पालीवाल कृष्ण कुमार
प्रवक्ता: कान्ती सिंह विधि महाविद्यालय, ज्ञानपुर, भदोही
किसी भी विधायन के सफल क्रियान्वयन में न्यायपालिका का योगदान महत्वपूर्ण होता है क्योंकि विधायनों के निर्वचन का दायित्व न्यायपालिका का ही है। यहाँ अनुसूचित जातियों के सिविल अधिकारों से सम्बन्धित कुछ अन्य वादों का विवेचन न्यायालयों के दृष्टिकोण तथा उपगमों को रेखांकित करने के उद्देश्य से किया गया है।किसी भी विधायन के सफल क्रियान्वयन में न्यायपालिका का योगदान महत्वपूर्ण होता है क्योंकि विधायनों के निर्वचन का दायित्व न्यायपालिका का ही है। यहाँ अनुसूचित जातियों के सिविल अधिकारों से सम्बन्धित कुछ अन्य वादों का विवेचन न्यायालयों के दृष्टिकोण तथा उपगमों को रेखांकित करने के उद्देश्य से किया गया है। ‘‘सामाजिक विधियों की व्याख्या का मूल सिद्धान्त यह है कि सामाजिक विधियों को कभी भी संकीर्ण और तकनीकी निर्वचन नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे सामाजिक विधियों के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। न्यायधीशों की जनआकांक्षाओं के अनुरूप विधियों को व्यवहारिक रूप देते हुए उसे सृजनात्मक संस्पर्श देने का प्रयास करना चाहिए तभी विधि में गयात्मक विकास और विधि के कंकाल को नवजीवन प्राप्त होगा। 1976 के पूर्व सामाजिक विधियों के निर्वचन में उपर्युक्त सिद्धान्त का पालन न कर सकने के कारण न्यायपालिका अनुसूचित जातियों के सिविल अधिकारों के संरक्षण के सम्बन्ध में कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभा सकी। मध्य प्रदेश और केरल उच्च न्यायालयों द्वारा ‘‘धर्म सम्प्रदाय’’ शब्द की संकीर्ण और तकनीकी व्याख्या कर दिए जाने के कारण अनुसूचित जाति के सदस्य मन्दिर प्रवेश से वंचित कर दिए गए जबकि समय की मांग थी कि अनुसूचित जाति के सदस्यों को मन्दिर में प्रवेश दिलाकर उनके सिविल अधिकारों को संरक्षण प्रदान किया जाय। इन निर्णयों की आलोचना इस आधार पर की गई कि अधिनियम की त्रुटियों के कारण न्यायालयों को आँखों पर पट्टी बाँध लेने के लिए मजबूर होना पड़ा और अनुसूचित जातियों की सामाजिक असमर्थता के सम्बन्ध में न्यायालय समुचित मापदण्ड विकसित नहीं कर सके। यहाँ विचारणीय है कि मध्य प्रदेश केरल उच्च न्यायालयों द्वारा समयानुकूल निर्णय न देने के कारण अधिनियम की त्रुटियाँ मात्र नहीं थी वरन् इसके लिए न्यायालय स्वयं उत्तरदायी थे। इन न्यायालयों ने संतुलित एवं उदात्त दृष्टिकोण का परिचय न देकर परम्परावादी तकनीकी दृष्टिकोण का परिचय दिया और परिणामस्वरूप आलोचना के पात्र बनें।
जाति के बहिष्कृति सम्बन्धी मामले कभी-कभी अनुसूचित जाति के सदस्य अपने प्रति अन्य हिन्दुओं की अनुदारता के कारण हिन्दू धर्म का परित्याग कर देते हैं। प्रश्न यह है कि यदि अनुसूचित जाति के किसी सदस्य को हिन्दू धर्म गुरूओं द्वारा उसकी जाति की सदस्यता से बहिष्कृत कर दिया जाय तो क्या सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम बहिष्कृत व्यक्ति के अधिकारों को संरक्षण दे सकेगा? यहाँ यदि सरदार ताहेर सैफुद्दीन बनाम् स्टेट आॅफ मुम्बई के निर्णय को लागू किया जाय तो इसका उत्तर नकारात्मक होगा यद्यपि जाति से बहिष्कृत व्यक्ति को अपने कई सिविल अधिकारों से वंचित होना पड़ता है। सैफुद्दीन के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय किया कि किसी समुदाय के धर्मगुरू द्वारा किसी व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत करना धर्मगुरू का संविधान के अनुच्छेद 26(ख) के अन्तर्गत धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध सम्बन्धी संवैधानिक अधिकार है। सामाजिक विधियों के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय का निष्कर्ष यह था कि किसीअधिनियम को सामाजिक सुधार का अधिनियम तभी कहा जा सकता है जब वह किसी अनुसूचित सामाजिक रूढ़ि या नियम के पालन में त्रुटि के आधार पर बहिष्कृति का निषेध करती हो लेकिन धर्म के आधार पर बहिष्कृति का निषेध करती हो लेकिन धर्म के आधार पर बहिष्कृति का निषेध करने वाले अधिनियम को सामाजिक सुधार का अधिनियम नहीं कहा जा सकता। इस वाद के निर्णय से सहमत नहीं हुआ जा सकता क्योंकि धर्म के नाम पर ही इस परम्परावादी भारतीय समाज में अधिसंख्य समाज विरोधी कार्यों को संरक्षण दिया जाता रहा है। वास्तव में इस वाद में सामाजिक सुधार की बड़ी संकीर्ण संकल्पना की गई। यदि वेंकटरमन देवरू के इस निर्देश को कि अनुच्छेद 26(ख) के मूलाधिकार को अनुच्छेद 25(2)(ख) के अधीन मान लिया गया होता तो इस निर्णय द्वारा जो विसंगति पैदा हुई वह पैदा ही न होती। प्रोफेसर पी.के. त्रिपाठी का यह मत सर्वथा उचित है कि इस वाद का निर्णय व्यक्ति को धर्मगुरूओं और अन्धश्रद्धालुओं की चपेट में फसाए रखने में सहायक होगा। पृथक लेकिन समान व्यवहार का सिद्धान्त अमान्य: पृथक लेकिन समान व्यवहार के सिद्धान्त का प्रतिपादन 1896 में प्लेसी बनाम् फग्र्यूसन में अमरीकी न्यायालय द्वारा किया गया था। उसने यह अभिनिर्धारित किया था कि समता का अधिकार ‘‘समान’’ सुविधा या सेवा का आग्रह करता है, ‘‘एक ही’’ सुविधा या सेवा का नहीं। इस सिद्धान्त को केरल उच्च न्यायालय ने रामचन्द्रन पिल्पाई बनाम् केरल राज्य के वाद में मानने से इन्कार कर दिया। इस वाद में हरिजन छात्रों के लिए पृथक कक्षाएँ बनाई गई थी। अभियुक्त की ओर से तर्क दिया गया कि पृथक कक्षाओं का उद्देश्य हरिजन छात्रों को अच्छी शिक्षा देने और शिक्षा के स्तर को उठाने के लिए किया गया था न कि ऐसा अस्पृश्यता के आधार पर किया गया था। न्यायालय का विचार था कि हरिजन छात्रों के लिए एकांतिक रूप से अलग डिवीजन बनाना हरिजन छात्रों के प्रति विभेद का कार्य है और अधिनियम की धारा 5(ख) का उल्लंघन है जो किसी व्यक्ति को शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के पश्चात् ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध विभेदपूर्ण कार्य को दण्डनीय बनाती है। शब्द विभेद का क्या अर्थ होता है अधिनियम में नहीं बताया गया है। संक्षिप्त आक्सफोर्ड शब्दकोश में इस शब्द के लिए कई अर्थ हैं। ‘‘एक पृथक व्यवहार करना’’ अथवा एं ‘‘विशिष्टीकरण करना’’ इत्यादि। धारा 5(ख) का आशय यही है कि विभेदीकरण के आधारों में से केवल एक है तो ऐसे विभेदीकरण को करने वाला व्यक्ति अपराध का दोषी होगा। विभेदीकरण के व्यवहार को इस आधार पर न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता कि एक डिवीजन के छात्रों के प्रति किए जाने वाले व्यवहार में कोई अन्तर नहीं था तथा हरिजन और गैर हरिजन छात्र एक ही कुएँ का प्रयोग करते थे या वे अपना भोजन साथ-साथ कक्षा या भोजनालय में करते थे। वास्तव में जो पृथक हैं वे समान नहीं हो सकते। सार्वजनिक शिक्षा के क्षेत्र में पृथक लेकिन समान व्यवहार के सिद्धान्त का कोई स्थान नहीं है। पृथक शैक्षणिक संस्थाएँ आन्तरिक रूप से असमान हैं। वर्तमान समय में अनुसूचित जातियों को सामान्य जनधारा से जोड़ने की आवश्यकता है न कि एक पृथक धारा बहाने की, इसलिए पृथक तथा समान व्यवहार के सिद्धान्त को कभी अंगीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे अप्रत्यक्ष रूप से अस्पृश्यता को बढ़ावा मिलेगा तथा अनुसूचित जातियों में हीन भावना जन्म लेगी जो उन्हें अवांछित मार्ग की ओर ले जा सकती है।हितों का सामन्जस्य अस्पृश्यता निवारण सम्बन्धी विविध उपबन्धों को लागू करते हुए न्यायालयों ने सर्वदा इस बात का ध्यान रखा है कि अस्पृश्यता निवारण के कारण अनुसूचित जातियों के अधिकार सिर्फ उन्हीं स्थानों के उपयोग करने के सम्बन्ध में उत्पन्न हुए हैं जिनकी प्रकृति सार्वजनिक है। अस्पृश्यता निवारण सम्बन्धी विधि ने किसी व्यक्ति के निजी सम्पत्ति से सम्बन्धित अधिकार में कोई बाधा नहीं उत्पन्न की है। एक व्यक्ति अपने निजी सम्पत्ति का उपयोग अनुसूचित जाति के सदस्यों को करने से रोक सकता है। यही कारण है कि वेनूधर साहू के वाद में कहा गया है कि एक मालिक का निजी कुआँ अधिनियम को धारा 4(1)(क) के अन्तर्गत नहीं आएगा। मालिक हा यह अधिकार होगा कि वह दूसरे व्यक्तियों द्वारा अपनी सम्पत्ति का प्रयोग करने से नियंत्रित करे। यदि एक व्यक्ति अपने निजी सम्पत्ति का प्रयोग कुछ लोगों को करने को देता है तो इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति का उपयोग करने का अधिकार है। इसी प्रकार कान्ड्रे सेठी बनाम मोत्रा साहू के वाद में यह कहा गया कि धारा 3 के अन्तर्गत अपराध का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि वह स्थान जिसमें प्रवेश से रोका गया हो वह सार्वजनिक पूजा स्थान होना चाहिए। इसलिए व्यक्तिगत अनुष्ठान में भाग लेने से किसी व्यक्ति को रोका जा सकता है। यहाँ यह तर्क दिया जा सकता है कि व्यक्तिगत स्थानों में भी रूकावट अस्पृश्यता के आधार पर नहीं होना चाहिए क्योंकि अस्पृश्यता के आधार पर रूकावट पैदा करने से अधिनियम की धारा 7(घ) का उल्लंघन होगा जो अस्पृश्यता के आधार पर अपमान करने का निषेध करती है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि न्यायपालिका ने व्यक्ति के निजी अधिकार और अनुसूचित जाति के सिविल अधिकार दोनों का संरक्षण करके विविध हितों के बीच सामन्जस्य स्थापित करने का प्रयास किया है। यह सार्वजनिक हित में है कि अस्पृश्यता का अन्त हो पर व्यक्ति के व्यक्तिगत अधिकारों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। रस्को पाउण्ड ने भी कहा था कि विधि का कार्य विविध हितों के बीच संतुलन स्थापित करना है। अगर अस्पृश्यता का अन्त करने के लिए व्यक्तिगत अधिकारों में हस्तक्षेप किया गया तो सामाजिक समरसता नष्ट होगी और अनुसूचित जाति और अन्य वर्गों में तनाव होगा। मनुष्यों को सामाजिक परस्पर निर्भरता केवल कल्पना नहीं है अपितु यथार्थ है इसलिए किसी भी वर्ग की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
सामाजिक निर्योग्यता और न्यायालय सामाजिक निर्योग्यता समाज को धार्मिक व आर्थिक निर्योग्यता की अपेक्षा अधिक विखण्डित कर देती है और इससे समाज की सामुदायिक भावना सीमित होती है। इस कारण से न्यायालय सामाजिक निर्योग्यता दूर करने में अधिक प्रयत्नशील रहे हैं। न्यायालय के समक्ष सामाजिक निर्योग्यता के सम्बन्ध में सर्वाधिक वाद अधिनियम की धारा 4 के खण्ड (1) के अन्तर्गत प्रस्तुत किए गए हैं। यह खण्ड मानव जीवन के दैनिक व्यवहारों में आने वाली चीजों जैसे कुएँ, तालाब, श्मशान, कब्रिस्तान के सम्बन्ध में सामाजिक निर्योग्यताओं का निषेध करता है। सौरियार और अन्य बनाम एन. सुमगासुन्दरम् पिल्लई के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति को कब्रिस्तान के प्रयोग से रोकना अधिनियम की धारा 4(1) का उल्लंघन होगा। न्यायालय ने कहा कि अस्पृश्यता के आधार पर असमर्थताओं को रोकने के लिए अधिनियम में व्यापक उपबन्ध किए गए हैं जहाँ एक ओर धारा 13 में यह परिसीमा लगा दी गई है कि कोई न्यायालय किसी वाद के न्याय निर्णयन में या किसी डिग्री या आदेश के निष्पादन में किसी व्यक्ति पर अस्पृष्यता के आधार पर किसी निर्योग्यता अधिरोपित करने वाली किसी रूढ़ि या प्रथा को मान्यता नहीं देगा वही धारा 16 द्वारा इस अधिनियम को अभिभावी प्रभाव देते हुए कहा गया है कि इस अधिनियम के उपबन्ध तत्समय किसी विधि के प्रवृत्त होते हुए भी किसी रूढ़ि या प्रथा अथवा किसी ऐसे विधि अथवा न्यायालय या अन्य प्राधिकारी के किसी डिग्री या आदेश पर प्रभावी किसी लिखित के होते हुए भी प्रभावी होंगे। अधिनियम के द्वारा उतने व्यापक उपबन्धों के निर्माण के बाद सामाजिक असमर्थता के प्रवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं है। स्टेट आॅफ कर्नाटक बनाम् अप्पा बालू इगेल के वाद में जिसमें अनुसूचित जाति के एक सदस्य को कुएँ से पानी लेने से रोका गया था उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम की धारा 4(1) का उल्लंघन माना और कहा कि अस्पृश्यता सम्बन्धी अपराधों के अभियुक्तों को दण्डित करना न केवल आपराधिक विधिशास्त्र की माँग है वरन् इससे समाजशास्त्रीय और संवैधानिक लक्ष्यों व राष्ट्रीय आकांक्षाओं की भी पूर्ति होगी। युग की माँग समानता के पक्ष में है। यदि समानता को व्यवहारिक रूप से क्रियान्वित किया जाएगा तभी युग के आकांक्षाओं की पूर्ति होगी। जयसिंह बनाम यूनियन आॅफ इंडिया के नवीनतम वाद में कहा गया कि जो व्यक्ति अस्पृश्यता के आधार पर किसी सामाजिक या धार्मिक रूढ़ि प्रथा या कर्म का अनुपालन करेगा या किसी धार्मिक या सामाजिक जुलूस में भाग लेने से रोकेगा वह अधिनियम के अन्तर्गत अपराध करेगा। यहाँ विचारणीय है कि सामाजिक निर्योग्यता को दूर करने में न्यायालय को विशेष भूमिका निभाने की आवश्यकता है क्योंकि सामाजिक निर्योग्यताओं के कारण समाज के एक वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त होता है और समाज का दूसरा वर्ग (अनुसूचित जाति) सुविधाविहीन कर्तव्य के बोझ से कराह उठता है। अगर अनुसूचित जातियों की सामाजिक निर्योग्यताओं को दूर करने में सफलता मिलती है तो अन्य प्रकार की असमर्थताओं को दूर करने के लिए विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि अन्य असमर्थताएँ सामाजिक असमर्थताओं की उपज हैं।अस्पृश्यता के उद्भूत अन्य अपराधों के सम्बन्ध में न्यायिक निर्णय अस्पृश्यता के कारण अनुसूचित जाति के सदस्यों को न केवल धार्मिक सामाजिक व आर्थिक निर्योग्यताओं का शिकार होना पड़ता है वरन् दैनिक जीवन में अनेक प्रकार के अपमान, पीड़ा व तिरस्कार को भी झेलना होता है जिसका सम्बन्ध उनकी आन्तरिक भावनाओं से है। अनुसूचित जाति के सदस्यों को अस्पृश्यता के कारण अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए किस प्रकार आन्तरिक और बाह्य रूप से संघर्ष करना पड़ता है वह न्यायालयों द्वारा निर्णित वादों पर दृष्टिपात से स्पष्ट हो जाता है। सुहासिनी बेन काटे बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र के वाद में अभियुक्त महिला ने परिवादी को धमकी देते हुए कहा कि ‘‘वह जाति का मोची है इसलिए उसे उस मराठा आवासीय परिक्षेत्र को तुरन्त छोड़ देना चाहिए।’’ उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि अभियुक्त अधिनियम की धारा 7(1)(क) के अन्तर्गत दोषी है। पटेल हीराबाई बनाम् स्टेट आॅफ गुजरात के वाद में अभियुक्त ने परिवादी को सार्वजनिक पुस्तकालय में अखबार पढ़ते समय कहा कि ‘‘तुम दूर हो जाओ तुमने हमें अशुद्ध कर दिया।’’ गुजरात उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कहे गए शब्द अधिनियम की धारा 7(1)(ख) और 7(1)(घ) के अन्तर्गत अपराध गठित करने के लिए पर्याप्त है। इन दोनों ही वादों में उच्च न्यायालय ने कहे गए शब्दों की प्रकृति पर विशेष ध्यान दिया और यह माना कि ये शब्द अनुसूचित जाति के सदस्यों का अपमान करने के लिए पर्याप्त है। बिहारीलाल के वाद में अनुसूचित जाति की एक सदस्या ने दिशा शौच से लौटने के बाद एक सार्वजनिक नल से पानी लेते हुए दुर्घटनावश अभियुक्त के बर्तनों को छू दिया जिसके कारण अभियुक्त ने उसे पानी लेने से रोक दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अधिनियम की धारा 7(1)(ख) के अन्तर्गत अभियुक्त को दोषसिद्ध किया पर इस आधार पर कि परिस्थितियाँ ऐसी हैं जो अपराध को गम्भीरता को कम कर रही है अभियुक्त के अर्थदण्ड को कम कर दिया। विश्वेश्वर प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश के वाद में उच्च न्यायालय ने अभियुक्त को अधिनियम की धारा 7(1)(ख) के अन्तर्गत दण्डित करते हुए कहा कि इस अधिनियम को बहुत सतर्कता से व्यवहृ किया जाना चाहिए क्योंकि आज भी विशेषकर उच्च जाति के लोग बदले की भावना से काम करते हैं और अस्पृश्यता सम्बन्धी कानूनों का मजाक बना रहे हैं। यह सत्य है कि पहाड़ी क्षेत्रों में उच्च जाति के लोग पुरानी परम्पराओं से छुटकारा पाने में कठिनाइयों का अनुभव करते हैं पर अब धीरे-धीरे लोग संविधान के अध्याय 3 के मौलिक अधिकारों और उसके अन्तर्गत पारित विधियों की पवित्रता का अनुभव करने लगे हैं। भारतीय 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम भारतीय लोकतंत्र में अनुसूचित महिलाओं की राजनैतिक सहभागिता की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ है। यह संशोधन प्रमुख रूप से लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया में समाज के सभी वर्गों को राजनैतिक सहभागिता प्रदत्त करने हेतु लक्षित रहा है। प्रस्तुत शोध पत्र पंचायत स्तर पर निर्वाचित होने वाली अनुसूचित जाति महिला वर्ग के नेतृत्व के सूक्ष्म अध्ययन पर आधारित है। इसी क्रम में पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी के ऐतिहासिक परिदृश्य को प्रस्तुत किया गया है। भारतीय लोकतंत्र मूलतः पंचायत राज व्यवस्था पर आधारित रही है। सभ्य समाज की व्यवस्था के बाद ………….. मनुष्य ने जब स्थायी समूह में रहना सीखा तो पंचायती राज के आदर्श एवं मूल सिद्धान्त उसकी चेतना में विकसित होते रहे हैं। विभिन्न काल खण्डों में इस व्यवस्था को विभिन्न नामकरण दिया जाता रहा है जैसे गणराज्य, कभी नगर शासन प्रशासन व्यवस्था आदि के रूप में जाने जाते रहे हैं। सहकारिता आधारित इस व्यवस्था का मूल मंत्र परस्पर सहयोग सामंजस्य एवं तात्कालिक समस्या को आपसी समझ द्वारा स्थानीय स्तर पर सुलझाना रहा है। महात्मा गांधी का स्वप्न था कि स्वतंत्रता के उपरान्त भारत में एक सशक्त पंचायत राज्य की स्थापना हो जायेंगे शासन कार्य की प्रथम इकाई पंचायत होनी चाहिए। उनकी कल्पना पंचायतों की शासन व्यवस्था की धूरी होने के साथ ही साथ स्वावलम्बन आधारित परिकल्पना को साकार करने पर महत्व देती है। स्वतंत्रता के उपरान्त हमारे शासक वर्ग वे गांधी जी की इस महत्वाकांक्षा को साकार करने हेतु विभिन्न प्रयास अनवरत करते रहे हैं। ग्रामीण विकास एवं सामुदायिक विकास उन्मुखी परियोजनाओं उसका ज्वलंत उदाहरण है। लेकिन सम्पूर्ण देश ने ……………. थे विकेन्द्रीकरण का वास्तविक प्रयास 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायत राज को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ एवं पंचायतों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, पिछड़े वर्ग एवं महिलाओं की सहभागिता उनके लिए सीटें आरक्षित करते हुए प्रदत्त की गई है। पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं की भूमिका भारत में पंच परमेश्वर तथा महिला स्वतंत्रता की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। दुर्भाग्यवश सैकड़ों वर्षों की गुलामी काल में विदेशी शासनकाल अपने विहित स्वार्थवश पंचायत व्यवस्था तथा महिला स्वतंत्रता को जानबूझकर समाप्त करने की चेष्टा करते रहे थे। पर्दा प्रथा के कारण महिलाओं को अशिक्षित रखा एवं विभिन्न मौलिक अधिकारों का हनन कर कुत्सित प्रयास जारी था। सौभाग्य से 1947 में जब राष्ट्र स्वतंत्रत हुआ, हमारी सरकार ने संविधान के आदर्श प्रस्तावना के माध्यम से पंचायत व्यवस्था को पुनर्निवित करने का लक्ष्य घोषित किया। किन्तु कई दशक बीत जाने के बाद में महिलाओं के मानवीयता अशिक्षा आदि पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे राजनैतिक सहभागिता से वंचित रहे। इस स्थिति से निपटने के लिए 1992 में संविधान संशोधन (73वाँ एवं 74वाँ) पारित किया गया। जो कि पंचायत स्तर में महिला एवं अनुसूचित जाति की महिलाओं का राजनैतिक सहभागिता सुनिश्चित करने के निमित्त लक्षित था। आधुनिक काल में अनुसूचित जाति समुदाय की सामाजिक प्रास्थिति का समुत्थान उन्हें शोषण अन्याय और असमानता से विमुक्त प्रदत्त करने में यह संशोधन मील का पत्थर साबित हुआ है।पंचायती राज में महिलाओं की स्थिति भारतीय समाज में नारी को अनादिकाल से देवी का दर्जा प्राप्त है। वह दया करूणा, समता और प्रेम की पवित्र मूर्ति मानी जाती रही है। किन्तु समाज की स्वार्थी भावना के विभिन्न वर्गों के महिलाओं के साथ भी असमानता का व्यवहार अपनाया इस प्रकार अनुसूचित जाति की महिलाओं की सामाजिक आर्थिक राजनैतिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय बनी रही। इस प्रकार पंचायतों में अनुसूचित महिलाओं को सीट आरक्षित होने से उनमें राजनैतिक संचेतना का विकास होना सुनिश्चित है। 73वें संविधान संशोधन के उपरान्त अनुसूचित महिलाओं की राजनैतिक आर्थिक एवं सामाजिक प्रास्थिति में अमूलचूल परिवर्तन हुआ। आज अनुसूचित जाति की महिलायें राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक प्रास्थिति में पंचायती राज व्यवस्था में आरक्षण प्राप्त होने से अमूल चूल परिवर्तन पारलक्षित हो रहा है।
सन्दर्भ:1. फूलर जे.सी.: कास्ट टुडे, आक्सफोर्ड प्रेस, 2002, पृ. 24.2. नरायन इकबाल: स्टेट पाॅलिटिक्स इन इण्डिया, कुरूक्षेत्र, वाल्यूम 21, अप्रैल 1995, पृ. 43.
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