डॉ0 सत्यकान्त
असि0 प्रोफेसर, संस्कृत विभाग,
डी0ए0वी0 (पी0जी0) कॉलिज, बुलन्दशहर
भारतीय चिन्तन परम्परा में आत्मा अजर-अमर है वह। एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है। आत्मा का इस प्रकार एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करना ही पुनर्जन्म है पुनर्जन्म के विषय में भारतीय विद्वान् मुख्यतः दो श्रेणियों में विभक्त हैं – भौतिक एवं आध्यात्मिक।
भौतिकतावादी विचारकों का मत है कि मृत्यु ही जीवन का अन्त है भौतिक तत्त्व ही परमार्थ है। भौतिक तत्त्वों के सम्मिश्रण से ही संसार की सब वस्तुएं बनती हैं। चैतन्य भी जड़ पदार्थों के सम्मिश्रण की एक विशिष्ट अवस्था है।1 इसके विपरीत आध्यात्मवादी दृष्टिकोण के अनुसार मृत्यु ही जीवन का अन्त नही है। मृत्यु के बाद भी जीवन का अस्तित्त्व बना रहता है। इन चिन्तकों का मत है कि मृत्यु के बाद भी जीवात्मा पुनर्जन्म ग्रहण करता है।
प्रेत्यभाव-पुनरूत्पति
यहां से जाकर फिर उत्पन्न होना पुनर्जन्म हैं । जिस शरीर को जीवात्मा एक बार छोड़ देता है उसे फिर प्राप्त नही कर सकता हैं।2 इस प्रकार एक देह को छोड़कर देहान्तर प्राप्ति को पुनर्जन्म कहते हैं। मोझ की प्राप्ति होने पर निश्चित समय के अन्तराल को छोड़कर एक देह का परित्याग कर देहान्तर को ग्रहण करने का क्रम निरन्तर चलता रहता है। जन्म मरण के इस सिलसिले का न कोई आदि है और न कोई अन्त है। जन्म मरण के इस सिलसिले का न कोई आदि है और न कोई अन्त है। जन्म मरण के अनुक्रम का कारण बताते हुए कहा है पुनर्जन्मसिद्धिः आत्मनित्यत्वात्। आत्मा के नित्य होने से पुनर्जन्म की सिद्धि होती है।
आत्मा को नित्य मानने पर ही शरीर को छोड़ने और ग्रहण करने का अनुक्रम संभव हैं। यदि आत्मा अनित्य होता तो शरीर के साथ ही नष्ट हो जाता, फिर उसकी उत्पत्ति कहां से होती? क्योंकि स्वरूप से उत्पन्न होकर नष्ट होने वाली वस्तु फिर से अस्तित्व में नही आ सकती। याज्ञवल्क्य ने प्रश्न किया कि जब वृक्ष को काट गिराते हैं तो वह अपने मूल से फिर उठ खड़ा होता है – क्यों ?3 जब किसी से उत्तर न बना तो स्वयं याज्ञवल्क्य ने कहा वह मूल आत्मा है जो स्वरूप से कभी नष्ट नहीं होता और सदा बना रहता है। मनुष्य अन्न की तरह पैदा होता -बढ़ता-नष्ट होता और पुनः उत्पन्न होता है।4
कहा गया है कि संयोगज जन्म-आत्मा का शरीर से संयुक्त होना जन्म है। जब शरीर का प्रत्येक अंग अपने कारण में लीन हो जाता है तो आत्मा आकाशस्थ वायु में चला जाता है। फल योग के कारण प्रारब्ध कर्मो का क्षय हो जाने पर संचित में से फलोन्मुख कर्माशय फिर सामने आ जाता है। इस प्रकार पूर्वजन्मों में किए गए पाप और पुण्य के फल भोगने के स्वभाव से युक्त आत्मा पूर्व शरीर को छोड़कर वायु में गया हुआ जल, वायु, प्राण आदि के माध्यम से वीर्य में प्रविष्ट हो, जाता है तदनन्तर ईश्वर की प्रेरणा से माता के गर्भाशय में स्थित हो दस मास तक पूर्ण विकास को प्राप्त हो जाता है। वहां पूर्ण विकास पाने के बाद बाहर आता है। इसी को जीवात्मा का जन्म लेना कहते हैं। शरीर से संयुक्त होकर जीवात्मा के जन्म लेने के विषय में ऋग्वेद में मन्त्र आता है। ’’दश मासाः शयानः कुमारो अधि मातरि। निर्रेतु जीवो अक्षत जीवो जीवन्त्या अधि’ इसके विपरीत जब मनुष्य जन्म लेता है तो मृत्यु निश्चित हैं। कहां है ’’देहादात्मनो निष्क्रमणं मृत्युः – शरीर से जीवात्मा का निकल जाना मृत्यु है। अर्थात् शरीर में प्रारब्ध कर्मों का भोग समाप्त होने पर शरीर का पतन हो जाता है, तब केवल देह का नाश हो जाता है। आत्मा देह को छोड़ जाता है। देह का प्रत्येक अंग पंच तत्त्व में विलीन हो जाता है।5 किन्तु आत्मा बना रहता है। क्येांकि वह ’’अनुच्छितिधर्मा’’ होने से ’’न हन्यते हन्यमाने शरीरे’’ शरीर के नाश होने पर भी नही मरता। बस समय आने पर शरीर को छोड़ कर चल देता है। इस प्रकार आत्मा का शरीर से वियुक्त होना ही मृत्यु है।
पुनर्जन्म के विषय में गीता मे कहा है कि जिस प्रकार मनुष्य पुरान वस्त्र को छोड़कर नये वस्त्र धारण कर लेता है उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर दूसरे नये शरीर को धारण कर लेता है6 तथा जैसे शरीर धारण करने पर जीवात्मा को इस देह में बचपन, युवावस्था एवं बुढ़ापा प्राप्त होता है, वैसे ही मरने पर दूसरा शरीर मिल जाता है।
यजुर्वेद में पुनर्जुन्म के विषय में मन्त्र आया है।7 वैदिक शास्त्रों में कहा है कि मनुष्य गर्भ के अन्दर सांस लेता और छोड़ता है! हे प्राण! जब तू उस गर्भस्थ बालक को परिपुष्ट कर देता है तो वह उत्पन्न होता है।
यजुर्वेद में कहा है कि मुझे मन फिर से प्राप्त हुआ है, प्राण फिर से मिला है, मेरा देहयुक्त आत्मा भी फिर से मिला है, मुझे आंख और कान फिर से मिले हैं। अतएव मेरा जीवन मुझे फिर से मिला है।8 मुझे इन्द्रियों का सामर्थ्य अर्थात् मनुष्य देह बार-बार प्राप्त हो। मन, जीव और देह तथा धन व ब्रह्मज्ञान भी बार-बार प्राप्त हो, अग्निहोत्रादि में समर्थ हम लोग जैसे पूर्व जन्मों में शुभ गुण धारण करने वाली बुद्धि, उत्तम शरीर और इन्द्रियों के स्वमी थे, वैसे ही इस जन्म में भी हैं।9 यही एक स्थान पर विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करने की बात भी कही गई है।
इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं – एक मनुष्य शरीर धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष आदि का होना। इनमें मनुष्य शरीर के तीन भेद हैं – एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विद्याओं को पढ़कर विद्वान होना और तीसरा मर्त्य अर्थात् साधारण मनुष्य शरीर धारण करना। इनमें प्रथम गति पुण्यात्माओं की, द्वितीय गति पाप और पुण्य वालों की होती है एवं जो जीव अधिक पाप करते हैं उनकी तीसरी गति होती है। इन्ही भेदों से सब जगत् के जीव अपने अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं, जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्मधारण करना, पुनः शरीर को छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना बारम्बार होता रहता है।10
अथर्ववेद में भी कहा गया है कि जो प्रथम विद्यमान जीव अपने शरीर धारण के कारण कर्माे को प्राप्त करता है और उन कर्मों से नाना प्रकार के शरीर धारण करता हैं, देह धारण करने की इच्छा से गर्भ में प्रविष्ट होता है –
वही बिना उपदेश की हुई वाणी को पूर्वजन्म के संस्कारों से जानता है। वही पर आगे प्रार्थना कि है कि हे जगदीश्वर! आपकी कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रियों से युक्त मनुष्य देह ही मुझे प्राप्त होता रहे। प्राणों को धारण करने वाला सामर्थ्य तथा सत्यविद्यादि श्रेष्ठ धन भी पुनर्जन्म में प्राप्त होते रहें। ये सब शुद्ध बुद्धि के साथ मुझको प्राप्त हो जिनसे हम लोग इस संसार में मनुष्य जन्म को धारण करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को सिद्ध करेें।11
निरूक्त में कहा गया है मैं मरकर पैदा हुआ पैदा होकर फिर मरा अनेक योनियों में जन्म लिया मैनें अनेक प्रकार के माता -पिता और मित्र को देखा, नाना प्रकार की पीड़ाओं को सहन करके अनेक बार जन्म लिया।12
मोक्ष –
मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है।13 इस विषय में सभी चिन्तक एक मत हैं। मोक्ष को ही मुक्ति, निःश्रेयस्, अपवर्ग, अमृत, परमपद एवं दुखात्यन्त निवृत्ति इत्यादि विविध नामों से अभिहित किया गया है।14 मोक्ष शब्द मोक्षणार्थक ’मुच्लृ’ धातु15 से निष्पन्न है। अतः मोक्ष का अर्थ हुआ मुक्त होना। मोक्ष जीव की यात्रा का वह पड़ाव है, जिसको जीव बन्धनों से पार होकर प्राप्त करता है। मोक्ष के विषय में प्राचीन काल से ही चिन्तन होता आ रहा है।
यद्यपि यजुर्वेद संहिता में ’मोक्ष’ का वर्णन अति सुन्दर रूप से प्राप्त होता है ’’मृत्योर्मुक्षीयमाऽअमृतात्’’16 ईश्वर से प्रार्थना कि है कि हे ईश्वर! हमें मृत्यु रूपी दुख से छुटकारा दिला दो, न कि अमृत से। यजुर्वेद संहिता में मोक्ष के भावों को व्यक्त करने के लिए नाक17, तृतीय धाम18, अमृत19 आदि पदों का प्रयोग किया गया है।
यजुर्वेद संहिता में आये मन्त्र मंें नाक शब्द का भाष्यकर्ताओं ने स्वर्ग लोक,20 सब दुखों से रहित मोक्ष एवं सुख और आनन्द अर्थ किया है। सम्भवतः यह इसी भाव को घोषित करता है कि जिसमें जीव बन्धन और दुखों से छूट कर एक अनन्त सुख को प्राप्त करके रहता है। केवल मात्र मोक्ष के लिए तृतीय धाम पद का प्रयोग हुआ है।21 आचार्य उव्वट और महीधर तृतीय धाम का अर्थ सबसे ऊपर स्थित तथा ’स्वर्ग’ स्वीकार करते हैं।22 जब जीवात्मा तृतीय धाम में अमृत को प्राप्त कर लेता है तो किसी भी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा नही होगी- वह ही मोक्ष है। स्वामी दयानन्द जी जीव और प्रकृति से विलक्षण आधार रूप जगदीश्वर में मोक्ष-सुख का अर्थ करते हैं।23 वही प0 सातवलेकर अमरपान का अनुभव करने वाला तृतीय स्थान मोक्ष को स्वीकारते हैं।24 यजुर्वेद संहिता के अनुसार सर्वोत्पादक, सकल कल्याण-साधक परमेश्वर निष्काम जनों के लिए प्रथम सेवनीय सर्वोत्तम भाग ’मोक्ष’ को प्रदान करता है, उनके बन्धनों को खोल देता है।25 मन्त्र के आधार पर सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त होना ही मोक्ष है। यजुर्वेद संहिता के अन्दर प्रत्यक्ष रूप से मोक्ष को परिभाषित करते हुए ऋषि ने खरबूजे की उपमा प्रस्तुत् की है।
जैसे कि उर्वारूक फल पककर स्वतः लता-बन्धन से छूट जाता है उसी प्रकार आत्मा शरीर के बन्धन से मुक्त होकर अमृत अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता है।26
एक अन्य मन्त्र में ब्रह्म ज्ञान से मृत्यु को लाँघने को मार्गो को प्रशस्त करने का वर्णन है।27 मन्त्र का तात्पर्य यह है कि ब्रह्मज्ञान के द्वारा जीवात्मा प्रकृति और उसके स्वरूप को जानकर अविद्या के कारणों का विनाश करके जन्म के हेतु कर्म फल के मूल को समाप्त कर लेता है तो जन्म मरणरूपी बन्धन से छूट जाता है एवं परमानन्द का उपभोग करता है और यही मुक्ति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति है। इसे विष्णु का परम पद भी कहा गया है।28 यही सम्भवतः पर ब्रह्म की प्राप्ति है।29 एक अन्य मन्त्र में कहा गया है कि अमरपान का अनुभव करने वाले ज्ञानी लोग प्रकाश आनन्द के स्थान में अर्थात् मोक्ष अवस्था में स्वेच्छा से विचरण करते हैं।30 छान्दोग्योपनिषद् में मोक्ष के स्वरूप के बारे में यही धारणा उभर कर आती है कि मोक्षावस्था में जीव का भौतिक साहचर्य नही रहता।
सत्य – संकल्पादि गुण सामार्थ्य सब के सब उसके साथ रहते हैं, जिनके आधार पर सुनना, स्पर्श करना, देखना, रस लेना, गन्धलेना, संकल्प-विकल्प करना, निश्चय करना, स्मरण करना, तथा अहंकार आदि जो भी संकल्प करा है उसके अनुरूप सब इन्द्रियाँ तथा अ्रन्तः करण के द्वारा आनन्द अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।31
विभिन्न वेदों के भाष्यों में वेद के मन्त्रों के माध्यम से मोक्ष या मुक्ति शब्द का स्पष्ट उल्लेख मिला है। ’’मुच्’’ धातु का प्रयोग और अमृतम् आदि पदों को मोक्ष का वाचक माना गया है तथा वेदों को ही मोक्ष का प्रथम वाचक माना है।
यजुर्वेद में मोक्ष की परिकल्पना बड़ी उदात्त है। एक मन्त्र में संसार की अनित्यता के कारण यह परिकल्पना उत्पन्न हुई है। दुःख के साथ सांसारिक सुख की अनित्यता भी मोक्ष में साधक की प्रवृत्ति का कारण है।32
जन्म-पुनर्जन्म
यजुर्वेद में जहां मृत्यु और जन्म की चर्चा होती है वहां उससे अभिप्राय क्रमशः शरीर त्याग और शरीर धारण से होती है, क्योंकि स्वाभावतः जीवात्मा नित्य है। जैसा कि विश्रुत है कि नित्य पदार्थ में जन्म मृत्यु जैसे विकार नही होते हैं। अतः पुनर्जन्म का अर्थ जीवात्मा द्वारा पुनः शरीर धारण करना ही स्वीकार्य हैं।
जीवात्मा जब तक बन्धन में है तब तक वह पुनः पुनः जन्म धारण करता हैं। दो जन्मों के बीच मृत्यु का सेतु भी अवश्यम्भावी है, इसलिए यजुर्वेद संहिता में मृत्यु के बन्धन से छूटने की चर्चा की गई है, मृत्यु के साथ जन्म तथा जन्म के साथ मृत्यु आवश्यक रूप से स्वीकृत हैं।33
यजुर्वेद संहिता में जीवात्मा को सम्बोधित किया गया है कि जीवात्मा भस्म हुए शरीर से जल-पृथ्वी आदि कारणों को प्राप्त करके मात्राओं से संयुक्त होकर पुनर्जन्म पावे।34 मन्त्र से स्पष्ट ध्वनित होता है कि मनुष्य का शरीर जिन पांच तत्वों से निर्मित है उन्ही मे विलीन नही हो जाता है तथा पुनः कर्मफलानुसार जीवात्मा माताओं के गर्भ में आकर प्रकाशित होता है तथा पुनर्जन्म को प्राप्त होता है।
ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि जो मनुष्य पूर्व में धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है, जो पूर्व जन्म में किए हुए पाप, पुण्य के फलों को भोग करने के स्वभाव युक्त जीवात्मा है वह पूर्व शरीर को छोड़ कर वायु के साथ रहता है और पुनः जलौषधि-प्राणादि में प्रविष्ट होकर वीर्य में प्रवेश करता है। तदनन्तर गर्भाशय में स्थिर होकर पुनर्जन्म लेता है। जो जीव अनुदित वाणी बोलता है अर्थात् जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्य भाषण करने की आज्ञा दी है वैसा ही यथावत् जान के बोलता है और धर्म में यथावत् स्थिर रहता है- वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। यजुर्वेद संहिता में भी इस धारणा की पुष्टि होती है। संसार में मरणधर्मा मनुष्यों के दो मार्ग होते हैं पितृयाण तथा देवायान। जो माता और पिता के बीच संसर्ग से उत्पन्न यह समस्त चर जगत् है – वह उन दो मार्गों से ही सुखपूर्वक मिल कर चलता है।35 आगे एकमन्त्र आता है कि मनुष्य का शरीर त्याग करने के पश्चात् जीवात्मा नए शरीर में प्रवेश करता है। वे जल औषधि आदि पदार्थों में भ्रमण करके गर्भाशय को प्राप्त होके नियत समय पर शरीर धारण कर प्रकट होते हैं।36
यजुर्वेद के एक मन्त्र का भाष्य करते हुए स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि जो जीव शरीर छोड़कर चले जाते हैं उनके लिए यथायोग्य अवकाश दे कर उनके कर्मानुसार परमेश्वर सुख-दुख फल देता है।37 शरीर त्यागोपरान्त जीवात्मा के भ्रमण का उल्लेख स्पष्ट रूप से यजुर्वेद में मिलता है कि जीव मृत्यु-उपरान्त सूर्य आदि पदार्थो को प्राप्त कर कुछ काल भ्रमण कर अपने कर्मों के अनुसार गर्भाशय को प्राप्त हो शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं।38
सृष्टि के प्रारम्भ में आत्मा का गर्भ द्वारा शरीर धारण करके प्रकट होने का वर्णन मिलता है। निश्चत से महान् जल समूह जब गर्भ को धारण करके अग्नि को प्रकट करते हुए संसार में प्रकट हुआ तब उस गर्भ में देवताओं का एक प्राणरूप आत्मा प्रकट हुआ।
सन्दर्भ ग्रन्थ –
1. यजुर्वेद अध्याय 4.15 2. वृह द0 3.928
3. कठ0 1.6 4. ऋ 5.78.8.9
5. सूर्य चक्षुर्गच्छतु 10.6.3 6. गीता अध्याय 2.2.22
7. गीता 8. यजुर्वेद 4.25
9. अर्थववेद 22.4.24
10. यजुर्वेद अध्याय 19.47
11. अथर्व 5.1.2
12. अथर्व 7.6.67.1
13. निरूक्त 13.19.1.27
14. स0सू0 1.1 नया दर्शन 1.1.1 स0द0 1.1.4
15. पुरूष सूक्त का विवेचनात्मक अध्ययन पृ0 322
16. धातु पाठ चुरादिगण
17. यजुर्वेद 3.60 18. यजुर्वेद 3.6
19. यजुर्वेद 32.10
20. यजुर्वेद 1.13, 2.34,3.60,4.18, 8.52, 25.13, 4.11, 40.14
21. नाक स्वर्ग लोक 32.6 उ0म0भा0
22. 9 यजुर्वेद 32.6 दयानन्द भाष्य
23. यजुर्वेद भाष्य 32.6 हिन्दी भाष्य
24. यजुर्वेद भाष्य 32.10 द0 भा0
25. यजुर्वेद 32.0 प0 सात0 भा0
26. यजुर्वेद 33.54
27. यजुर्वेद 3.60
28. यजुर्वेद 31.18
29. यजुर्वेद 6.5
30. यजुर्वेद 32.11
31. यजुर्वेद 31.12
32. छा0उ0 8.12.4.5
33. यजुर्वेद 31/12
34. छा0 उ0 8/12/4-5
35. गीता 2.27
36. प्रमद्य भस्मना 12.32 यजुर्वेद भाष्य
37. यजुर्वेद भाष्य 19.47 द0भा0
38. अपस्वग्ने सधिष्टन सोषधीरनुरूध्यसे
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