ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग व विकासशील अर्थव्यवस्था: एक दृश्य

कुमारी हितेश
एमि0फिल0 अर्थशास्त्र (अध्ययनरत),
बनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान-304022

विश्व अर्थव्यस्था में वर्तमान में सभी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाऐं एक दूसरे से जुड़ी होने के साथ-साथ परस्पर निर्भर भी है। जिस प्रकार एक अर्थव्यवस्था में राष्ट्र का नागरिक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का अंग होता है, उसी प्रकार राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाऐं विश्व अर्थव्यवस्था का अंग होती है। सामान्यतः बन्द अर्थव्यवस्था में आर्थिक जीवन की सामान्य प्रक्रिया प्रायः असम्भव होती है। वर्तमान विशिष्टिकरण के काल में द्रुत गति से परिवर्तित हो रही प्रौद्योगिकी तथा संचार व यातायात के साधनों के अति विकसित युग में अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों में विकास सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यद्यपि, राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सम्बन्ध प्रमुख रूप से व्यापारिक व आर्थिक सहायता के लिए होते हैं, अपितु विकसित राष्ट्रों के मध्य सम्बन्ध विशेषतः अन्र्राष्ट्रीय व्यापार से सम्बन्धित होते हैं। अन्र्राष्ट्रीय व्यापार बाजार के आकार में वृद्धि अन्र्राष्ट्रीय श्रम विभाजन को विस्तार देने तथा विशिष्टिकरण व उत्पादन के स्तर में वृद्धि करने में सहायत होता है। रोबिन्सन में अन्र्राष्ट्रीय व्यापार के दो कार्य स्पष्ट किये हैं। प्रथम, एक राष्ट्र तुलनात्मक लाभ को प्राप्त नहीं कर सकता है, उसे भोज्य सामग्री, वस्तुए इत्यादि प्राप्त करने में समर्थ बनाता है। द्वितीय, ऐसे राष्ट्रों को जो अल्पकाल में उत्पादन में योजना अनुसार विफलता या निर्यात प्रगति न होने की दशा में अपने को असमर्थ पाते हैं, को समर्थ बनाता है।विश्व अर्थव्यस्था में वर्तमान में सभी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाऐं एक दूसरे से जुड़ी होने के साथ-साथ परस्पर निर्भर भी है। जिस प्रकार एक अर्थव्यवस्था में राष्ट्र का नागरिक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का अंग होता है, उसी प्रकार राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाऐं विश्व अर्थव्यवस्था का अंग होती है। सामान्यतः बन्द अर्थव्यवस्था में आर्थिक जीवन की सामान्य प्रक्रिया प्रायः असम्भव होती है। वर्तमान विशिष्टिकरण के काल में द्रुत गति से परिवर्तित हो रही प्रौद्योगिकी तथा संचार व यातायात के साधनों के अति विकसित युग में अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों में विकास सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यद्यपि, राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सम्बन्ध प्रमुख रूप से व्यापारिक व आर्थिक सहायता के लिए होते हैं, अपितु विकसित राष्ट्रों के मध्य सम्बन्ध विशेषतः अन्र्राष्ट्रीय व्यापार से सम्बन्धित होते हैं। अन्र्राष्ट्रीय व्यापार बाजार के आकार में वृद्धि अन्र्राष्ट्रीय श्रम विभाजन को विस्तार देने तथा विशिष्टिकरण व उत्पादन के स्तर में वृद्धि करने में सहायत होता है। रोबिन्सन में अन्र्राष्ट्रीय व्यापार के दो कार्य स्पष्ट किये हैं। प्रथम, एक राष्ट्र तुलनात्मक लाभ को प्राप्त नहीं कर सकता है, उसे भोज्य सामग्री, वस्तुए इत्यादि प्राप्त करने में समर्थ बनाता है। द्वितीय, ऐसे राष्ट्रों को जो अल्पकाल में उत्पादन में योजना अनुसार विफलता या निर्यात प्रगति न होने की दशा में अपने को असमर्थ पाते हैं, को समर्थ बनाता है। पूर्व में विकसित व विकासशील राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सम्बन्ध सार रूप में औपनिवेशिक थे जो अपने स्वभाव में विकासशील राष्ट्रों के विरूद्ध पक्षपात पूर्ण थे, औपनिवेशिक काल के अन्त में नव औपनिवेशिक सम्बन्धों में परिवर्तित हो गये थे। तुलनात्मक लाभ की प्रवृति विकसित व विकासशील राष्ट्रों के मध्य विकसित राष्ट्रों के लिए औद्योगिक उत्पादन तथा विकासशील राष्ट्रों के लिए कृषि उत्पादन की रही है। परिणामस्वरूप व्यापार विनिमय असन्तुलित हो गया था व विकासशील राष्ट्रों की व्यापार शर्तें प्रतिकूल हो गयी थी। विकसित राष्ट्रों द्वारा क्षेत्रीय आर्थिक समूहों तथा अन्र्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के गठन द्वारा इस प्रवृत्ति को और अधिक सुदृढ़ किया है। फलस्वरूप विश्व व्यापार में विकसित राष्ट्रों की भागीदारी में वृद्धि हुई है तथा विकासशील राष्ट्रों की भागीदारी में ह्रास हुआ है। यहां यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि विकसित राष्ट्रों के मध्य होने वाले व्यापार की परस्पर भागीदारी में वृद्धि हुई है। इसके विपरीत विकासशील राष्ट्रों के मध्य परस्पर व्यापार की मात्रा में ह्रास हो रहा है तथा इसके विपरीत विकासशील राष्ट्रों के मध्य परस्पर व्यापार की मात्रा में ह्रास हो रहा है एवं निर्यातों के दो तिहाई भाग के लिए विकसित राष्ट्रों पर निर्भर रहते हैं। विकासशील राष्ट्रों को विकसित राष्ट्रों के संदर्भ में व्यापार शर्तों को अनुकूल बनाने के लिए विकसित राष्ट्रों पर निर्भरता को कम करने हेतु परस्पर आर्थिक सहयोग वृद्धि के लिए समुचित रणनीति विकसित करने की दिशा में प्रयासरत रहना चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में असमान विनिमय व प्रतिकूल व्यापार शर्तों से मुक्त होने के लिए विकासशील राष्ट्रों के समक्ष एक मात्र उपाय परस्पर आर्थिक सहयोग में वृद्धि करना ही है। क्षेत्रीय स्तर पर आर्थिक सहयोग द्वारा प्रत्येक क्षेत्र के विकासशील राष्ट्र अधिक से अधिक परस्पर एक दूसरे पर निर्भर हो सकते हैं तथा विकसित राष्ट्रों पर अपनी निर्भरता को कम कर सकते हैं। भौगोलिक निकटता के कारण एक ही क्षेत्र के विभिन्न विकासील राष्ट्रों के मध्य प्रायः एक समान आर्थिक संसाधन, समान ऐतिहासिक अनुभव, समान सांस्कृतिक व सामाजिक उद्भव रहे हैं। वे अपने मध्य ही परस्पर सहायक हो सकते हैं एवं समर्थन प्राप्त कर सकते हैं एशियाई महाद्वीप में इस आशय से दक्षिणी एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन का उदभव हुआ है। जो इस दिशा में उठा गया एक उचित कदम है। सार्क ने उच्च आर्थिक विकास प्राप्त करने व दक्षिण एशियाई जन मानस के कल्याण, सामूहिक आत्म निर्भरता को बढ़ाने के उद्देश्य को प्रस्तावित किया है। विकसित एवं विकासशील राष्ट्र के मध्य पाये जाने वाले आर्थिक सम्बन्ध प्रायः विकसित राष्ट्रों के पक्ष में होते हैं। विकसित व ‘विकासशील राष्ट्रों के मध्य व्यापर शर्तों में अधोगित व परवर्ती से पूर्ववर्ती पर मूल्य हस्तान्तरण का कारण व परिणाम दोनों ही हैं। विकसित राष्ट्र वृद्धि करते हुए संरक्षणवादी प्रवृत्ति के कारण अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में निर्धन राष्ट्रों के आधारभूत हितों के प्रतिकूल क्रियाशील हैं। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में विकासशील राष्ट्रों के उत्पादनों को विकसित राष्ट्रों के उत्पादों के साथ स्पर्धा करनी होती है, जिसका परिणाम अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में विकासशील राष्ट्रों की भागेदारी समय के सापेक्ष घट रही है एवं विकसित राष्ट्रों का प्रतिशत वृद्धि कररहा है। इस परिपेक्ष में विकासशील राष्ट्रों के सम्मुख मात्र एक विकल्प ही रहता है, कि वे अपने आर्थिक सम्बन्धों में परस्पर धनात्मक परिवर्तन करते हुए सामूहिक स्वावलम्बन प्राप्त करने का प्रयास करें। दक्षिणी एशियाई राष्ट्रों के मध्य प्रमुख समस्या परस्पर सहयोग के मापदण्डों को ज्ञात करके विकसित राष्ट्रों पर अपनी निर्भरता कम करना है। भविष्य में विकसित राष्ट्रों के साथ सहयोग की सम्भावनाओं में सुधार के लिए भी ऐसा सहयोग विकासशील राष्ट्रों के लिए ही लाभप्रद है। दक्षिण एशियाई राष्ट्रों के सम्मुख क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग के इतने व्यापक अवसर हैं कि यदि इस दिशा में प्रयास किया जाए तो विकसित राष्ट्रों पर अपनी निर्भरता कम कर सकते हैं। दक्षिण एशियाई आर्थिक सहयोग के विचार ने समय समय पर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर समर्थन प्राप्त किया है। अंकटाड तृतीय सेंटिआगों में क्षेत्रीय सहयोग पर विशेष बल दिया गया था। गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों के सम्मेलन में भी समय समय पर यह मत व्यक्त किया गया है कि विकासशील राष्ट्र परस्पर अधिक व्यापर एवं आर्थिक सहयोग में वृद्धि करें। विकासशील राष्ट्रों के मध्य उच्च आर्थिक विकास एवं जनकल्याण वृद्धि के लिए दक्षिण एशियाई राष्ट्रों के सन्दर्भ में सार्क की स्थापना इसी तथ्य का संकेत है। क्षेत्र शब्द का दो राष्ट्रों के मध्य अर्थ उनकी भौगोलिक एवं भूभागीय समानता व लगभग समान आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक प्रवृतियों की तरफ संकेत करता है। क्षेत्रीय व्यवस्था पड़ौसी राष्ट्रों का स्वैच्छिक संघ होता है। जिसकी समान पृष्ठ भूमि व समान लक्ष्य होते है। एकीकरण शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन है जिसका तात्पर्य अंगों को पूर्ण में जोड़ना है, आर्थिक एकीकरण का अर्थ व्यापारिक स्वतंत्रता एवं घटकों के सरल आवागमन से होता है। बेला बलास्सा ‘‘आर्थिक एकीकरण’’ को एक प्रक्रिया तथा व्यवसाय स्थिति के रूप में परिभाषित किया है। यहाँ प्रक्रिया शब्द यह संकेत करता है कि विभिन्न राष्ट्र परस्पर आर्थिक भेदभाव समाप्त करने के लिए निर्दिष्ट उपायों को अपनाऐं। इन्होंने एकीकरण एवं आर्थिक सहयोग के मध्य अन्तर किया है। आर्थिक सहयोग में परस्पर भेद भावों को कम करने के लक्ष्य से किये गये कार्य आते हैं। जबकि, आर्थिक एकीकरण के अन्तर्गत भेदभावों के कुछ रूपों के उन्मूलन के लिए उपाय किये जाते हैं। उदाहरणार्थ, व्यापार नीतियों पर अन्तर्राष्ट्रीय समझौते अन्तर्राष्ट्रीय सहयोगी की श्रेणी में आते हैं। जबकि व्यापार अवरोधों को समाप्त करना आर्थिक एकीकरण का कार्य है। गुर्नार मिर्दाल के अनुसार एकीकरण एक सामाजिक, आर्थिक प्रक्रिया है। आर्थिक क्रियाकलापों के साझेदार राष्ट्रों के मध्य सामाजिक व आर्थिक दोनों प्रकार के अवरोधों को हटाने की प्रक्रिया है। उनका मत है कि अर्थव्यवस्था तब तक एकीकृत नहीं होती है, जब तक सभी उपाय सभी अर्थव्यवस्थाओं के लिए खोल नहीं दिये जाते हैं, यहां इस प्रक्रिया के लिए जातिगत, सामाजिक व सांस्कृति अन्तर को ध्यान में नहीं रखा जाता है। जान पिंडर के अनुसार, आर्थिक एकीकरण से तात्पर्य सदस्य राष्ट्रों के आर्थिक अभिकर्ताओं के          मध्य भेद भाव का उन्मूलन से है, इसे सुनिश्चित करने के लए प्रमुख आर्थिक कल्याणकारी कार्य पूर्ण करना, पर्याप्त पैमाने पर समन्वित व समान नीतियों को बनाना व उनको क्रियान्वित करने से है। इन्होंने आर्थिक एकीकरण के उस पक्ष को धनात्मक एकीकरण बताया जो पर्याप्त पैमाने पर समन्वयात्मक तथा सामन नीतियों के निर्माण व क्रियान्वयन से सम्बन्ध रखता है एवं निषेधात्मक एकीकरण के अन्तर्गत उस प्रक्रिया को सम्मिलित किया जाता है जिसमें भेद भाव उन्मूलन आता है। एक अध्ययन में मैक्सीमोवा ने आर्थिक एकीकरण को प्राय गहन एवं टिकाऊ सम्बन्धों के विकास की वस्तुगत प्रक्रिया, अर्थव्यवस्थाओं के मध्य श्रम विभाजन, समाजन सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था वाले राष्ट्रों के समूहों की सरंचना के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक समष्टि के निर्माण की प्रक्रिया, ऐसी प्रक्रिया जिसका संचेतन रूप से इन देशों के प्रभुत्वशील वर्गों के हितों के अनुरूप नियमन किया जा सके होना बताया है। आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग के अनेक रूप अंगीकरण किये जाते हैं। यह अपने निम्नतम स्वरूप से उच्चतम स्वरूप तक मुक्त व्यापार क्षेत्र, सीमा शुल्क संघ, साझा बाजार, आर्थिक संघ व पूर्ण आर्थिक एकीकरण के माध्यम से विकसित होता है। ये स्वरूप आर्थिक एकीकरण की उच्चतर मात्राओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। मुक्त व्यापार क्षेत्र में सदस्य राष्ट्रों के अन्दर सभी व्यापार प्रतिबन्ध समाप्त कर दिये जाते हैं। किन्तु प्रत्येक सदस्य अन्य गैर सदस्य राष्ट्रों के साथ किसी भी प्रकार के वाहृय शुल्क लगाने के लिए स्वतन्त्र होता है। सीमा शुल्क संघ के अन्तर्गत सत्त राष्ट्र परस्पर अबाधित रूप से स्वतन्त्र व्यापार में सम्मिलित होते हैं तथा अन्य राष्ट्रों के प्रति समान वाहृय शुल्क भी स्थापित करते हैं। इस प्रकार के आर्थिक एकीकरण का अधिक विकसित रूप साझा बाजार के रूप में अभिव्यक्त होता है। जिसमें व्यापार प्रतिबन्धों तथा उत्पत्ति के साधनों के आवागमन पर            प्रतिबन्ध समाप्त कर दिये जाते हैं।  आर्थिक एकीकरण का परिष्कृत स्वरूप आर्थिक संघ है। इसमें व्यापार व उत्पत्ति के साधनों के आवागमन पर प्रतिबन्ध समाप्त होता ही है अपितु भागीदार राष्ट्रों की आर्थिक प्रक्रियाओं एवं नीतियों को पूर्णतः एकीकृत कर दिया जाता है एवं जिनका संचालन संयुक्त रूप से किया जाता है। बेला बलास्सा के अनुसार पूर्ण आर्थिक एकीकरण हेतु सर्वप्रथम मौद्रिक, वित्तीय, सामाजिक तथा प्रत्यावर्तित नीतियों का एकीकरण पूर्वशर्त होती है। तत्पश्चात् यह एक अधिराष्टीय प्राधिकार की स्थापना की मांग करता है। जिसके निर्णय सदस्य राष्ट्र पर बाध्यकारी होते हैं। आर्थिक एकीकरण के उपरोक्त रूपों की दृष्टि से निम्नतम से उच्चतम राष्ट्र स्वरूप की दृष्टि से हम आर्थिक एकीकरण को सदस्य राष्ट्र के परस्पर व्यापार प्रतिबन्धों की समणित एवं गैर सदस्य राष्ट्र के विरूद्ध भेद भाव अपना कर विस्तारित विशेषज्ञता व विनिमय के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। दोनों विश्व युद्धों के मध्य मुक्त व्यापार एवं साझा बाजार प्रणाली प्रायः प्रतिबन्धित हो गयी थी। विशेषतः 1930 की मंदी के पश्चात्, इसका प्रमुख कारण विश्व अर्थव्यवसथा में बृहत रूप से विघटन माना जा सकता है। परिणाम, द्वितीय विश्व युद्ध समाप्ति के बाद पुनः अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक एकीकरण के प्रयास किये जाने लगे थे एवं इस प्रकार के प्रयास पहले की तुलना में सम्पूर्ण विश्व में अधिक व्यापक होने लगे थे। अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों में आर्थिक एकीकरण के तीन प्रकार होते हैं प्रथम, संघवादी, द्वितीय व्यापारिक तथा तृतीय कार्य सम्पादनवादी। संघवादी अध्ययन विधि की कल्पना सम्बन्धी राष्ट्रों द्वारा प्रशासनिक कदम उठोय जाने के माध्यम से हैं। इन व्यापार प्रतिबन्धों का अन्त समन्वयन एवं एकीकरण द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, यह विधि साझा देय पूर्ति का प्रकार है। द्वितीय व्यापारिक विधि के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक लेन देनों के अवलोकन करके आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया को सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाता है। इसमें एकीकरण को सारतः इसके सदस्यों के मध्य कूटनीतिक, आथिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आदान प्रदान के उच्च स्वपोषित स्तर द्वारा परिभाषित राज्यों के समान की रचना के रूप में देखता है। तृतीय विधि कार्य संपादनवादी है जो सहकारी निर्माण व विशिष्ट वर्ग प्रवृत्तियों पर ध्यान देती है। जिससे एकीकरण की ओर प्रगति को निर्धारित किया जा सकता है। यह विधि वृहत बाजार की रचना के लिए परस्पर समझौते के माध्यम से व्यापार के उदारीकरण को प्रदर्शित करती है। इस प्रकार की प्रक्रिया में पूर्ण एकीकरण की आदर्श अवस्था तब आती है जब स्वतंत्र स्पर्धा सभी बाजारों में प्रचलित हो जाती है। कार्य संपादनवादी प्रणाली इस प्रसिद्ध सिद्धान्त पर आधारित है कि रूप कार्य का अनुसरण करता है। सार्क व ई0ई0सी0 जैसे कार्य संपादनवादी संगठन की स्थापना सम्बन्धित राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सहयोग में वृद्धि करने के लिए है। सार्क जो कि भारतीय उपमहाद्वीप भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान व अफगानिस्तान, हिन्दमहासागर के लंका और मालद्वीप का संघ है। ये आठ राष्ट्र दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ के सदस्य हैं। अतः इन्हें सार्क राष्ट्र जाना जाता है। सार्क राष्ट्रों की आर्थिक संरचना मूल रूप में कृषि प्रधान है। अतः इनके आयात मुख्य रूप से विकसित राष्ट्रों से विनिर्मित वस्तुएं है। इन राष्ट्रों की व्यापार सन्तुलन की स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। इसके अतिरिक्त व्यापार शर्तें भी प्रतिकूल दिशा में गमन करती है। सार्क राष्ट्र प्रायः मिश्रित अर्थव्यवस्था आधारित है। इसका प्रमुख कारण इन राष्ट्रों की अर्द्धविकसित विशेषताएं है। आर्थिक विकास हेतु ये राष्ट्र आर्थिक नियोजन प्रक्रिया को अपनाते है। विश्व की कुल जनसंख्या के आधे निर्धन सार्क राष्ट्रों में निवास करते हैं। आय की असमान्ता भी सर्वाधिक सार्क राष्ट्रों में ही पायी जाती है।

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