ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

भारत में उच्च शिक्षा का बदलता परिदृश्य: एक विश्लेषण

-डाॅ0 विजय प्रताप मल्ल
एसो0 प्रो0 (राज0शा0)
जवाहर लाल नेहरू पी0जी0 कालेज, बाराबंकी

किसी भी देश का विकास वहाँ की शिक्षा व्यवस्था पर पर्याप्त रूप से निर्भर करता है शिक्षा परस्पर लोगों में सामाजिक व आर्थिक समूह में और विशमताओं के बीच की खाई को पाटने में सहायक होती है। शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाती है। यह हमारी संवेदनशीलता और दृष्टि को प्रमुख करती है, जिससे राष्ट्रीय एकता बनी रहती है। एक मात्र शिक्षा ही है जो आर्थिक व्यवस्था के विभिन्न स्तरों के लिए जनशक्ति का विकास करती है। शिक्षा के     आधार पर ही राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता बढ़ती है। इसलिए एक विकासशील राष्ट्र के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह प्रभावी शिक्षा प्रशासन द्वारा अधिकाधिक व्यक्तियों की शिक्षा का प्रबन्ध भी करें। किसी भी देश का विकास वहाँ की शिक्षा व्यवस्था पर पर्याप्त रूप से निर्भर करता है शिक्षा परस्पर लोगों में सामाजिक व आर्थिक समूह में और विशमताओं के बीच की खाई को पाटने में सहायक होती है। शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाती है। यह हमारी संवेदनशीलता और दृष्टि को प्रमुख करती है, जिससे राष्ट्रीय एकता बनी रहती है। एक मात्र शिक्षा ही है जो आर्थिक व्यवस्था के विभिन्न स्तरों के लिए जनशक्ति का विकास करती है। शिक्षा के     आधार पर ही राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता बढ़ती है। इसलिए एक विकासशील राष्ट्र के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह प्रभावी शिक्षा प्रशासन द्वारा अधिकाधिक व्यक्तियों की शिक्षा का प्रबन्ध भी करें। शिक्षा का शाब्दिक अर्थ एवं परिभाषा- आंग्ल भाषा में एजूकेशन शब्द को शिक्षा के पर्याय रूप से माना जाता है। इस शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के एजुकेटस, एडूसीयर व एडूकेयर शब्दों से हुई है। एजूकेटम का अर्थ शिक्षित करना-ए का अर्थ है अन्दर से तथा डूको का अर्थ है- आगे बढ़ाना या विकास अर्थात अन्दर से विकास। एडूसीयर का अर्थ निकालना तथा एडूकेयर का अर्थ आगे बढ़ना, बाहर निकालना या विकसित करना। वर्तमान समय में शिक्षा दो अर्थों में प्रयुक्त होती है। प्रथम संकुचित अर्थ में- शिक्षा का आशय पढ़ने-लिखने तथा किताबी ज्ञान प्राप्त करना द्वितीय व्यापक अर्थ में- सभी प्रकार के ज्ञानों का संग्रह तथा बहुमुखी विकास करना।  भारतीय विचारधारा के अनुसार शिक्षा शब्द की उत्पत्ति जानने से पूर्व शिक्षा से जुडे़ कुछ शब्दों का अर्थ जानना आवश्यक है। शिक्षा ’ज्ञान एवं विद्या’ इन अर्थों में समझी जा सकती है। भारतीय दर्शन में ’ज्ञान’ शब्द वही अर्थ स्पष्ट करता है जो पाश्चात्य दृष्टि से शिक्षा का है। भारतीय दर्शन केवल सूचना और तथ्य के अर्थ में ज्ञान को नहीं मानता। ज्ञान वह है जो मानव को मुक्ति के मार्ग पर प्रशस्त करता है तथा उन्नति प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक जीवन में प्रयोग के उपाय सिखाता है। इसी प्रकार विद्या शब्द का उद्भव विद् धातु से हुआ है। जिसका अर्थ है ’जानना’ पता लगाना या सीखाना और यह शब्द आध्यात्मिक एवं लौकिक दोनों प्रकार के ज्ञान को सीखने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। भारतीय दर्शन में शिक्षा वह है, जो मनुष्य को आत्मविश्वासी औरर स्वार्थहीन बनाये। अमरकोष में शिक्षा को वेदांग के रूप में मानना है। गीता में श्री कृष्ण ने ज्ञान को पवित्रम घोषित किया है। अर्थवेद (1/1/4) कणाद् के अनुसार शिक्षा मुख्य उद्देश्य मानव के भीतर आत्म सन्तोष उत्पन्न करना है। भारतीय विचारधारा के अनुसार- विद्या – विदल उपादाने, उपादान अर्थ में।  विद – ज्ञाने, प्रबोध, ज्ञान अर्थ में।  अन्ततः शिक्षा शिक्षा धातु-शिक्षण अर्थ में- शिक्षा का अर्थ माना गया सीखने-सिखाने की प्रक्रिया और इस प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप व्यवहार में परिवर्तन आना अनिवार्य माना गया है। अनेक समाज शास्त्रियों, शिक्षाविदों एवं विद्वानों ने शिक्षा को अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया है।  इमाईल दुर्खीम के अनुसार शिक्षा वह क्रिया है जो अधिक आयु के लोगों द्वारा उस पीढ़ी के लोगों के लिए की जाती है, जो अभी सामाजिक जीवन में प्रवेश करने योग्य नहीं है। इनका उद्देश्य बच्चों में उन भौतिक, बौद्धिक और नैतिक विशेषताओं का विकास करना है जो उसके लिए सम्पूर्ण समाज तथा अपने पर्यावरण के अनुकूल करने के लिए आवश्यक है। दुर्खीम की यह परिभाषा शिक्षा को कुछ सीमित अर्थों में देखती है। दुर्खीम ने शिक्षा को बच्चों के ग्रहण करने तक ही सीमित कर दिया। जबकि शिक्षा बिना किसी उम्र की सीमा के ग्रहण की जा सकती है।  जेम्स वेल्टन ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए बताया कि ’शिक्षा मानव समाज के वयस्क सदस्यों द्वारा आने वाली पीढ़ियों के स्वरूप को अपने जीवन आदर्शों के अनुकूल ढालने का प्रयास है।’ अर्थात् शिक्षा का उद्देश्य शिक्षित व्यक्तियों द्वारा अपने आदर्शों के अनुरूप ही अन्य लोगों को बनाना है ताकि समाज में एकरूपता रह सके।  गिलवर्ट ने शिक्षा को भावी जीवन से समायोजन का एक आदर्श माना है। दी रेमन्ट ने शिक्षा को विकास की प्रक्रिया माना है जिसमें मनुष्य बचपन से प्रौढ़ावस्था तक अनेक तरीकों से भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक पर्यावरण से अनुकूलन सीखता है। हरबर्ट स्पैन्सर शिक्षा का अर्थ आन्तरिक दशा को बाह्य अवस्था से सम्बन्धित करता है। जर्मनी के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री प्रो0 पेस्टालाॅजी ने बताया कि शिक्षा मनुष्य की समस्या सहज शक्तियों का स्वाभाविक, सामंजस्य युक्त और प्रगतिशील विकास है। महात्मा गांधी के अनुसार शिक्षा से मेरा अभिप्राय बच्चे के शरीर, मन और आत्मा में विद्यमान सर्वोत्तम गुणों का विकास करना है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। जबकि डाॅ0 अल्टेकर की मान्यता है कि शिक्षा को प्रकाश एवं शक्ति का ऐसा स्रोत माना जाता है जो हमारी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और अध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं को निरन्तर एवं सामंजस्य पूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित करती है और उसे अत्कृष्ट बनाती है। अतः कहा जहा सकता है कि भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दृष्टि से शिक्षा की विवेचना करने पर वैचारिक भिन्नता होना उनके जीवन दर्शन की वैविध्यता को व्यक्त करती है साथ ही भिन्न-भिन्न वातावरण व परिवेश ही इसका कारण कहा जा सकता है। इसी सन्दर्भ में टी0बी0 बोटोमोर ने लिखा है कि शिक्षा निश्चित ही नई पीढ़ियों का समाजीकरण करती है। लेकिन सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार इसके रूप में सदैव परिवर्तन होता रहता है। सरयू प्रसाद चैबे ने बताया कि शिक्षा द्वारा मनुष्य और समाज का विकास इस प्रकार होना चाहिये जिससे मानव चेतना का विकास हो और अन्तज्र्ञान का उदय हो। शिक्षा के उद्देश्य- शिक्षा के अर्थ एवं परिभाषा के आधार पर शिक्षा के उद्देश्य को इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है। प्रथम शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति का समाजीकरण करना है जिससे व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके। द्वितीय उद्देश्य व्यक्ति का नैतिक विकास करना उसमें ऐसी क्षमताओं का विकास करना जिससे वह अपने पर्यावरण को अनुकूल कर सके। तीसरा उद्देश्य व्यक्तियों की मनोवृत्तियों एवं विचारों को तर्कपूर्ण बनाकर आत्मनियंत्रण को प्रोत्साहन देना। चतुर्थ व्यक्ति का शिक्षा के माध्यम से व्यवसायिक स्थापन करना जिससे शिक्षा उपयोगी एवं जीविकोपार्जन में सहायक हो सके। पांचवां मानव की मनोवृत्ति का तार्किक विकास करना। जिससे उचित अनुचित का भेद किया जा सके। छठा उद्देश्य श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण को बढ़ावा देकर आर्थिक विकास की आवश्यकताओं को पूरा कर सके। शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य स्वस्थ प्रतियोगिता में वृद्धि करके सामाजिक जीवन को अधिक प्रगतिशील बनाना व नैतिक मूल्यों की पालन की ओर अग्रसित होना। भारत में उच्च शिक्षा: विचारणीय बिन्दु एवं सुझाव- निःसंदेह स्वाधीनता के बाद से आज तक भारत ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में गौरवपूर्ण विकास किया है। इस समय देश में 306 विश्वविद्यालय स्तर की संस्थायें हैं जिनमें 84 मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय सम्मिलित हैं। इनमें से मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन 18 केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं, 186 राज्य विश्वविद्यालय हैं, 38 कृषि की शिक्षा प्रदान करते हैं जिनमें वानिकी, डेयरी, मत्स्य पालन और पशुचिकित्सा शिक्षा सम्मिलित हैं। 21 चिकित्सा संस्थान, 444 इंजीनियरिंग और तकनीकी शिक्षा संस्थान और 04 सूचना प्रौद्यौगिकी की शिक्षा प्रदान करते हैं। खुले विश्वविद्यालयों की संख्या 11 है और महिला विश्वविद्यालय की संख्या 051 एवं 89 डीम्ड विश्वविद्यालयों में दलित छात्रों की संख्या 88 लाख है जबकि शिक्षकों की संख्या 04 लाख से अधिक है। आशय यह है कि भारत विगत दशकों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है।  भारतीय उच्च शिक्षा के संवाहक, महाविद्यालयों एवं अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षार्थियों के प्रवेश हेतु एक सर्वनिष्ठ व्यवस्था नहीं है। विश्वविद्यालयों एवं उच्च शिक्षण संस्थानों की प्रवेश नीतियाँ भिन्न होती हैं। कुछ संस्थानों में प्रवेश के कडे़ नियम हैं तो कहीं आसानी से उच्च शिक्षा में शामिल होने का मौका एक अयोग्य व्यक्ति को भी मिल जाता है। उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश पाने के लिए जो भी अवांछित घटनाएं सामने आती हैं उसके रोक-थाम के लिए एक सार्वनिष्ठ प्रवेश नीति जो राष्ट्रीय स्तर पर हो, की आवश्यकता है। उच्च शिक्षा में पाठ्यक्रमों की प्रकृति को देखते हुए प्रवेश का मापदण्ड बनाया जाना आवश्यकता है जिससे मेहनती एवं उच्च शिक्षा को मन से स्वीकार करने वाला शिक्षार्थी ही इसमें प्रवेश पा सके। छात्रों में सम्मान व समानता का भाव बना रहे एवं अवांछित घटनाओं जैसे सिफारिश, बैकडोर प्रवेश भाई-भतीजावाद तथा शिक्षण संस्थानों में छात्रों के आन्दोलन आदि न हो।  समय-समय पर विश्वविद्यालयों द्वारा पाठ्यक्रम में बदलाव किया जाता रहा है किन्तु यह बदलाव स्नातक एवं परास्नातक स्तर पर पहले से ही प्रयुक्त पाठ्यक्रम की कुछ यूनिटों को स्नातक से हटाकर परास्नातक स्तर पर समायोजित किया जाता है। थोड़ा बहुत जो नयी पाठ्यवस्तु सम्मिलित की जाती है, ववे शिक्षार्थियों की वर्तमान आवश्यकताओं एवं उनके गुणात्मक विकास की जरूरतों की देखा-देखी के कारण सम्मिलित की जाती है। अतः किसी भी कक्षा एवं शिक्षा स्तर का पाठ्यक्रम शिक्षार्थी को आत्मनिर्भरता प्रदान करने वाला हो जिससे शिक्षा संस्थानों में तैयार एक एम0एस0सी0 भौतिक विज्ञान उत्तीर्ण छात्र, घर की बिजली फेल होने पर बिजली के मिस्त्री की खोज न करे। उच्च शिक्षण संस्थानों में एक योग्य शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वर्तमान सन्दर्भों में शिक्षकों की राजनीतिक रूचि, गुटबाजी, क्षेत्रवाद, स्थानान्तरण सम्बन्धी जिज्ञासाओं में अधिकतम रूप से स्वयं को क्रियाशील रखना, भले ही कहीं न कहीं शिक्षकों में भी अपने शिक्षण रूपी पवित्र व्यवसाय के प्रति रूचि एवं जिम्मेदारी के भाव की अनुपलब्धता है। जिससे, कक्षाएं न लेना, अपने शिक्षण कार्यों के अतिरिक्त छात्रों के मध्य किसी भी रचनात्मक क्रियाओं में न रहना, शिक्षण संस्थाओं के शिक्षणेत्तर कार्यभार को स्वीकार न करना आदि का भाव उनमें सदैव बना रहता है। अतः शिक्षकों के चयन की प्रक्रिया में यह जरूर देखा जाए कि यह व्यक्ति उच्च शिक्षा संस्थानों में कुछ लेने जायेगा अथवा देने जायेगा। नियुक्ति पाने के पश्चात् वह छात्रों के मध्य रहकर उनकी भावनाओं को समझे, उन्हें अनुशासित रखें, उनकी हर समस्या काहल उसके पास हो, वह अपने विषय का विद्वान हो, किन्तु उस विद्वता का लाभ छात्रों को मिले, वह ये सोचे कि उसका अस्तित्व ही विद्यार्थियों से है, उसे जो कुछ देना है वह अपने विद्यार्थियों को ही देना है। वह विषय के प्रति सृजनशील हो, विषयक पाठ्यक्रमों के लिए यूजीसी द्वारा निर्धारित किये गये विभिन्न क्रिया-कलापों में समय पर सहभाग करे, सदैव शोधार्थी व जिज्ञासु के रूप में ही अपने आपको स्थापित करे, शिक्षण कार्य को सदैव प्राथमिकता दे, वही एक सफल शिक्षक के रूप में स्थापित होगा।  शिक्षण संस्थानों की भूमिका उच्च शिक्षा के लिए अहम् होती है। संस्थानों में सम्पूर्ण शिक्षण कक्ष, पुस्कालय, वाचनालय, प्रयोगशालाएँ, सभी विषयों के लिए सुविधायुक्त विभागीय कक्षों, शिक्षणेत्तर क्रियाकलापों के लिए अतिरिक्त कक्षों के साथ सभागार जिम्नेजियम आदि की व्यवस्थाएं होनी आवश्यक है किन्तु वर्तमान में कतिपय महाविद्यालयों एवं शिक्षण संस्थानों में इस प्रकार की सम्पूर्ण व्यवस्थाएं नहीं है। इन व्यवस्थाओं के अभाव में छात्रों की पढ़ने की जिज्ञासायें शान्त नहीं होती हैं व शिक्षक भी स्वयं को शिक्षण में पूर्ण रूप से तल्लीन नहीं कर पाता है। अतः संस्थानों की सम्पूर्ण भवन व्यवस्था एक विषयवार शिक्षकों कर्मचारियों तथा प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति होनी भी आवश्यक है। उच्च शिक्षा में नियुक्ति के सन्दर्भ में सरकार को एक अलग के आयोग गठित करना चाहिए जिससे मानवीय संसाधन की आपूर्ति आसानी से हो ताकि उच्च शिक्षा में गुणात्मक वृद्धि की दर में उत्तरोत्तर वृद्धि हो सके।  शिक्षकों को तनाव मुक्त रखा जाना आवश्यक है। उच्च शिक्षा में शिक्षकों के लिए स्थानान्तरण नीति एक बड़ी समस्या है। एक शिक्षक अपनी पूरी सेवा किसी एक ही स्थान पर करें यह उसके ज्ञान कमे प्रसार व अधिक से     अधिक छात्रों के मध्य उसकी ज्ञान की अभिव्यक्ति की दृष्टि से ठीक नहीं है किन्तु यहीं तो जो सिफारिश करें, किसी राजनेता का भाई-भतीजा हो या फिर अप्रत्यक्ष रूप से किसी राजनैतिक पार्टी का कार्यकर्ता हो वहीं स्थानान्तरण की परिधि में आता है। न्याय संगत व्यवस्थाओं के साथ-साथ स्थानान्तरण की परिधि में आता है। न्याय संगत व्यवस्थाओं के साथ-साथ स्थानान्तरण व प्रमोशन चाहने वाला शिक्षक कई वर्षों से तनाव के कारण किसी भी शैक्षिक गतिविधि में 100 प्रतिशत कार्य नहीं कर पाता है। वर्तमान में उत्तराखण्ड राज्य के उच्च शिक्षा स्तर पर स्थानान्तरण को प्रभावशाली नीति न होने के कारण कई शिक्षक सुविधासम्पन्न स्थानों में मौज काट रहे हैं तो कई 10-15 वर्षों से एक ही असुविधापूर्ण स्थान पर ईमानदारी से उच्च शिक्षा के लिए कार्य कर रहे हैं। अतः सरकारी तंत्र अथवा उच्च शिक्षा विभाग द्वारा एक सत्त स्थानान्तरण नीति बनायी जा सकती है। जिस प्रकार भारतीय सेना के किसी भी अधिकारी/तकनीकी कर्मचारी का स्थानान्तरण देश के सभी सम्बन्धिचत स्थानों पर होता है, और उसे पूरी सेवा के दौरान सभी जोनों में सेवा करनी होती है, ठीक उसी प्रकार भारत के प्रत्येक राज्य अपने क्षेत्र की स्थितियों के आधार पर अनेक जोन बनायें व हर तीन या पांच वर्ष में स्थानान्तरण सुनिश्चित हो। प्रमोशन के लिए हर वर्ष डी0पी0सी0 हो और उसकी तिथियाँ पहले से ही नियत हों तो सभी शिक्षक आशान्वित होकर, तनाव-रहित रहते हुए अपने कार्यक्षेत्र में ईमानदारी से कार्य करेंगे।  वर्तमान में उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रायः छात्र व शिक्षकों के बीच रचनात्मक संवाद की कमी देखी जा सकती है। कहीं-कहीं तो स्थिति ये है कि छात्र स्वयं को शिक्षक से ऊपर समझने लगता है। अतः छात्रों के त्रुटिपूर्ण व्यवहारों को सीमानुसार अनुशासनहीनता के दायरे में लेते हुए कार्यवाही की जानी आवश्यक है। छात्र व शिक्षकों के खेल, सांस्कृतिक क्रियाकलाप, क्विज, समाजकार्य एवं एन0सी0सी0 व एन0एस0एस0 के माध्यम से संयुक्त दल बनाये जाने चाहिए जिससे टीम भावना के साथ-साथ छात्रों व शिक्षकों के मध्य रचनात्मक संवाद बना रहे। अनुशासनहीनता से निपटने के लिए महाविद्यालयों में नियन्ता-मण्डल के साथ-साथ वरिष्ठ व विद्वान छात्रों एवं छात्राओं के प्रतिनिधियों का एक अनुशासनमण्डल बनाया जाना चाहिए जिससे अनुशासनहीनता होने पर छात्र व शिक्षक मिलकर अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सकें।  उच्च शिक्षा जिसका मूल लक्ष्य अनुसंधान और विकास को दिशा देते हुए ऐसी शिक्षण व्यवस्था की स्थापना करना होता है जिससे शिक्षार्थी में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक, आलोचनात्मक एवं आध्यात्मिक समस्याओं का सामना करने की क्षमता विकसित हो किन्तु उच्च शिक्षण संस्थायें आज राजनीति के अखाडे़ बने हैं। राजनैतिक दलों की शरण में छात्रों के जीवन की बागडोर संचालित हो रही है। छात्रसंघ के चुनाव, छात्रों की योग्यता के     आधार पर नहीं अपितु राजनीतिक दलों से जुडे़ संघटनों के प्रतिनिधियों को आधार बनाकर लडे़ व जीते जाते हैं। आज छात्रों में संस्थानों एवं शिक्षकों के प्रति सम्मान का भाव न होने के पीछे एक कारण छात्र राजनीतिक भी है। अतः योग्य छात्रों का चयन, ऐकेडमिक उपलब्धि, उपस्थिति, समाज सेवा के प्रति अभिवृत्ति एवं राजनीतिक साहस व धैर्य की परख के आधार पर होना चाहिए तथा छात्र संघ के चुनाव के माध्यम से इन्हीं छात्रों के मध्य से छात्र प्रतिनिधियों का चुनाव किया जाना चाहिए जिससे योग्य व ईमानदार व्यक्तित्व, काॅलेजों एवं विश्वविद्यालयों के प्रशासन का संचालन कर सके। संस्थान, राजनीति के अखाड़े न बने तथा छात्रों में असंतोष की भावना भी समाप्त हो।  हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि आज हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था मात्र प्रवेश व परीक्षा में सिमट कर रह गयी है। उच्च शिक्षा की परीक्षा प्रणाली विद्यार्थियों के ज्ञान का सही मूल्यांकन नहीं कर पाती है। छात्र, गाइड एवं गैस पेपर के माध्यम से परीक्षाओं की तैयारी करता है व उसका उद्देश्य केवल पास होना मात्र ही रहता है। शिक्षक भी सविस्तार अध्यापन एवं शिक्षण के बजाय महत्वपूर्ण प्रकरणों के शिक्षण पर स्वयं को केन्द्रीत रखता है। तत्पश्चात् स्वाभाविक है कि छात्र उत्तीर्ण तो हो जाता है किन्तु गुणात्मक ज्ञान से वह सरोवार नहीं रहता। अतः उच्च शिक्षा से सम्बन्धित लघुस्तरीय प्रश्न, बहुविकल्पीय प्रश्न, फैक्ट पर आधारित प्रश्नों को कम से कम 100 प्रश्नों का प्रश्न पत्र हो। विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम का 70 प्रतिशत मूल्यांकन परीक्षा के माध्यम से एवं 30 प्रतिशत मूल्यांकन कक्षा-काय्र तथा गृह कार्य के माध्यम से किया जाना चाहिए जिससे छात्र की विश्लेषणात्मक क्षमता को विकसित किया जा सके और छात्र पुस्तकों के अध्ययन की ओर लौट कर ज्ञानार्जन कर सके। इसके लिए सभी कक्षाओं में क्रेडिट व सेमिस्टर प्रणाली लागू की जानी चाहिए। इस प्रकार की व्यवस्था से छात्र जागरूकता से अध्ययन करेंगे।  भारतीय उच्च शिक्षा में कई अन्य समस्याएं एवं चुनौतियां भी है। जिसमें शिक्षा का माध्यम, शिक्षा में वित्त की व्यवस्था शिक्षकों एवं कर्मचारियों के वेतन भत्तों की अनियमितताएं, शिक्षण सत्र का नियमित न होना, शिक्षकों एवं कर्मचारियों का जवाब देह न होना एवं शिक्षालयों में राजनीतिक हस्तक्षेप आदि प्रमुख है। उक्त समस्याओं के    समाधान के लिए शिक्षा का माध्यम कपितय स्थानों पर क्षेत्रीय भाषा भी होना चाहिए। उच्च शिक्षा में वित्त की व्यवस्था का जिम्मा यू0जी0सी0 का है उसके पास सरकारी धन भी पर्याप्त नहीं आता है जितना कि उसे नियमानुसार शिक्षण संस्थानों को देना होता है। इस पर भी यू0जी0सी0 को दी जाने वाली राशि को सरकार घटाने की फिराक में रहती है। अब तो उच्च शिक्षण संस्थानों को आने वाली समय में, अपने संसाधनों से ही धन जुटाना होगा, ऐसा फरमान यू0जी0सी0 का अप्रत्यक्ष रूप से उच्च शिक्षण संस्थानों को दिया जा चुका है। शिक्षण सत्रों के नियमित कैलेण्डर बनाकर, सख्ती से लागू कर सत्र नियमित किये जा सकते हैं।  उच्च शिक्षण संस्थान अनुसंधान की खान कहलाते हैं किन्तु आज अनुसंधान के क्षेत्र में हर व्यक्ति कार्य करने को तैयार नहीं है। संगोष्ठियाँ, कार्यशालाएँ एवं सेमिनार आदि में सम्मिलित होने के लिए शिक्षकों को शोध एवं वर्तमान समय की जानकारी से अपडेट रहना आवश्यक है। अतः शिक्षण संस्थानों में ’’शोध प्रकोष्ठ’’ की स्थापना कर आवश्यक धन जुटाया जा सकता है एवं शोध सम्बन्धी कार्यों का प्रचार-प्रसार तथा प्रबन्धन भी हो सकता है। इस प्रकार की व्यवस्था से शिक्षक न केवल शोध कार्यों की ओर उन्मुख होगा अपितु उसकी शिक्षण विधियों में सजीवता भी आयेंगी और छात्रों को गुणवत्ता पूर्ण ज्ञान भी प्राप्त होगा।  वर्तमान में उच्च शिक्षा का व्यवसायीकरण एवं निजीकरण भी हो रहा है। व्यवसायी, जिस विषय व विभाग पर धन लगायेगा उससे सदैव लाभ की आशा रखेगा। अतः उक्त विषय एवं विभाग में मुक्त विकास की संभावनाएं लगभग समाप्त समझी जा सकती हैं। उच्च शिक्षा के निजीकरण से भी भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद एवं व्यापारवाद भी आऐगा और उच्च शिक्षा व संस्थान, शोध-अनुसंधान एवं ज्ञान-विज्ञान का प्रसार नहीं करेंगे, अपितु शिक्षा के नाम पर कार्य शुरू कर देंगे।  आजकल उच्च शिक्षण संस्थानों/महाविद्यालयों की स्वायत्ता पर जोर दिया जा रहा है। शिक्षक को शिक्षा के क्षेत्र से स्वायत्ता व स्वतंत्रता होनी चाहिए, उसे अपना कर्तव्य करने दिया जाय परन्तु लामबन्द करना जानबूझकर शिक्षक पर अतिरिक्त कार्यभार डालना, शिक्षकों की अभिव्यक्तियों का सेंसर करना अपने उत्तरदायित्व अधीनस्थों पर डालना कदापि औचित्यपूर्ण नहीं है। अतः विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की स्वायत्ता मर्यादित अवश्य होनी चाहिए जिससे अनुसंधान एवं शैक्षिक विकास की दिशा विकृत न हो।  भारत में आई0आई0टी0 एवं आई0आई0एम0 जैसे संस्थानों को एक ओर रखा जाए तो शेष लगभग सभी शिक्षण संस्थानों की एक जैसी ही स्थिति है। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि उच्च शिक्षा में प्रवेश के नियम कडे़ व व्यावहारिक हो, पाठ्यक्रम मेें सकारात्मक परिवर्तन हो जिससे विद्यार्थियों को कुछ नया सीखने को मिले, परीक्षा प्रणाली को पारदर्शी बनाते हुए छोटे-छोटे किन्तु गहन अध्ययन पर आधारित प्रश्नों पर आधारित हो, सरकार उच्च शिक्षा से धनन की उचित व्यवस्था करें एवं शिक्षकों के प्रमोशन तथा स्थानान्तरण की व्यवस्थाएं नीतिगत हो। उच्च शिक्षा में शिक्षकों की नियुक्ति हो एवं उच्च शिक्षा को अखिल भारतीय स्तर पर सेवा के क्षेत्र में पहचान मिले। उच्च शिक्षा में अस्थाई कर्मचारियों एवं शिक्षकों की नियुक्तियों की व्यवस्था समाप्त की जानी चाहिए।  शोध कार्यों में नकल की प्रवृत्ति पर रोक लगनी चाहिए। उसके लिए यू0जी0सी0 द्वारा अखिल भारतीय स्तर के शोध प्रकोष्ठ की स्थापना कर विकसित आधुनिक कम्प्यूटर तकनीकियों के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर शोध   सम्बन्धी गतिविधियों पपर नजर रखी जा सकती है। कम्प्यूटर साफ्ॅटवेयर के माध्यम से प्रकाशित शोध पत्रों एवं शोघ पत्रिकाओं से नकल होने की स्थिति सूचना प्राप्त कर तैयार होने वाले शोध को प्रकाशित होने से रोका जा सकता है। निजी एवं डीम्ड विश्वविद्यालयों पर शिकंजा कसना होना जिससे शिक्षा की गुणवत्ता में समझौता न हो। महाविवद्यालयों में योग्यता के आधार पर ही प्रवेश की व्यवस्था हो तो निश्चित ही अच्छे विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा प्राप्ति होगी। नैतिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। एवं शिक्षा से जुडे़ व्यक्ति को इसके प्रति निष्ठा रखनी चाहिए। उच्च शिक्षा के सभी स्तरों पर आवश्यकतानुसार कार्य करने की आवश्यकता है जिससे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता व राष्ट्रीय विकास में इसका योगदान लिया जा सके। इसके अतिरिक्त उच्च शिक्षा के लिए बने उन सभी आयोगों और समितियों के सुझावों एवं सिफारिशों को अमल में लाने की आवश्यकता है जिससे उच्च शिक्षा में गुणवत्ता लााई जा सके।
सन्दर्भ-1. एडगर एफ बेकहम (सं0)- ’डायवर्सिटी, डेमोक्रेसी एण्ड हायर एजूकेशनः ए व्यू आॅफ थ्री नेशन्स। 2. गुप्ता, एस0पी0 एवं अलका (2007)- भारतीय शिक्षा का ताना-बाना, शारदा पुस्तक भवन, इलाहाबाद। 3. राष्ट्रीय ज्ञान आयोग, प्रतिवेदन 20074. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की वार्षिक रिपोर्ट, 20095. शाक्य, उमेश कुमार एवं सरिता (2010)- भारत में उच्च शिक्षा-दशा एवं चुनौतियाँ, सामान्य ज्ञान दर्पण, पृष्ठ-43 अंक-1

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