-डॉ. वन्दना जायसवाल
एसो.प्रो., राजनीति विज्ञान एवं लोक प्रशासन विभाग
का.सु. साकेत पी.जी. कॉलेज, अयोध्या
राजनीतिक दर्शन की प्रथम इकाई है राष्ट्र की रक्षा तथा जनता के मूलाधिकारों की सुरक्षा। राष्ट्र शब्द भारत के लिए नवीन नहीं है। अथर्ववेद का कथन है कि ‘‘जिस राष्ट्र में विद्वान सताये जाते हैं, वह विपत्तिग्रस्त होकर वैसे ही नष्ट हो जाता है जैसे टूटी नौका जल में डूब कर नष्ट हो जाती है।’’1 ऋषि के कथन का तात्पर्य है कि कोई भी राष्ट्र तभी मजबूत रह सकता है जब विविध क्षेत्र के विद्वानों का समादर होता रहे। ऋग्वेद में वाग्देवी (वागम्भृणी) स्वयं को राष्ट्री कहती है।2 जयशंकर प्रसाद ने जोर देकर कहा है कि ‘‘राजनीति के सिद्धान्त में राष्ट्र की रक्षा सब उपायों से करने का आदेश है इसलिए राजा, रानी, कुमार और अमात्य सब का विसर्जन किया जा सकता है किन्तु राज्य विसर्जन अन्तिम उपाय है।’’3 व्यक्ति की अपेक्षा राष्ट्र की सर्वोपरि है। इसीलिए अनेक महावीरों ने देश की रक्षा के लिए हँसते-हँसते प्राणों को राष्ट्र को समर्पित कर दिया। जब-जब राष्ट्र की एकता और सुरक्षा की बात उठेगी तब-तब आचार्य चाणक्य का स्मरण आयेगा। आचार्य चाणक्य मात्र भारत राष्ट्र की सम्प्रभुता के रक्षक ही नहीं थे बल्कि वे महान् अर्थशास्त्री, कूटनीतिज्ञ एवं राजनीतिज्ञ थे। भारत के प्राचीन राजनीतिक विचारकों में आचार्य वृहस्पति, आचार्य शुक्र तथा मनु आदि का नाम सुप्रतिष्ठ है। फिर भी आचार्य चाणक्य का इन मनीषियों में विशिष्ट स्थान है। चाणक्य शब्द का अभिप्राय है- वह व्यक्ति जो चणक ऋषि के वंश या गोत्र में उत्पन्न हुआ हो। कहा जाता है कि आचार्य चाणक्य के पिता का नाम चणक था। अर्थशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य और चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री विष्णुगुप्त का एक नाम चाणक्य था।4 विशाखदत्त ने ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक में चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा आचार्य चाणक्य की सहायता से अन्तिम नन्द राजा से मगध का राजसिंहासन छीन लिये जाने की ऐतिहासिक घटना का उल्लेख है। विशाखदत्त का समय गुप्तकाल का उत्तरार्द्ध माना जाता है। चन्द्र्रगुप्त मौर्य का कार्यकाल 322 से 298 ई.पू. का है। आचार्य चाणक्य ने ‘अर्थशास्त्र’ की रचना की जो संस्कृत में राजशास्त्र का सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है।5
आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व आचार्य चाणक्य एक ऐसे प्रतिभाशाली सिद्धान्तकार थे जो समाज की प्रगति के लिए प्राचीन एवं रूढ़िवादी परम्पराओं के विरुद्ध संघर्ष करना अनिवार्य समझते थे। आचार्य चाणक्य का राजतन्त्र एक सामाजिक संस्थान प्रतीत होता है न कि किसी राजा विशेष का वैभव स्थापित करना। उनके द्वारा स्थापित मान्यताओं के समय भारत में राजतन्त्र था फिर भी उन सिद्धान्तों में लोकतन्त्र के मौलिक मूल्य सन्निहित थे। किसी भी कार्य को निर्धारित अवधि में कर लिया जाय तो समाज तथा अर्थ की दृष्टि से सर्वथा उचित है क्योंकि कालातीत शब्द ही अच्छा नहीं माना जाता। आजकल समाचारपत्रों में अनेक ऐसी घटनाओं का उल्लेख मिलता है जिसमें समय पर कार्य न होने से निर्धारित लागत मूल्य कई गुना बढ़ जाती है और जिन्हें उस योजना का लाभ मिलना चाहिए उससे वे वंचित रह जाते हैं। इसका कुप्रभाव राजकोश तथा जनता पर सीधे पड़ता है। आचार्य चाणक्य की मान्यता है कि राजा को चाहिए कि वह पहिले उस कार्य को देखे जिसकी मियाद बीत चुकी है। वह उसे देखने में अधिक विलम्ब न करे क्योंकि इस प्रकार अवधि बीत जाने पर कार्य या तो कष्ट साध्य हो जाता है अथवा सर्वथा असाध्य हो जाता है।6 आचार्य चाणक्य का स्पष्ट मत है कि शासक को कर्मशील होना चाहिए। उद्योग करना, यज्ञ करना, अनुशासन करना, दान देना, शत्रु और मित्रों में- उनके गुणदोषों के अनुसार समान व्यवहार करना, दीक्षा समाप्त कर अभिषेक करना, ये सब राजा के नैमित्तिक व्रत हैं।7 आचार्य चाणक्य के इन शब्दों में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा स्वयमेव परिलक्षित होती है। उद्योगी व्यक्ति के पास लक्ष्मी स्वयं निवास के लिए आती हैं। उद्योगांे की स्थापना अनेक नागरिकों को जीविकायापन के सुअवसर प्राप्त होते हैं। शासक को चाहिए कि वह व्यक्तिगत रूप से कर्मशील हो तथा नागरिकों में उद्योग भावना का विकास करे। इस तथ्य की आज अति आवश्यकता है। आज बढ़ती जनसंख्या की बेरोजगारी को उद्योगों की स्थापना तथा नागरिकों को कला-कौशल (स्किल) से समन्वित कर यह कार्य आसानी से पूरा किया जा सकता है। यज्ञ से वातावरण शुद्ध होता है। आज के परिवेश में यज्ञ करना पर्यावरण को पवित्र बनाना है। आज का पर्यावरण कितना प्रदूषित और हानिकारक हो चुका है, यह सर्वविदित है। आज व्यक्तिगत और राज्य स्तर पर पर्यावरण संरक्षण की अत्यन्त आवश्यकता है। अनुशासन व्यक्ति को महान बनाता है। संयम का प्रथम सोपान अनुशासन ही है। जब शासक स्वयं को अनुशासन में रखेगा तभी नागरिक भी अनुशासन का पालन करेंगे। अनुशासन लोकतन्त्र का आधार स्तम्भ है। अनुशासित व्यक्ति ही सफल होता है। अनुशासनहीन की कोई सामाजिक मर्यादा नहीं होती। प्रकृति में अनुशासन है। उसी प्राकृतिक अनुशासन को ऋत कहते हैं जिससे प्राकृतिक तत्त्व आबद्ध रहते हैं। सूर्य यथा समय उगता और डूबता है। दिन के पश्चात् रात्रि तत्पश्चात् दिन प्रकृति का नियम और अनुशासन है। हमारे पूर्वजों ने हर आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) के लिए अलग-अलग नियम और अनुशासन की व्यवस्था दी है। अनुशासन सर्वकालीन महत्त्व का विषय है। दान देने की राजकीय परम्परा अति प्राचीन है। दान तो सर्वप्रथम उसे मिलना चाहिए जो अशक्त हैं, गरीब हैं। कोरोना काल में अनेक असहायों को राज्य की तरफ से खाद्यान्न प्रदान किये गये। सामाजिक संस्थाओं ने भी इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिये हैं। यदि लोकतन्त्र को हमें मजबूत रखना है तो राज्य को गरीबों को यथासम्भव अधिक से अधिक मदद करने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। राज्य की रक्षा के लिए शासक को अपने शत्रु, मित्र की पहचान रखनी चाहिए। किसी पड़ोसी राज्य को कमजोर देखकर उसकी उपेक्षा और किसी पड़ोसी सम्पन्न राज्य को मजबूत देखकर अनावश्यक रूप से जी हुजूरी से बचना चाहिए। शासक को मित्रता तथा शत्रुता के निर्वाह के सन्दर्भ में आँख खुली रखनी चाहिए, विवेक जाग्रत रखना चाहिए। गुण दोषों की परीक्षा कर यथोचित व्यवहार करना व्यक्तिगत तथा राजनीतिक जीवन में सफलता का सिद्ध सूत्र है। दीक्षा समाप्त कर वह दीक्षान्त समारोह में हो- गृहस्थाश्रम की ओर चलने को तैयार हो तो शासन को ऐसा व्यवस्थित वातावरण तैयार करना चाहिए जिसमें विद्या का, ज्ञान का, शिक्षा का तथा कला कौशल का समुचित उपयोग हो सके। विद्याध्ययन के पश्चात् विद्यार्थी स्वयं को किसी काम के अयोग्य न समझे। तात्पर्य यह है कि विद्यार्थी की शिक्षा ऐसी हो जो अर्थकारी हो और आत्मनिर्भर बनाती हो। आचार्य चाणक्य के उक्त सिद्धान्त भले ही ढाई हजार वर्ष पुराने हों पर उनकी प्रासंगिकता सार्वकालिक है। इन्हीं सब कारणों के परिप्रेक्ष्य में आचार्य चाणक्य का राजनीतिक दर्शन लोकतन्त्र को मजबूत करता है।
आचार्य चाणक्य राजा के कर्त्तव्यों का निर्धारण करते हुए आगे लिखते हैं कि ‘‘प्रजा के सुख में राजा का सुख और प्रजा के हित में राजा का हित है। अपने आपको अच्छे लगने वाले कार्यों को करने में राजा का हित नहीं, बल्कि उसका हित तो प्रजाजनों को अच्छे लगने वाले कार्यों के सम्पादन करने में है।’’8 रामराज्य की यही विशेषता है कि उस समय प्रजा हर प्रकार से सुखी थी सभी स्वधर्म का पालन करते थे। सब में परस्पर प्रीति थी।9 भारतीय संविधान की पृष्ठभूमि में उद्देशिका में साफ-साफ कहा गया है कि समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय मिलेगा। सबको उपासना की स्वतन्त्रता होगी तथा सबको प्रतिष्ठा और अवसर की समता उपलब्ध करायी जायेगी। आचार्य चाणक्य के उक्त विचारों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में आसानी से देखा जा सकता है जिसमें कहा गया है कि ‘‘राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।’’ अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध करता है। आचार्य चाणक्य राजा और प्रजा में सर्वोपरि हित प्रजा का ही मानते हैं। यही लोकतन्त्र के स्थायी होने का गुणसूत्र है।
आज विश्व को ‘वैश्विक ग्राम’ ग्लोबल विलेज कहा जा रहा है। तात्पर्य यह है कि हमारे सम्बन्ध विदेशों के साथ प्रगाढ़ होने चाहिए। विदेशों के साथ सम्बन्ध मजबूत करने में विदेश व्यापार का विशेष स्थान होता है। आचार्य चाणक्य इस समुद्री मार्ग से व्यापारिक यात्रा करते समय यान भाटक (जहाज का किराया) पथ्यदन (मार्ग का भोजन), पण्य प्रतिपण्यार्थ (निर्यातित एवं आयातित पण्य की मूल्य विवेचना), यात्राकाल, भय प्रतिकार (समुद्री दस्युओं से प्रतीकार) पण्यपत्तन (किस बन्दरगाह पर कितने समय रुकना है आदि) और वहाँ के आचार-विचार आदि का ज्ञान रखना चाहिए।’’10
आचार्य चाणक्य ने जिस न्याय व्यवस्था की अवधारणा प्रस्तुत की है वह सर्वकालीन प्रासंगिक है। हमें अपने लोकतन्त्र को सबल बनाने के लिए इन गुणसूत्रों को अपनाना होगा। आचार्य चाणक्य कहते हैं ‘‘नाबालिग बच्चे की सम्पत्ति पर गाँव के वृद्ध पुरुषों का अधिकार रहे। उसको वे बढ़ाते रहें और बालिग हो जाने पर उसकी सम्पत्ति उसे वापस कर दें। इसी प्रकार देव सम्पत्ति पर भी ग्राम-वृद्धों का ही अधिकार हो, जो कि उसकी वृद्धि में तत्पर रहें।’’11 बलवान की रक्षा सुरक्षा पक्षपात अनेक लोग करते हैं परन्तु यथार्थ मानवीय मूल्य की स्थापना तब होती है जब निर्बल की रक्षा हो, नाबालिग के वैधानिक अधिकार सुरक्षित रहें। यह सुसंस्कृत समाज का लक्षण है। आचार्य चाणक्य के ये विचार प्रासंगिक तो हैं ही साथ ही मानवता के मार्ग में मंगलदीप हैं- प्रकाश स्तम्भ हैं। आचार्य चाणक्य सदैव उदार हो ऐसी बात नहीं है। वे उन लोगों के प्रति कठोर हैं जो समर्थ होने के बावजूद भी अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करते। आचार्य चाणक्य लिखते हैं कि ‘जब कोई पुरुष समर्थ होने पर भी अपने लड़के, बच्चों, स्त्रियों, माता-पिता, नाबालिग भाई, अविवाहित तथा विधवा बहिन आदि का भरण-पोषण न करे तो राजा उसे बारह पणों (सोने का सिक्का) का दण्ड दे। किन्तु ये लड़के, स्त्री आदि यदि किसी कारण से पतित हो गये हों तो सम्बन्धी उसका भरण-पोषण करने के लिए बाध्य नहीं है। यह निषेध माता के सम्बन्ध में नहीं, माता यदि पतिता भी हो गयी हो तो उसका भरण-पोषण और उसकी रक्षा करनी चाहिए।’12 आचार्य चाणक्य का माता के प्रति विशेष आदर अत्यन्त सराहनीय है। पतित कौन है? मोटे तौर पर जो असामाजिक कार्य करे, जिसके कार्यों से कुल मर्यादा, समाज का ताना-बाना लांछित हो रहा है। ऐसे पतित, असामाजिक व्यक्ति के प्रति किसके मन में सद्भावना रहेगी? आचार्य चाणक्य कृषि कार्य को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान देते हैं। वे नहीं चाहते कि कृषि कार्य में संलग्न कृषकों का चित्त इधर-उधर जाये। उनका मत है कि गाँवों में कोई भी नाट्य गृह, विहार तथा क्रीडाशालाएँ नहीं होनी चाहिए। नट, नर्तक, गायक, वादक, भाण और कुशीलव आदि गाँव में अपना खेल दिखाकर कृषि आदि कार्यों में विघ्न उपस्थित न करें क्यांेकि गाँवों में नाट्यशालाएँ आदि न होने से ग्रामवासी अपने-अपने कृषि कर्म में संलग्न रहते हैं जिससे कि राजकोष की अभिवृद्धि होती है और सारा देश धन-धान्य से समृद्ध होता है।13 समय-चक्र गतिमान रहता है। सत्य यह है कि अब कृषक मेलों का विशेष आयोजन होना चाहिए जिससे नई तकनीक से कृषि उपज और बढ़े और राष्ट्र आर्थिक रूप से समुन्नत हो।
आचार्य क्षेत्रीय मान्यताओं को भी महत्त्व देने के पक्षधर हैं कि ‘सम्पत्ति के विभाजन के प्रश्न’ बहुत जटिल एवं महत्त्वपूर्ण हैं उनके विवाद का निबटारा उस देश, जाति, धर्म, क्षेत्र या ग्राम मंे प्रचलित रीति-रिवाजों को ध्यान में रखकर करना चाहिए।
वस्तुतः आचार्य चाणक्य के राजनीतिक दर्शन मंें लोककल्याण की पृष्ठभूमि, भारत के विश्वगुरु बनने की भूमिका अंकित है। अतएव हमारे नीति-निर्माताओं को निर्णय लेते समय सम्बन्धित प्रकरण में आचार्य चाणक्य की मान्यताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए। आचार्य चाणक्य भारतीय सांस्कृतिक चेतना के मानक कालजयी महापुरुष हैं जिन पर भारतीय इतिहास तथा राजनीतिशास्त्र गर्व करता है।
सन्दर्भ-
1. तद् वै राष्ट्र मा स्रवति नावं भिन्नाभिवोदकम्।
ब्रह्माणं यत्र हिंसन्ति तद् राष्ट्रं हन्ति दुच्छुना।। -अथर्ववेद, 5-19-8
2. अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां- ऋग्वेद
3. प्रसाद, जयशंकर, ध्रुवस्वामिनी प्रथम अंक
4. वर्मा, रामचन्द्र मानक हिन्दी कोश, भाग-2, पृ. 229
5. भट्टाचार्य सच्चिदानन्द, भारतीय इतिहास कोश, पृ. 106, 373
6. कृच्छ्र साध्य मतिक्रान्तमसाध्यं वा विजायते- प्रथम अधिकरण, प्रकरण-14, अ.-18, श्लोक-23
7. राज्ञोहि व्रतमुत्थानं यज्ञ‘ कार्यानुशासनम्।
दक्षिणा वृत्तिसाम्यं च दीक्षितस्याभिषेचनम्।। -उक्त प्रकरण का श्लोक-4
8. प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रिय हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम्।। -उक्त प्रकरण, श्लोक-6
9. तुलसीदास, रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा 19 से 25 तक
10. दीपंकर आचार्य- कौटिल्य कालीन भारत, पृ. 126 पर उद्धृत
11. बालद्रव्यं ग्रामवृद्धा वर्धयेयुराव्यवहार प्रापणात्, देव द्रव्यं च- द्वितीय अधिकरण, प्रकरण 17 अ.-1
12. अर्थशास्त्र द्वितीय अधिकरण, प्रकरण-17 अध्याय-1
13. अर्थशास्त्र द्वितीय अधिकरण, प्रकरण-17 अध्याय-1
14. देशस्य जात्या संघस्य धर्मो ग्रामस्य वापि यः।
उचितस्तस्य तेनैव दायधर्म प्रकल्पयेत्।।’’
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