ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
We promote high quality research in diverse fields. There shall be a special category for invited review and case studies containing a logical based idea.

धर्म एवं राजनीति में सम्बन्ध

प्रोफेसर डॉ0 सर्वजीत सिंह
विभागाध्यक्ष राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय महाविद्यालय, पतलोट (नैनीताल)

भारतीय दर्शन में धर्म की अवधारणा काफी व्यापक है व्यक्ति जीवन में जो धारण करता है वही धर्म है। वैसे धर्म एवं राजनीति का सम्बन्ध सदियों पुराना है यह कोई नई अवधारणा नहीं है। आदिम अवस्था में सबसे पहले उसे धर्म की आवश्यकता महसूस हुई वह या तो प्रकृति के ताण्डव से डर गया या उसे जोे सुख प्रदान किया वह उसी की पूजा करने लगा। यहीे से धर्म की उत्पत्ति हुई। बाद में इसमें समय-समय पर पैगम्बरों का आगमन हुआ और दुनिया हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, पारसी आदि में बँट गयी। इन पैगम्बरों ने शान्ति, अहिंसा का मार्ग दिखलाया लोगों को नैतिकता का पाठ पढ़ाया।
मानव सभ्यता के साथ धर्म की उत्पत्ति के साथ हीे कानून की आवश्यकता महसूस हुई जिससे एक सभ्य समाज स्थापित किया जा सकें। कानून के निर्माण लागू एवं व्याख्या हेतु सत्ता एवं शक्ति का विकास हुआ इसी विकास की कड़ी में धर्म एवं राजनीति में कभी सामंजस्य कभी संघर्ष देखने को मिला यह समय काल परिस्थितियों के अनुसार अपने में परिवर्तन लाता रहता है। वर्तमान समय में समाज के ठेकेदारों एवं नेताओं ने धर्म का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिये किया तो यहीे पर धर्म में कट्टरता आया। आज हमें इसका विस्तृत रूप देखने को मिलता है। धर्म एक प्रकार की छुरी है, अगर इसका इस्तेमाल स्वार्थ के वशीभूत होकर किया जाए तो यह विनाश का कारण भी बनती है जैसे साम्प्रदायिकता, कट्टरता आदि।
भारत में साम्प्रदायिकता और वोट राजनीति दोनों की शुरूवात लगभग एक साथ हुई है इसलिए यह मान लेने में कोई खास हर्ज नहीं कि दोनों का एक-दूसरे से बहुत करीबी रिश्ता है और यह विश्मयकारी भी नहीं है।
धर्म और राजनीति का बड़ा गहरा एवं पुराना सम्बन्ध रहा है जहाँ से राजनीति की शुरूवात मानी जाती है, यूनानी नगर राज्यों में जहाँ प्लेटो ने नीतिशास्त्र एवं राजनीति को एक हीे अन्वेषण के दो पक्ष माना। नीतिशास्त्र कार्य प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक अच्छे जीवन का निर्धारण करना जो धर्म का कार्य था और राजनीति का कार्य था ऐसे समाज का स्वरूप ज्ञात करना जहाँ नीतिशास्त्र एवं विवेक द्वारा निर्धारित अच्छा जीवन-यापन किया जा सके। यदि युरोप के इतिहास का अध्ययन करें तो हमें यही बात देखने को मिलगी हम जितना पीछे जायेंगे उतना ही राजनीति पर हम धर्म का प्रभाव देख पायेंगे।
धर्म एवं राजनीति का सामंजस्य मानवीय सभ्यता के युग से ही देखने को मिलता है। धर्म सदैव कहता है कि मनुष्य जो कुछ इस जन्म में पाता है, वह उससे पूर्व जन्म के कृत्यों का फल है। इसी का आश्रय लेकर धर्म ने सदैव निरीह जनता पर अत्याचारों को पनपया है। राजा धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि है। उसका विरोध करना या उसके विरूद्ध कुछ सुनना ईश्वर का अपमान है, यदि राजा किसी को सजा देता है तो उसके पूर्व जन्मों का फल है। यदि राजा गलत है तो जनता विराध करने का अधिकार नहीं था वरन् राजा को ईश्वर दण्ड देगा इस आधार पर धर्म एवं राजनीति दोनों ने आपसी ताल-मेल बनाकर जनता को गुमराह किया जिसकी परिणति 1789 के क्रान्ति के रूप में हुई। राजा को जनता ने फाँसी पर लटका दिया और वहीे से इस सिद्धान्त का अन्त एवं लोक तन्त्र की शुरूवात मानी जाती है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि धर्म का राजनीति पर असाधारणा प्रभाव रहा है यही कारण है कि पहले धर्म विरोधी व्यक्ति को न कोई चुनना चाहता था, न देखना चाहता था धर्म के नाम पर धर्माचार्य राजाओं से कुकृत्य कराते थे। मध्यकालीन पोरप में धर्म शोषण एवं दमन का पर्यायवाची बन गया था। इस काल को अन्ध युग के नाम से भी जाना जाता है। इसमें पाखण्ड, झूठ, कर्मकाण्ड, कट्टरता आदि ने बुरी तरह से पैर पसार रखा था। धर्म के विरूद्ध एवं विपरित कुछ भी कहने वालों को मौत की सजा दे दी जाती थी तथा अनेक विचारकों को धर्म विरोधी कहकर मौत के घाट उतार दिया जाता था इसाई धर्म के प्रचार के नाम पर अंग्रेजों ने संसार के बहुत बडे भाग पर अपना दमन चक्र लगाया, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, उ0 अमेरिका एवं एशिया महाद्वीपों में धर्म की आड़ में इन्होंने अनेक कुकृत्य किये और इसाई पादरियों ने उनका समर्थन किया। उ0 अमेरिका में रेड इण्डियनों का सफाया करवाने हेतु ईसाई पादरी बाइबिल का हौव्वा देकर करोड़ों की हत्या कराकर ईश्वरीय आदेश कहते थे। वास्तविकता यह है कि धर्म की चादर ढ़ककर समस्त जघन्य कार्यो को धार्मिक बनाया जाता है। उसका प्रयोग सभी धर्मो ने अपने दायरे में खुलकर किया। इस्लाम धर्म के कट्टरपंथियों ने धर्म के नाम पर कफिरों की हत्याएं की वह किसी से छिपी नहीं है। यही कारण है कि कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम बतलाया एवं तीखी आलोचना की एवं धर्म को पीड़ित मानवता का करूण क्रन्दन कहा।
भारतीय राजनीति मे मध्यकालीन विचारकों में सेण्ट टामस एक्वीनास ने धर्म राजनीति में सामंजस्य बनाने का प्रयास किया। एक्वीनास ने कहा कि पानी के जहाज रूपी संसार का राजा बढ़ई है तो पोप चालक है यहाँ पर पोप की महत्ता को कुछ ज्यादा स्वीकार किया लेकिन आधुनिक युग की शुरूवात में मैकियावेली से माना जाता है। वह राजनीति विज्ञान का प्रथम विचारक है, जिसने धर्म को व्यक्ति का निजी मामला एवं राजनीति को महत्वपूर्ण माना एवं राजनीति से धर्म को अलग कर दिया क्योंकि वह वक्त की जरूरत थी उसे इटली का एकीकरण करना था। उसके राह में धर्म आडे़ आ रहा था। भारत में यह देखा गया है कि जब भी सभी धर्मो क खिलाफ कोई विधेयक आता है तो सभी धर्मो के पुजारी मुल्ला पादरी एक हो जाते हैं लेकिन स्वार्थ के वशीभुत धार्मिक आधार पर भारतीय समाज का ताना-बाना तोड़ने में भी पीछे नहीं रहते है।
धर्म एवं राजनीति का दूसरा पहलू यह है कि गांधी जी ने राजनीति और धर्म को एक दूसरे का पर्याय मानते थे। उनकी मान्यता थी धर्म के बिना राजनीति बकवास है, वे रामराज्य की परिकल्पना करते हैं लेकिन गांधी जी का धर्म कट्््टरता, अन्धविश्वास एवं कर्मकाण्ड का धर्म नहीं था वरन्््् जाति क्षेत्र, भाषा सम्प्रदाय से ऊपर उठा हुआ धर्म था। जहाँ पर कोई ऊँच-नीच, जाति-पाति, छुआछुत नहीं होगा बल्कि सत्य, अहिंसा, स्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, परोपकार का सिद्धान्त होगा।
आज व्यक्ति इतना पाखण्डी कर्मकाण्डी हो गया है कि अपनी पुरानी गलतियों को परम्परा की आड़ में छिपाता है, नई गलतियों को आधुनिता की आड़ में छिपाना चाहता है। धार्मिक व्यक्ति राजनीति की शरण लेकर कुकृत्यों पर पर्दा डालना चाहता है। राजनीति व्यक्ति धर्म की आड़ लेकर अपने आपको इस लोक तथा परलोक को बचाना चाहता है। भारतीय समाज में कर्म काण्डीय अर्थव्यवस्था जब तक जिन्दा रहेगी तब तक व्यक्ति धर्म की आड़ में गुनाहों को अन्जाम देता रहेगा। धर्म का आड़ लेकर राजनेता, साधु, साध्वी, सभी उच्च पद पर आसीन होते है। यदि कुर्सी चली गयी तो जो ताण्डव करते है वह किसी से छिपी नहीं है। आज भारतीय राजनीति मे 20 प्रतिशत सन्त महात्मा साध्वी लोगों का कब्जा चाहे विधान सभा हो या संसद हो, अच्छे लोग राजनीति में आते हैं पर राजनीति में आते ही वे वही कार्य करते है जो एक आम माफिया, अपराधी, भ्रष्टाचारी करता है यह धर्म एवं राजनीति का बिगड़ा हुआ रूप है । वे धर्म की बात तो करते है लेकिन उसकी आड़ में एयर कंडीशर गाड़ियों, फाइव स्टार होटलों यहां तक कि कुर्सी के लिये अंतर्गत प्रलाप भी करते है।
धर्म एवं राजनीति का मेल तो होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए कि धर्म की आड़ में छुआछुत को बढ़ावा मिले शाहवानों जैसी महिला अपने अधिकारों से वंचित कर दी गयी एवं वोट बैंक की राजनीति के चलते जनसंख्या गरीबी, अशिक्षा, बुनियादी जरूरत की चीजें रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ आदि की तरफ ध्यान न दिया जाये, राज नेताओं को भी ध्यान देना होगा किसी को बेवकूफ बहुत दिनों तक नहीं बनाया जा सकता। राजनीति में धर्म एक बहुत बड़ा दबाव समूह का कार्य करता है तथा नेता बड़ी चालाकी से धर्म की आड़ लेकर राजनीति को नयी दिशा दे देते है।
धर्म और राजनीति दोनों में कर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यकतानुसार कार्य करना पड़ता है। कर्म से कोई मुक्त नहीं है, एक अत्यन्त उच्च स्तरीय आध्यात्मिक पुरूष अथवा उसके विपरीत वैचारिक क्षमता से हीन व्यक्ति ही बिना कर्म के रह सकता है। इन दोनो श्रेणियों के मध्यवर्ती लोगों को कार्य करना ही पड़ता है। गीता कहती है- यदि तुम स्वेच्छा से कार्य नही करोगे तो प्रकृति तुमसे बलात कर्म करायेगी और सही भावना से कार्य करें तो वे अपने कार्यों को आध्यात्मिक स्तर तक उठा सकते है। यह समय की पुकार है जो राजनीति में प्रवेश लेना चाहते हैं, वे यह कार्य एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण लेकर, परोपकारिता में प्रवेश लेना चाहते हैं वे यह कार्य एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण लेकर परोपकारिता का उच्च भाव लेकर करें और दिन-प्रतिदिन आत्मविश्लेषण, अन्तदृष्टि, सतर्कता और सावधानी के साथ अपने आप का परीक्षण करें जिससे वे सन्मार्ग से च्युत न होने पावे इस प्रकार धर्म और राजनीति के बीच समन्वय का सूत्रपात होगा। राजनीति, भ्रष्टाचार से रक्षा पायेगी और धर्म एक व्यापक दृष्टि प्राप्त करेगा। केवल इस प्रकार ही संसार को नाश से बचाया जा सकता है तथा संस्कृति और सभ्यता के भविष्य को सुरक्षित रखा जा सकता है।
धर्म और राजनीति दोनों सदियों से व्यक्ति एवं समाज पर गहरा प्रभाव डालने वाले विषय रहे हैं, दोनों ने ही मानव सभ्यता के विकास में अहम भूमिका निभायी है और समय-समय पर मानव इतिहस की नई दिशा भी दी है। इतिहास ने धार्मिक केन्दों को राजनीतिक सत्ता-केन्द्र के रूप में भी कार्य करते देखा है। वैसे तो हमेशा धर्म और राजनीति को हमेशा एक दूसरे से अलग माना जाता रहा है, मगर आज के समय में ये एक दूसरे को पूरक कहा जाना गलत नहीं होगा राजनीति संस्थाएं लोगों में विश्वास तथा उनका प्रतिनिधित्व दर्शाने के लिए धर्म तथा धर्म से जुडी आस्था विश्वास व परम्पराओं का सहारा लेते हैं दूसरी तरफ आज हर धर्म की अपनी संस्थाएं जा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष तौर पर राजनीतिक दलों को अपना समर्थन देती हैं, तथा लोगों से अपील भी करती है, भारत मे राजनीति एवं धर्म व राजनीति का संबन्ध गहरा है, जब जब सताधारी पक्ष अपनी राह भटके है, धार्मिक संतों व महापुरूषों द्वारा उन्हें सही राह पर लाने का यत्न हुआ है।
भारत में कई ऐसे महापुरूष हुए हैं, जिनमें महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी तथा महात्मा गांधी आदि धर्म व राजनीति के संगम रहे हैं एक तरह ये लोग धर्म से जुड़े हुए थे दूसरी तरफ सत्ताधारी पक्ष को गलत राहों के प्रति अपना विरोध जताकर, मानवीय मूल्यों तथा सिद्धान्त का प्रचार-प्रचार कर समाज को हर राह पर लाने का प्रयास किया, दूसरे शब्दों में यदि राजनीति शरीर हैं तो उसमें व्याप्त आत्मा धर्म ही हैं, दोनों को पृथक किया जाना संभव नहीं है।
भारत की स्वतंत्रता के बाद इन सत्ता लोलुप शासकों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए हमेशा धर्म की आड़ली, कटट्रता, भड़काऊ भाषण के द्वारा एक पक्ष को आहत कर दूसरे पक्ष की सहानुभूति हासिल करने की गंदी राजनीति आजादी मिलने से आज तक चली आ रही है, इस तरह की यह झुठी साम्प्रदायिकता भारत के भविष्य के लिए सबसे बडा खतरा है, जिनका पोषण हमारे राजनेता करते हैं।
राजनीतिशास्त्र में राजनीति को उन सिद्धान्तों के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिनसे शासन करने के लिए नीतिया अपनाई जाती है साथ ही राजनीति सत्ता तक पहुचने का एक रास्ता भी हैं आदिकाल से ही राजनीति को शक्तिशाली लोगों का खेल माना गया है, जिसके पास अधिक ताकत होती थी जो इसमें फतह कर जाता था धर्म में सबसे अधिक शक्ति होती थी, शक्ति का केन्द्र धर्म ही होने के कारण हमेशा से सत्ता तक पहुचने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं।
मानवीय मूल्यों का पाषण धार्मिक जीवन तथा शान्ति एवं सदभावना जैसे धर्म के मुख्य स्तम्भ है, वही राजनीति का उदेश्य भी मानवीय मूल्य जीवन मूल्यों तथा शान्ति व्यवस्था को कायम करना है, भारत हमेशा से सहिष्णुता का पुजारी रहा है, कई विदेशी जातियों ने यहाँ आक्रमण किया तथा यही पर बस गये अपने अतीत गौरव के अनुसार जब भारत का संविधान बना तो इसे एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में मान्यता दी गई।
धर्म के नाम पर हम अपने वतन का बंटवारा झेल चुके हैं भारत के लोगों का अब जागना होगा इन सत्ता के भूखें इन गीदड़ों की चाल में अब हमें नहीं आना होगा देश मे यूरोपीय देशों की तरह धर्म मुक्त राजनीति बनाने की आवश्यकता है तभी इस देश का भला हो सकता है पवित्र धर्म को राजनीति के गन्दे खेल में घसीटने की अनुमति न गीता देती न कुरान न ही बाइबल या गुरू ग्रंथ साहिब।
हमारा धर्म चुनना हमारी स्वतंत्रता है इसका मतलब यह नहीं कि हम हर बात को धर्म के नजरिये से ही देखे अब वक्त आ चुका है धर्म व राजनीति में साठ गाठ करने वालों की दुकाने बन्द होनी चाहिए क्योकि धर्म व्यक्ति की आस्था परम्परा व इतिहास है इसे व्यक्ति तक ही रहने दिया जाय न कि विवाद के साथ राजनेताओं के पक्ष-विपक्ष का मुद्दा धर्म की अलग-अलग परिभाषाएं भी हमारे पूर्वजों द्वारा गढ़ी गई है। कहीं धर्म को धारण करने के रूप में परिभाषित किया गया है तो कहीं इसे मनुष्य की आस्था तथा उसके विश्वास के साथ जोड़ा गया है। कुल मिलाकर हम यह कह सकते है कि किसी आध्यात्मिक शक्ति अथवा आध्यात्मिक व्यवस्था के प्रति मनुष्य की आस्था को ही हम धर्म कहते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि धर्म की व्यवस्था स्हस्त्राब्दियों पुरानी है। यह भी सत्य है कि धर्म का मार्ग दिखाने वाले हमारे प्राचीन धर्मगुरूओं ने समाज में इस धर्म रूपी व्यवस्था को इसलिए लागू व प्रचलित किया ताकि मानव जाति के दिलों में एक दूसरे के प्रति प्रेम, भाईचारा, सहयोग, एक दूसरे के दुखः तकलीफों को समझना, दीन दुखियांे की मदद करना, गरीबों, असहायों, बीमारों आदि के प्रति सहयोग व सहायता करना जैसे तमाम सकारात्मक भाव उत्पन्न हों। इसी धर्म का सहारा ले कर हमारे पूर्वजो तथा धर्मगुरूओं ने हमें बुरे कामों के बदले पाप तथा नर्क के भागीदार बनने जैसी काल्पनिक बातों से भी अवगत कराया। आज लगभग प्रत्येक धर्म में यह बात स्वीकार की जाती है कि मनुष्य द्वारा जीवन में किए गए सद्कार्याे का फल उसे मरणोपरांत स्वर्ग के रूप प्राप्त होता है। जबकि दुष्कर्म करने वाला व्यक्ति पाप का भागीदार होता है तथा वहा मरणोपरांत नर्क में जाता है।
धर्म से सम्बन्धित उपरोक्त तथ्य कितने सही हैं और कितने गलत इन्हें आज तक न तो कोई प्रमाणित कर सका है और संभवतः भविष्य मे भी इन्हें प्रमाणित नहीं किया जा सकेगा। परन्तु धर्मरूपी व्यवस्था से एक बात जरूर साफ हो जाती है कि इंसान के पूर्वजों ने धर्म नामक व्यवस्था का संचालन मात्र इसीलिए किया था ताकि इंसान सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए अपने जीवन में अच्छे कार्यों को करे तथा अच्छी बातों को अपनाएं। और साथ ही साथ बुरे रास्तों व बुराईयों से दूर रहे। इन धार्मिक व्यवस्थाओं अथवा परंम्पराओं के संचालन के हजारों वर्षाे बाद आज के उस दौर में जबकि मनुष्य पहले से कहीं अधिक सक्षम, समझदार व सामर्थ्यवान हो गया है, यह सवाल उठने लगा है कि क्या यह धार्मिक व्यवस्था हमारेे पूर्वज धर्मगुरूओं की आशाओं पर खरी उतर रही है। या फिर आज यह धार्मिक व्यवस्था अथवा धर्म उसी मानव जाति के लिए सबसे बड़ा खतरा बना दिखाई दे रहा है। और यदि ऐसा है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है। धार्मिक व्यवस्थाओं की शुुरूवात करने वाले हमारे पूर्वज या कुछ ऐसे लोग जो उसी धर्म के स्वयंभू ठेकेदार, धर्माधिकारी अथवा उत्तराधिकारी बने बैठे हैं। क्या वजह है कि कल तक आस्था,विश्वास एवं श्रद्धा की नजरों से देखा जाने वाला धर्म अब भय, आंतक तथा हिंसा का पर्याप्त बनता जा रहा है। धर्म को इस स्थिति तक पहुचाने वाले लोग आखिर हैं कौन।
राजनीतिज्ञों के ऐसे प्रयासों के परिणामस्वरूप सत्ता प्राप्ति की उनकी स्वार्थपूर्ण इच्छा तो भले ही कुछ समय के लिए पूरी हो जाती है। परन्तु मानवता उन सत्ताधीशों को कतई मांफ करने को तैयार नहीं होती जिनके सत्ता के सिंहासन की बुनियाद बेगुनाह लोगों के खुन से सनी होती है। अब यहां प्रश्न यह है कि क्या भविष्य में भी यह विसंगतियां यंू ही जारी रहेगी या फिर इनमें भारी बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है। दरअसल हमें यह बात पूरी तरह समझ लेनी चाहिए कि किसी भी धर्म का कोई भी धर्मगुरू यदि हमें धर्म के नाम पर बांटने या धर्म के नाम पर नफरत फैलाने, हिंसा पर उतारू होने, एक दूसरे इंसान का खुन बहाने का पाठ पढ़ाता है या इसके लिए उकसाता है तो इसके पीछे उसका मंकसद धर्म के प्रति उसका लगाव या प्रेम कतई नहीं है बल्कि वह इस रास्ते पर चलते हुए या तो अपनी रोजी-रोटी पक्की कर रहा है या फिर किसी राजनैतिक निशाने पर अपने तथाकथित धर्मरूपी तीर छोड़ रहा है। ऐसे दूराग्रही राजनैतिक लोग निश्चित रूप से अपने साथ धार्मिक लिबासों में लिपटे तथाकथित ढांेगी एवं एवं पाखड़ी धर्माधिकारीयों से कभी किसी शिक्षित व्यक्ति का साक्षात्कार हो तो इन ढ़ोगियों के ज्ञान की गहराई का आसानी से अंदांजा भी लगाया जा सकता है। हमें निश्चित रूप से यह मान लेना चाहिए कि धर्म व राजनीति के मध्य रिश्ता स्थापित कर यदि कोई नेता अथवा धर्मगुरू हमसे किसी पार्टी विशेष के लिए वोट मांगता है तो ऐसा व्यक्ति अथवा संगठन हमारी धार्मिक भावनाओं से खिलवाड करने की ही कोशिश मात्र कर रहा है समाज कल्याण से दरअसल उस व्यक्ति या संगठन का कोई लेना देना नहीं है। धर्म वास्तव में किसी भी व्यक्ति की आस्थाओं तथा विश्वास से जुड़ी एक ऐसी आध्यात्मिक विषय वस्तु है जो किसी भी व्यक्ति का व्यक्ति गत रूप से ही संतोष प्रदान करती है। अतः हम यह कह सकते हैं कि धर्म किसी सामूहिक एजेंडे का नहीं बल्कि किसी की अति व्यक्तिगत विषय वस्तु का नाम है। ठीक इसके विपरीत जो शक्तियां धर्म के अपने राजनैतिक स्वार्थ के कारण सड़कों पर लाना चाहती है वे शक्तियां भले ही धार्मिक वेशभूषा में लिपटी हुई तथा धर्म के नाम पर ढोंग व पाखण्ड रचाती क्यों न नंजर आए परन्तु हकीकत में यही ताकतें हमारे मानव समाज, राष्ट्र यहां तक कि किसी भी धर्म की भी सबसे बडी दुश्मन है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-
1 – मनुस्मृति -2/1 भारतीय विद्यया भवन बम्बई1975।
2 – मुण्डकोपनिशद-सत्यमेव जयते
3 – मिश्र हृदय नारायण (डॉ0) सामाजिक राजनीतिक दर्शन, शेखर प्रकाशन, इलाहाबाद
4 – मिश्र हृदय नारायण (डॉ0) तुलनात्मक धर्म, शेखर प्रकाशन इलाहाबाद 2008
5 – राधाकृष्णन (डॉ) प्राच्य धर्म और पश्चात्य विचार राजपाल एण्ड सन्स् दिल्ली।
6 – राधाकृष्णन (डॉ) प्राच्य आइडियालिस्ट ब्यू ऑफ लाइफ मैक मिलान लन्दन, 1957।
7 – राधाकमल मुखर्जी हिन्दू सभ्यता राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली।
8 – मेकेन्जी जे0एस0 नीतिप्रवेशिका राजकमल प्रकासशन नई दिल्ली 1964।
9 – यूनानी राजनीतिक सिद्धान्त-सर अर्नेस्ट वार्कर हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निर्देशालय दिल्ली विश्वविद्यालय।

Latest News

  • Express Publication Program (EPP) in 4 days

    Timely publication plays a key role in professional life. For example timely publication...

  • Institutional Membership Program

    Individual authors are required to pay the publication fee of their published

  • Suits you and create something wonderful for your

    Start with OAK and build collection with stunning portfolio layouts.