– डा0 डी0आर0 यादव
अध्यक्ष राजनीति विज्ञान विभाग
गायत्री विद्यापीठ (पी0जी0) कालेज रिसिया, बहराइच (उ0प्र0)
भारत का अपने पड़ोसी देशों से सम्बन्ध कुछ विशेष परिस्थितियों पर निर्भर करता है। देश के विभाजन के कारण निर्मित पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) ने भारत के प्रति आरम्भ से ही शत्रुता पूर्ण रूख अपनाया। नेपाल और श्रीलंका से भी हमारे सम्बन्धों में तनाव बढ़ा है, इसी प्रकार पड़ोसी देश चीन से तो हमारी सशस्त्र लड़ाई हो ही गयी। सम्बन्धों में तनाव जारी रहा है। इसलिये शास्त्री जी की विदेश नीति का पहला प्रयास यह था कि इन दोनों देशों को परस्पर दूर रखते हुये इनमें सम्बन्ध सुधारे जायें।भारत का अपने पड़ोसी देशों से सम्बन्ध कुछ विशेष परिस्थितियों पर निर्भर करता है। देश के विभाजन के कारण निर्मित पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) ने भारत के प्रति आरम्भ से ही शत्रुता पूर्ण रूख अपनाया। नेपाल और श्रीलंका से भी हमारे सम्बन्धों में तनाव बढ़ा है, इसी प्रकार पड़ोसी देश चीन से तो हमारी सशस्त्र लड़ाई हो ही गयी। सम्बन्धों में तनाव जारी रहा है। इसलिये शास्त्री जी की विदेश नीति का पहला प्रयास यह था कि इन दोनों देशों को परस्पर दूर रखते हुये इनमें सम्बन्ध सुधारे जायें। गुट निरपेक्षता पर आधारित विदेश नीति के बावजूद स्थिति यह थी कि हमारे पड़ोसी राष्ट्रों नेपाल, वर्मा, श्रीलंका से हमारे सम्बन्ध सौहार्दता के नहीं कहे जा सकते थे। कुछ आपसी छोटी मोटी बातों के कारण इन पड़ोसी राष्ट्रों से मनमुटाव हो गया था। नेपाल के महाराजा की शिकायत थी की हमने उनके आतंरिक प्रशासनिक मामले में हस्तक्षेप करने की कोशिश की है और भारत उन्हें पदच्युत करना चाहता है। श्रीलंका में भारत के निवासियों की एक बड़ी तादत होने के कारण आपस में तनाव था। ऐसी स्थिति में लाल बहादुर शास्त्री जी ने सबसे पहले यही तय किया कि पहले इन पड़ोसी राष्ट्रों से सम्बन्ध सुधरें। इसके लिये शास्त्री जी नेपाल के राजा से मिले। वर्मा में जनरल नेविन से मुलाकात की, श्री लंका के प्रधानमंत्री श्रीमती सिरीमाओं भंडारनायके को भारत बुलाया, वह प्रसन्न और संतुष्ट होकर भारत से अपने देश लौटीं। जनरल नेविन से भेंट के कारण वर्मा से भी हमारे सम्बन्ध सुधर गये। नेपाल के साथ सम्बन्धों में सुधार हुआ, इस प्रकार शास्त्री जी ने तीनों देशों से सम्बन्धों को सुधारने में सफलता पायी, लेकिन लाल बहादुर शास्त्री के समय भारत चीन और पाक के साथ सम्बन्ध कटु रहे। 1 श्रीलंका की सरकार ने भारत सरकार के समान गुटनिपेक्ष नीति को स्वीकर किया, सम्राट अशोक के युग से ही श्रीलंका और भारत के बीच गहरे सम्बन्ध थे लेकिन समय-समय पर कुछ घटनायें घटित होती रही हैं। जिससे दोनों देशों के बीच मतभेद उभर कर सामने आये। भारत और श्रीलंका के मध्य विवाद का प्रमुख मसला भारतीय प्रवासियों को लेकर उत्पन्न हुआ। श्रीलंका में भारतीय प्रवासी (लगभग 10 लाख) चाय और रबड़़ की खेती पर काम करवाने के लिये गये थे। 1948 में श्रीलंका के स्वतंत्र होने तक यह ब्रिटिश नागरिकों के रूप में समान अधिकारों एवं मताधिकार का लाभ उठाते थे बाद में इनको सरकार ने इन अधिकारों से वंचित कर दिया। प्रवासी भारतीयों को जिनके श्रम से श्रीलंका ने आर्थिक उन्नति की और यूरोपीय पूँजीपतियों के कोष भरे, अब श्रीलंका से बहिष्कृत करने का प्रयास किया जा रहा था, एतएव भारत सरकार के लिये हस्तक्षेप करना आवश्यक हो गया था। इस समस्या के समाधान के लिए भारत सरकार ने श्रीलंका सरकार से वार्ता प्रारम्भ की, अक्टूबर 1964 में भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और भंडारनायके के बीच एक समझौता हुआ जिसमें निम्न बातें थीं-1. श्रीलंका में रह रहे वे सभी भारतीय नागरिक जो अभी तक किसी देश के नागरिक नहीं थे वे भारत या श्रीलंका में से किसी भी देश की नागरिकता अपनायें।2. आने वाले 15 वर्षो में यह काम पूरा कर लिया जाये।3. भारतीय अपनी कमाई हुयी पूंजी को भारत ले जा सकेगें लेकिन उसकी सीमा 4000 रूपये से कम नहीं होनी चाहिये। 2 1962 में नेपाल, भारत-चीन युद्व में तटस्थ रहा जो भारत को अच्छा नहीं लगा और अब चीनी के बाद भारत के लिये नेपाल में अपनी स्थिति दृढ़ करना भी आवश्यक हो गया। तब उस समय शास्त्री जी भारत के गृह मंत्री थे इस नाते की यात्रा कर नेपाल के अनेक संदेह दूर किये। नेपाल ने शास्त्री जी को आश्वासन दिया कि नेपाल के मार्ग से भारत पर कोई चीनी आक्रमण नहीं होने दिया जायेगा। दिसम्बर 1965 में नेपाल नरेश ने भारत की यात्रा की। लाल बहादुर शास्त्री और नेपाल की संयुक्त विज्ञप्ति में नेपाल नरेश ने स्वीकार किया कि भारत की सहायता से नेपाल में चल रहे विकास कार्यो की प्रगति संतोषपूर्ण ढंग से हुयी। शास्त्री जी ने नेपाल नरेश को विश्वास दिलाया कि नेपाल की पंचवर्षीय योजना में भारत अधिकतम सहयोग देगा। इस प्रकार जी ने नेपाल के सम्बन्धों में, जो 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के बाद तेजी से बिगड़ रहे थे, में सुधार आया। अप्रैल 1965 में काठमांडू के लोगों ने लाल बहादुर शास्त्री का बड़े प्रेम और मैत्री भाव से स्वागत किया शास्त्री जी ने महाराज के साथ अच्छे सम्बन्ध स्थापित किये उनका विश्वास प्राप्त किया और वहीं से नेपाल के साथ सम्बन्धों में सुधार की शुरूआत हुयी। भारत-पाकिस्तान सम्बन्धो को सुधारने के सम्बन्ध में शास्त्री जी ने कहा ‘‘मेरी इच्छा थी की पाकिस्तान के साथ ही हमारे अच्छे सम्बन्ध हों मेरा मानना है कि भारत के लिये अच्छा होगा और भारत-पाकिस्तान शान्तिपूर्ण और मित्रता पूर्ण तरीके से रहे।’’ हमने कहा था कि गृहमंत्रियों की एक बैठक आयोजित की जा सकती है किन्तु पाकिस्तान ने स्थगित कर दिया। एक तरफ तो राष्ट्रपति अयूब ने इन सब चीजों के बारे में बात की, तो दूसरी ओर पारस्परिक वार्ता और विचार विमर्श करने की बात करते रहे, तो दूसरी तरफ ऐसा प्रतीत होता है कि पाकिस्तान हम पर कुछ मामलों पर रियासत करने के लिये कुछ मुद्दे छेड़ने का दबाव दे रहा है। चाहे यह कच्छ के रण का मामला हो अथवा जम्मू कश्मीर की बात हो। ज्यों ही हम लाहौर की ओर बढ़े समाचार पत्रों और प्रेस में वक्तव्य और लेख आने शुरू हो गये कि भारत ने पाकिस्तान पर आक्रमण कर दिया। मैं इस बारे में केवल यही कहूँगा कि हमारे कुछ मित्र देशों का रूख दुर्भाग्यपूर्ण, पक्षपात पूर्ण तथा अन्याय पूर्ण रहा है। अन्तः यह मामला सुरक्षा परिषद् को सौपा गया और सुरक्षा परिषद् ने इस पर विचार किया। हमने कहा सर्वप्रथम आक्रमकारी की पहचान आवश्यक हो। इस प्रकार से शास्त्री जी के समय भारत और पाकिस्तान के सम्बन्धों में उतार-चढ़ाव आते रहे। जिसका निष्कर्शताशकन्द समझौते के समय समाप्त हुआ। भारत और चीन के मध्य अत्यन्त प्राचीनकाल से सांस्कृतिक सम्बन्ध चले आ रहे थे। जिसका इतिहास साक्षी है। जब दोनों देश विदेशी आधिपत्य में चले गये, तो इनके सम्बन्ध टूट गये। दिसम्बर 1949 में भारत-चीन की मान्यता प्रदान करने वाला प्रथम असाम्यवादी देश था। कोरिया के युद्व में भारत ने सोवियत संघ से अधिक चीन का समर्थन किया। स्वतंत्र भारत में ‘‘हिन्दी-चीनी भाई भाई’’ का नारा बहुत दिनों तक लोकप्रिय रहा। तिब्बत समस्या, भारत-चीन सीमा विवाद, भारत पर चीन का आक्रमण, युद्व में भारत की पराजय आदि कारणों से भारतचीन सम्बन्धों में कटुता आयी। लाल बहादुर शास्त्री की नजर में देश के सामने सबसे बड़ी समस्या थी, भारत की सुरक्षा के लिए चीन का खतरा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये लाल बहादुर शास्त्री ने ठोस कार्य किये। शिष्ट मण्डल की सहायता से शास्त्री जी ने नागा समस्या को हल किया जिसके कारण चीन अनायास ही विस्फोटक हो रहा था। महान गम्भीरता का परिचय देते हुये शास्त्री जी ने संसद के सामने चीन के इस आरोप को झूठा बताया कि सिक्किम क्षेत्र में भारत की ओर से कहीं भी सीमा का उल्लंघन हुआ है, लेकिन शान्ति की रक्षा के लिये चीन के इस प्रस्ताव को मान गये कि दोनों देश मिलकर समाधान करें। इसके बाद प्रधानमंत्री ने कहा कि चीन वर्तमान स्थिति का अनुचित लाभ उठाकर भारत पर हमला नहीं करेगा। फिर भी चीन हमेंमातृभूमि की रक्षा करने से नहीं रोक सकता। इस प्रकार शास्त्री जी ने भारत-चीन सम्बन्धों में मैत्रीपूर्ण रवैया अपनाया, लेकिन भारत-चीन सीमा विवाद आज भारतीय वैदेशिक नीति की एक प्रमुख समस्या बन चुका है। चीनी नेता दोहरी बात करने में शायद संसार में अपनी दूसरा सानी नहीं रखते। वे अवसर देखकर बात करते हैं। 1965 के भारत और पाकिस्तान युद्व के समय चीनी नेताओं ने अपने भारत विरोध को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया था। इसलिए आज लगभग सभी अंतर्राष्ट्रीय प्रश्नों पर भारत-चीन के बीच मतभेद पाये जाते हें। 1965 में भारत-पाक युद्व के दौरान पाकिस्तान द्वारा भारत के विरूद्व अमेरिकन शस्त्रों के प्रयोग के कारण भारत अमेरिकी सम्बन्धों में उग्रता पैदा हो गयी इस युद्व के दौरान अमेरिका का रूख भारत विरोधी रहा। 1965 में अमेरिका द्वारा भारत-पाक युद्व के दौरान सात जहाजों में भारत के लिये जो सामग्री भेजी गयी उसे अमेरिका ने भारतीय तट से 15 किलो मीटर दूरी से वापस बुला लिया। 3 इस प्रकार राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद होते हुये भी आर्थिक क्षेत्र में दोनों देशों के सम्बन्ध बहुत अच्छे रहे, भारत में प्रजातंत्र को सफल बनाने के लिये तथा उसे कम्युनिस्टों के प्रभाव में जाने से रोकने के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत को प्रचुर मात्रा में सहायता दी। रूस ने 1965 में पाकिस्तान द्वारा भारत पर आक्रमण किये जाने पर भारत का साथ अवश्य दिया, पर पाकिस्तान की निन्दा भी नहीं की। आक्रमण के चार दिन बाद कोसीगिन ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खाँ तथा भारत के लाल बहादुर शास्त्री को पत्र लिखा और दोनों देशों से शान्ति की अपील की। पत्र में लिखा था कि भारत पाकिस्तान के बीच तनाव में कोई कमी नहीं आयी है। और दोनों देश युद्व विराम रेखा पार करके एक दूसरे से युद्ध कर रहे हैं। कश्मीर में संघर्ष से सोवियत संघ प्रसन्न नहीं है। रूस का स्पष्ट उद्देश्य भारत-पाकिस्तान में सन्धि कराना था। इसी कारण उसने दोनों देशों के मतभेद दूर करने के लिये मध्यस्थता का प्रस्ताव रखा। दोनों देश तैयार हो गये। और सोवियत संघ ने ताशकन्द समझौता करा दिया। 4गुटनिरपेक्षता में शास्त्री जी की भूमिकाः द्वितीय विष्व युद्ध के पश्चात अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप में परिवर्तन लाने वाले तत्वों में गुटनिरपेक्षता का विशेष महत्व है। इस नीति को सर्वप्रथम व्यावहारिक रूप देने का श्रेय भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को है। गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाते समय पंडित नेहरू ने कहा था कि‘‘ यदि हम अपने को किसी एक गुट के साथ जोड़ लेते हैं तो एक प्रकार से शायद यह अच्छा कदम होगा लेकिन हमें ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण दुनिया को इससे लाभ की अपेक्षा हानि ही होगी। इससे हम दुनिया में अपने प्रभाव का उपयोग नहीं कर सकेंगे।’’ द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात उत्पन्न शीत युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ दो गुट प्रबल रूप से उभरे। पूंजीवाद और साम्यवाद के समर्थक दोनों राष्ट्र अपने-अपने समर्थक राष्ट्रों की संख्या बढ़ाने में तत्पर हो गये। ऐसे में पंडित नेहरू ने यह सोचा कि एशिया और अफ्रीका के नवीन स्वतन्त्र राष्ट्र विश्व राजनीति के सैनिक गुटों के चंगुल से अपने आप को अलग रखों तथा अपने स्वयं की एक पहचान बनाये। 5 गुटनिरपेक्षता का आरम्भ अफ्रीकी-एशियाई नवजागरण से माना जाता है। अफ्रीका एवं एशिया महाद्वीप के देशों की नवजागृति ने उनके भीतर शताब्दियों पुराने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति करने की अन्तः प्रेरणा को उत्तेजित किया तथा अपना भाग्य स्वयं बनाने एवं स्वतन्त्र राज्यों के अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की सदस्यता ग्रहण करने का दृढ़ संकल्प पैदा किया। विदेश नीति के रूप में गुट निरपेक्षता ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात किया। काल क्रमिक दृष्टि से भारत वह पहला राज्य था जिसने औपचारिक स्तर पर गुट निरपेक्ष नीति को अपनाया तत्पश्चात अन्य राज्यों ने इस नीति का अवलंबन प्रारम्भ किया। जब भारत पहले गुटनिरपेक्ष देश के रूप में उभरा तब समूचा विश्व शीत युद्ध के परिणाम स्वरूप दो शिविरों में विभाजित था। पूंजीवादी एवं साम्यवादी। ये दोनों गुट दो विभिन्न विचारधाराओं एवं दो भिन्न सामाजिक आर्थिक एवं राजनीति व्यवस्थाओं पर आधारित थे। स्वतन्त्र देश के रूप में अस्तित्व बनाये रखने तथा आर्थिक विकास करने की दृष्टि से विश्व का द्विधुर्वीकरण घातक था। अतः भारत ने दोनों गुुटों में से किसी के भी साथ सम्बन्ध न होकर गुट निरपेक्षता के स्वतंत्र मार्ग का अनुगमन किया तथा औपनिवेशिक अतीत से मुक्त हुए नव स्वतंत्र राज्यों लिए नये द्वार खोले। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एक लम्बी विकास प्रक्रिया का परिणाम है जिसका प्रारम्भ 1947 में दिल्ली में प्रथम एशियाई सम्बन्ध सम्मेलन के साथ हुआ। प्रथम अफ्रीकी एशिया सम्मेलन बाडुंग ने इस प्रक्रिया को गति प्रदान की। इसी सम्मेलन गुटनिरपेक्षता आंदोलन की संकल्पना ने जन्म लिया। इससे प्रेरणा प्राप्त कर युगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो, मिस्र के राष्ट्रपति नासिर तथा भारत के प्रधाननमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू सन् 1961 में बेलग्रेड, युगोस्लाविया में इसकी घोषणा की। गुटनिरेक्षता के विषय में लाल बहादुर शास्त्री का विचार है कि नवोदित राष्ट्रों द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने का एक अन्य प्रमुख कारण एक भावनात्मक और मनोवैज्ञिानिक विविधता थी कि वे केवल औपचारिक रूप से ही स्वतन्त्र न हो बल्कि महा शक्तियों के अभाव से मुक्त हों, उन्होने यह अनुभव किया कि गुट निरपेक्षता में अपनी आस्था व्यक्त करके ही अपनी नीति और कार्यवाही को स्वतंत्र रूप से कर सकते है। उन्हें व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर ऐसी स्थिति और प्रतिष्ठा प्राप्त हो गयी जो बड़ी शक्तियों के प्रभुत्व से छोटे देशों को प्राप्त नहीं हो पायी थी। वे राष्ट्र कियी भी बड़े राष्ट्र की छाया मात्र बनना पसंद नहीं करते थे। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उस समय कहा था कि ‘‘हमारा स्वर किसी और राष्ट्र की प्रतिघ्वनि नहीं है। यह उन लोगों की असली आवाज है जिनका हम प्रतिनिधित्व करते हैं और जिनकी ओर से हम बोलते हैं इस प्रकार श्री लाल बहादुर शास्त्री गुटनिरपेक्ष आंदोलन को उन देशों के लिये महत्वपूर्ण बताते हैं जो देश विकासशील है तथा दुनिया में अपनी पहचान बनाते हुये अपनी सभ्यता संस्कृति का संरक्षण करते हैं।’’ 6 भारत की प्रतिष्ठा तथा गुट निरपेक्षता पर शास्त्री जी के समय प्रभाव पड़ा, जब चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण कर दिया परन्तु सोवियत संघ द्वारा जिस प्रकार की सहायता की अपेक्षा थी, वह नहीं मिली। बहुसंख्यक गुटनिरपेक्ष देशों ने भी चीनी आक्रमण की निंदा नहीं की। भारत के बुद्वजीवी वर्ग द्वारा बदली हुयी परिस्थितियों में गुट निरपेक्षता की नीति की वैधता को चुनौती दी गयी। भारत ने पश्चिम की ओर झुकना शुरू कर दिया था। कृपलानी और शास्त्री जी ने कहा कि मानसिक और भावात्मक तौर पर चीनी आक्रमण के बाद भारत ‘‘साम्यवादी के पक्ष में’’ अब गुट निरपेक्षता नहीं रह गया था। उन्होंने कहा कि पश्चिम से हथियारों की सहायता स्वीकार करने के कारण भारत ने गुट निरपेक्षता से समझौता कर लिया था। 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री ने विदेश मंत्रालय अपने पास ही रखा। शास्त्री जी के 18 माह के अल्पकालीन शासन में भारत में भीषण खाद्य संकट उत्पन्न हो गया था। अमेरिका यह चाहता था कि खाद्य पदार्थो कमी को दूर करने में इस शर्त पर सहायकता करें कि भारत, अमेरिका की वियतनाम नीति का समर्थन करें जब शास्त्री जी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया तब अमेरिका के राष्ट्रपति जानसन ने भारत के प्रधानमंत्री को यह कहकर अपमान किया कि शास्त्री जी की प्रस्तावित अमेरिकी यात्रा को स्थगित किया जायेगा। शास्त्री जी ने अपने इस अपमान का बदला इस प्रकार लिया कि जब जानसन ने पुनः निमन्त्रण भेजा तब स्वयं शास्त्री जी ने अमेरिका की यात्रा पर जाने से मना कर दिया। शास्त्री जी का यह निर्णय उचित ही था क्योंकि इसके पहले भारत के सम्मान के प्रति जानसन की टिप्पणी कटुतापूर्ण थी। सितम्बर 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत विरूद्व युद्व किया तब उसे अमेरिका और चीन दोनों का समर्थन प्राप्त था। यह स्वाभाविक ही था कि भारत सोवियत संघ के निकट आने लगा। युद्व में पाकिस्तान की पराजय और भारत की स्पष्ट विजय हुयी। इसके बाद निरन्तर ही शास्त्री जी के नेतृत्व में भारत की प्रतिष्ठा में वृद्वि हुयी। चीन द्वारा भारत को नीचा दिखाने के तीन वर्ष के भीतर ही भारत ने संसार को यह दिखा कि उसके पास एक बड़ी शक्ति बनने की क्षमता थी। दूसरे निर्गुट सम्मेलन काहिरा में तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नेतृत्व किया। सम्मेलन 5 से 11 अक्टूवर तक चला इसमें 97 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भारत के लिये 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण के प्रश्न पर निर्गुट राष्ट्रों का समर्थन प्राप्त करना चाहा, जो नहीं मिला। इस सम्मेलन में शास्त्री जी के साथ सदस्य राष्ट्रों ने विश्व की विभिन्न समस्याओं पर विचार विमर्श किया, जो निम्न प्रकार थीं-।1. राष्ट्रों के अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को हल करने में शान्ति पूर्ण वार्ता का मार्ग अपनाने पर बल दिया गया।2. इसमें पूर्ण निःशस्त्रीकरण की आवश्यकता पर बल देते हुए परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाना।3. दक्षिण रोडेशिया की गोरी सरकार को मान्यता न देना।4. रंग भेद की नीति के कारण दक्षिण अफ्रीका की निन्दा की गयी और विश्व के सभी राष्ट्रों से उसके सम्बन्ध विच्देद करने के लिये आवाहन किया गया।5. सभी प्रकार के उपनिवेशवाद का अन्त किया जाये। कम्बोडिया और वियतनाम में विदेशी हस्तक्षेप बंद हो।6. चीन को संयुक्त राष्ट्रसंघ का सदस्य बनाया जाये।गुटनिरपेक्ष आंदोलन को एक नई विचारधारा देने में लाल बहादुर शास्त्री की भूमिका प्रमुख रही है। उपनिवेशवाद का विरोध, निःशस्त्रीकरण तथा विकास के क्षेत्र में भारत की भूमिका प्रमुख रही है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रत्येक सम्मेलना में भारत द्वारा बड़ी शक्तियों से परमाणु अस्त्रों की पूर्णतया समाप्ति करके निःशस्त्रीकरण की प्रक्रिया को सतत जारी रखने तथा अस्त्रों की होड़ पर खर्च की जाने वाली राशि को अविकसित और विकासशील राष्ट्रों के आर्थिक विकास के लिये नियोजित करने का आग्रह शास्त्री जी ने किया। इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र संघ ने अफ्रीकी-एशियाई राष्ट्रों की पहचान बनाना, विकास पर विभिन्न वार्तायें आयोजित करने तथा सहायता एवं व्यापार के अधिक न्याय पूर्ण ढाँचे की स्थापना में भी शात्री जी ने अपनी भूमिका निभाई।शास्त्री जी ने विकासशील राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सहयोग की बुनियाद रखने में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के द्वारा भूमिका निभाई। कोलम्बो प्रस्ताव में एक आर्थिक घोषणा पत्र स्वीकार किया गया जिसका मुख्य आधार यह था कि गुटरिपेक्ष राष्ट्रों के बीच अधिकाधिक आर्थिक सहयोग हो और इस आर्थिक सहयोग के लिये प्रत्येक सम्भव प्रयत्न किये जायें। गुटनिरपेक्षता आर्थिक सहयोग का एक मोर्चा है। यह तीसरी दुनिया के विकासशील देशों में सहयोग का प्रतीक है। शास्त्री जी ने साउथ सम्वाद का आवाहन निर्गुट राष्ट्रो के मंच से ही कराया। शास्त्री जी ने काहिरा सम्मेलन में हिस्सा लिया था जहां आर्थिक विकास की समस्याओं पर सम्मेलन में पहली बार आर्थिक विकास का उल्लेख हुआ था। इस सम्मेलन में मुख्य बल ‘सहायता’ और सुधरे व्यापार संबंधों पर बल दिया गया। शास्त्री जी ने कहा था कि गुटनिरपेक्ष देशों ने सर्वोच्च शक्तियों को उस रास्ते से हटा दिया जिस पर चलते-चलते उनके बीच प्रत्यक्ष संघर्ष की स्थिति आ सकती थी और इसके बजाय उन्हें अपने से कम विकसित देशों की विकसित करने की शान्तिपूर्ण प्रतिद्वन्दिता के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी।गुट निरपेक्ष आंदोलन के मूल्यांकन के नजरियें से शास्त्री जी कामनवेल्थ प्रधानमंत्रियों की बैठक के लिये दिल्ली से लंदन गये, रास्ते में उनका हवाई जहाज ईंधन भरने के लिये कराची में रूका जहाँ पाकिस्तान के राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खाँ भारतीय मेहमान का स्वागत करने के लिये मौजूद थे। इसका नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने भारत के खिलाफ 1965 में आक्रमण कर दिया। उनके जीते जी लाल बहादुर शास्त्री के कद को पाकिस्तानी नहीं भाँप पाये। अगर कुछ हिन्दुस्तानी उन्हें याद करते हैं तो सिर्फ 1965 के युद्ध में उनके साहसिक नेतृत्व के लिये। 7 इस प्रकार से गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शास्त्री जी ने स्वतंत्र विदेश नीति का सिद्वान्त देकर और नवोदित देशों को एक मंच उपलब्ध कराकर सैनिक टकराव की दिशा में सम्भावित व्यापक रूझान को रोक दिया और शीत युद्ध का तनाव कम करने तथा शान्ति स्थापना की दिशा में प्रोत्साहन दिया।संदर्भ ग्रन्थ सूची -1. धरती का लाल-श्री लाल बहादुर शास्त्री, सेवानिकेतन फतेहपुर शाखा, नई दिल्ली पृष्ठ-632. डा0 वी0एल0 फणिया, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बनध साहित्य भवन आगरा वर्ष 1997 पृष्ठ-4123. डी0आर0 मनकेकर- लाल बहादुर शास्त्री, पृष्ट-243-2444. विष्णु राजौरिया-अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध एवं विश्व राजनीति अरूण प्रकासन आगरा 1987 5. डा0 एस0सी0 सिघंल-भारत की विदेश नीति, प्रकासन आगरा वर्ष 2006-2007 पृष्ठ 1236. डा0 एस0सी0 सिघंल-अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल आगरा पृष्ठ 185-1867. अमर उजाला-सम्पादकीय, लेखक-रामचन्द्र गुहा
Timely publication plays a key role in professional life. For example timely publication...
Individual authors are required to pay the publication fee of their published
Start with OAK and build collection with stunning portfolio layouts.