बृजेन्द्र कुमार
राजनीति विज्ञान विभाग, बरेली कालेज, बरेली।
समाज के विकास को सही दिशा में गति प्रदान करने के लिए नेतृत्व की आवश्यकता पड़ती है। समाज के नेतृत्व की भूमिका प्रारम्भ से ही पंचायतों ने ही निभाई है। यदि हम अतीत पर अपनी दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि पंचायती राज प्रणाली हमारी सांस्कृतिक विरासत का ही अंग है। वैदिक युग में ग्राम को राजनीतिक इकाई माना जाता था और महाभारत में ग्राम सभा का उल्लेख मिलता है। पंचों को परमेश्वर तुल्य समझा जाता था क्योंकि वे अपना दायित्व पूर्ण निष्ठा के साथ निष्पक्ष एवं निःस्वार्थ भाव से निभाते थे। भारतीय इतिहास में चन्द्रगुप्त मौर्य से लेकर 12वीं शताब्दी तक ग्राम सभाएं अपने अपने क्षेत्र में तत्कालीन समस्याओं का हल खोजा करती थी। किन्तु मुगल काल में एवं अंग्रेजी शासकों ने केन्द्रीकरण की नीति अपनाकर सामन्तवाद को बढ़ावा दिया और पंचायतों को प्रभावहीन कर दिया, निर्बल और कमजोर वर्ग की सहभागिता पंचायतों में गौण हो गयी। भारतीय पुनर्जागरण के समय राजाराम मोहन राय, दयानन्द सरस्वती और विवेकानन्द जैसे प्रमुख विचरकों ने यह संदेश दिया कि समाज के निम्न वर्ग के लोगों को भी संस्कृति का ज्ञान कराया जाये तथा उनका सामाजिक व राजनीतिक स्तर उच्च वर्ग के समान लाया जाये, ताकि सामाजिक न्याय स्थापित हो सके। इससे आगे गोपाल कृश्ण गोखले ने शासन के विकेन्द्रीकरण का सुझाव प्रस्तुत किया और कहा कि सत्ता की सबसे निम्न इकाई ग्राम पंचायत को संगठित किया जाये। गांधी जी का भी मानना था कि ग्राम पंचायत को अपने ग्राम का प्रबन्ध और प्रशासन करने के सारे अधिकार दे दिये जाये परन्तु अरविन्द घोश तथा डा0 भीमराम अम्बेडकर का मानना था कि स्थानीय स्वशासन पर केवल कतिपय धनी एवं कुलीन व्यक्तियों का ही शासन स्थापित होगा और पंचायतों में केवल एक शक्तिशाली अल्पसंख्यक उच्च वर्ग का ही नेतृत्व रहेगा तथा सत्ता के विकेन्द्रीकरण का परिणाम समाज के उत्थान के लिए हानिकारक होगा स्वतन्त्रता के बाद से लेकर 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1993 तक स्थानीय स्वशासन का अधिकार केवल उच्च वर्ग को ही प्राप्त था जैसा कि अरविन्द घोश तथा डा0 भीमराव अम्बेडकर ने कल्पना की थी। पंचायती राज प्रणाली देश को सुदृढ़ एवं समृद्धि बनाने हेतु अत्यन्त आवश्यक है। जब तक देश में पंचायती राज को सक्षम नहीं बनाया जाता तब तक देश के असंख्य निर्धन परिवारों तक विकास का वास्तविक लाभ नहीं पहुॅचाया जा सकता है। पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से ही राष्ट्र में व्याप्त आर्थिक असमानता को दूर किया जा सकता हैं एवं तभी हम अपने सामाजिक न्याय की अवधारणा को साकार रूप दें सकते है। पंचायती राज अधिनियम की मूल आत्मा यह है कि- सत्ता का विस्तार कमजोर एवं निर्बल वर्गो तक हो जिससे लोकतन्त्र में निर्बल एवं दलित वर्ग के लोगों की सहभागिता बढ़े और सम्पूर्ण देश में वास्तविक लोकतन्त्र की स्थापना हो सके। स्वतन्त्रता के बाद पचास के दशक के आरम्भ में विकास राष्ट्र के लिए सर्वाधिक चुनौती पूर्ण था, जिसके समाधान हेतु पंचवर्शीय योजना के मार्ग का अवलम्बन किया गया। विकास कार्यक्रमों की सफलता के लिए विकेन्द्रीकरण नियोजन एवं ग्राम स्वराज की महत्ता को स्वीकार किया गया। ग्रामीण सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए 02 अक्टूबर, 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम को आरम्भ किया गया। नौकरशाही द्वारा संचालित योजना बन जाने के कारण यह कार्यक्रम सरकारी तन्त्र और ग्रामीण जनता के बीच की दूरी को कम करने के अपने महत्वपूर्ण उद्देश्य में विफल रहा। इसके पश्चात् इस कार्यक्रम की समीक्षा एवं ग्रामीण स्थानीय स्वशासी संस्थाओं को सुदृढ़ करने के लिए विभिन्न समितियाँ समय समय पर गठित की गयी इनमें बलवन्त राय मेहता समिति, अशोक मेहता समिति, जी0वी0के राव समिति प्रमुख हंै। इन समितियों की अनुशंसाओं के अनुसार विभिन्न कारणों के आधार पर इन संस्थाओं को सुदृढ़ करने के लिए वांछित परिणामों का अभाव ही रहा। 1992 का 73वाँ संविधान संशोधन भारतीय गणतन्त्र में विकेन्द्रित आर्थिक विकास के दर्शन को केन्द्रीय स्थान दिलवाने की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 73वाँ संविधान संशोधन पंचायतों के निर्वाचनों की अनिवार्यता, पंचायत राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा, समाज के कमजोर वर्गो एवं महिलाओं के एक तिहाई आरक्षण तथा इन संस्थाओं को आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय एवं समाज कल्याण के लिए संविधान में उल्लखित विषयों के लिए योजनाओं के निर्माण एवं क्रियान्वयन हेतु पर्याप्त अधिकार प्रदान करता है। भारतीय संविधान मंे 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम ने एक नया भाग-9 सम्मिलित किया है। इसे पंचायत नाम से उल्लेखित किया गया है और अनु0 243 से 243 (व्) के प्रावधान सम्मिलित किये गये है। इस कानून ने संविधान में एक नयी 11वीं अनुसूची भी जोड़ी। इस कानून ने संविधान के 40वें अनुच्छेद को एक प्रयोगात्मक आकार दिया है जिसमें कहा गया है कि ‘‘ग्राम पंचायतों को व्यवस्थित करने के लिए राज्य कदम उठायेगा और उन्हें उन आवश्यक शक्तियों और अधिकारों से विभूषित करेगा जिससे कि वे स्वयं प्रबन्धक की इकाई की तरह कार्य करने में सक्षम हो।’’ यह अनुच्छेद राज्य के नीति निदेशक तत्वों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस अधिनियम नेे पंचायती राज संस्थाओं को एक संवैधानिक दर्जा दिया अर्थात इस अधिनियम के प्रावधान के अनुसार नयी पंचायतीय पद्धति को अपनाने के लिए राज्य सरकार संविधान की बाध्यता के अधीन है। 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम के प्रावधानों को दो भागों में बाॅटा जा सकता है। 1- अनिवार्य 2- स्वैच्छिकप्रथम भाग कानून के अनिवार्य नियम में सम्मिलित हैं- नयी पंचायती राज पद्धति में दूसरे भाग स्वैच्छिक प्रावधान को राज्यों के निर्देशानुसार सम्मिलित किया जाता है। अतः स्वैच्छिक प्रावधान राज्य को नयी पंचायती राज व्यवस्था अपनाते समय भौगोलिक, राजनीतिक, और प्रशासनिक तथ्यों को ध्यान में रखकर अपनाने का अधिकार सुनिश्चित करता है। अर्थात भारत की संघीय पद्धति में केन्द्र और राज्यों के सन्तुलन को यह कानून प्रभावित नहीं करता है। यह कानून देश में जमीनी स्तर पर लोकतान्त्रिक संस्थाओं की उन्नति में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह लोकतन्त्र को प्रतिनिधि लोकतन्त्र और भागीदारी लोकतन्त्र में बदलता है। यह देश में लोकतन्त्र को सबसे निचले स्तर पर स्थापित करने की एक युगान्तकारी और कार्यकारी सोच है। वर्तमान पंचायती राज की स्थापना में 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम अपना एव विशिष्ट व महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जिसने पंचायती राज संस्थाओं में अनुसूचित जाति की भागीदारिता को सुनिश्चित किया है। इस प्रकार 73वें संविधान अधिनियम संशोधन द्वारा विकेन्द्रीकरण की अवधारणा में अनुसूचित जाति की भागीदारी को संवैधानिक मान्यता मिल गयी है। इस संवैधानिक कानून ने लाखों दलितों को हाशिये से उठाकर हुकूमत की कुर्सी तक पहुॅचा दिया है।बदायूँ भारत के उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख जिला एवं लोकसभा क्षेत्र है। यह गंगा तथा रामगंगा नदियों के दो आब में रूहेल खण्ड मण्डल के दक्षिण पश्चिम भाग में स्थित है। अनेक जनपदों से इसकी सीमाऐं मिलती है। उत्तरी सीमा पर बरेली, रामपुर तथा मुरादाबाद जनपद है। दक्षिण में फर्रूखाबाद, एटा, काशीराम नगर (कासगंज) और अलीगढ़ स्थित है, पूर्व में शाहजहाँपुर तथा पश्चिमी सीमा बुलन्दशहर व नव सृजित जनपद भीम नगर (सम्भल) से मिलती है। बदायूँ जनपद 270 40 और 280 29 उत्तरी अक्षांश तथा 780 15 और 790 31 पूर्वी देशान्तर के मध्य बसा है। इसका कुल क्षेत्रफल 4234 वर्ग किमी है। 2011 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या 3681896 है। जनसंख्या घनत्व 740 वर्ग किमी है। तथा लिंगानुपात 871 है। जिसमें अनुसूचित जाति की कुल आवादी 624684 है। उत्तर प्रदेश राज्य निर्वाचन आयोग ने 2011 की जनगणना के अनुसार ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत व जिला पंचायत के क्षेत्रों का परिसीमन कर ग्राम पंचायत सदस्यों, प्रधानों, क्षेत्र पंचायत सदस्यों तथा जिला पंचायत सदस्यों की संख्या में वृद्धि की है। इसी के आधार पर निर्वाचन आयोग ने 2015 में उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव कराये। बदायूँ जिले में वर्तमान त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था में अनुसूचित जाति के सदस्यों की स्थिति इस प्रकार है- बदायूँ जनपद में 1037 ग्राम पंचायते हैं जिसमें 145 ग्राम पंचायतें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। परन्तु 2015 के पंचायत चुनाव में 205 प्रधान अनुसूचित जाति के चुनकर आये है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अनारक्षित प्रधान पदों से भी अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि विजयी हुए है। इसी प्रकार जिले में कुल 1198 सदस्य क्षेत्र पंचायत के हैं जिनमें 280 सदस्य अनुसूचित जाति के है- साथ ही साथ कुल 15 क्षेत्र पंचायत प्रमुख में से 03 क्षेत्रपंचायत प्रमुख अनुसूचित जाति से चुनकर आये। इसके साथ ही जिले के कुल 51 जिला पंचायत सदस्यों में से 11 सदस्य अनुसूचित जाति के चुनकर आये जो लगभग 21ः है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दो अनारक्षित जिला पंचायत वार्ड से भी अनुसूचित जाति के जिला पंचायत प्रतिनिधि विजयी रहे। वर्तमान में बदायूँ जिले की जिला पंचायत अध्यक्ष भी अनुसूचित जाति की ही है। अतः बदायूँ जनपद के त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम के अन्तर्गत प्राप्त आरक्षण व्यवस्था द्वारा ही अनुसूचित जाति के सदस्यों की पंचायती राज व्यवस्था में भागीदारी सुनिश्चित हो सकी है। 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम भारतीय लोकतन्त्र में अनुसूचित जाति के लोगों की राजनैतिक सहभागिता की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ। यह प्रमुख रूप से लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया में समाज के सभी वर्गो को राजनीतिक सहभागिता प्रदत्त करने हेतु परिलक्षित रहा है। इस अधिनियम के उपरान्त अनुसूचित जाति की राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थिति में आमूलचूल परिवर्तन हुआ है। सन्दर्भ सूची:-1. प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार संस्थाऐं- डा0 परमात्माशरण, मीनाक्षी प्रकाशन मेरठ- 1997 ।2. गुप्ता त्रिवेणी प्रसाद एवं उपाध्याय चन्द्रिका प्रसाद पंचायती राज एवं ग्रामीण विकास, किरण बुक कम्पनी इलाहाबाद।3. उपाध्याय विश्वनाथ-ग्राम सभा, सम्पत्ति सुरक्षा एवं प्रबन्ध, अखिल भारतीय विधि ग्रन्थ अकादमी लखनऊ।4. भारत का संविधान 73वाँ संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा प्रतिस्थापित अनु0 243 ।5. राय के0के0, उ0प्र0 क्षेत्र पंचायत तथा जिला पंचायत अधिनियम एलिया ला एजेन्सी इलाहाबाद 2009 ।6. बदायूँ गजेटियर ।7. पंचायती राज विभाग, विकास भवन, बदायूॅ से संकलित की गयी सामग्री।8. राष्ट्रीय सहारा दिसम्बर 2015 ।
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