डाॅ0 रश्मि फौजदार
(प्रवक्ता-राजनीति शास्त्र)
मुस्लिम गल्र्स डिग्री काॅलिज, बुलन्दशहर
उच्चत्तम न्यायालय ने जीवन रक्षक प्रणाली पर जीने को मजबूर और मरणासन्न व्यक्तियों के लिए जीवन से मुक्ति का रास्ता खोलते हुए परोक्ष इच्छा मृत्यु (पैसिव यूथेनेशिया) को वैध करार दिया है। इसके अलावा अदालत ने जीवन सम्बन्धी वसीयत (लिविंग बिल) को भी कानूनन वैध करार दिया है। कोई भी व्यक्ति अपनी जिंदगी और इलाज के बारे में पूर्व निर्देश दे सकता है। इसमें वह घोषित कर सकता है कि लाइलाज रोग से ग्रसित होने और मरणासन्न स्थिति में पहुँचने पर उसके जीवन रक्षक उपकरण हटा दिए जाएं और उसे शान्ति से करने दिया जाए। जिन्होंने पूर्व में ऐसी घोषणा नहीं की है लेकिन मरणासन्न स्थिति में पहुँच गए हैं, उनके जीवन रक्षक उपकरण हटाने की कड़ी शर्तों के साथ इजाजत दी गई है। उच्चत्तम न्यायालय ने जीवन रक्षक प्रणाली पर जीने को मजबूर और मरणासन्न व्यक्तियों के लिए जीवन से मुक्ति का रास्ता खोलते हुए परोक्ष इच्छा मृत्यु (पैसिव यूथेनेशिया) को वैध करार दिया है। इसके अलावा अदालत ने जीवन सम्बन्धी वसीयत (लिविंग बिल) को भी कानूनन वैध करार दिया है। कोई भी व्यक्ति अपनी जिंदगी और इलाज के बारे में पूर्व निर्देश दे सकता है। इसमें वह घोषित कर सकता है कि लाइलाज रोग से ग्रसित होने और मरणासन्न स्थिति में पहुँचने पर उसके जीवन रक्षक उपकरण हटा दिए जाएं और उसे शान्ति से करने दिया जाए। जिन्होंने पूर्व में ऐसी घोषणा नहीं की है लेकिन मरणासन्न स्थिति में पहुँच गए हैं, उनके जीवन रक्षक उपकरण हटाने की कड़ी शर्तों के साथ इजाजत दी गई है। 09 मार्च 2018 को यह ऐतिहासिक फैसला मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सुनाया। इनमें से चार न्यायाधीशों ने अलग-अलग, लेकिन एक दूसरे का समर्थन करने वाला फैसला दिया है। कोर्ट ने कहा है कि इच्छा मृत्यु के बारे में सरकार द्वारा कोई कानून लागू रहेगा। अमेरिका सहित कई देशों में लिविंग विल या तो कानून से या फिर कोर्ट के आदेश से लागू है। अब भारत भी इच्छा मृत्यु का अधिकार देने वाले देशों में शामिल हो गया है। न्यायाधीशों ने जीवन और मृत्यु के बारे में दार्शनिक और धार्मिक व्याख्याओं के अलावा कानूनी विश्लेषण किया है। कोर्ट ने इच्छा मृत्यु पर दुनियाभर में तय प्रक्रिया का जिक्र करते हुए भारत के लिए विस्तृत दिशा – निर्देश जारी किया है। कोर्ट ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मान से करने का अधिकार शामिल है। फैसले मेें जिंदगी की वसीयत करने से लेकर उस वसीयत को लागू करने तक की विस्तृत प्रक्रिया तय की गई है। कोर्ट ने कहा कि परिस्थितियों के मुताबिक मरीज की पीड़ा कम करने के लिए परोक्ष इच्छा मृत्यु पर अमल करने समय मरीज का हित राज्य के हित से ऊपर होगा। किसी ’’लाइलाज और पीड़ादायक बीमारी से जूझ रहे व्यक्ति को निष्क्रिय रूप से इच्छामृत्यु दी जाएगी। इसका मतलब यह है कि पीड़ित व्यक्ति के जीवनरक्षक उपायों (दवाई, डायलिसिस और वेण्टिलेशन) को बन्द कर दिया जाएगा अथवा रोक दिया जाएगा। पीड़ित स्वंय मृत्यु को प्राप्त होगा। एक्टिव इच्छामृत्रूु का अर्थ होता है इंजेक्शन या किसी अन्य माध्यम से पीड़ित को मृत्यु देना। सर्वोच्च न्यायालय ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दी है, सक्रिय इच्छा मृत्यु की नहीं।’’ एक्टिव यूथेनेशिया में लाइलाज और मरणासन्न मरीजों को जीवन समाप्त करने के लिए इंजेक्शन आदि दिया जाता है। पैसिव यूथेनेशिया में मरीज को जीवित रखने वाले उपकरणों को हटा लिया जाता है। कोर्ट ने सिर्फ पैसिव यूथेनिशया की इजाजत दी है। पैसिव यूथेनेसिया जीवन रक्षण प्रणाली को हटाकर प्राकृतिक रूप से मौत के लिए छोड़ दिया जाता है। दवाएं बंद कर दी जाती हैं। खाना और पानी बंद कर दिया जाता है। एक्टिव यूथेनेसिया मौत के लिए सीधे कदम उठाए जाते हैं। इससे जहरीला इंजेक्शन भी शमिल हो सकता है। लिविंग विल को ’’एडवांस मेडिकल डायरेक्टिव भी कहते हैं। यह किसी भी व्यक्ति के वे दिशानिर्देश होते हैं जिसमें वह घोषणा करता है कि भविष्य में किसी ऐसी बीमारी या दशा से अगर वह ग्रस्त हो जाता है जिसमें तमाम आधुनिक इलाजों के बावजूद सुधार मुश्किल हो, तो उसका इलाज किया जाए या न किया जाये। दुनिया में कहां प्रावधान आॅस्ट्रेलिया में एडवांस डायरेक्टिव का प्रावधान है जिसमें लोगों को यह पहले ही तय करने की सहूलियत दी गई है कि भविष्य में उनका कैसे इलाज किया जाए। दरअसल लाइलाज या मरणासन्न स्थिति में हो सकता है कि व्यक्ति अपनी राय देने में असमर्थ हो, लिहाजा लिविंग बिल का प्रावधान है। पेशेंट सेल्फ डिटरमिनेशन एक्ट अमेरिकी नागरिकों को यह अधिकार देता है कि वे अपने स्वास्थ्य से जुड़े निर्णाय कर सकें। इस कानून में एडवांस डायरेक्टिव या लिविंग बिल का प्रावधान है।’’2 इसी कानूनी तर्ज पर काॅमन काॅज संस्था ने भी लिविंग बिल की मांग की थी। लिविंग विल की ’’प्रक्रिया’’3 निम्नवत् है:-वयस्क व्यक्ति जिसका मानसिक स्वास्थ्य ठीक हो, स्वास्थ्य अवस्था में हो।बिना जोर जबरदस्ती के पूर जानकारी के साथ हस्ताक्षर किया जाएगा।स्पष्ट किया जाएगा कि जब इलाज बंद किया जाएगा, उसका परिणाम मृत्यु होगा।उस निर्णय और उन हालात का साफ उल्लेख किया जाएगा। जब इलाज या मेडिकल सपोर्ट बंद किया जाना है।भाषा व शर्तें होंगी, जो यह दिशा-निर्देश हस्ताक्षर करेगा, वह चाहे तो इन्हें कभी भी खारिज कर सकेगा।उस विश्वस्त का नाम व जानकारियाँ दी जाएंगी जो व्यक्ति के खुद की अभिव्यक्त न कर पाने की स्थिति आने पर निर्णय लेगा।इन निर्देशों को दो स्वतंत्र गवाहों की मौजूदगी में हस्ताक्षर किय जाएगां प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट काउंटर हस्ताक्षर करेंगे, जिन्हंे जिला जज जिले भर के लिए निर्धारित करेंगे।न्यायिक मजिस्ट्रेट दस्तावेज की एक काॅपी अपने पास रखेगें। एक काॅपी जिला अदालत को भेजेंगे। जिस व्यक्ति के लिए दस्तावेज तैयार होगा, उसके परिवार का कोई सदस्य मौके पर नहीं है, तो मजिस्ट्रेट खुद परिवार को इस बारे में सूचित करेंगे।जिस व्यक्ति के बारे मे निर्देश है, वह गंभीर रूप से बीमार हो जाए, उसके बचने की संभावना नहीं हो, तो उसका इलाज कर रहे डाक्टरों को इस दस्तावेज के बारे में बताया जाएगा।डाॅक्टरों को लगता है कि मरीज की वह अवस्था है, जिसके लिए उसने दिशा-निर्देश का दस्तावेज तैयार करवाया था, तो दस्तावेज के अनुरूप निर्णय लेंगे।दस्तावेज की जांच होगी और डाॅक्टर इसे ध्यान में रखते हुए पूरी तरह आश्वस्त होन पर निर्णय लेंगे। यह भी पुख्ता करेंगे कि मरीज का बचना नामुकिन है, वह लाइफ सपोर्ट पर जीवित है।पहला मेडिकल बोर्ड बनाया जाएगा, जिसमें तीन विशेषज्ञ डाॅक्टर होगा। उन्हें 20 वर्ष का चिकित्सीय अनुभव होना चाहिए।बोर्ड सहमति देता है तो मजिस्ट्रेट को बताया जाएगा, जो सीएमओ के जरिए एक और विशेषज्ञ समिति बनाकर जांच करवाएंगे। समिति के सदस्यों की योग्यता पहले मेडिकल बोर्ड के समान होगी। वे साथ जाकर मरीज को देखेंगे और समस्त पहुओं को देखकर मत देंगे।मेडिकल बोर्ड ने यूथेनेसिया की अनुमति देने से इंकार कर दिया तो पीड़ा भोग रहे मरीज या उसके परिजन या उसके उस विश्वस्त जिसने दस्तावेज पर हस्ताक्षर किया था, इन सभी के सामने हाईकोर्ट में याचिका दायर करने का विकल्प होगा। इस तरह की याचिका पर चीफ जस्टिस एक डिविजन बेंच बनाएंगे, जहाँ के जज परिस्थितियों के अनुसार ’मरीज के हित को सर्वोपरि रखते हुए’ यूथेनेसिया की अनुमति दे सकते हैं, या याचिका को नकार सकते हैं। इसके लिए हाईकोर्ट एक और विशेषज्ञ चिकित्सकों की समिति बनवाकर मरीज के मामले की जांच करवा सकती है।सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि ऐसे मामले जहां पूर्व में मरीज ने दस्तावेज हस्ताक्षर नहीं किया है, वहां भी निर्धारित प्रक्रिया अपनाई जाए।मरीज का डाॅक्टर या अस्पताल खुद बोर्ड बनाकर उसके मामले की जाँच करेगा। परिजनों की राय पर यह जांच होगी, उन्हें सभी संभावित परिस्थितियों के बारे में बातया जाएगा।बोर्ड अस्पताल को यूथेनेसिया की रजामंदी देता है तो अस्पताल को जिला मजिस्ट्रेट से संपर्क करना होगा। इसके आगे पहले से तय दस्तावेज हस्ताक्षर कर चुके मामलों की तरह ही प्रक्रिया का पालन किया जाएगा।यूथेनेसिया के किसी भी मामले में मरीज से लाइफ सपोर्ट हटाए जा रहे हैं तो संबंधित क्षेत्र के हाईकोर्ट को इसकी पूर्व सूचना देना अनिवार्य होगा। इसका समस्त रिकार्ड रखा जाएगा और डिजिटल प्रारूप में हाईकोर्ट रजिस्ट्री को भेजना होगा। यह भी निर्देश तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक कि संसद यूथेनेसिया पर कानून नहीं बना लेती। वसीयत करने वाला भी समय अपने निर्देश रद कर सकता है या वापस ले सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने ’’इच्छामृत्यु को व्यक्ति के अधिकार के रूप में स्वीकार किया है,सार्वजनिक नीति के रूप में नहीं। अर्थात अभी भी आदर्श अभी भी यही रहेगा कि मृत्यु से बचने के लिए तमाम चिकित्सीय उपाय किये जाये और दवा या सेवा-सुश्रषा के अभाव में किसी को मरने के लिए नहीं छोड़ा जाये।’’4 सर्वोच्च न्यायालय ने ‘‘अपने फैसले में इच्छामृत्यु को आत्महत्या को से अलग करके जीने के अधिकार से जोड़ा हो कहा कि सम्मान से जीन में गरिमा के साथ मरना भी शामिल है। अदालत का फैसला केवल उन लोगों को पूर्ण गरिमा के साथ मृत्यु का चुनाव करने का अधिकार देता है, जिनकें लिए जीवित रहने की सारी संभावनाएं समाप्त होती हैं। ’’सर्वोच्च न्यायलय की संविधान पीठ की इच्छा मृत्यु को सशर्त मंजूरी देते हुए इसे जीने का अधिकार की तरह जिस तरह मौलिक अधिकारी बताया है वह सचमुच एक ऐतिहासिक फैसला है। सुप्रीम कोर्ट ने ‘‘हाल ही में इच्छा-मृत्यु को व्यक्ति का अधिकारी माना हैं। यानी जिस तरह व्यक्ति को अपनी जिंदगी अपनी पंसद से जीने का अधिकार है उसी तरह वह अपनी मौत चुनने को स्वतंत्र है। पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आत्महत्या को वैध नहीं ठहरा सकता इच्छा मृत्यु के अधिकार को लेकर लंबे समय से बहस चलती रही है। कुछ लोगों का मानना रहा है कि जिस तरह व्यक्ति को जीवन का अधिकार है, उसी तरह उसे अपनी इच्छा के मुताबिक मृत्यु का वरण करने का अधिकार भी मिलना चाहिए। इसे लेकर देश की सर्वोच्च अदालत में भी समय-समय पर असमंजस की स्थिति में देखी गई है। सरकार का तर्क रहा है कि इच्छा मृत्यु को आत्महत्या की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। पर जिन लोगों के लिए असाध्य बीमारियों की वजह से जीना दूभर हो गया हो, उन्हें इस तर्क पर जीवन रक्षक उपकरणों के सहारे जीवित रखना भी किसी सजा से कम नहीं होता। इसलिए अब सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष स्थितियों में इच्छा मृत्यु को उचित ठहराकर एतिहासिक फैसला दिया है। जब तक संसद इस विषय पर कोई कानून नहीं बनाती , यह दिशा निर्देेश लागू रहेंगे।
सन्दर्भ सूची –
1. भारत में इच्छा मृत्यु (संवैधानिक आलेख), समसायिकी महासागर, नई दिल्ली, मई 2018, पृ0 592. आनन्द अभिषेक, इच्छा मृत्यु, (आवरण कथा) सुपर आइडिया, नई दिल्ली, अप्रैल 2018, पृ0 133. आनन्द अभिषेक, इच्छा मृत्यु, (आवरण कथा), लिविंग विल की प्रक्रिया, नई दिल्ली, पृष्ठ-14, 154. राजकिशोर, सवाल अपनी इच्छच ा से मरने का, जागरण मेरठ, 12 मार्च 20185. डाॅ0 अजय तिवारी, मरने का अधिकार, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली 10 मार्च 20186. इच्छा मृत्यु का अधिकार, संम्पादकीय, अमर उजाला, मेरठ 10 मार्च 20187. मृत्यु वरण की आजादी, जनसत्ता रविवारी,नई दिल्ली 13 मई 2018
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