डॉ0 प्रवीण कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान विभाग)
डी0ए0वी0 कॉलिज, बुलन्दशहर
मानवीय जीवन सदियों की विकास यात्रा को तय करता हुआ, आज इक्कीसवीं सदी में भी दो दशक का सफर तय कर चुका है। इस विकास यात्रा में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों- सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि में व्यापक उतार-चढ़ाव एवं बदलाव आए हैं। जीवन के राजनीतिक पक्ष पर ही दृष्टिपात करें तो आदिम एकाकी एवं अराजक जीवन से कौटुम्बिक, कबिलाई, ग्राम्य, गणीय, राज्यों एवं विशाल साम्राज्यों से होता हुआ वह वर्तमान लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं तक पहुँचा है। राजनीतिक व्यवस्थाओं की दृष्टि से विचार करें तो इसके मुख्यतः दो ही रूप उभर कर आते हैं- अधिनायकवादी राजनीतिक व्यवस्था तथा लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थाएँ। यद्यपि इन दोनों व्यवस्था में भी विभिन्न प्रारूप उभरकर आते रहते हैं किन्तु तमाम अन्तर्विरोधों के पश्चात् भी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था को ही अधिक महत्वपूर्ण एवं नागरिकों के लिए हितकर माना गया है।
लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं में आम नागरिकों के मध्य राजनीतिक चेतना के विस्तार एवं निर्माण की दृष्टि से राजनीतिक दलों एवं दबाव समूहों की भूमिका को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। राजनीतिक दल तो सीधे तौर पर राजनीतिक प्रणाली में सक्रिय भागीदारी करते हुए अपनी घोषणाओं व एजेन्डे को लागू करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु ‘‘जब समाज के वर्ग अपनी इच्छाओं के प्रति इतने सचेत हो जाएँ कि वह एक निश्चित संगठन को साकार बना लें, अपने लक्ष्यों का निरूपण कर लें और निर्वाचित एवं नियुक्त अधिकारियों को प्रभावित करके अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सक्रिय रूप से प्रयत्नशील रहने लगें तो वह वर्ग दबाव समूह की संज्ञा प्राप्त कर लेता है।’’
ओडीगार्ड के अनुसार ‘‘दबाव समूह ऐसे लोगों का औपचारिक संगठन है, जिसके एक अथवा अधिक सामान्य उद्देश्य या स्वार्थ होते हैं और जो घटनाओं के क्रम को विशेष रूप से सार्वजनिक नीति के निर्माण और प्रशासनिक कार्यों को इसलिए प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं कि वे अपने हितों की रक्षा एवं वृद्धि कर सकें।’’
अस्तु दबाव समूह आधुनिक लोकतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं में ही नहीं वरन् किसी न किसी रूप में, कुछ भिन्न स्वरूप में साम्यवादी व तानाशाही राजनीतिक व्यवस्थाओं में भी अपना अस्तित्व रखते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में तो विभिन्न मुद्दों पर लोकमत (लोकनीति) के निर्माण एवं उसे प्रभावित करने की दृष्टि से इनकी भूमिका व महत्ता को सहज ही स्वीकारा जाता है। भारत की राजनीतिक व्यवस्था में दबाव समूह की स्थिति व प्रभावशीलता पाश्चात्य देशों की तुलना में बहुत भिन्न एवं विशिष्ट स्वरूप लिए है। पाश्चात्य देशों में दबाव समूह जहाँ अधिक सुसंगठित, क्रियाशील तथा अपने वर्ग व सदस्यों के उद्देश्यों व लक्ष्यों को लेकर सुस्पष्ट कार्यक्रम के साथ सरकार की नीतियों व निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं, वहीं भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में दबाव समूहों की अपेक्षाकृत कमजोर स्थिति दिखाई देती है, जिनके मुख्य कारण हैं- सदस्यों की निष्क्रियता, निरक्षरता, राजनीतिक चेतना का अभाव, नेतृत्व-संकट और साथ ही एक वर्ग के समाज के अन्तर्गत भी परम्परागत रूप से जाति-वर्ग, भाषा-परम्परा आदि की दृष्टि से पर्याप्त विभिन्नताओं का विद्यमान होना।
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में क्रियाशील व कार्यात्मक आधार पर संगठित होने वाले दबाव गुटों में मुख्यतः व्यापारिक समूह, विभिन्न कार्यों व सेवाओं से जुड़े कार्मियों व श्रमिकों के समूह के साथ ही कृषक दबाव समूहों की मुख्य रूप से गणना की जाती है। कृषक वर्ग की राजनीतिक व सामाजिक स्थिति पर ध्यान केन्द्रित करे तो यद्यपि सैद्धान्तिक दृष्टि से उसे बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। किसान को ‘भूमि-पुत्र’, ‘अन्नदाता’, ‘ग्राम देवता’, ‘पालनकर्ता’ आदि विशेषणों द्वारा उसका गुणगान किया गया है किन्तु व्यावहारिक रूप में उसकी सदैव उपेक्षा की गई है। यद्यपि रामायण में उल्लेख है कि जब भारत चित्रकूट में श्रीराम जी से भेंट करने जाते हैं तो वहाँ श्री रामचन्द्र जी द्वारा अन्य सभी के साथ ही राज्य के कृषक कृषि की कुशल क्षेम पूछने का उल्लेख भी मिलता है किन्तु मनु की वर्णवादी व्यवस्था में किसान को सबसे निचले पायदान पर रखा गया तथा बहुत स्थानों पर तो उसे पंचम वर्ण की संज्ञा प्रदान की गई। परम्परागत राजतंत्रीय व्यवस्था में तो किसानों की दुर्दशा एवं दयनीय स्थिति का होना स्वाभाविक ही था क्योंकि उसका भूमि पर कोई अधिकार ही नहीं था तथा न ही किसानों को अपने अधिकारों व सुविधाओं के विषय में कुछ कहने का अवसर ही था। अंग्रेजी शासन स्थापित होने के पश्चात् प्रारम्भ हुई लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कृषक वर्ग में भी अपने ऊपर होने वाले अन्याय व शोषण के विरूद्ध आन्दोलनरत् होने की चेतना जागृत हुई।
19वीं सदी में अंग्रेजी शासन के विरूद्ध ही भारतीय किसानों द्वारा अनेक आन्दोलन किए गए। उसकी मुख्य वजह थी ‘‘अंग्रेजों द्वारा समय-समय अपनाई गई कृषि व्यवस्था ने तीन नई परिस्थितियाँ पैदा की। जमींदार लगातार मालगुजारी बढ़ाते रहे, साहूकारों का ऋण जाल बढ़ता रहा और सरकार जमींदारों एवं साहूकारों की तरफदारी करती रही। किसानों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति के कारण खेतों की बेदखली का सिलसिला बढ़ता चला गया। इसके परिणामस्वरूप जमींदारों और साहूकारों के खिलाफ किसान विद्रोह हुआ।’’
इन किसान विद्रोहों में 1859-62 ई0 का बंगाल के नील उत्पादकों का संघर्ष, 1873-76 ई0 का बंगाल के ही पबना जिले के किसानों का संघर्ष, 1875 ई0 में महाराष्ट्र के पुणे एवं अहमदनगर जिलों में मारवाड़ी व गुजराती किसानों का संघर्ष, 1896 ई0 में मालाबार के किसानों का संघर्ष आदि का उल्लेख प्रमुखता से किया जाता है। जहाँ तक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत अपनी माँग को मनवाने के लिए किसानों के आन्दोलन एवं संगठन की बात है तो यह प्रक्रिया 20वीं सदी में मुख्य रूप से उभरकर आई, विशेष रूप से जब गाँधी जी द्वारा बिहार के चम्पारन में तिनकथिया व्यवस्था (भूमि के एक भाग पर अनिवार्य रूप से नील की खेती करना) तथा सामंती करो में वृद्धि के विरूद्ध आन्दोलनरत् किसानों की माँग को तथ्यात्मक रूप से व्यापक प्रचार-प्रसार के साथ सरकार द्वारा मनवाकर किसान आन्दोलनों को एक नई चेतना प्रदान की। स्वतंत्रता पूर्व हुए अनेक किसान आन्दोलनों ने समय-समय पर सत्ता व राजनीतिक गलियारों में अपनी उपस्थिति व शक्ति का भान कराया। इन आन्दोलनों में 1915 ई0 में हुआ खेड़ा किसान आन्दोलन, 1919-20 ई0 का दरभंगा किसान आन्दोलन, 1920-21 ई0 में केरल का मोपला किसान संघर्ष, 1921-22 ई0 में पूर्वी उत्तर प्रदेश का एका आन्दोलन, 1928 ई0 का बारदोली किसान संघर्ष, 1946-47 ई0 में बंगाल में तेभागा आन्दोलन तथा 1945-51 ई0 के तेलंगाना किसान आन्दोलनों का प्रमुखता के साथ उललेख किया जाता है। वस्तुतः स्वतंत्रता से पूर्व किसान आन्दोलन व संगठनों को बहुत अधिक सफलता एवं महत्ता इसलिए भी नहीं मिल पाई क्योंकि एक तो देश में स्वतंत्रता आन्दोलन की लड़ाई सभी भारतीयों की राजनीतिक आकांक्षा का मुख्य केन्द्र बिन्दु थी। दूसरे भले ही मुखौटे के रूप में अंग्रेजी शासन स्वयं के लोकतांत्रिक होने का प्रदर्शन करता हो, किन्तु वास्तव में इनका लक्ष्य अपनी सत्ता के दमनात्मक चक्र द्वारा अपनी शोषणकारी व्यवस्था को बनाए रखना था।
संगठनात्मक दृष्टि से विचार करें तो स्वतंत्रतापूर्व ही अनेक राज्यों में ऐसे संगठनों की स्थापना का सिलसिला प्रारम्भ हो गया था, जिनका मुख्य उद्देश्य किसानों के हितों की रक्षार्थ राजनीतिक सत्ता को सचेत करने का प्रयास करना था। 1936 ई0 में कुछ कांग्रेसी व साम्यवादी नेताओं ने ‘ऑल इण्डिया किसान कांग्रेस’ की स्थापना की। 1937 ई0 में इस संगठन के नाम से कांग्रेस शब्द के स्थान पर सभा शब्द जोड़ा गया। ‘किसान सभा’ किसानों का एक केन्द्रीय संगठन था जिसमें विभिन्न राज्यों के कृषक संगठन सदस्यों के रूप मेें सम्मिलित थे। इस संगठन में समयवादी दल के नेताओं का अधिक प्रभाव रहा, जिससे असंतुष्ट होकर बिहार के प्रभावशाली किसान नेता स्वामी सहजानंद ने ‘ऑल इण्डिया यूनाइटेड किसान सभा’ का गठन किया। इसके अतिरिक्त भी विभिन्न राज्यों में अनेक किसान संगठन-फारमर्स फोरम, किसान पंचायत आदि नामों से गठित किए गए किन्तु वे सभी विदेशी शासन के समक्ष बहुत अधिक प्रभावशाली सिद्ध नहीं हो पाए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत द्वारा अपनाई गई लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में यह आशा बंधी थी कि भारतीय समाज में सबसे बड़े वर्ग के रूप में कृषक वर्ग के हित व कल्याणार्थ नीतियों का निर्माण किया जाएगा और इसके कुछ संकेत भी दिखाई दिए जब प्रथम पंचवर्षीय योजना में ‘‘कृषि क्षेत्र विशेषकर सिंचाई तथा विद्युत उत्पादन पर विशेष जो दिया गया। सार्वजनिक व्यय का लगभग 44.6 प्रतिशत कृषि क्षेत्र पर व्यय किया गया।’’ इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि भारत की अधिकांश जनसंख्या आजीविका के लिए उस समय कृषि पर आश्रित थी तथा भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान भी लगभग 50 प्रतिशत था। दूसरी पंचवर्षीय योजना से ही देश राजनीतिक नेतृत्व द्वारा कृषि की उपेक्षा कर औद्योगिक क्षेत्र को प्रमुखता देने का जो सिलसिला प्रारम्म्भ किया गया वह थोड़े बहुत उतार-चढ़ाव के पश्चात् आज तक जारी है तथा 1991 ई0 में अपनाई गई उदारीकरण, निजीकरण की नीति के पश्चात् तो कृषि क्षेत्र की स्थिति निरन्तर बद से बदत्तर होती जा रही है। इसका अनुमान इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि जहाँ 1950 ई0 में जी0डी0पी0 में कृषि क्षेत्र का योगदान 50 प्रतिशत के लगभग था, वहीं आज वह घटकर 15 प्रतिशत के लगभग रह गया है जबकि आज भी सम्पूर्ण जनसंख्या का 50 प्रतिशत से भी अधिक भाग कृषि पर आश्रित है। कृषि क्षेत्र व किसानों की स्थिति में निरन्तर आ रही इस गिरावट के लिए एक बहुत बड़ा कारण सार्वजनिक नीतियों व सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा किसानों की गई अनदेखी ही है और इसके लिए सत्ता प्रतिष्ठानों के बीच राजनीतिक दबाव समूह व हित समूह के रूप में किसान संगठनों की गौण एवं निष्प्रभावी भूमिका भी उत्तरदायी रही है। नीलमणि शर्मा अपने लेख ‘भारतीय किसान: दशा और दिशा’ में किसानों की उपेक्षा के सत्य को उद्घाटित करते हुए लिखती है ‘‘उद्योगों को घाटे से उबारने के लिए करोड़ो रूपयों की सरकारी राहत दी जाती रही है लेकिन जब कृषि क्षेत्र की बात आती है तो इतनी कम राशि दी जाती है उससे किसानों को लाभ तो नहीं होता है उनका मखौल जरूर उठाया जाता है।’’
यह सत्य भी है बहुत बार मुआवजे के नाम पर किसानों को 13 रुपये या 20 रुपये के चैक मिलने की खबरें भी चर्चा का विषय बनी है। इन सब स्थितियों की पृष्ठभूमि में स्वतंत्रता के पश्चात् हुए विभिन्न किसान आन्दोलनों एवं संगठनों की गतिविधियों एवं कार्यप्रणाली पर विहंगम दृष्टिपात करें तो भारतीय राजनीति व्यवस्था में एक दबाव समूह के रूप में किसान संगठनों की भूमिका को अधिक स्पष्टता के साथ समझा जा सकता है। किसानों की महत्ता व प्रतिष्ठा को सार्वजनिक रूप से रेखांकित करने की दृष्टि से विचार करें भारत के दूसरे प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा 1965 ई0 में दिया गया नारा ‘जय जवान जय किसान’ अपनी विशिष्ट महत्ता रखता है किन्तु दुर्भाग्यवश उनकी भी असामान्य स्थितियों में ताशकंद में मृत्यु हो गई। इसके पश्चात् भी विभिन्न राज्यों में अनेक प्रभावी किसान नेता व आन्दोलन उभरें जिन्होंने भारतीय राजनीति में समय-समय पर किसान वर्ग की उपस्थिति व महत्ता को रेखांकित किया है। महाराष्ट्र में गन्ना, तम्बाकू व प्याज उत्पादक किसानों की समस्याओं को लेकर किसान नेता शरद जोशी के नेतृत्व में 1980 ई0 में व्यापक किसान आन्दोलन हुआ, जिसे अपनी माँगे मनवाने में आपेक्षित सफलता भी प्राप्त हुई। शरद जोशी ने 1 जनवरी 1982 ई0 को ‘शेतकारी संगठन’ के नाम से एक किसान संगठन का निर्माण किया। 1985 ई0 में शेतकारी संगठन ने गन्ने के मूल्य में वृद्धि हेतु एक विशाल किसान रैली की तथा इसी वर्ष राज्य सरकार की नई टेक्सटाइल नीति के विरोध में कपास उत्पादकों का व्यापक आन्दोलन भी इसी संगठन के नेतृत्व में चलाया गया, जिसमें ‘रेल रोको’, ‘रास्ता रोको’ तथा मंत्रियांे के लिए ‘गाँव बंदी’ जैसे कार्यक्रमों के साथ ही ‘राजवस्त्र’ की होली भी जलाई गई। इस आन्दोलन को सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा दबाने के भी बहुत प्रयास हुए और अंततः ज्यादा बोनस देने की बात को सरकार द्वारा स्वीकार भी किया गया।
कर्नाटक राज्य में भी ‘रैयत संघ’ के द्वारा कई बार किसानों के पक्ष में मजबूती के साथ आवाज उठाई गई। प्रो0 नंजुन्दा स्वामी तथा एच0एस0 रूद्रप्पा के नेतृत्व में गन्ने के मूल्य में वृद्धि तथा पानी व सिंचाई की समस्या को लेकर अनेक आन्दोलन हुए। 1983 ई0 में कांग्रेस सरकार के पतन तथा जनता पार्टी को सत्ता में लाने में ‘रैयत संघ’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह कर किसानों की शक्ति से सत्ता को अवगत कराया।
गुजरात में भी ‘भारतीय किसान संघ’ के नेतृत्व में अनेक किसान आन्देालन हुए जिन्हें अपनी कुछ माँगों को मनवाने में आंशिक सफलता भी प्राप्त हुई। यहाँ के किसानों की मुख्य माँगों में कृषि के लिए बिजली दरों में कटौती, खाद्यान्न का लाभकारी मूल्य, सरकारी कर्जों की माफी आदि रही जिन्हें लेकर 1986-87 में किसान संघ ने 17 विशाल रैलियों का आयोजन किया। 19 मार्च 1987 ई0 को गुजरात विधानसभा का घेराव किया गया जिसके दौरान पुलिस बल से टकराव व हिंसक घटनाएँ भी हुई। ‘रास्ता रोको’, ‘रेल रोको’ और ‘जेल भरो’ आन्दोलन के मुख्य कार्यक्रम थे, जिनके समक्ष सत्ता को भी अन्ततः झुकना पड़ा तथा बिजली दरों में कुछ रियायतें देना स्वीकार करना पड़ा। गुजरात में ही 17 फरवरी 1987 ई0 को ‘खेदुत समन्वय समिति’ नामक किसान संगठन का निर्माण हुआ, जिसके नेतृत्व में भी अनेक आन्दोलन हुए तथा इसमें जनवरी 1988 में डांडी से पोरबन्दर तक ‘किसान यात्रा’ का आयोजन कर एक विशाल किसान रैली द्वारा अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई।
उत्तर प्रदेश में किसान आन्दोलनों एवं हितों के मुख्य पैरोकार किसानों के मसीहा के नाम से प्रसिद्ध प्रबुद्ध वक्ता व लोकप्रिय नेता चौधरी चरण सिंह जी रहे हैं। उन्होंने न केवल उत्तर प्रदेश में अपितु केन्द्रीय स्तर पर सदैव किसानों से जुड़े मुद्दों को पूरी ताकत व तथ्यात्मकता के साथ उठाया। भूमि सुधार कानूनों को तैयार करने तथा उत्तर प्रदेश में सफलतापूर्वक लागू करने में उनके विशिष्ट योगदान की सभी ने प्रशंसा की है। चौ0 चरण सिंह ने ही 1979 ई0 को गुड़गाँव (हरियाणा) में ‘भारतीय किसान यूनियन’ नामक संगठन की नींव रखी, जिसकी प्रशाखाएँ विशेष रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान आदि राज्यों में एक मजबूत किसान संगठन के रूप में उभरी है। इस यूनियन ने अपना पहला ही आन्दोलन दिल्ली में ‘कन्झावाला’ गाँव की भूमि सम्बन्धी विवाद को लेकर चलाया तथा महीनों तक चले प्रदर्शन के बाद अन्ततः सरकार को किसानों के साथ समझौता करना पड़ा। 1986 ई0 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बिजली की दरों में की गई अप्रत्याशित वृद्धि से नाराज होकर ‘भारतीय किसान यूनियन’ ने मुजफरनगर जिले के शामली स्थित पावर हाऊस का घेराव किया, जिसमें चौ0 महेन्द्र सिंह टिकैत एक नये किसान नेता बनकर उभरें। इन्हीं के नेतृत्व में 27 जनवरी 1988 को भारतीय किसान यूनियन ने मेरठ कमिश्नरी का घेराव कर 25 दिनों तक एक बहुत व्यापक किसान आन्दोलन का संचालन किया। इस आन्दोलन में ‘रास्ता रोको’, ‘रेल रोको’ तथा ‘जेल भरो’ जैसे कार्यक्रमों को व्यापक रूप से अमल में लाया गया किन्तु कई जगह आन्दोलन के उग्र होने तथा सरकार द्वारा दमनात्मक कार्यवाही के चलते अन्ततः यह आन्दोलन बिना किसी विशेष सफलता के वापस लेना पड़ा। चौ0 महेन्द्र सिंह टिकैत ने इस अवसर पर कहा था कि ‘‘मैं यह कहना चाहता हूँ कि देश की आजादी की लड़ाई मेरठ से ही शुरू हुई थी, आजादी आने से पूर्व, नब्बे वर्ष लगे थे। किसानों की आर्थिक स्वाधीनता की लड़ाई भी मेरठ से ही शुरू हुई है, भले ही इसको लाने में सौ वर्ष लगे पर किसान हार नहीं मानेगा।’’
वर्तमान में भी केन्द्र सरकार द्वारा पारित तीन कृषि बिलों को रद्द करने तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एस0एस0पी0) की कानूनी गारंटी की माँग को लेकर दिल्ली में देशभर की लगभग चालीस किसान यूनियनों के संयुक्त किसान मोर्चे के नेतृत्व में किसानों का आन्दोलन जारी है, जिससे देशभर में तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी किसानों के मुद्दों को लेकर व्यापक परिचर्चा की जा रही है। इस आन्दोलन की परिणति क्या होगी? यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है किन्तु इस आन्दोलन ने एक बार पुनः एक राजनीतिक दबाव समूह के रूप में किसानों की उपस्थिति को राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठानों के मध्य अवश्य दर्ज कराया है। वस्तुतः किसान आन्दोलनों एवं इस विशाल वर्ग की राजनीतिक शक्ति एवं महत्ता के होते हुए भी सार्वजनिक नीतियों के निर्धारण एवं क्रियान्वयन में किसान वर्ग की प्रायः अनदेखी ही होती है। सत्ता चाहे किसी भी राजनीतिक दल के हाथों में रही हो लेकिन किसान संगठन स्वयं को एक शक्तिशाली दबाव समूह के रूप में भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में स्थापित करने में असफल ही रहे हैं। उनकी इस असफलता के कारणों का विश्लेषण करें तो कई दशकों पूर्व कही गई चौ0 चरण सिंह जी की यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक बनी हुई है कि ‘‘चूँकि ग्रामीण अथवा किसान हमारे देश में अधिकतम संख्या में है। अतः उनके लिए प्रत्येक व्यक्ति मौखिक सेवा करना चाहता है। लेकिन कुछ ऐसे भी लोग है, जो उनके हितों के प्रति वस्तुतः द्वेष रखते हैं। ग्रामीण या किसानों को चुनावों के समय याद किया जाता है लेकिन उसकी आवाज शायद ही शक्ति केन्द्रों में सुनी जाती हो।’’
चौधरी साहब भारतीय राजनीति में किसानों की स्थिति की बहुत ही गहन व सूक्ष्म समझ रखने वाले किसान नेता थे। उनकी अनुभवसिद्ध दृष्टि से उद्भूत यह वक्तव्य वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भी पूर्णतया सत्य सिद्ध होता है। चाहे कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में रहा हो, सभी ने किसानों के हितों की अपेक्षा औद्योगिक क्षेत्र के हितों को प्राथमिकता दी है। यद्यपि सत्ता से बाहर होते ही भले ही वे भी किसानों के हितों के मुद्दे उठाते नजर आए किन्तु सत्ता पर काबिज होते ही सभी उसी बंधी-बंधाई लीक पर चलने लगते हैं, जिसमें विकास की धारा किसानों तक पहुँचते-पहुँचते अत्यन्त क्षीण हो जाती है।
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में एक दबाव समूह के रूप में किसान संगठनों व आन्दोलनों की कमजोर स्थिति पर विचार करें, तो इसके अनेक कारण दृष्टिगोचर होते हैं। एस0एम0 सईद इसका विश्लेषण करते हुए लिखते हैं ‘‘संख्या में बहुत ज्यादा होते हुए भी किसान समुदाय धर्म, जाति, आर्थिक स्थिति तथा क्षेत्रीय आधार पर विभाजित है। पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता के कारण किसान अपने सामूहित हितों के लिए सुसंगठित रूप से कार्य नहीं कर पाते। ऐसा लगता है कि विभिन्न राज्यों में होने वाले अधिकांश किसान आन्दोलन जाति आधारित आन्दोलन रहे हैं। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में शरद जोशी द्वारा चलाए गए आन्दोलन में मुख्य रूप से उच्च जाति के किसान सक्रिय रहे हैं, गुजरात के कृषक आन्दोलनों का नेतृत्व पटेल समुदाय में रहा है। उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन द्वारा चलाया गया आन्दोलन मुख्यतः जाट-किसानों का आन्दोलन रहा है।’’
इसके साथ ही कृषि कार्य की प्रकृति भी ऐसी है कि यदि किसान उसे स्थगित भी कर दें तो तात्कालिक रूप से इसका प्रभाव सत्ता या जनता पर नहीं पड़ता है। यदि रेलकर्मी, स्वास्थ्य कर्मी या किसी अन्य विभाग के हित समूह यदि कोई आन्दोलन या हड़ताल करते हैं तो इससे सरकारी गतिविधि सीधे प्रभावित होती है, जिससे सरकार पर मुद्दे को हल करने का दबाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। दूसरे किसानों द्वारा उत्पादित फसलें की प्रकृति भी ऐसी होती है कि वह उन्हें लम्बे समय तक अपने पास रोककर नहीं रख सकता है। फलतः उसकी सरकार पर दबाव बनाने की शक्ति कम हो जाती है।
सांगठनिक दृष्टि से भी विचार करें तो किसानों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई एक स्पष्ट अखिल भारतीय किसान संगठन है भी नहीं। साथ ही अधिकांश किसान आज भी अशिक्षित हैं, जो उनसे जुड़े विभिन्न मुद्दों को व्यापक सन्दर्भों एवं तकनीकी रूप से समझने में असमर्थ होते हैं। फलतः उन्हें सत्ता प्रतिष्ठानों पर बैठे धूर्त बुद्धिजीवी व नीति निर्माता अपनी व्याख्याओं व सम्भावनाओं के जाल में उलझाए रखते हैं। किसानों से जुड़े मुद्दों की व्याख्या विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग रूपों में करते रहते हैं, जिससे किसानों के समक्ष कोई स्पष्ट राह उभरकर नहीं आ पाती है कि वास्तव में उनके लिए उचित क्या है? वर्तमान किसान आन्दोलन के परिदृश्य को सामने रखें तो इन तीनों कृषि कानूनों को लेकर भी विद्वानों व विशेषज्ञों के बीच ही भारी संशय की स्थिति व्याप्त है तो साधारण किसानों की स्थिति का हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। इसके साथ ही वर्तमान परिदृश्य में भी बहुत से किसान संगठन कानूनों के समर्थन में खड़े नज़र आ रहे हैं।
अस्तु निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि स्वतंत्रता के 70 वर्षों के पश्चात् भी भारतीय राजनीति में एक दबाव समूह के रूप में किसान संगठनों की भूमिका को बहुत अधिक सराहनीय व सक्रिय नहीं कहा जा सकता है। जैसा की दबाव समूह की कार्यप्रणाली में निहित रहता है कि वह अपने समूह के हित साधन के लिए निरन्तर सक्रिय व लाबिंग करती रहती हैैं। इस रूप में किसान संगठन उतने प्रभावी नहीं रहे हैं। विशेष रूप से सार्वजनिक नीतियों व योजनाओं के निर्माण के समय इनकी प्रभावशीलता बहुत ही नगण्य है। इसकी एक वजह यह भी रही है कि सत्ता प्रतिष्ठान अपनी शक्ति का उपयोग करके किसान आन्दोलनों में दरार डालने तथा उसे मुद्दों से भटकाकर उसका दमन करने की नीति को ही अधिक प्राथमिकता देते आए हैं। वर्तमान सूचना व संचार क्रान्ति के युग ने निश्चय ही किसानों में भी एक हलचल पैदा की है और वे अधिक जागरुक व अपने हितों के प्रति सजग हुए है, जिससे भविष्य में किसान संगठनों द्वारा अपने हितों की प्रभावी रूप में रक्षा करने में समर्थ दबाव समूह के रूप में उभरने की आशा अवश्य जगी है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
– डॉ0 बी0पी0 पांडेय- ‘‘भारत का शासन एवं राजनीति’’, सरस्वती सदन 7, जवाहर नगर, दिल्ली, पृ0 396-397।
– डॉ0 पुखराज जैन- ‘‘आधुनिक सरकारें: सिद्धांत और व्यवहार’’, साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा, पृ0 121।
– महेन्द्र प्रसाद सिंह- ‘‘भारतीय शासन और राजनीति’’, ओरियन्ट ब्लैक स्वान प्रा0लि0, आशापली रोड, नई दिल्ली, पृ0 366।
– डॉ0 सुदामा सिंह एवं डॉ0 राजीव कृष्ण सिंह- ‘‘भारतीय अर्थव्यवस्था’’, राधा पब्लिकेशन्स, दरियागंज, नई दिल्ली, पृ0 176।
– संचार-सौरभ पत्रिका, अंक अगस्त 2018, पृ0 25।
– कौशल कुमार- ‘‘किसान आन्दोलन के राजनीतिक आधार’’, शोध गंगा पर अप्रकाशित शोध प्रबन्ध, पृ0 28।
– चौ0 चरण सिंह- ‘‘भारत की भयावह आर्थिक स्थिति’’, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृ0 627।
– एस0एम0 सईद- ‘‘भारतीय राजनीतिक व्यवस्था’’, भारत बुक सेन्टर, नई दिल्ली, पृ0 277।
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