डाॅ0 प्रवीण कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान विभाग)
डी0ए0वी0 डिग्री काॅलेज, बुलन्दशहर
‘‘व्यक्ति तथा समाज के पारस्परिक सम्बन्धों के स्वरूप को लेकर सभ्यताओं के विकास के साथ से ही चिन्तन की धारा भी निरन्तर सक्रिय रही है। विभिन्न समाजों में तथा विभिन्न कालखण्डों में अनेक विद्वानों ने इस धारा में अपना वैचारिक योगदान दिया है। वस्तुतः मनुष्य द्वारा आदिम युग से आज के इस विकसित युग तक की यात्रा में व्यक्ति व समाज के सम्बन्धों के विभिन्न स्वरूपों का विश्लेषण कर उसे निरन्तर परिष्कृत करने के प्रयास होते रहे है। इसी चिन्तन-मनन की एक उत्पत्ति समाजवादी दर्शन रहा है। ‘‘व्यक्ति तथा समाज के पारस्परिक सम्बन्धों के स्वरूप को लेकर सभ्यताओं के विकास के साथ से ही चिन्तन की धारा भी निरन्तर सक्रिय रही है। विभिन्न समाजों में तथा विभिन्न कालखण्डों में अनेक विद्वानों ने इस धारा में अपना वैचारिक योगदान दिया है। वस्तुतः मनुष्य द्वारा आदिम युग से आज के इस विकसित युग तक की यात्रा में व्यक्ति व समाज के सम्बन्धों के विभिन्न स्वरूपों का विश्लेषण कर उसे निरन्तर परिष्कृत करने के प्रयास होते रहे है। इसी चिन्तन-मनन की एक उत्पत्ति समाजवादी दर्शन रहा है। ‘‘समाजवाद एक ऐसी विचारधारा है जो समाज से सीधा सरोकार रखती है। यही कारण है कि समाजवाद का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव की मानव सभ्यता और संस्कृति का इतिहास। समाजवाद एक विचार धारा होने के साथ-साथ एक आदर्श, एक दर्शन, एक धर्म, एक समग्र विचार, एक नीति, एक जीवन प्रणाली भी है।’’1 वैसे तो समाजवादी दर्शन के चिह्न प्राचीन समय से ही विभिन्न चिन्तकों के विचारों में रहे है किन्तु ज्ञान-विज्ञान की आधुनिक विचारधाराओं में यह बहुत अस्पष्ट, विविधता तथा व्यापकता वाली विचार धारा रही है। हर बेबिल ने इसकी व्यापकता के विषय में प्रकाश डालते हुए कहा है कि ‘‘समाजवाद वास्तव में दर्शन का एक पूरा संसार है। यह धर्म के क्षेत्र में नास्तिकता का, राज्य के क्षेत्र में लोकतंत्रात्मक प्रणाली का, औद्योगिक क्षेत्र में जनवादी समष्टिवाद का, नैतिकता के क्षेत्र में एक अनंत आशावाद का, अध्यात्मवाद के क्षेत्र में एक प्रकृतिवादी भौतिकवाद का तथा पारिवारिक क्षेत्र में गार्हस्थ्य सम्बन्धों तथा वैवाहिक बन्धनों की लगभग पूर्ण शिथिलता का सूचक है।’’2 वस्तुतः समाजवाद स्वयं में एक बहुत ही व्यापक दर्शन रहा है जिसका उपयोग समय-समय पर विभिन्न परस्पर विरोधी विचारधाराओं के चिंतकों ने भी एक आवरण के रूप में किया है। सम्भवतः इसलिए आज तक समाजवाद की कोई एक निश्चित स्वरूप को निर्धारित करती परिभाषा बता पाना भी सम्भव नहीं हुआ है और इन सबसे बढ़कर जब इसके साथ विभिन्न विशेषणों का प्रयोग कर विभिन्न विचारधाराएँ काल्पनिक (आदर्शवादी) समाजवाद, वैज्ञानिक समाजवाद, राज्य समाजवाद, विकासवादी समाजवाद, श्रेणी समाजवाद, प्रजातांत्रिक समाजवाद आदि चलन में हो तो स्थिति और भी अनिश्चितापूर्ण हो जाती है कि वास्तव में समाजवाद है क्या? 1892 ई0 में ही पेरिस के एक पत्र ‘ली फिगारो’ (स्म थ्पहंतव) ने विभिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न अवसरों पर दी गई समाजवाद की लगभग 600 परिभाषाएँ प्रकाशित की थी। समाजवाद को मूलतः एक भौतिकवादी तथा आर्थिक पक्ष को मूल आधार के रूप में लेकर चलने वाली विचारधारा के रूप में अधिक देखा गया है। ‘‘समाजवाद को समझने से पूर्व यह देखना आवश्यक है कि आधुनिक काल में उसका उदय किस प्रकार हुआ। वह पूँजीवाद के उदय और विकास के विरूद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप प्रकट हुआ था। अहस्तक्षेप के सिद्धान्त ने समाज में गंभीर संकट उत्पन्न किए थे। 19वीं शताब्दी के मध्य तक अहस्तक्षेप के सिद्धान्त को व्यापक समर्थन मिलने लगा था। उस समय तक इंग्लैण्ड की सम्पन्नता सहज देखी जा सकती थी लोग इस बात के प्रति आश्वस्थ थे कि प्रतियोगिता से समाज में कार्य क्षमता तथा सम्पत्ति बढ़ी है, किन्तु 19वीं शताब्दी के अन्त तक इस सिद्धान्त की विसंगतियां स्पष्ट होने लगी थी। आर्थिक शक्ति कुछ हाथों में सिमट गई थी।’’3इस पूँजीवादी व्यवस्था की प्रतिक्रिया स्वरूप मूलतः एक आर्थिक आधार को लेकर पश्चिम में समाजवाद की आधुनिक विचारधारा बड़ी तेजी से उभरी जिसे कालमाक्र्स के वैज्ञानिक चिंतन, सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक विश्लेषण ने नयी ऊँचाईयों तक पहुँचाया। ‘‘इस दृष्टि से समाजवाद पूँजीवाद, सामंतवाद, व्यक्तिगत प्रतियोगिता उद्योगों के व्यक्तिगत स्वामित्व आदि पर आधारित समाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं का विरोधी है। समाजवाद का आदर्श ऐसे समाज की स्थापना करना है जिसमें उत्पादन के साधनों तथा वितरण पर सामाजिक नियंत्रण हो। जिसमें आर्थिक आधार पर निर्मित वर्ग-भेद का उन्मूलन कर दिया जाए। यद्यपि समाजवाद के उक्त मूलभूत उद्देश्य से लगभग सभी विचारक सहमत है तथापि इन उद्देश्यों की प्राप्ति के साधनों व सिद्धान्तों के सम्बन्ध में विभिन्न समाजवादी विचारक भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखते है।’’4 इसके विषय में विस्तार में जानने की अपेक्षा हम भारतीय संदर्भ में समाजवाद तथा इसके विकास में डाॅ0 लोहिया के चिंतन एवं कर्म पर अपने विचार केन्द्रित करें जो इस लेख का अभीष्ट भी है। पश्चिमी जगत में जहाँ पूँजीवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप आए समाजवाद में केवल इसके आर्थिक पक्ष पर ही बल दिया गया, फलस्वरूप उचित अनुचित का विचार किए बिना इसके बरक्श खड़ी की गई साम्यवादी व्यवस्थाओं में भी एक अधूरापन रहा। वस्तुतः समाज के केवल आर्थिक पक्ष पर ही बल देना उचित नहीं यह अधूरा समाजवाद होगा। भारतीय समाजवाद की प्रकृति इससे भिन्न है क्योंकि भारत में औपनिवेशिक काल में वे स्थितियाँ नहीं थी जो औद्योगिकरण के फलस्वरूप पश्चिमी यूरोप के देशों में व्याप्त थी। भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन के साथ-साथ आधुनिक चेतना के विकास क्रम में ही समाजवादी विचारधारा का भी उदय हुआ। यह लोकतांत्रिक समाजवाद है जिसकी प्रथम विशेषता यह है कि यह व्यक्ति में जाति, संस्कृति व धर्म आदि किसी भी आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करता, इसी को वह वर्ग विहीन समाज की संज्ञा देता है। द्वितीय विशेषता यह है कि यह व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का पोषक होते हुए भी पूँजीवाद का प्रबल विरोध करता है किन्तु इस पूँजीवाद की समाप्ति के लिए वह किसी भी प्रकार की हिंसक कार्यवाही का समर्थन नहीं करता है। भारतीय समाजवाद के विभिन्न चिंतकों गाँधी, नेहरू, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, डाॅ0 लोहिया आदि के विचारों में इसे स्पष्टता से देखा जा सकता है। जयप्रकाश नारायण इसे स्पष्ट करते हुए कहते है ‘‘समाजवादी समाज एक ऐसा वर्गहीन समाज होगा जिसमें सब श्रमजीवी होंगे। इस समाज में वैयक्तिक सम्पत्ति के हित के लिए मनुष्य के श्रम का शोषण नहीं होगा। इस समाज की सारी सम्पत्ति सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय अथवा सार्वजनिक सम्पत्ति होगी तथा अनार्जित आय और आय सम्बन्धी भीषण असमानताएँ सदैव के लिए समाप्त हो जायेगी। ऐसे समाज में मानव जीवन तथा उसकी प्रगति योजनाबद्ध होगी और सब लोग सब के हित के लिए जीयेंगे।’’5 जयप्रकाश नारायण के विचारों से स्पष्ट है कि भारत में समाजवाद मात्र एक आर्थिक कार्यक्रम न होकर सामाजिक एवं राजनीतिक पक्ष के रूप में भी स्वीकार किया गया और विभिन्न विचारकों ने इसे आगे बढ़ाने में अपना योगदान दिया है। डाॅ0 राम मनोहर लोहिया ने समाजवाद को भारतीय संदर्भ में और भी व्यापक धरातल पर स्थापित करने के प्रयास किए। वे समाजवाद में आर्थिक या सैद्धान्तिक क्षमता से अधिक ‘मानसिक संकल्प’ को अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। उनके समाजवाद चिंतन की दृष्टि संकुचित न होकर विश्वव्यापी थी वे जब आध्यात्मिकता को भौतिकता के साथ अपरिहार्य मानने की बात करते थे तो एक दार्शनिक लगते थे जब सामाजिक क्रांति के लिए मन की संकल्पना (चेतना) की चर्चा करते थे तो मनस्वी ऋषि लगते थे जब वे सम्पन्नता और समता में मर्यादा की बात करते थे तो लगता था कि नैतिकता के प्रखर प्रवक्ता है। उनकी समाजवाद की अवधारणा समग्रवादी थी जो एक विश्वव्यापी दृष्टि लेकर चलती थी। डाॅ0 लोहिया ने यूरोपीय समाजवाद तथा इसके गैर यूरोपीय समाजों में अनुकूलता का आलोचनात्मक परीक्षण किया। अपनी दृष्टि में विकासशील समाज को हितों की रक्षा के लिए आयातित विचारधारा की निष्फलता के सम्बन्ध में निश्चित दिखते थे। माक्र्सवाद से अपनी वैचारिक भिन्नता स्पष्ट करते हुए उन्होंने 1964 ई0 के बम्बई सम्मेलन में कहा था ‘‘मेरे सोचने का तरीका कभी भी द्वंद्ववादी नहीं रहा। कुछ ख्याति ही इस प्रकार की हो गई। चाहे इसे सुनामी कहो या बदनामी कहो वह हो गई है। मैं कोई अतिवादी हूँ? लेकिन वास्तव में ऐसी बात नहीं है। जैसे किस बात को सच्चा व सही मानोंगे? व्यक्ति या समाष्टि को? यह समाजवादी सिद्धान्तों के लिए बहुत बड़ा सवाल रहा है। अभी भी है उसके साथ-साथ यह कि आदमी का दिमाग कैसे चलता है क्या आदमी का दिमाग केवल बाहरी आर्थिक और दूसरी परिस्थितियों का ही गुलाम होकर रहता है या खुद भी सोचकर अपना और समाज का परिवर्तन किया करता है।’’6 वस्तुतः डाॅ0 लोहिया जी का स्पष्ट मत था कि भारत सहित ऐशिया के देशों की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक संरचना पश्चिमी यूरोपीय देशों से नितांत भिन्न है इसलिए यूरोप में विकसित समाजवादी माक्र्सवादी विचारधारा इन देशों की स्थिति के लिए अनुकूल नहीं है। इन्हें स्वयं अपनी पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखते हुए अपने लिए एक मौलिक समाजवादी विचारधारा का विकास करना चाहिए। इसलिए माक्र्स के प्रबल प्रशंसक होते हुए भी उन्होंने माक्र्सवाद को उसी रूप में स्वीकार नहीं किया। भारत के लिए उन्होंने नव समाजवाद को विकसित करने का विचार किया तथा उसके लिए आजीवन सफलतापूर्वक प्रयास भी करते रहे ‘‘अपने क्षेत्र में अधिक व्यापक तथा प्रतिपादक की सम्पूर्ण दृष्टि को परिलक्षित करने वाला नव समाजवाद का सिद्धान्त छः मूलभूत तत्वों पर आधारित था जिसमें लोगों के जीवन के घरेलू तथा विदेशी दोनों पक्ष शामिल थे। ये छः तत्व थे आय और व्यय के क्षेत्र में समतामूलक मानक, बढ़ती आर्थिक परस्पर निर्भरता, व्यस्क मताधिकार पर आधारित विश्व संसद व्यवस्था, व्यक्गित जीवन के अधिकार को शामिल करते हुए जनतांत्रिक स्वतन्त्रता, गांधी की व्यक्तिगत और सामूहिक सविनय अवज्ञा की तकनीक तथा सामान्य व्यक्ति की गरिमा और अधिकार। नव समाजवाद सिद्धान्त का कुल प्रभाव लोहिया के अनुसार लोगों को इस प्रकार की मिश्रित जीवन व्यवस्था प्रदान करता है जिससे न केवल देश में समता आधारित तथा संतुष्ट जीवन जी सकें अपितु विश्व सरकार के हिस्सा बनने की आकांक्षा कर सकें।’’7 वस्तुतः लोहिया जी जनता की इच्छा की संगठित रूप देकर राष्ट्रीय जीवन के नये ढाँचे में ढालना चाहते थे। उनके लिए व्यक्ति सम्मान व गरिमा महत्वपूर्ण थी। वे इन्सान को अन्दर से हिलाने के पक्ष धर थे लोगों के मन को हिलाने से ही लोगों में विश्वास जागेगा कि अन्दर से भी राज्य बदला जा सकता है। गाँधी जी के बाद गाँधीधारा की तीन उपधाराएँ पैदा हुई। पहली पं0 नेहरू के नेतृत्व में राजसत्ता को केन्द्रीय बल मानकर चलने वाले राजमार्गी/दूसरी गाँधी जी के आश्रमों के सत्विक जीवन व आध्यात्मिक चिन्तन को लेकर आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में रचनात्मक कार्य प्रधान सर्वोदयी। ‘‘डाॅ0 लोहिया गाँधी धारा में निहित तीसरी प्रवृत्ति अर्थात् राजसत्ता व समाज व्यवस्था के अन्यायों के सामूहिक प्रतिरोध के अगुवा बने, जिससे सत्याग्रही समाजवाद का उदय सम्भव हुआ। डाॅ0 लोहिया की असली पहचान का निर्माण आजादी के बाद के दौर में पैदा विचार ज्योति व राष्ट्रीय आन्दोलनों के संकल्पों को पूरा करने के लिए छेड़ी गई लड़ाईयों और उठाए गए कष्टों के जरिए हुआ।’’8 डाॅ0 लोहिया सत्ता सुख के आकांक्षी नहीं थे और न ही समझौतावादी एवं अवसरवादी प्रवृत्तियाँ कभी उन पर हावी हो पायी वे अपनी वैचारिक दृढता पर कायम रहने वाले व्यक्ति थे, भले ही अकेले ही खड़े नजर आए। उनके लिए लोकतंत्र एक राजनीतिक या सत्ता प्राप्ति का साधन नहीं था वरन् वे इसे एक बड़ा मूल्य मानते थे। राजनीतिक दलों में भी सैद्धान्तिक स्पष्टता तथा आलोचनात्मक विश्लेषण के लिए तैयार रहने के पक्षधर थे उनका स्पष्ट मत था कि खाली सत्ता प्राप्ति ही राजनीतिक दलों का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। ‘‘लोहिया जी को 6 जुलाई 1946 में बाम्बे कांग्रेस मिटिंग में पाटी के महासचिव का पद सम्भालने के लिए गाँधी जी व नेहरू ने आमंत्रित किया लेकिन उन्होंने उनके सम्मुख तीन प्रस्ताव रखे प्रथम ब्रितानी शासन के अधीन जो सरकार बनेगी उसका सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष नहीं होगा, द्वितीय कांग्रेस वर्किंग कमेटी का जो सदस्य होगा उसे मिनिस्टर नहीं बनाया जायेगा। तृतीय कांग्रेस अपनी सरकार की आलोचना करने के लिए स्वतन्त्र होगी परन्तु यह प्रस्ताव नेहरू को स्वीकार नहीं हुआ जिस पर लोहिया ने महासचिव पद ठुकरा दिया।’’9 वस्तुतः डाॅ0 लोहिया अपने सैद्धान्तिक विचारों पर समझौतावादी रवैया हावी नहीं होने देते थे भले ही उनके सामने कोई कितना ही आदरणीय व प्रबुद्ध व्यक्तित्व रहा ही इसका एक कारण यह भी था कि उनका स्पष्ट मानना था कि समाज में व्यापक व आधारभूत परिवर्तन लाने के लिए सत्ता प्राप्ति ही एक मात्र उपाय नहीं है इसके लिए निरन्तर प्रयास करते रहने की आवश्यकता पर बल देते थे इसलिए वे निरन्तर क्रियाशील रहने के पक्षधर थे। अपने समाजवाद सम्बन्धी चिंतन को यथार्थ के धरातल पर साकार रुप देने के लिए उन्होंने सात क्रान्तियों का आह्वान किया। ‘‘यह सात क्रान्तियाँ समाजवाद की मूल भावना के अनुकूल होने के कारण उसका मूल आधार ही है।1. स्त्री-पुरूष समानता के लिए क्रान्ति 2. चमडे के रंग पर राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के विरूद्ध क्रान्ति3. संस्कारगत जन्मजात जाति प्रथा के खिलाफ और पिछडों को विशेष अवसर के लिए क्रान्ति4. परदेशी गुलामी के खिलाफ तथा स्वतन्त्रता एवं विश्व लोक राज के लिए क्रान्ति5. निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए क्रान्ति6. निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और लोकतंत्र पद्धति के लिए क्रान्ति 7. अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ सत्याग्रही’’10 डाॅ0 लोहिया के समाजवाद सम्बन्धी विचारों को इस संक्षिप्त परिचय के साथ ही वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में उनकी प्रासंगिकता पर भी विचार कर लेना उचित होगा। इसके लिए हम यदि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर दृष्टि डाले तो उसके विषय में अधिक विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है। इक्कीसवीं सदी में भारतीय राजनीति में बहुत कुछ बड़ी तेजी से परिवर्तित होता दिखाई देता है। प्रायः माना जाता रहा है कि राजनीतिक विचारधाराएँ धीरे-धीरे बदलती है किन्तु वर्तमान भारतीय राजनीति में विचारधाराओं की स्थिति बहुत दयनीय हो गई है सैद्धान्तिक राजनीति तो अपना अस्तित्व खोती जा रही है। अवसरवादिता समझौतावादिता तथा सत्तालोलुपता अपने चरम पर है कौन राजनीतिक दल आज किसके साथ है और कल किसके साथ होगा यह कह पाना बहुत कठिन है। यदि समाजवादी आन्दोलन व राजनीतिक दलों पर विचार करें तो ‘‘डाॅ0 लोहिया के निधन के बाद इस आन्दोलन में आत्मविश्वास व इच्छा शक्ति तथा सद्भावना के साथ काम करने की इतनी कमी रही है कि सत्तर के दशक से केवल बैशाखी खीचने की राजनीति करते रहे। सत्तासुख एवं गैर कांग्रेसवाद के नाम पर वे अपने मूल कार्यक्रम को ही भूल गये। इस दौर में सामाजिक व आर्थिक मुद्दों पर जन आन्दोलन बड़ी संख्या में चले किन्तु राजनैतिक आन्दोलन एक तरफ और सामाजिक आन्दोलन दूसरी तरफ चले गए।’’11 यूँ कहने को तो आज भी विभिन्न राजनीतिक दलों में उनके नाम लेने वाले तथा लोहिया को अपना आदर्श बताने वाले अनेक राजनेता मिल जाते है किन्तु वे सभी बस ऊपरी तौर पर लोहिया के नाम का सहारा भर लेते है जबकि आवश्यकता है लोहिया के विचारों व कार्यों की तरह अपने सैद्धान्तिक पक्ष पर आडिग रहने की। इस दृष्टि से लोहिया आज और भी अधिक प्रासंगिक हो उठते है कि उन्होंने सत्ता प्राप्ति के लिए भी अपने सैद्धान्तिक पक्ष तथा रचनात्मक कार्यक्रमों पर समझौतावादी प्रवृत्ति को अपने अन्दर नहीं आने दिया। उन्होंने आर्थिक तथा राजनीतिक दोनों ही क्षेत्रों में शक्ति के विकेन्द्रीकरण की प्रतिष्ठा की। यहाँ तक की राजनीतिक दल के अन्तर्गत भी वे सभी शक्तियाँ किन्हीं एक दो हाथों में केन्द्रित करने के पक्षधर नहीं थे इसी मुद्दे पर वे पं0 नेहरू के भी प्रबल आलोचक रहे। ‘‘उन्होंने कहा कि साम्यवादियों की तरह बड़े-बड़े कारखाने न लगाकर लघु मशीनों को महत्व दिया जाए ताकि छोटी पूँजी लगाकर भी अधिक से अधिक आदमियों की कार्य मिल सके। . . . उन्होंने कांग्रेस और समाजवादियों के मध्य मैत्री की समझौतावादी नीति को श्रेयस्कर नहीं माना। 1953 में लोहिया ने अपना ‘समानान्तर सिद्धान्त’ सामने रखा और यह युक्ति प्रस्तुत की कि समाजवादी लोग आज भी कांग्रेस से उतनी ही दूर है जितने साम्यवादियों से और ये सामानान्तर रेखाएँ अपने मतों एवं दृष्टिकोणों के कारण कभी आपस में शामिल नहीं हो सकती। लोहिया ने यह पसंद नहीं किया कि प्रजा समाजवादी दल कांग्रेस से मित्रता करें और वह भी नीति विषयक मुद्दों पर।’’12इन विचारों से हम डाॅ0 लोहिया को कांग्रेस विरोधी मात्र न समझे बल्कि इसमें एक सैद्धान्तिक दृढता को देखे। साथ ही यह कि वे जनता के समक्ष एक राजनैतिक विकल्प या रास्ता सदैव बनाए रखने के पक्षधर थे। यह नहीं होना चाहिए कि राजनीतिक दल होने का अर्थ मात्र किसी भी तरह उचित अनुचित का ध्यान दिए बिना सत्ता पर काबिज होना ही है। उनका मानना था कि यदि आप सत्ता में नहीं भी है तो इसका अर्थ यह नहीं कि आपकी क्रियाशीलता शिथिल हो जाए। उन्होंने सामाजिक बदलाव के जो सूत्र दिए थे वे आज उतने ही प्रासंगिक है- ‘‘पहला यह दुनिया को बदलने के लिए हमें वोट की क्रान्तिकारिता को समझना चाहिए यानी संसदीय राजनीति। दूसरे अगर वोट से बात नहीं बनती तो अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए अगले चुनाव का इन्तजार करने की बजाए सत्याग्रह का रास्ता अपनाए। तीसरा उससे भी जरूरी है कि पहले हम रचनात्मक काम करें क्योंकि हर काम सरकार के जरिए नहीं हो सकता। . . . लेकिन आज देश के दल चुनावी मशीन होते जा रहे है जिनकी सक्रियता सिर्फ चुनावों के दौरान ही नजर आती है और चुनाव के बाद उनमें दिशाहीनता आ जाती है। आज विचारों के बजाए नेता के भरोसे राजनीति होने लगी है और नेता के बनने बिगड़ने उसके होने और उनके न होने से हमारी राजनीतिक दिशा तय हुआ करती है। ये नेता कभी इस पाले में तो कभी उस पाले में जाता रहता और धीरे-धीरे आदमी अवसरवादी राजनीति छलांगे लगाते-लगाते थक जाता है।’’13 वर्तमान इस राजनीतिक अनिश्चितापूर्ण परिदृश्य में डाॅ0 लोहिया स्वतन्त्रता आन्दोलन के अकेले ऐसे बड़े नेता है जिन्होंने स्वतन्त्रता के बाद भी अपने जीवन के अनेक वर्ष जेल में बिताए, न केवल भारत में अपितु गोवा, नेपाल व अमेरिका में भी उन्होंने अपने समाजवादी व लोकतांत्रिक मूल्यों व सिद्धान्तों के लिए जेल के कष्टों को सहन स्वीकार किया। लोहिया उन समाजवादी नेताओं में थे जो सबसे बाद में कांग्रेस छोड़ने के विषय पर सहमत हुए थे किन्तु एक बार कांग्रेस छोड़ने के पश्चात् उन्होंने कभी समझौतावादी प्रवृत्ति नहीं अपनाई। लोहिया सामाजिक जीवन में ही नहीं राजनीतिक जीवन में भी बाह्य आडम्बरों व प्रतीकवादी राजनीति के विरूद्ध थे उनका मानना था कि बाहृ्य प्रतीकों के चक्कर में पड़कर जो वैचारिक आधारभूत बाते है उनकी उपेक्षा होने लगती है। समाजवादी आन्दोलन का प्रतीक बनी उस समय की लाल टोपी को लोहिया ने समाजवादियों के प्रबल आग्रह के बाद भी कभी नहीं पहना। ‘‘उन्होंने लाल टोपी पहनने से इसलिए इंकार किया है क्योंकि यह अपने तरीके का भ्रष्टाचार फैलायेगा। लोग जैसे-जैसे ऊबकर कांग्रेस छोडेंगे तो उनके लिए अपनी अच्छाई का प्रदर्शन करना लाल टोपी पहनकर बहुत आसान हो जायेगा। लोहिया ने इस बात पर जोर दिया कि लाल टोपी की जगह पर प्रत्येक दिन एक घंटे के लिए फावडे का प्रयोग सोसलिस्ट पार्टी का चिह्न बनना चाहिए। . . . चोटी, पवित्र जनेऊ और दाढ़ी बाहरी चीजे है उनका धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। धर्म की बाहरी दिखावट के लिए इनको बाद में अप्रत्याशित रूप से विकसित किया गया। यदि इन बाहरी चिह्नों को समाप्त किया जा सके तो हिन्दुओं और मुसलमानों की नजदीक लाना आसान हो जायेगा।’’14 इस दृष्टि से भी देखे तो डाॅ0 लोहिया के विचार नितांत प्रासंगिक लगते है। आज विभिन्न राजनीतिक दल व नेता स्वयं को कोई जनेऊधारी, कोई नीले रंग, कोई लाल रंग, कोई भववा रंग की प्रतीकवादी राजनीति का आधार बनाकर समाज में विभेदवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहे है। डाॅ0 लोहिया ने अपने जीवन काल में सत्ता सुख के लिए अपने सिद्धान्तों से समझौता न करने का जो आदर्श प्रस्तुत किया वह आज के इस राजनीति परिदृश्य में बहुत ही प्रासंगिक प्रतीत होता है, किन्तु अगर वर्गवाद, जातिवाद, धार्मिक कट्टरता, दलबंदी, राष्ट्रीय अहंकार आदि के बल पर राजनीति में सत्ता मिल रही है तो फिर लोहिया धारा की तूफानी लहरों में कोई राजनीतिक दल अपनी नाव क्यों फँसाएँ? इसलिए लोहिया की वैचारिक और आन्दोलन सम्पदा में से अपने काम का थोड़ा बहुत लेने का और बाकी शर्तों की अपेक्षा करने का रोग लोहियावादियों की विभिन्न जमातों में पहले से ही जड़ जमाने लगा था। अब वर्तमान अवसरवादी राजनीति के दौर में तो यह प्रवृत्ति ओर भी बढती जा रही है किन्तु जैसे-जैसे राजनीतिक जीवन में ये विसंगतियाँ उभरकर आती रहेगी वैसे-वैसे डाॅ0 लोहिया के समाजवादी दर्शन एवं राजनीतिक वैचारिकी व कार्यक्रमों की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ती जायेगी। सन्दर्भ सूची1. डाॅ0 वीरेन्द्र सिंह यादव- ‘‘भारत में समाजवाद के उभरते क्षितिज एवं गहराती चुनौतियाँ’’, प्रशांत बुक डिस्ट्रीब्यूटर्स, नई दिल्ली-110002, पृ0 4-52. डाॅ0 पुखराज जैन- ‘‘आधुनिक राजनीतिक 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संजय सिंह- ‘‘भारतीय समाजवादी आन्दोलन’’, कला प्रकाशन बी 33/33ए, न्यू साकेत कालोनी, बी0एच0यू0 वाराणसी-5, पृ0 15512. प्रो0 जी0पी0 नेमा- ‘‘भारतीय राजनीतिक विचारक’’, यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली, पृ0 47613. आनंद कुमार- (सं0 किशनलाल जयी) ‘‘गांधी लोहिया-जयप्रकाश और हमारा समय’’, नयी किताबें प्रकाशन, दिल्ली, पृ0 7514. गिरिजा शंकर- ‘‘भारत में लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन भाग-2’’, विश्व भारती पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, पृ0 277
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