ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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राज्यपाल: प्रदेश की शासन व्यवस्था का सजग प्रहरी

डॉ0 प्रताप सिंह

राज्य की कार्यकारी शक्तियाँ संवैधानिक रूप से राज्यपाल को दी गई हैं। उनका प्रयोग वह प्रत्यक्ष रूप से या अधीनस्थ पदाधिकारियों के माध्यम से कर सकता है। इस प्रकार, शासन के प्रबन्ध में राज्यपाल की भी भागीदारी होती है। इस तथ्य का समर्थन अनुच्छेद 167, 201 तथा 35 से भी होता है। राज्य के शासन प्रबंध में मुख्यमंत्री का यह कर्त्तव्य है कि राज्यपाल को प्रशासन तथा पारित किये जाने वाले कानूनों से अवगत कराये। प्रशासन तथा कानून के संबंध में राज्यपाल जो सूचना प्राप्त करना चाहे, वह उन्हें दे। इसके अतिरिक्त, किसी ऐसे विषय जिसके बारे में मंत्री ने कोई निर्णय लिया हो, लेकिन मंत्रिमंडल ने उस पर विचार न किया हो , यदि राज्यपाल चाहे तो उसे मंत्रिमंडल के सामने सोच – विचार के लिए रखने को कह सकता है।
1967 संे पूर्व राज्यपाल सामान्यतः प्रशासनिक कार्यों में बहुत कम भाग लिया करते थे। लेकिन 1967 के पश्चात् बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में राज्यपालों ने सक्रियता दिखाते हुए प्रशासनिक कार्यों में पर्याप्त रुचि ली है। इस रुचि के कारण उनका कई बार अपने मुख्यमंत्रियों से मतभेद भी हुआ है। इस संबंध में दिलचस्प तथ्य यह है कि राज्यपालों ने केन्द्र और राज्य में अलग – अलग दलों की सरकारों के होने पर तो प्रशासनिक कार्यों में केन्द्र के निर्देशानुसार रुचि दिखायी ही, इसके साथ ही केन्द्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होने पर भी राज्यपालों ने व्यक्तिगत सक्रियता दिखाते हुए अपने विवेकाधिकार का प्रयोग किया है।
1986 में राज्यपाल मोहम्मद उस्मान आरिफ खान ने, उत्तर प्रदेश सरकार किस तरह काम कर रही है, यह जानने के लिए स्वयं प्रदेश कि समस्त 58 जिलों में जाकर लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिलकर तथा उसके आधार पर सरकार को अपनी कार्यदक्षता सुधारने की राय देने का बीड़ा उठाया था। राष्ट्रपति शासन के दौरान, सक्रिय रूप से कार्य करने के अतिरिक्त सपा – बसपा गठबंधन की लोकप्रिय सरकार के रहते हुए भी राज्यपाल मोती लाल वोरा ने प्रशासनिक कार्यों में दिलचस्पी लेते हुए सक्रिय भूमिका निभायी। समय – समय पर मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से प्रशासनिक कार्यों पर मंत्रणा करना, प्रशासनिक अधिकारियों के साथ बैठकें करना, जनता के बीच जाकर उनकी समस्यायें सुनना तथा मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर जनता की समस्याओं से अवगत कराना, राज्यपाल की प्रशासनिक कार्यों में रुचि को प्रकट करता है। राज्यपाल मोती लाल वोरा ने अपनी सक्रियता को उचित ठहराते हुए कहा कि ‘‘ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि राज्यपाल को राजभवन की सीमाओं में रखा जाये। राज्यपाल का यह कर्त्तव्य है कि वह जनता की समस्या तथा उन्हें दूर करने के सुझावों को लोकप्रिय सरकार के समक्ष रखे’’।
नेहरू युग में राज्यपाल का पद ‘गाड़ी के पाँचवें पहिए’ के समान बन कर रह गया था। इसी कारण से एक भूतपूर्व राज्यपाल पद्मजा नायडू ने कहा था कि ‘‘राज्यपाल सोने के पिंजरे में निवास करने वाली चिड़ियाँ के समतुल्य है।’’ मध्यप्रदेश के भूतपूर्व राज्यपाल पट्टाभि सीता रमैय्या के अनुसार, ‘‘राज्यपाल का कार्य मेहमानों को इज्जत करने, उनको चाय, भोजन तथा दावत देने के अलावा कुछ नहीं।’’ श्रीप्रकाश जैसे अनुभवी राज्यपाल ने भी कहा था कि ‘‘मुझे पूर्ण विश्वास है कि संवैधानिक राज्यपाल के रूप में निर्धारित स्थान पर हस्ताक्षर करने के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई कार्य नहीं है।’’ उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व राज्यपाल एच0 पी0 मादी ने बताया कि ‘‘कार्यों के अभाव में मैंने अपने तथा अपने कर्मचारियों के लिए कार्यों का सृजन किया।’’ एक राज्यपाल ने तो यहाँ तक कहा कि ‘‘ वे नहीं जानते थे कि राष्ट्रपति को पाक्षिक प्रतिवेदन में क्या भेजना चाहिए।’’ पश्चिम बंगाल के राज्यपाल डॉ0 एच0 सी0 मुखर्जी तो ‘कलकत्ता के राजभवन’ में इतने ‘बोर’ हो गये कि पदमुक्ति के लिए कुछ ही समय बाद पंडित नेहरू से उन्होंने अनुरोध किया।
चौथे आम चुनाव के बाद यह मत जोर पकड़ने लगा कि ‘‘ पाँचवाँ पहिया होने के बजाय राज्यपाल का प्रतिष्ठित पद परम्श्रेष्ठ सामाजिक संस्था और वैधानिक आवश्यकता है। ‘‘अब राज्यपाल का पद आभूषणवत नहीं रह गया था। बदले राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में उसे ‘एक नयी भूमिका’ अदा करनी थी। राज्यपाल की इस ‘भूमिका’ परिवर्तन के कई कारण थे – प्रथम, मुख्यमंत्रियों के दुर्बल व्यक्तित्व ; द्वितीय एकदलीय, बहुमत के बावजूद राज्य स्तर पर पाई जाने वाली दल के भीतर की गुटीय राजनीति ; तृतीय, एक बदल की प्रवृत्ति और अस्थिरता ; चतुर्थ, राज्यों के प्रादेशिक दलों का शक्तिशाली होना।
राज्यपाल की भूमिका पर इस आधार पर आक्षेप लगाया गया कि कुछ राज्यपाल निष्पक्षता और दूरदर्शिता जिसकी उनसे अपेक्षा की गई थी, के गुणों को प्रदर्शित नहीं कर पाए। कुछ राज्यपालों द्वारा विशेष रूप से राष्ट्रपति शासन की सिफारिश में और राष्ट्रपति के विचार के लिए राज्य विधेयक को आरक्षित रखने में निभाई गई भूमिका से जबरदस्त विद्वेष उत्पन्न हुआ। राज्यपालों को अवधि के समाप्त होने से पूर्व ही बार – बार हटाने तथा स्थानान्तरण से इस पद की गरिमा कम हो गई। इस बात की आलोचना भी की गई है कि संघ सरकार अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राज्यपालों को प्रयोग में लाती है। बहुत से राज्यपाल, जो कि संघ के अधीन अपने पद को बढ़वाने के लिए इच्छुक होते हैं या अपनी सेवा अवधि के बाद राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाना चाहते हैं, स्वयं को केन्द्र के एजेन्ट के रूप में समझते हैं।
डॉ इकबाल नारायण के शब्दों में, ‘‘संवैधानिक क्षमता के न्यायिक दृष्टिकोण से ही राज्यपाल की भूमिका पर विचार करना पर्याप्त नहीं है। आवश्यक यह है कि राजनीतिक व्यवस्था की प्रामाणिकता पर पड़े उनके व्यवहार एवं कार्यों के व्यापक प्रभावों का मूल्यांकन किया जाए।’’
अध्यादेश जारी करना, राज्यपालों की संवैधानिक शक्ति है। अध्यादेश केवल उस समय जारी किया जा सकता है जब विधान सभा का सत्र न हो रहा हो। विशेष परिस्थितियों में राज्यपाल सत्रावसान करके भी अध्यादेश जारी कर सकता है। राज्यपाल अध्यादेश जारी करने के सम्बन्ध में, मंत्रिमंडल की सिफारिश मानने के लिए बाध्य नहीं है। एक उदाहरण वर्ष 2000 का है, जबकि सरकारी मैडिकल कॉलेज को सरकार संचालित एक ट्रस्ट को सौंपने के अध्यादेश को राज्यपाल सूरजभान ने नामंजूर कर दिया और टिप्प्णी की, ‘मुझे समझ नहीं आता कि जब इस महीने सदन का सत्र होने जा रहा है, तो इतनी जल्दी क्या है। मेरे पास भेजने से पहले सरकार को, इसे विधान सभा से पारित करवा लेना चाहिए था।’ इस मामले में यह उल्ल्ेखनीय है कि इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी थी ओर अदालत ने इस पर स्थगन आदेश लगा रखा था।
राज्यपाल के हस्ताक्षर के बाद ही कोई भी विधेयक, विधि का रूप धारण करता है। राज्यपाल कितने दिनों के अंदर इस पर अपनी स्वीकृति दे, ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इस आधुनिक काल में ऐसे उदाहरण हैं, जबकि राज्यपाल ने न तो विधेयक को स्वीकृत किया और न ही अस्वीकृत, बल्कि उसे अपने पास विधारित कर लिया। उदाहरण के लिए, राज्यपाल सूरजभान द्वारा विधारित ‘उत्तर प्रदेश राज्य विश्वविद्यालय (द्वितीय संशोधन) विधेयक 1998’। मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्त का, राज्यपाल सूरजभान से यह पहला टकराव था। टकराव रोचक इसलिए भी था कि केन्द्र व राज्य में एक ही दल (भाजपा) का शासन था ओर राज्यपाल की दलीय सम्बद्धता भी उन्हीं से थी, लेकिन राज्यपाल, कुलाधिपति के रूप में, अपने अधिकारों में कटौती के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। इस सम्बन्ध में दिलचस्प तथ्य यह है कि उक्त विधेयक को पूर्ववर्ती राज्यपाल रोमेश भण्डारी से लेकर, विष्णुकंत शास्त्री, टी0 वी0 राजेश्वर तक ने स्वीकृत नहीं किया है। आज भी उक्त विधेयक, राजभवन में लंबित पड़ा है।
1967 के पश्चात् यह देखने में आया है कि केन्द्रीय सरकार यह नहीं चाहती कि राज्यपाल, प्रांत के शासन के प्रबंध में मिट्टी के माधों बने रहे। राष्ट्रपति भवन में, राज्यपालों के वार्षिक सम्मेलन में बोलते हुए राष्ट्रपति वी0 वी0 गिरि ने कहा था कि, ‘‘नये वातावरण में राज्यपालों के कर्त्तव्य का विशेष महत्व है ………….अब उन्हें उन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, जिनके बारे में संविधान निर्माताओं ने पहले कभी सोचा भी नहीं था। अब उन्हें संविधान का ध्यान रखते हुए, प्रांत के शासन प्रबंध में सक्रिय भाग लेना चाहिए। मैं इस बारे में उनका ध्यान इस बात की ओर दिलाऊंगा कि संविधान सभा ने राज्यपालों के लिए, एक हिदायतों का दस्तावेज जारी करने की व्यवस्था की थी। इसमें प्रत्येक राज्यपाल को यह कहा गया था कि अच्छे शासन प्रबंध, जनता की नैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक भलाई के लिए उन्हें कार्य करना चाहिए तथा सभी वर्गों और धर्मों के लोगों ने आपसी मेल मिलाप की सद्भावना उत्पन्न करने के लिए भी कार्य करना चाहिए।’’
इसी प्रकार राज्यपाल के प्रशासनिक कार्यों की भूमिका के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि सन् 1867 से पूर्व जहाँ राज्यपाल सामान्यतः प्रशासन में कोई भी सक्रिय योगदान नहीं दिया करते थे, वहीं 1967 के पश्चात् स्थिति में परिवर्तन आ गया है और राज्यपाल न सिर्फ प्रशासनिक कार्यों में हस्तक्षेप कर रहे हैं, बल्कि महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा कर रहे हैं। राज्यपाल मोती लाल वोरा, मोहम्मद उस्मान आरिफ खान, रोमेष भण्डारी, सूरजभान, विष्णुकान्त शास्त्री, टी0 वी0 राजेश्वर आदि उसके प्रमुख उदाहरण हैं।
राज्यपाल, राज्य के विश्वविद्यालयों का पदेन कुलाधिपति होता है। राज्य कानून के अन्तर्गत वह विश्वविद्यालयों का प्रधान होता है। कुलाधिपति के रूप में उसकी शक्तियाँ राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम में वर्णित होती है।
कुलाधिपति के रूप में, राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम के अन्तर्गत राज्यपाल को प्रत्येक विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति करने का अधिकार प्राप्त है। इसके अतिरिक्त वह विश्वविद्यालय के वित्त अधिकारी, कोषाधिकारी व अन्य महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियाँ करता है। वह कुलपति का पद रिक्त होने पर, किसी विभाग के डीन को कार्यकारी कुलपति नियुक्त कर सकता है।
यद्यपि कुलपति की नियुक्ति, कुलाधिपति द्वारा होती है, लेकिन कुलाधिपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग मुख्यमंत्री के परामर्श पर करता है। प्रायः यह भी देखने में आ रहा है कि कुलपति की नियुक्ति में, योग्यता को अधिक महत्व नहीं दिया जाता, बल्कि जाति, धर्म, सत्ताधारी राजनीतिक दल के साथ सम्बद्धता अधिक महत्व रखती है। यह शैक्षिक नियुक्तियाँ न होकर राजनीतिक नियुक्तियाँ अधिक प्रतीत होती हैं।
1980 में कुलाधिपति ने राजनीतिक आधार पर नियुक्ति करते हुए उत्तर प्रदेष के पूर्व शिक्षामंत्री राम जी लाल सहायक को ही रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली का कुलपति नियुक्त कर दिया था। यह माना जाता है कि कुलपतियों की नियुक्तियों का इस तरह से राजनीतिकरण, विश्वविद्यालय परिसर के वातावरण व शिक्षा के स्तर दोनों को गिरा रहे हैं। इस आधार पर कुलपतियों की नियुक्ति की सदैव से आलोचना होती रही है। विधान सभा में यह प्रश्न उठाये जाते रहे हैं कि, ‘‘विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति कैसे होती है ? उनको नियुक्त करने में क्या कदम उठाये जाते हें और उनकी नियुक्ति का क्या आधार है ? विश्वविद्यालय के कुलपति बनाने का कोई सिद्धान्त नहीं है।
निःसंदेह कुलाधिपति को अपने विवेकाधिकार से अध्यादेश जारी करने का अधिकार है, परंतु प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जहाँ न्यायपालिका ने कोई आदेश पारित कर रखा हो, वहां उक्त बिन्दुओं को अध्यादेश द्वारा रद्द किया जाना उचित नहीं होता।
जिन अधिकारियों की नियुक्ति कुलाधिपति करता है, उनको पदच्युत करने का भी उसे अधिकार प्राप्त है। कुलाधिपति द्वारा यह कार्यवाही, कुलाधिपति की अवहेलना, पद का दुरुपयोग, कदाचार, अक्षमता के आधार पर या कुलाधिपति को ऐसा लगे कि अमुक कुलपति की ज्यादा दिनों की उपस्थिति विश्वविद्यालय के हित में नहीं होगी, एक जाँच आयोग का गठन कर उसकी रिपोर्ट के आधार पर, कुलपति को अपने आदेष से बर्खास्त कर सकता है।
गोरखपुर विश्वविद्यालय की कुलपति प्रोफेसर प्रतिमा अस्थाना को उनके विरुद्ध आरोप में 17 मई 1990 को निलम्बित कर दिया गया था। मार्च, 1991 तक उनके विरुद्ध आरोप तैयार नहीं हो सके थे। इस संबंध में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में, प्रोफेसर अस्थाना द्वारा दायर याचिका पर उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि, ‘‘इस प्रस्तुत प्रकरण में विलम्ब पूरी तरह से अवर्णनीय है। याची की सेवा मई, 1990 में समाप्त कर दी गई थी। उस समय से उसका निलम्बन आदेष मान लिया जायेगा। हमने पाया कि याची के खिलाफ शिकायतें औपचारिक आरोप सिद्ध करने के पूर्व की अवस्था में हैं। सात माह बीत जाने के बाद भी संबंधित अधिकारी, उस पर आरोप बनाने की अवस्था में नहीं दिखाई पड़े। अंततः एक कुलपति द्वारा उच्च शैक्षिक प्रतिष्ठित व्यक्ति का निलम्बन एक गंभीर मामला है। इन परिस्थितियों में देरी नजरअंदाज नहीं की जा सकती’’।
कुलाधिपतिके रूप में, राज्यपालों की भूमिका के सम्बन्ध में निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन के समस्त मामलों में राज्यपाल को महत्वपूर्ण शक्ति प्राप्त है; फिर भी अमूमन यह देखा गया है कि राज्यपाल, नियुक्तियों और बर्खास्तगी के मामले में राज्य सरकार के परामर्श के अनुसार ही चलते हैं, लेकिन यह उन्हीं मामलों में सत्य है, जबकि केंद्र और राज्य दोनों में एक ही दल की सरकारें रही हों।
नियुक्ति व बर्खास्तगी के अलावा केन्द्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकारों के होते हुए भी, कुछ राज्यपालों ने शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर सक्रियता दिखाई है। राज्यपाल बी0 सत्यनारायण रेड्डी व रोमेश भंडारी के नाम इस संबंध में उल्लेखनीय हैं। जबकि राज्यपाल मोहम्मद उस्मान आरिफ ने, एक ही दल कांग्रेस के केन्द्र तथा राज्य में होते हुए भी व्यक्तिगत स्तर पर सक्रियता दिखाई। राष्ट्रपति शासन के दौरान, राज्यपाल मोती लाल वोरा भी कुलाधिपति के रूप में, अपने अधिकारों के प्रयोग के कारण काफी चर्चित रहे हैं। इन सभी राज्यपालों ने शैक्षिक सत्रों को नियमित करने, अनुशासनहीनता दूर करने, रोजगार परक पाठ्यक्रमों को खोलने, आर्थिक संवृद्धि के लिए प्रयास करने आदि में रुचि दिखाई है।
कुलाधिपति के रूप में, राज्यपाल की सम्पूर्ण भूमिका के सारांशस्वरूप कहा जा सकता है कि केन्द्र व राज्य में एक ही दल की सरकार हो अथवा अलग-अलग दलों की, यदि राज्यपाल स्वयं सक्षम है और वास्तविक अर्थों में विश्वविद्यालय व्यवस्था में सुधार व उन्नति चाहता है, तो इस संबंध में वह ‘अति सक्रिय’ भूमिका भी अदा कर सकता है, क्योंकि विश्वविद्यालय के संचालन हेतु उसे शक्तियां राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम द्वारा प्राप्त होती हैं, न कि संविधान द्वारा। अतः वह मंत्रिमंडल के परामर्श को माने ही ऐसी कोई बाध्यता नहीं।
राज्य शासन में उसकी शक्तियाँ वास्तविक न होते हुए भी राज्य शासन में उसका स्थान सबसे अधिक सम्मानित और प्रतिष्ठित होता है। वह दलगत राजनीति से ऊपर होने के कारण निष्पक्ष होता है ओर राज्य के वास्तविक शासक (मंत्रिगण) सदैव ही आवश्यकता के अनुसार उससे मंत्रणा प्राप्त कर सकते हैं। अपने निर्दलीय व्यक्तित्व के आधार पर राज्यपाल राज्य के शासन की ढुलमुल ओर अस्थायी राजनीति में स्थायित्व ओर स्थिरता लाने की स्थिति में होता है। यदि राज्यपाल प्रभावशाली व्यक्तित्व वाला और कार्यशील व्यक्ति हो तो वह विरोधी पक्ष ओर मंत्रिमंडल के बीच अनेक मतभेदों को दूर कराने में सहायक सिद्ध हो सकता है। राज्य शासन को सुगम, सुचारू और कार्यकुशल बनाने में राज्यपाल का बहुत अधिक महत्व होता है। एम0 बी0 पायली के अनुसार, ‘‘राज्यपाल मन्त्रिमण्डल का सूझ-बूझा वाला परामर्शदाता है जो राज्य की अशान्त राजनीति में शान्त वातावरण पैदा कर सकता है।’’ के0 एम0 मुंशी स्वीकार करते हैं कि ‘‘कुछ परिस्थितियों में राज्यपाल द्वारा बहुत अधिक हितकारी ओर प्रभावशाली रूप में कार्य किया जा सकता है।’’ डॉ0 अम्बेडकर भी राज्यपाल के पद का महत्व स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि, ‘‘यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान के अनतर्गत राज्यपाल की दोहरी भूमिका है। प्रथम, वह राज्य का प्रधान है और द्वितीय, वह राज्य में संधीय सरकार का अभिकर्त्ता या प्रतिनिधि हे। संविधान-निर्माता भारत में एक ऐसी संधीय व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे जिसमें ‘सहयोगी संघवाद’ की धारणा के आधार पर केन्द्र और राज्य में सद्भावनापूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो सके और प्रशासनिक एकरूपता तथा राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके और उनके द्वारा राज्यपाल की पद की व्यवस्था इस लक्ष्य की पूर्ति के एक साधन के रूप में की गयी है। के0 एम0 मुंशी ने विधानसभा में कहा, ‘‘राज्यपाल संवैधानिक औचित्य का प्रहरी और वह कड़ी है जो राज्य को केन्द्र के साथ जोड़ते हुए भारत की एकता के लक्ष्य को प्राप्त करती है।’’ राज्यपाल की नियुक्ति के लिए जिस पद्धति को अपनाया गया है, वह इस बात को स्पष्ट करती है कि राज्यपाल की राज्य केन्द्रीय शासन के प्रतिनिधि के रूप में एक महत्वपूर्ण भूमिका है।
इसके अतिरिक्त, भारतीय संविधान के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकार के बीच सद्भावनापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया। जहाँ तक राज्यपाल की संवैधानिक प्रतिष्ठा ओर केन्द्र से उसके सम्बन्धों का सवाल है, वर्ष 1979 में रघुकुल तिलक के मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला एक उत्कृष्ट उदाहरण है। उच्चतम न्यायालय ने कहा, ‘‘इसमें कोई शक नहीं है कि राज्यपाल का मनोनयन राष्ट्रपति करता है अर्थात प्रभाव और वास्तविकता में भारत सरकार करती है, लेकिन यह नियुक्ति का तरीका मात्र है और इससे राज्यपाल भारत सरकार का कर्मचारी या नौकर नहीं बनता।’’ यह जरूरी नहीं है कि राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त हर व्यक्ति भारत सरकार का कर्मचारी हो। साथ ही, इसका भी कोई अर्थ नहीं कि राज्यपाल जब तक अपने पद पर बना रहेगा जब तक राष्ट्रपति उससे खुश है। यह राज्यपाल के कार्य काल को निर्धारित करने का संवैधानिक प्रावधान मात्र है ओर यह भारत सरकार को राज्यपाल का सेवायोजक नहीं बनाता। राज्यपाल का पद भारत सरकार का अधीनस्थ या जी-हुजूरिया नहीं है। वह न भारत सरकार के निर्देशों के अधीन है, और न ही अपने काम करने या दायित्व निर्वहन के तरीके के लिए उसके प्रति जवाबदेह हे। वह स्वतन्त्र संवैधानिक पद है जो भारत सरकार के नियन्त्रण के अधीन नहीं है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. प्रतिमा अस्थाना बनाम कुलाधिपति, गोरखपुर विष्वविद्यालय व अन्य 1991,1 UPLBEC 448
2. गजट – जी0 एस0 आर 367, भारत का राजपत्र आज – 2 खण्ड 3 (1) दिनांक 25/02/68
3. डा0 देवर्शि शर्मा ‘‘ दलों में आंतरिक अभिव्यक्ति का संकट’’ दैनिक जागरण 17 जून 1999
4. A Krishnaswami, 1965 The Indian Union &The States – A Study in Autonomy and Integration, Parganan Press.
5. B.N.Sharma 1966. The Republic of India : Constitution and Government. Bombay : Asia Publishing House.
6. Arthur Keith. 1969. A Constitutional History of India, Allahabad : Central Book Depot.
7. A.B Lal (ed) 1995 : The IIndian Parliament, Allahabad, Chaitanya Publishing House,

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