर स्पष्टता से देखा जाता है। वैश्वीकरण वर्तमान में जिस पूँजीवादी-व्यक्तिवाद के जीवन-दर्शन को लेकर आगे बढ़ रहा है उसका सहज ही परिणाम है व्यक्ति स्वयं अकेला पड़ जाता है तथा संवेदनात्मक अनुभूतियों के क्षरण के चलते एक अजनबीपन हमारे बीच व्याप्त होने लगता है जिसमें कि व्यक्ति घर-परिवार के बीच रहते हुए भी अपनी एक अलग दुनिया बनाए रखता है। यद्यपि ये स्थितियाँ बड़े महानगरों में कुछ सीमा तक पहले भी विद्यमान थी किन्तु वैश्वीकरण की प्रक्रिया की तीव्रता के साथ इन विसंगतियों का भी विस्तार आज छोटे-बड़े नगर-कस्बों के साथ-साथ गाँवों की ओर भी अपने कदम बढ़ा रहा है। आज धीरे-धीरे रिश्ते-नाते अपना महत्व खोते जा रहे हैं तथा भौतिकवादिता के प्रचार-प्रसार से जीवन में सभी कुछ धन केन्द्रित होता जा रहा है। कभी धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के चार पुरुषार्थों को लेकर चलने वाला भारतीय जीवन दर्शन वैश्वीकरण की छाया में अर्थ प्रधान प्रवृत्ति की ओर अग्रसर है। ‘मधुप शर्मा’ इस विसंगति को बड़ी संजीदगी के साथ अपनी ग़ज़ल में उठाते हैं- ‘‘मर रही इन्सानियत का बोझ कुछ हम पे भी हैइस हवस की दौड़ में कोई नहीं पीछे रहा।कोई रिश्ता, कोई नाता, कोई भी तहतीब होसब का पैमाना तो बस अब एक ज़र ही रह गया।।‘‘6वैश्वीकरण के इस अर्थ केन्द्रित भौतिकवादी जीवन दर्शन के चलते ही परम्परागत रिश्ते-नाते अपनी अर्थवत्ता खोते जा रहे है। इसमें उपयोगितावादी एवं प्रयोजनवादी दृष्टिकोण से सभी चीजों का मूल्य तय करने की प्रवृत्ति के चलते ही जो उपयोगी नहीं रहता वह नैपथ्य में चले जाने के लिए अभिशप्त है। फिर वह चाहे कोई वस्तु हो या रिश्ते-नाते सभी को इस मानदंड पर ही कसा जाता है। भरे-पूरे परिवार में किस तरह सेवानिवृत्त हुए पिताजी किस तरह अपनी प्रासंगिकता खोते जाते है इस पीड़ा को ‘दिनेश शुक्ल’ की यह ग़ज़ल बड़ी स्पष्टता के साथ उजागर करती है- किस तरह रिश्तों के जंगल में रहे बोलो पिताजख्म अपूनो ने दिए कैसे सहे बोलो पिता।बेटे बहुओं की नजर में पेंशन की राशि थे,ये जहर भी किस तरह पीते रहे बोलो पिता।’’7समाज में परिवार का प्रतिनिधित्व करने वाले हमारे बुर्जुर्ग जो कभी परिवार का केन्द्रबिन्दु हुआ करते थे वैश्वीकरण के फलस्वरूप बदल रहे जीवन-दर्शन में किस प्रकार हाशिए पर पहुँचा दिए जाते है। इसकी दारुण व्यथा को ये पंक्तियाँ भली-भाँति प्रकट करती है। वस्तुतः आज की इस आपा-धापी में हम समझ ही नहीं पा रहे है कि जिस ओर हमें यह बहा ले जा रही है उसकी परिणति आखिर है क्या? किसी के पास ठहरकर सोचने विचारने का समय ही नहीं है बल्कि स्वयं को इस दौड़ में बनाए रखने के लिए व्यक्ति को रात-दिन एक करने पड़ रहे हैं। ‘राजेश रेड्डी’ इस विडम्बना को अपने एक शेर में कुछ यूँ बयाँ करते हैं- ‘‘जिन्दगानी के तकाजे ही थे कुछ इतने शदीद।दिन बड़ा करना पड़ा रात को छोटा करके।।’’8ये जिन्दगानी के तकाजे न होकर इस वैश्वीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न स्थितियों के तकाजे है अन्यथा जिन्दगानी के लिए व्यक्ति को कोई बहुत अधिक मरने-खपने की आवश्यकता नहीं है वह तो इस दौर से पहले भी अभावों में शुकून के साथ चल ही रही थी। किन्तु इस समय सब कुछ ऐसे तीव्रता से बदलता हुआ दिखाने की हौड मची है कि कुछ समझ पाना बड़ा कठिन होता जा रहा है। ‘डाॅ0 पुष्पपाल सिंह’ इसे स्पष्ट करते हुए कहते है कि ‘‘उपभोक्तावाद ने व्यक्ति को जिस अंधी, कभी न समाप्त होने वाली दौड़ में धकेल दिया है उसने हमारे जीवन परिवेश को बदल कर रख दिया है। एक नए प्रकार की भौतिकवादी संस्कृति का विकास हो चला है, सब भागे जा रहे है, कहाँ तक दौड़ना हमारा लक्ष्य हो सकता है यह किसी को भी पता नहीं चल पा रहा है। बस भागमभाग और आपा- धापी। एक नया जीवन-दर्शन विकसित हो चला है कि हमें सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ को ही आयत करना और चरम तक पहुँचना है।’’9 ये चरम कहाँ है इस विषय में किसी को कुछ पता नहीं है और इस आपा-धापी व चकाचैंध को बनाए रखने में सूचना व मीडिया क्रान्ति का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसने न केवल वैश्वीकरण की प्रक्रिया को तीव्रता प्रदान की है बल्कि व्यक्ति के चिन्तन को भी कुठित किया है। इस स्थिति को ‘कमलेश भट्ट कमल’ का यह शेर बहुत अच्छी तरह प्रकट करता है- ‘‘उन्हें गिरने से क्या मतलब, उन्हें मतलब से क्या मतलब,मची है होड आगे कौन-सा चैनल निकलता है।’’10वस्तुतः मीडिया जगत और सूचना तकनीकी क्रान्ति के फलस्वरूप फैले इंटरनेट, मल्टीमीडिया मोबाइल, 24 घंटे चलने वाले टी0टी0 चैनलों आदि के माध्यम से वैश्वीकरण की प्रक्रिया में बहुत तीव्रता आई है तथा इसने आज बड़े शहर, नगर के साथ-साथ ग्रामीण जीवन की ओर भी बड़ी तेजी से अपने पाँव पसारने शुरू कर दिए है। शहर-नगर में तो अब सिनेमा, माॅल, डिस्को आदि तथा विलासिता की इतनी सामग्री का अम्बार लगा है कि व्यक्ति उनमें उलझ कर रह जाता है। ‘सौरभ शेखर’ इन स्थितियों को भली-भांति अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं- ‘‘सामान है इस दर्जा, अम्बर से सर फोडो,दीदार करो छत का, दीवार से सर फोडो।आगोश में टीवी की हर शाम करो कालीहर सुबह उसी बासी अखबार से सर फोडो।’’11कहने का तात्पर्य यह है कि हमे मीडिया द्वारा इस कदर चारा ओर से घेर लिए गए है कि इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता हमें दिखाई नहीं दे रहा है और इस उपभोक्तावादी संस्कृति की वाहक पूँजीवादी ताकते इतनी प्रबल तथा व्यापक विस्तार लिए है कि अपने हर अच्छे-बुरे कृत्य पर पर्दा डालने के सभी हत्कंडे इनके पास उपलब्ध रहते है। विभिन्न शीतल पेयों में पैस्टीसाइड की मात्रा तय मानक से बहुत अधिक होने, मैगी, नूडलस आदि में मिलावट आदि के उभरे मुद्दों को बड़ी सफाई व चालाकी से इस कदर दबा दिया जाता है कि हमें फिर इन पर कोई खबर सुनाई ही नहीं देती है। इनका जाल इतना व्यापक तथा तंत्र इतना मजबूत है कि ये हर प्रकार की जाँच-तड़ताल को भी अपने अनुसार व अपने हित में मोड़ने की पूरी सामथ्र्य रखते है और इससे भी बड़ी बात है कि हमें अपनी इस अप्रत्यक्ष गुलामी की अवस्था का अहसास तक नहीं होने दिया जाता है किन्तु हिन्दी ग़ज़ल अपनी सूक्ष्म दृष्टि से इन सब स्थितियों को हमारे सामने एकदम खोलकर रख देती है। ‘हृदयेश मयक’ की ये पंक्तियाँ इस बात की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है- बिकने खरीदने में रूकावट नहीं रही।हम सब हुए गुलाम कि आहट नहीं रही।।वे लोग जो मरे थे दवाओं के ज़हर सेतहकीक में दवा के मिलावट नहीं रही।।’’12वैश्वीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप विस्तारित उपभोक्तावाद की संस्कृति ने परम्परागत मूल्य-संरचना त्याग, परिश्रम, संयम, संतोष आदि के सम्पूर्ण ढाँचे को ही बदलकर रख दिया है- ‘उपभोग भोग ही सुख है।’ के मूलमंत्र को लेकर आगे बढ़ने वाली इस व्यवस्था में सुन्दर-असुन्दर, सभ्य, असभ्य, शील-अश्लील सभी के मानक पूरी तरह बदल दिए है। कभी सभ्य समाज में अमान्य समझे जाने वाले शब्द, वस्त्र, व्यवहार आज इस रूप में और इस प्रकार हमारे सम्मुख प्रस्तुत किए जा रहे है कि व्यक्ति इनसे हट कर सोच पाने की स्थिति में ही नहीं रहा। जो कुछ ठहर कर सोच-समझ कर अपनी जड़ों व मूल्य व्यवस्था से जुड़ने की बात करता है वह पिछड़ा हुआ, गँवारू आउटडेटिड घोषित कर दिया जाता है। ‘अदम गोंडवी’ अपने एक शेर में इस सींकचों में बंद चिन्तन धारा की स्थिति पर प्रश्न चिह्न खड़ा करते हैं- टी0वी0 से अखबार तक ग़र सैक्स की बौछार हो।फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो।।13वस्तुतः उपभोक्तावादी यह व्यवस्था अपने समक्ष किसी प्रतिद्वन्द्वी की स्थिति को स्वीकार ही नहीं करती हैं। इसी के अन्तर्गत विभिन्न धाराओं व स्थितियों में ही आप विचरण करने के लिए बाध्य है और इसके लिए यह सबसे पहले विज्ञापन जगत की मायावी संसार की संरचना खड़ी करती है जिसकी चकाचैंध में फिर हम और कुछ देखने की स्थिति रह ही नहीं पाते हैं। ‘डाॅ0 पुष्पपाल सिंह’ इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखते है कि- ‘‘बाजारवाद और उपभोक्तावाद को विज्ञापन का मायावी जगत ही पल्लवित करता है। यह उसे सम्भव बनाता है। प्रत्येक वस्तु उत्पाद ; पहले उत्पादित की जाती है और फिर विज्ञापन उसे ‘आवश्यकता और जीवन के लिए अपरिहार्य वस्तु’ के रूप में प्रस्तुत कर उसकी मांग बढ़ाता है। विज्ञापन के द्वारा ही प्रसिद्ध उक्ति ‘आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है’ का सत्य उलट गया जाता है।’’14वर्तमान समय में बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अन्तर्गत एक अलग से विज्ञापन व अनुसंधान विभाग का गठन रहता है जिसका कार्य इन्हीं बिन्दुओं पर रणनीति तैयार करना होता है कि आने वाले समय में किस वस्तु का किस रूप में कितना उत्पादन किया जाना है तथा फिर किस प्रकार उसके लिए विज्ञापन आदि द्वारा जीवन के लिए उसकी आवश्यकता व अपरिहार्यता का वातावरण तैयार करना है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न इन विडम्बनापूर्ण परिस्थितियों को ‘राजकुमार कृषक’ की ग़ज़ल के ये शेर बहुत ही बेबाकी के साथ हमारे सामने उजागर करते हैं- हम नहीं खाते हमें बाजार खाता हैआजकल अपना यही चीजों से नाता है।है खरीदारी हमारी सब उधारी परबेचने वाला हमें बिकना सिखाता है।।’’15वस्तुतः यह बड़ा ही अजीब खेल है जिसमें निम्न वर्ग का व्यक्ति तो समाज की मुख्य धारा से निरन्तर कटता ही जा रहा है बल्कि जो इस विकास की धारा से जुड़ा मध्यम वर्ग है उसका जीवन भी वैश्वीकरण की पूँजीवादी ताकतों के हाथों में एक खिलौने की तरह बनकर रह गया है। यदि आप पर पैसे भी नहीं है तो भी आप उत्पाद लिजिए क्रेडिट कार्ड, किस्त आदि हर तरह की सुविधा ऊपरी तौर पर उस व्यवस्था में विद्यमान है बस आप इस व्यवस्था का अंग बनकर रात-दिन अपने आपको इसमें खपाए रहिए। इन सबने आदमी के अस्तित्व को बहुत ही बौना करके रख दिया है- ‘‘मैं खड़ा हूँ एक बाइस-मंजिली बिल्डिंग तलेसोचता हूँ आज क्यों अस्तित्व बौना हो गया।’’16वैश्वीकरण के इस दौर में आप इस प्रक्रिया के आॅक्टोपस के समान फैले पैरों की स्थिति का सही अनुमान लगाने में असमर्थ है। एक ओर जहाँ लोकतंत्र, मानवता, उदारता की बातें होती रहती हैं वही दूसरी और दूरगामि एवं अपने स्वार्थ को सिद्ध करने वाली रणनीतियों पर भी कार्यवाही चलती रहती है एसे में कौन आपका मित्र है और कौन शत्रु इसका कुछ भी निर्णय कर पाना बड़ा कठिन है। एक ओर अमन-चैन की बाते होती रहेगी और दूसरी ओर जंग की तैयारियाँ भी चलती रहती है। ‘इन्दु श्रीवास्तव’ का एक शेर देखिए- दिए से इश्क है तो आँधियों से यारिया क्यूँ है।अमन का शौक है तो जंग की तैयारिया क्यूँ है।।’’17वस्तुतः वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया के बहुत से पहलू है, कुछ उजागर होते हैं, कुछ छिपे रहते है। दिखाया व प्रचारित कुछ किया जाता है और वास्तविकता कुछ ओर ही होती है। निःसन्देह इसने विकास प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है और लोगों की आय में वृद्धि भी हुई है किन्तु अमीरी और गरीबी की खाई निरन्तर चैड़ी भी होती गई है। यही इस व्यवस्था की विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि इसमें अमीरी और गरीबी दोनों ही एक साथ-साथ बढ़ती हुई नजर आती है। अब ऐसे में यह तय कर पाना बड़ा कठिन है क्या वास्तविक है और क्या झूठ प्रचारित किया जा रहा है। इन विसंगतिपूर्ण स्थितियों को ‘अदम गोंडवी’ की एक ग़ज़ल के यह शेर हमारे सामने बड़ी बेबाकी से प्रस्तुत करते हैं- तुम्हारी फाइलो में गाँव का मौसम गुलाबी हैमगर ये आँकड़े झूठे है ये दावा किताबी है।उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे है वोइधर पर्दे के पीछे बर्बरीयत है नवाबी है।लगी है होड सी देखो अमीरी और गरीबी मेंये पूँजीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है।’’18वैश्वीकरण की व्यवस्था की इस बुनियादी खराबी का कोई हल अभी तक पूँजीवाद पर आधारित नियंताओं द्वारा हमारे सामने नहीं आ पाया है। तकनीकी विकास की प्रक्रिया के चलते जहाँ एक ओर नये-नये रोजगार सृजित होते है वही हर नये प्रौद्योगिकीय परिवर्तन व मशीनीकरण से बहुत से कामगार हाथों से रोजगार छीनने की प्रक्रिया भी निरन्तर जारी है। भारत जैसे जनाधिक्य वाले देशों में तो यह स्थिति और भी चिंता जनक है जहाँ सस्ते श्रम की उपलब्धता के चलते श्रम प्रधान तकनीकी का उपयोग किया जाना चाहिए था किन्तु पूँजीवादी तकनीको के अंधानुकरण के चलते आज श्रमिक वर्ग की दयनीय स्थिति है। ऐसे काम की तलाश में भटकते बेरोजगार श्रमिकों की दशा तथा लाचारी एवं अनिश्चिता भरी जीवन स्थिति का बड़ा ही दयनीय व यथार्थ चित्रण ‘अमर ज्योति नदीम’ ने अपनी एक ग़ज़ल में प्र्रस्तुत किया है- चले गाँव से बस में बैठे और शहर को आए जीचैराहे पर खड़े है शायद, काम कोई मिल जाए जी।माँगी एक सौ बीस मजूरी सुबह सवेरे सात बजे,सूरज चढ़ा और हम उतरे लो सत्तर तक आए जी।कल क्या होगा काम मिलेगा या कि नहीं अल्ला जानेजिंदा रहने की कोशिश में जीवन घटता जाए जी।।19 एक साथ था जब गाँधी जी ने अपनी दूरदर्शिता के साथ ‘आत्मनिर्भर’ गाँव की परिकल्पना की थी जो कृषि तथा उसी के साथ लघु-कुटीर उद्योगों पर ग्रामीण संरचना का ढाँचा परिकल्पित किया था किन्तु आजादी के बाद जब औद्योगीकरण की नीतियों को अपनाते हुए अन्ततः भारत पिछली सदी के अन्तिम दशक में वैश्वीकरण की प्रक्रिया में पूरी तरह सम्मिलित हो गया है। इसके चलते कुछ अच्छे प्रभाव, परिणामों को तो हमारे सामने बहुत ही जोर-शोर से प्रस्तुत किया जाता है किन्तु इससे निरन्तर चरमारती ग्रामीण अर्थव्यवस्था तथा उसकी आधारभूत संरचना कृषि एवं किसानों की स्थिति जो निरन्तर, चिंताजनक होती जा रही है उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ‘बल्ली सिंह चीमा’ इस दशा को बहुत ही संजीदगी से हमारे सामने रखते हुए कहते हैं कि-‘‘बालिया गेहूँ की हो या धान की सब खा रही मंडीहम किसानों के लिए फस्ल के पत्ते नहीं बचतेकाम खेती का रहा होगा कभी उत्तम मगर ‘बल्ली’आजकल कर्जा चुकाने के लिए पैसे नहीं बचते।’’20भारतीय किसान अभावों में सदैव रहा है किन्तु उसने कभी आत्महत्या की हो ऐसा सुनने में नहीं आता था क्योंकि उसकी आशा व जीजीविषा बनी रहती थी किन्तु वर्तमान वैश्वीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न स्थितियाँ में यह एक बहुत ही दुखद व विडम्बना पूर्ण स्थिति है कि आज किसान आत्महत्या की घटनाएँ एक आम व सहज रूप से स्वीकार करने वाली स्थिति बन गयी है जिसके आँकड़े भी बड़ी बेशर्मी के साथ सदनों में प्रस्तुत किए जाते है कि इस बार पहले से कम घटनाएँ हुई। किसानों की इस विडम्बनापूर्ण दशा को युवा ग़ज़लकार ‘पवन कुमार’ का एक शेर बहुत ही संजीदगी के साथ बयाँ करता है- रहे महरूम रोटी से उगाएँ उम्र भर फसलेंमजाक ऐसा भी होता है किसानों के पसीने से।’’21निश्चय ही यह बड़ा क्रूर मजाक है जो वैश्वीकरण से उत्पन्न स्थितियों के चलते भारतीय किसानों के साथ घटित हो रहा है। इन संकटपूर्ण स्थितियों में जब राजनीतिक सत्ताएँ भी पूर्णतः वैश्वीकरण की पूँजीवादी शक्तियों के हाथों की कठपुतलियाँ बनी हुई है तो व्यक्ति स्वयं को लाचारी की स्थिति में पाता है और उसके सम्मुख आन्दोलन व संघर्ष के सिवा कोई दूसरा रास्ता बचता दिखाई नहीं देता है। वर्तमान समय की इन सच्चाईयों तथा पीडित व्यक्ति के आन्दोलन के अधिकार को भी हिन्दी ग़ज़ल अपना स्वर प्रदान करती है। ‘अदम गोड़वी’ की ग़ज़ल की पंक्तियाँ यहाँ पूर्णतः सार्थक प्रतीत होती है- ‘‘मोहतरम् अन्ना हजारे आपकर पायेंगे क्याये शहर शीशे का है और संगदिल सरकार है।जब सियासत हो गई है पूँजीपतियों की रखैलआम जनता को फिर बगावत का खुला अधिकार है।22सियासत एवं पूँजीपतियों के परस्पर गठजोड़ पर निश्चय ही यह बड़ी ही तल्ख टिप्पणी है किन्तु जब ऐसी विद्रूप सच्चाई को उजागर करना है तो एक ग़ज़लकार अपने आक्रोश व आमजन की पीड़ा को इसी रूप में व्यक्त करने को स्वयं को विवश पाता है। वैश्वीकरण की इस संवेदनहीन स्थिति तथा उसके बहरुपिये स्वरूप को ‘सूर्यभानु गुप्त’ अपनी इन चार पंक्तियों बहुत ही गम्भीरता के साथ हमारे सामने रखते है जिसमें इस पूरी सदी के खतरे व काईयाँपने को उजागर किया गया है- ‘‘किसको मन के घाव दिखाऊँ हाल सुनाऊँ जी केइन्सानों से ज्यादा अच्छे पत्थर किसी नदी के।हर कंधे पर सौ-सौ चहरे गिनती क्या एक-दो कीरावण से भी ज्यादा खतरे है, इस मक्कार सदी के।।’’23इस प्रकार हम देखते है हिन्दी ग़ज़ल स्वयं में एक युगीन प्रवृत्तियों विसंगतियां की विभिन्न स्थितियों से सम्पृक्त विधा है। यह अवश्य है कि आज ग़़ज़ल के नाम पर बहुत से महारथी इस मैदान में उतर गये है जो इसकी संवेदना एवं शिल्प को समझे बिना ही अपने तीर चलाते रहते है किन्तु इस सबके बीच बहुत अच्छे ग़ज़लकार भी है जो पूरी संजीदगी के साथ जन सरकारों एवं संवेदनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करते रहे है। वर्तमान वैश्वीकरण की प्रक्रिया से उत्पन्न विसंगतिपूर्ण परिस्थितियों को अभिव्यक्ति प्रदान करने में हिन्दी ग़ज़ल पूर्णतः समर्थ एवं महत्वपूर्ण विधा बनकर उभर रही हो जो आम जन में साहित्य के प्रति एक विश्वास कायम करने का प्रयास करती प्रतीत हो रही है। ‘शिवकुमार अर्चन’ की इन दो पंक्तियों के साथ इस शोध पत्र का समापन इसी आशान्विता का प्रयास है- ‘‘उठो कि पाँव के नीचे ज़मी तलाश करें।जो खो गया है कहीं वो यकीं तलाश करें।। संदर्भ ग्रन्थ सूची1. स0 अभय कुमार दुबे- ‘भारत का भूमण्डलीकरण’, वाणी प्रकाशन दरियागंज, नई दिल्ली, पृ0 272. पुष्पपाल सिंह-‘भूमण्डलीकरण और हिन्दी उपन्यास’, राधाकृष्ण प्रकाशन दरियागंज, नई दिल्ली (भूमिका से) 3. डाॅ0 नरेश-‘हिन्दी ग़ज़ल: दशा और दिशा’, वाणी प्रकाशन दरियागंज, नई दिल्ली, पृ0 444. सं0 दीक्षित दनकौरी-‘ग़ज़ल दुष्यंत के बाद’, वाणी प्रकाशन दरियागंज, नई दिल्ली, पृ0 ग्ग्प्ट5. गिरीराज शरण अग्रवाल-‘आदमी है कहाँ’, हिन्दी साहित्य निकेतन, 16 साहित्य विहार, बिजनौर, पृ0 276. मधुप शर्मा- ‘अकेला हूँ मगर तनहा नहीं हूँ’, भास्कर पब्लिकेशन्स, 73, मंगला विहार, 11, पृ0 597. हरेराम नेमा समीप-‘समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन’, खण्ड-2, भावना प्रकाशन, पटपडगंज, नई दिल्ली, पृ0 1388. राजेश रेड्डी- ‘आसमान से आगे’, वाणी प्रकाशन दरियागंज, नई दिल्ली, पृ0 27 9. पुष्पपाल सिंह- ‘भूमण्डलीकरण और हिन्दी उपन्यास’, राधाकृष्ण प्रकाशन दरियागंज, नई दिल्ली, पृ0 12910. ज्ञानप्रकाश विवेक-‘हिन्दी ग़ज़ल की नयी चेतना’, प्रकाशन संस्थान, अंसारी रोड दरियागंज,नई दिल्ली,पृ0 15511. वही पृ0 18212. सं0 दीक्षित दनकौरी- ‘ग़ज़ल . .. दुष्यंत के बाद’, वाणी प्रकाशन दरियागंज, नई दिल्ली, 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प्रकाशन दरियागंज, नई दिल्ली, पृ0 263
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