डॉ0 डी0 आर0 यादव
एसो0 प्रो0 एवं अध्यक्ष
राजनीति विज्ञान विभाग
गायत्री विद्यापीठ (पी0जी0) कालेज
रिसिया, बहराइच (उ0प्र0)
‘बसुधैव कुटुम्बकम’् और ‘सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’ सरीखे उदान्त् मानवीय एवं आदर्शवादी मूल्यों के उद्घोषक देश भारत और उसके समाज का विशाल हिस्सा सदियों तक अमानवीय यातनाओं, वर्णगत और जातिगत उच्चता एवं निम्नता, जातीय अहंकार और निर्पोग्यताओं के पाश में जकड़ा रहा है। कथित धर्मशास्त्रों एवं सामाजिक धार्मिक मान्यताओं के आधार पर उक्त अमानवीय मूल्यों को धर्मसम्मत् एवं विधिसम्मत् ठहराया जाता रहा है। मानवीय मूल्यों के विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार के पक्षधर देश में ऐसे अमानवीय मूल्यों का निरन्तर अस्तित्व में रहना भारतीय समाज की विसंगतियों को उजागर करता है। जाति प्रथा का विकास कब हुआ ? इसकी कोई निश्चित एवं प्रमाणित जानकारी नहीं है, तथापि यह सत्य है कि भारत में आदिकाल से ही जाति प्रथा प्रचलन में रही है। जाति प्रथा मनु स्मृति काल से बहुत पहले अस्तित्व में थी, लेकिन कठोर सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक विधानों के साथ जाति प्रथा को मनुस्मृति ने संहिताबद्व किया। तत्कालीन समाज ने जाति प्रथा को संस्थाबद्ध स्वरूप प्रदान किया। समय के प्रवाह के साथ यह समाज में रच-बस गयी। 1 जाति प्रथा किसी न किसी रूप में संसार के हर कोने में पायी जाती है, पर एक गम्भीर सामाजिक कुरीति के रूप में यह हिन्दू समाज की ही विषेशता है। वैसे इस्लाम और ईसाई समाज भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। यह व्यवस्था एक अति प्राचीन व्यवस्था रही है, इसका अभिप्राय पेशे के आधार पर समाज को कई भागों में बाँट देना है। सामान्तया यह माना जाता है कि जाति प्रथा की उत्पत्ति वैदिक काल में हुई। ब्राहमण धार्मिक और वैदिक कार्यांे का सम्पादन करते थे। क्षत्रियों का कार्य देश की रक्षा करना और शासन प्रबन्ध करना था। वैष्य कृषि और वाणिज्य संभालते थे तथा शूद्रों को अन्य तीन वर्णाें की चाकरी करनी पड़ती थी। धीरे-धीरे जाति प्रथा में कठोरता आती गयी वह जन्म पर आधारित हो गयी। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान ऐसा दिखता था कि जनता पर जातिवाद का प्रभाव कम हो रहा है, किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त् जातिवाद ने फिर जोर पकड़ा और बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को वयस्क मताधिकार व्यवस्था के देश में लागू कर दिये जाने के परिणामस्वरूप यह एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उदित हुआ। आरम्भ में सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से उच्च जातियां ही राजनीति से प्रभावित रहीं और राजनीतिक लाभ उन्हीं तक सीमित रहे। समय के साथ-साथ मध्यम एवं निम्न (ओ0बी0सी0 एवं एस0सी0/एस0टी0) समझे जाने वाली जातियां आगे आने लगी और अपने राजनीतिक प्रभाव को बढाने में प्रयत्नशील रहने लगी। प्रोफेसर रूडाल्क ने लिखा है कि ‘‘भारत के राजनीतिक लोकतन्त के सन्दर्भ में जाति वह धुुरी है जिसके माध्यम से नवीन मूल्यों और तरीकों की खोज की जा रही है। यथार्थ में वह एक ऐसा माध्यम बन गयी है कि इसके जरिये भारतीय जनता को लोकतान्त्रिक राजनीति की प्रक्रिया से जोड़ा जा सके। प्रोफेसर रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक ‘‘कास्ट इन इण्डियन पालिटिक्स’’ मंे भारतीय राजीति में जाति की भूमिका का विस्तृत विश्लेषण किया है, उनका विचार है कि अक्सर यह प्रश्न पूँछा जाता है कि क्या भारत में जाति प्रथा खत्म हो रही है ? इस प्रश्न के पीछे यह धारणा है कि मानो जाति और राजनीति परस्पर विरोधी संस्थाएं हैं। ज्यादा सही सवाल यह होगा कि जाति प्रथा पर राजनीति का क्या प्रभाव पड़ रहा है और जाति-पाँति वाले समाज में राजनीति क्या रूप ले रही है ? जो लोग राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, वे न तो राजनीति में प्रकृत स्वरूप को ठीक समझ पाये हैं और न जाति के स्वरूप को। भारत की जनता जातियों के आधार पर संगठित है। इसलिए न चाहते हुए भी राजनीति को जाति संस्था का उपयोग करना ही पड़ेगा।
अतः राजनीति में जातिवाद का अर्थ जाति का राजनीतिकरण है। जाति को अपने दायरे में खींचकर राजनीति उसे अपने काम में लाने का प्रयन्त करती है। दूसरी ओर राजनीति द्वारा जाति या बिरादरी को देश की व्यवस्था में भाग लेने का मौका मिलता है।
यहाँ मुख्य प्रश्न यह है कि भारतीय राजनीति में क्या जाति अब भी प्रासंगिक है ? उन्नीसवीं शताब्दी में जब आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के भारत में प्रवेश ने जाति संस्था के पुराने आर्थिक व सामाजिक अधिकारों को काफी कुछ शिथिल कर दिया था, तब वह जाति संस्था बदलने के बजाय और मजबूत कैसे होती जा रही है ? लायड रूडाल्फ तथा सूजन रूडाल्फ का दावा है कि भारत की जाति व्यवस्था ने राजनीतिक जागृति और विभिन्न जातियों के राजनीतिकरण में सहयोग दिया है। रूडाल्फ का कहना है कि अपने परिवर्तित रूप में जाति ने भारत के कृषक समाज में प्रतिनिधि जनतन्त्र की सफलता तथा भारतीयों में आपसी दूरी कम करके, उन्हंे अधिक समान बनाकर समानता के विकास में सहायता दी है। उनका दावा इस तर्क पर आधारित है कि नयी राजनीतिक व्यवस्था के स्थापित होने और परिणाम स्वरूप प्रतियोगी राजनीति के वातावरण ने विभिन्न जातियों के लोगों को जो अभी तक देश के विभिन्न भागों में असम्बद्ध रूप से बिखरे हुए थे, एकता के सूत्र में बांध दिया है। जातीय हितों के आधार पर विभिन्न दबाव गुटो का जन्म हुआ और इन जातियों ने संगठित होकर राजनीतिक प्रतियोगिता में भाग लेना षुरू किया, जिससे उनमें राजनीतिक जागरूकता और राष्ट्रीय राजनीति के प्रति रूचि उत्पन्न हुई। रूडाल्फ ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि जाति पर आधारित समूहों का निर्माण राजनीतिक आधुनिकीकरण के आदर्शें को स्थापित करने और जनजन्त्र के कुशल संचालन में सहायक हुआ है। उसके अनुसार परम्परावादी जाति व्यवस्था का आधुनिकीकरण होने से जातिवाद अभिशाप होने के बजाय वरदान बन गया है। जाति और राजनीति को एक दूसरे के नजदीक लाते हुए इस प्रक्रिया ने दोनों के रूपों को बदला है। राजनीति ने जाति को अपने साथ लेकर उससे अपनी अभिव्यक्ति की सामग्री प्राप्त की और उसे अपनी स्थिति सुधारने का मौका हासिल किया है। इन दोनों संरचनाओं की अन्योन्यक्रिया से राजसत्ता के मंच पर स्पर्द्वारत वास्तविक राजनीतिक अभिनेता उभर आये हैं। ये राजनीतिक तत्व अपनी सत्ता के संगठन के लिए जाति समूहों और अस्मिताओं पर निर्भर करते है। जिनमें उन्हंे संगठन के लिए बेहद सुस्पष्ट और लचीला आधार मिल जाता है। यह आधार सामाजिक प्रतिष्ठा क्रम की विभिन्न श्रेणियों में बंधा हो सकता है, लेकिन उसकी जड़ उस समूह की चेतना में भी होती है और साथ में वह राजनीति के हाथों में खेले जाने के लिए खुद को प्रस्तुत करता है। राजनीतिक नेता जाति से इतर समूहों, संगठनों से भी संवाद स्थापित करते हैं, इस प्रकार वह हर जगह इस संगठनों के रूप को तो बदलते हैं, साथ-साथ इन संगठनों के सानिध्य के कारण जाति के रूप को भी बदलते हैं। ब्रिटिश कालीन भारत में जन्म के बजाय क्षमता के आधार पर राजनीतिक स्थिति को निर्धारित करने के सिद्धान्त का आरम्भ हुआ। स्वतन्त्रता के बाद भारत के संविधान ने जातीय भेदभाव को अमान्य घोषित कर क्षमता के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की। आशा यह थी कि इन संवैधानिक उपबन्धों से जातिवाद का प्रभाव कम होगा, लेकिन जाति समूहांे के संगठिन होने से जातिवाद संगठित रूप से राजनीतिक क्षेत्र में दाखिल हुआ। यह कहना एक हद तक ठीक है कि राजीनतिक आधुनिकीकरण के आरम्भ होने से सामाजिक क्षेत्र में उसका प्रभाव निरन्तर बढ़ता रहा। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि शहरों में पहले की अपेक्षा विभिन्न धर्म और जातियों के लोग काफी बड़ी संख्या में एक दूसरे के साथ उठने-बैठने और खाने-पीने लगे हैं। इस तरह दैनिक जीवन में विभिन्न जातियों के लोगों के बीच कुछ अधिक समीपता का आभास होता है, लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में यह जातियां सुसंगठित रूप से जातिवाद को एक महत्वपूर्ण आधार व साधन के रूप में अपनाकर राजनीतिक संस्थाओं मंे अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व तथा अन्य लाभों को प्राप्त करने के लिए प्रयन्तशील है। जातीयता की भावना हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन में इतनी गहराई तक जड़ जमा चुकी है कि नेता समेत हर कोई अप्रत्यक्ष रूप से यह मानता है कि राज्य के मन्त्रिमण्डल में हरेक प्रमुख जाति का एक मंत्री किसी भी कीमत पर होना चाहिए और यह सिद्धान्त हमारी प्रान्तीय राजधानी से ग्राम पंचायतों तक जा पहुँचा है, आज कल ग्राम पंचायतों में तो हरिजन समेत प्रत्येक जाति का प्रतिनिधित्व मिल रहा है। 4 आज के भारतीय समाज में कोई ब्राहमण या क्षत्रिय इस कारण अपनी जाति के लोगों को संगठित नहीं करता कि वह जाति व्यवस्था के परम्परावादी स्वरूप अथवा जातीय शुद्धता को बनाये रखना चाहता है, वरन् वह अपनी जाति के सुसंगठित समर्थन को व्यक्तिगत राजनीतिक लाभों को प्राप्त करने के लिए एक साधन के रूप मंे अपनाना चाहता है। दूसरी ओर राजनीतिक स्वार्थ के कारण ही एक उच्च जाति का व्यक्ति निम्न जाति के लोगांे के साथ उठने-बैठने, खाने-पीने और उनकी सामाजिक क्रियाओं में सम्मिलित होता है, क्योंकि इसके बिना उसका राजनीतिक जीवन अंधकारमय दिखायी देता है। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था ने विभिन्न जातियों के बीच इस प्रकार की अन्योन्याश्रित स्थिति उत्पन्न कर दी है कि अब कोई भी जाति समूह बिना दूसरी जातियों की सहायता और समर्थन के राजनीतिक सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। अतः आधुनिक राजीनतिक तन्त्र का जाति व्यवस्था पर महत्वपूर्ण प्रभाव जातीय अन्योन्याश्रय को जन्म देता है। जिन राजनीतिक दलों का निर्माण हुआ है और विभिन्न जातियों के लोग अपने लक्ष्यों और हितों को दृष्टि में रखते हुए इन राजनीतिक दलों में सम्मिलित होने लगे और प्रत्येक राजनीतिक दलों में विभिन्न जातियों के लोग सम्मिलित हुए और इस तरह राजनीतिक उद्देश्यों ने ब्राहमणों से लेकर शूद्रो तक को एक ही राजनीतिक मंच पर खड़ा कर दिया। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आधुनिक राजनीतिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था ने जो मूल्य स्थापित किये उसके कारण परम्परागत जातीय ढांचे में मूलभूत परिवर्ततन आया।
जाति को राजनीति के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश में मुस्लिम व पिछड़ी जातियों के गठबंधन के रूप में समाजवादी पार्टी तथा अनुसूचति जातियों, पिछड़ी जातियों, मुस्लिमों आदि के गठबंधन के रूप में बहुजन समाज पार्टी का उदय हुआ और सन् 1993 के चुनाव मंे सपा-बसपा के संयुक्त मोर्चे को काफी सीटे प्राप्त हुई। भले ही दोनों को मिलाकर 28 प्रतिशत मत मिले, जबकि भारतीय जनता पार्टी को 35 प्रतिशत मत मिले किन्तु समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी गठबंधन की सफलता को बड़ी सफलता के रूप मंे देखा गया। समाजवादी पार्टी महिलाओं, दलितों, अल्पसख्यको और पिछड़ों को विशेष अवसर उपलब्ध कराने का पक्ष में है तथा बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक माननीय कांशीराम ने दलित समाज को जगाने तथा सजग बनाने में सफलता प्राप्त की। इस दल का प्रमुख उद्देश्य था गैर बराबरी तथा शोषण मुक्त समाज की स्थापना। इसीलिए 1993 में दोनों दल मिलकर उ0प्र0 की राजनीतिक सत्ता प्राप्त की। सत्ता प्राप्त करने पर सामाजिक परिवर्तन का कार्य शुरू हुआ और प्रदेश की वह जातियां जो राजनीतिक सत्ता से बंचित थी, उनका राजनीति में प्रवेश हुआ। राजनीति में जाति की भूमिका का मूल्यांकन करना कठिन कार्य है। कई लोग जाति को राजनीति का कैंसर मानते है। दूसरी तरफ अमरीकी लेखकों रूडोल्फ एण्ड रूडोल्फ का मत है कि ‘‘जाति व्यवस्था ने जातियों के राजनीतिकरण में सहयोग देकर परम्परावादी व्यवस्था को आधुनिकता में ढालने के साँचे का कार्य किया है। वे लिखते हैं, ’’अपने परिवर्तित रूप में जाति व्यवस्था ने भारत में कृषक समाज में प्रतिनिधिक लोकतन्त्र की सफलता तथा भारतीयों की आपसी दूरी कम करके उन्हें अधिक समान बनाकर समानता के विकास में सहायता दी है।’’ 5
वर्ग – ‘‘सामाजिक वर्ग किसी समाज में निश्चित रूप से समान सामाजिक प्रतिष्ठा वाले लोगों के एकत्रित स्परूप को कहते है।’’ यह समुदाय का एक ऐसा भाग या ऐसे लोगों का एकत्रण है, जिनका आपस में एक दूसरे के साथ समानता का सम्बन्ध या व्यवहार होता है और जो समाज के अन्य भागों में मान्यता और स्वीकृति प्राप्त ऊँच-नीच के स्तरों के आधार पर स्पष्ट रूप से भिन्न होते हैं। प्रत्येक विशिष्ट सामाजिक वर्ग का अपना विशिष्ट सामाजिक व्यवहार, अपने निजी स्तर और व्यवसाय होते हैं, किसी वर्ग का समाज में प्रतिष्ठा के आधार पर ही पहचान होता है। जहां प्रतिष्ठा के विचार या ऊँच-नीच के भाव ही सामाजिक मेल-जोल या आदान-प्रदान को सीमित कर देते है वहां पर ही सामाजिक वर्ग विद्यमान होता है, प्रतिष्ठा या स्थिति सामाजिक वर्ग का बुनियादी सिद्धान्त है। मैकाइवर के शब्दों में ‘‘सामाजिक वर्ग अपनी सामाजिक स्थिति के बाकी के समुदायों से अलग है।’’
आगवर्न और निमकोफ के अनुसार ‘‘सामाजिक वर्ग समाज में समान स्तर वाले लोगों का समूह है।’’
वर्ग में सर्वप्रथम व्यक्ति के मन में अपने ही वर्ग के सदस्यों के साथ परस्पर सम्बन्धों में बराबरी का भाव होता है अैर इस बात का विश्वास होता है कि उसके व्यवहार को समाज जीवन स्तर वाले लोगों के साथ सामंजस्य हो सकेगा। एक ही सामाजिक वर्ग के लोगों से इस बात की आशा की जाती है कि वे समान जीवन स्तर कायम रख सकेंगे तथा सीमित व्यवसाय क्षेत्र में से अपने लिए व्यवसाय का चुनाव कर सकंेगे। एक वर्ग के सदस्यों में समान भाव और समान व्यवहार दृष्टिगोचर होता है, दूसरे एक वर्ग में सामाजिक तौर पर अपने से ऊँचे वर्ग वाले लोगों को देखकर व्यक्ति के स्वंय अपने ही मन में हीनता का भाव पैदा हो जाता है और तीसरी बात यह है कि सामाजिक रूप से ऊँचें वर्ग में अपने से निचले वर्ग के लोगों के प्रति स्वंय अपने अन्दर बड़प्पन का भाव पैदा हो जाता है। सामाजिक वर्ग की प्रतिष्ठा सामाजिक मूल्य पर आधारित है, जिससे समुदाय समाज में प्रचलित विचारों के कुछ विशेषताओं को अन्य विशेषताओं की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण समझता है और अपना लेता है। सामाजिक स्थिति ही व्यक्ति के लिए उचित सम्मान प्रतिष्ठा और प्रभाव का निर्णय करती है। सामाजिक वर्ग के अन्य वर्गाें के साथ विभेद का आधार व्यवहार और जीवन सम्बन्धी कुछ रूढ़िजन्य विशेष तरीके है, जिन्हें उस वर्ग के गुण या विशेषता के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। यदि वह वर्ग इन तरीकों का उल्लंघन करता है तो कभी-कभी समाज इस उल्लंघन का विरोध करता है। परन्तु मैकाइवर और पेज इस विचार से सहमत नहीं है। वर्ग केवल आर्थिक असमानताओं पर नहीं बल्कि सामाजिक स्थितियों पर आधारित है। उनके विचार ‘‘धन’’ कारणों में से एक हो सकता है, परन्तु एक अकेला कारण नहीं। वर्ग का मूल तत्व सामाजिक चेतना है, इसलिए आर्थिक असमानताओं के आधार पर उन्हंे विभक्त नही किया जा सकता है।
राजनीतिक शक्ति सर्वोच्च शक्ति होती है। अतः आधुनिक समय में समाज के सभी वर्ग राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने का प्रयास करते है। सर्वप्रथम 1977 में उ0प्र0 के विधान सभा में हुए चुनावों में जनता पार्टी को विजय प्राप्त हुई और श्री राम नरेश यादव उ0प्र0 के प्रथम पिछड़ा वर्ग के मुख्यमंत्री बने। यह दलित वर्ग, पिछड़े वर्ग की राजनीतिक चेतना का परिणाम था। पुनः 1991 उ0प्र0 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी और श्री कल्याण सिंह दूसरे पिछड़े वर्ग के मुख्यमंत्री बने। यह एक नहीं बल्कि कई वर्गाें के राजनीतिक चेतना का परिणाम था, जो वर्ग सत्ता से सदियों से वंचित था, उसे राजनीतिक सत्ता का स्वाद तथा शक्ति प्राप्त हुई, जिससे निरन्तर उ0प्र0 की राजनीति पर वर्गाें का राजनीतिक सत्ता में प्रवेश होना शुरू हो गया। 1993 में दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक वर्गांे ने मिलकर सपा-बसपा के गठबंधन से श्री मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। प्रदेश की राजनीति में बहुत बड़ा बदलाव आया। उ0प्र0 की राजनीति ने देश की राजनीति को प्रभावित किया। 2007 में सुश्री मायावती के (शोशल इंजीनियरिंग) उच्च वर्ग, पिछड़ा वर्ग, दलित वर्ग, अल्पसंख्यक वर्ग ने मिलकर बहुजन समाज पार्टी को बहुमत प्रदान किया। सुश्री मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी। इन वंचित वर्गाें की सामाजिक, राजनीतिक प्रतिष्ठा एवं शक्ति में बढ़ोत्तरी हुई। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति के स्वरूप तथा प्रकृति में सकारात्मक परिवर्तन हुए जो हमारे समाज के लिए आवश्यक है तथा यह प्रसन्नता का विषय है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1- संदीप सिंह चौहान- भारत में दलित चेतना- गाँधी और अम्बेडकर भूमिका से, पृष्ठ-11
2- डॉ0 पुखराज जैन, डॉ0 बी0 एल0 फणिया-भारतीय शासन एवं राजनीति, साहित्य भवन, आगरा, वर्ष 2011 पृष्ठ 411-412
3- एच0 सी0 शर्मा- भारतीय राजनीति में वर्तमान प्रवृत्तियां, ओमेगा पब्लिकेशन्स, दिल्ली पृष्ठ 210
4- एम0 एन0 श्रीनिवास-आधुनिक भारत में जाति, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली पृष्ठ-80
5- डॉ0 पुखराज जैन, डॉ0 बी0 एल0 फणिया-भारतीय शासन एवं राजनीति, साहित्य भवन, आगरा, 2011
पृष्ठ-421
6- एच0 सी0 शर्मा- भारतीय राजनीति में वर्तमान प्रवृत्तियां, ओमेगा पब्लिकेशन्स दिल्ली पृष्ठ-241
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