– डाॅ0 प्रेमपाल
सहायक प्राध्यापक (संस्कृत)
मैस्काॅट काॅलेज आॅफ एजूकेशन रिठौरा, बरेली।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी होने के नाते वह समाज में रहता है। समाज में रहते हुए उसे विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की आवश्यकता होती है जैसे भोजन, वस्त्र, आवास आदि यह प्रमुख है। यह भी निश्चित है कि इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मनुष्य को कुछ उद्यम करना होता है। तभी वह सुचारू रूप से अपना जीवन यापन कर सकता है। समाज में अनेक व्यवसाय शिल्प, व्यापार, कृषि, पशुपालन आदि को प्रमुखता दी जाती है।मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी होने के नाते वह समाज में रहता है। समाज में रहते हुए उसे विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की आवश्यकता होती है जैसे भोजन, वस्त्र, आवास आदि यह प्रमुख है। यह भी निश्चित है कि इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मनुष्य को कुछ उद्यम करना होता है। तभी वह सुचारू रूप से अपना जीवन यापन कर सकता है। समाज में अनेक व्यवसाय शिल्प, व्यापार, कृषि, पशुपालन आदि को प्रमुखता दी जाती है। समाज के अन्तर्गत आने वाले इन व्यवसायों में कृषि का विशेष महत्व है। जो भोजन का मुख्य आधार भी है। ऋग्वेद में ऋषि जुंए में पराजित द्यूतकर को निर्देश देता है कि इस निन्दनीय कार्य को छोड़कर वह कृषि करें।अक्षैर्मादिव्यः कृषिमित् कृषस्व।1 ऋग्वैदिक काल में अश्विन ने सर्वप्रथम कार्याें को हल (वृक) द्वारा बीज बोना सिखाया। इस आधार पर कहा जा सकता है कि अश्विन् देव का कृषि कला से घनिष्ठ सम्बन्ध था। वैदिक कालीन मनुष्यों का ऐसा विश्वास था कि कृषि का प्रारम्भ सर्वप्रथम पृथ्वी या पृथु वैन्य ने किया था।2 अथर्ववेद में भी पृथ्वी वैन्य नामक राजा को हल से भूमि जोतने की विद्या का आर्विष्कारक माना जाता है।3 वेन पुत्र पृथ्वी का वर्णन पुराणों में भी प्राप्त होता है। इसी कारण भूमि का नाम पृथ्वी के नाम पर पृथ्वी रखा गया।4 वैदिक काल में खेतों पर स्वामित्व किसी जाति विशेष का नहीं था अपितु एक परिवार के व्यक्ति का होता था। वैदिक काल में जो कृषि का स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। उसी परम्परा का पालन आज भी किया जा रहा है। भूमि को जोतकर बीज बोने योग्य तैयार किया जाता था। बीज बोनों की क्रिया को वपन कहा जाता है।भूमिरावपतं महत। यजुर्वेद 23/46 बुबाई के समय बीज के साथ खाद भी डाली जाती थी वह गोबर की होती थी जो पशुओं से ही प्राप्त होती थी। गोबर को प्राकृतिक खाद के रूप में प्रयोग किया जाता था जिसे करीष कहते थे।सजग्माना अबिश्युषीरसिमन् गोष्ठेन करीषिणीः।5 वैदिक युग में भूमि की जुताई के लिए हल ही एक मात्र साधन था। अथर्ववेद में छः बैल वाले हल, आठ बैल वाले हल अथवा बारह बैलों वाले हल का उल्लेख मिलता है।इयं यवमष्टायोगैः षडयोगेभिरचरर्कृषुः।6 इसके अतिरिक्त वेद में हल को सीर, सील, लांगन इन तीन नामों से भी जाना जाता था। पकड़ने वाली मूंठ को वेद में ‘त्सरु’ कहा गया है।लांगलम् पवीरवत् सुशीमं सोमसत्सरु।7 किसान या कृषक के लिए वेदों में कीनाश और सीरपति आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। ऐसा ज्ञात होता है कि वैदिक शब्द ‘कीनाश’ को ही रुपान्तरित करके आज प्रचलित भाषा में किसान शब्द प्रयुक्त किया जा रहा है।शुनं सुफाला विकृषन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अभियन्तु वाहैः।8 हल का सुन्दर फाल भूमि की जुताई करने में सहायक होता था। इस फाल के लिए ऋग्वेद में ‘स्तेग’ शब्द का प्रयोग हुआ है जो भूमि में प्रविष्ट होकर खुदाई करता है।स्तेगो न क्षामत्येति पृथ्वी।9 हल द्वारा जुती हुई भूमि में जो रेखाएं बनती है इस रेखा को ‘सीता’ कहा जाता था। इस प्रकार का उल्लेख वेद में मिलता है।इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूशाभिरक्षतु।10 इन्द्र हल की रेखा को पकड़े जुते हुए खेत को वृष्टि द्वारा संसिक्त करें पूषा (सूर्य) उसकी रक्षा करे वह हल की रेखा रसयुक्त होकर हमें आगे आने वाले समय में अन्न रस प्रदान करें। कृषि के कर्षण का कोई विशेष नियम नहीं है परन्तु भूमि को मृदु एवं बोने योग्य बनाने के लिए अनेक बार कर्षण (जोतना) आवश्यक है। कर्षण कार्य से तैयार की गयी भूमि में बीज बोने की प्रक्रिया को वपन कहा जाता था। कृषि कार्य के लिए उचित भूमि का होना आवश्यक है। वैदिक ऋषि ने कर्षण के पश्चात् खेतों में बीज बोने का उपदेश दिया-युनक्त सीरा वि युगातनोत कृतेयौनौ वपतेह बीजम्।11 यजुर्वेद में कर्षण क्रिया के द्वारा उत्पन्न अन्न के लिये ‘कृष्टपच्या’ शब्द का प्रयोग हुआ है तथा बिना कर्षण के द्वारा उत्पन्न अन्न के लिए ‘अकृष्टपच्या’ शब्दों का उल्लेख मिलता है-कृष्टपच्या मे अर्कृष्टपच्याश्च में यज्ञेन कल्पन्ताम्।12 बपन (बोने) के पश्चात् भूमि को सींचा जाता था। अथर्ववेद में घृत और शहद से भूमि को सींचने का वर्णन मिलता है-सा नः सीते प्यसाभ्याववृत्सवोर्जस्वती घृतवत पिन्वतमाना।13 अर्थात् घी और शहद के द्वारा योग्य रीति से सिंचित भूमि सब देवों, मरूतों द्वारा अनुमोदित हुई है। ऐसी जुती भूमि घी से सिंचित हमें उत्तम रस युक्त फल से पूर्ण कर दें। उक्त विचार भले ही काल्पनिक प्रतीत होते हों लेकिन वैदिक सन्दर्भांे के आधार पर इनकी सत्यता वर्तमान समय में भी सार्थक सिद्ध होती है। भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए आधुनिक काल की भांति वैदिक काल में भी कृषि के लिए खाद की आवश्यकता होती थी, किन्तु यह खाद रसायनयुक्त नहीं थी बल्कि प्रकृतिक होती थी। वैदिक काल में पशुओं को अधिक पाला जाता था और पशुओं के गो-मूत्र को भूमि उर्वर बनाने के लिए खाद के रूप में प्रयोग किया जाता था। वैदिक युग में गोबर की खाद को श्रेष्ठ माना जाता है किन्तु गोबर की खाद से भी अधिक श्रेष्ठ यज्ञ की खाद थी। यह खाद यज्ञ से बनती थी। कृषि की उत्पत्ति में सहायक वनस्पति एवं अन्न आदि की तथा घी, शहद की यज्ञों में जब आहुति दी जाती थी तो सूक्ष्म तत्व शक्तिशाली होकर वायु में संचरित हो जाते थे तथा वृक्षादि सभी को प्राप्त हो जाती थी।14 वर्तमान समय की भांति वैदिक काल में भी कृषि कार्य करने के लिए अनेक प्रकार के उपकरणों की आवश्यकता होती थी। वैदिक काल में कृषि उपकरणों का एक विशेष नाम हुआ करता था। कानीश- हल चलाने अथवा खेती करने वाले को कीनाश या सीरपति कहा जाता था ऐसा उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है।इन्द्र आसीत सीरपतिः शतक्रता कीनाशः।15 अर्थात् इन्द्र न उत्तम भूमि पर बार-बार हल चलाया तथा यव, धान्य बोये इन्द्र हल का स्वामी था। फाल- हल के अग्र भाग को फाल कहा जाता था। इतना ज्ञान नहीं है कि फाल धातु से बना होता था या अन्य किसी वस्तु से। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि यह खदिर (खैरा) की लकड़ी से बना होता था और शरीर की अस्थियों से इसकी तुलना की गई है-अस्थिश्य एवास्य खदिरः समभवत्।16 अथर्ववेद में उल्लेख है कि सुन्दर फाल भूमि को सफलतापूर्वक खोदें, किसान सुगमता से बैलों के पीछे चलें जिससे हमें अधिक अन्न प्राप्त हो।शुन सुफाला वि तदन्तु भूमिं।17 हल में पकड़ने के लिए लकड़ी की मूठ लगाई जाती थी। यह मूंठ (त्सरू) चिकनी होती थी जिसे पकड़ने में सुख मिलता था। ऐसा वर्णन अथर्ववेद में मिलता है।लाड़गल पवीर वत्सुशीमं सोमसत्सरू।18 उक्त सन्दर्भाें के आधार पर स्पष्ट है कि अथर्व वैदिक काल में हल खदिर की लकड़ी का बना होता था। वर्तमान समय में भी कुछ स्थानों पर खदिर की लकड़ी का हल बानाया जाता है। अष्ट्रा- इसका उपयोग बैलों को हाॅकने के लिए किया जाता था। अथर्ववेद में इसका उल्लेख एक स्थान पर मिलता है-शुनं वरत्र बहयन्तां शुनमष्ट्रामुदिड्गय।19 स्रणि- पके हुए अन्न को सृणि अर्थात् हंसिया द्वारा काटने का वर्णन अथर्ववेद में किया गया है-उत्सृण्यः पक्वमायवन।20 जब फसल पक्कर तैयार होती थी तब कृषि यन्त्रों की सहायता से कृषक अत्यन्त उत्साह से फसल की कटाई करते थे। शतपथ ब्राहमण में सस्य (फसल) काटने की क्रिया को ‘लुनन्तः’ 21 शब्द से व्यक्त किया गया है। फसल पकने पर कृषक प्रसन्नता से कहता था कि मैं उस दयावान ईश्वर को जानता हूँ जिसने बहुत अधिक अन्न उत्पन्न किया है जो देव अन्न को एकत्रित करने वाला था। ऐसा उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है।वेदाहं प्यस्वन्तं चकार धान्यं बहु।संभृत्वा नाम यो देवस्तं वयं हवामहे।।22 कृषक प्रसन्नतापूर्वक पकी हुई फसल को हजारों हाथों से सावधानीपूर्वक काटते थे और एक स्थान पर एकत्रित करते थे और हजारों हाथों वाला बनाकर उसका दान भी करते थे।शतहस्त समाहर सहक्रहस्तं सं किर।कुतस्य कार्यस्य चेह स्फाति समावहे।।23 पकी हुई फसल को हसिया से काटकर उन्हे गट्ठरों में बाँधकर खलिहान या घर पर लाया जाता था। खलिहान में पड़े सूखे जौ, धान्य, आदि फसलों को साफ करके घर पर लाते थे। उक्त प्रक्रिया के आधार पर कृषि कार्य करने से वैदिक समाज समृद्ध होता था।सन्दर्भ -1. ऋग्वेद- 10/35/72. तै0ब्रा- 3,8,10,43. अथर्ववेद- 8/10/254. श्रीमद्भागवत्, स्कन्ध, 4 अध्याय 16-235. अथर्ववेद- 3/14/36. अथर्ववेद- 8/9/167. अथर्ववेद- 3/17/38. यजुर्वेद- 12/699. ऋग्वेद- 10/31/910. अथर्ववेद- 3/17/411. अथर्ववेद- 3/17/212. अजुर्वेद- 18/1413. अथर्ववेद- 3/17/914. वैदिक अर्थव्यवस्था, डाॅ0 महावीर, पृष्ठ सं0 7615. अथर्ववेद- 6/30/116. शतपथ ब्राहमण 13/4/4,917. अथर्ववेद- 10/6/2418. अथर्ववेद- 3/17/619. अथर्ववेद- 3/17/320. अथर्ववेद- 3/17/221. शतपथ ब्राह्मण 1/6/1322. अथर्ववेद- 3/24/223. अथर्ववेद- 3/24/51. गुरुकुल शोध भारती – प्रकाशन वर्ष 2006 सम्पादक डाॅ0 महावीरः गुरुकुल कांगड़ी वि0वि0 हरिद्वार (उत्तराखण्ड)2. अथर्ववेद का समाजिक अध्ययन- सन् 2007 लेखक निवेदिता प्रथम संस्करण पन्त् प्रकाशक ईस्टर्न बुल लिंकर्स जवाहर नगर, दिल्ली- 1100073. वैदिक साहित्य और संस्कृति- पंचम संस्करण- सन् 2006 लेखक आचार्य बल्देव उपाध्याय, प्रकाशक शारदा संस्थान 37 बी0 रविन्द्र कुटी, दुर्गाकुण्ड वाराणसी-54. वेद वाणी (मासिक पत्रिका)- वर्ष 60 अंक प्रथम सन् 2007 सम्पादक विजयपाल विद्यावारिधि वेद वाणी कासलिय रेवली, (सोनीपत) हरियाणा।
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