ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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‘अर्धवृत्त’ उपन्यास में चित्रित सामाजिक यथार्थ

मिलेदार राम
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी विभाग)
डी.ए.वी. स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
बुलंदशहर (उ. प्र.)

मुद्राराक्षस बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार रहे हैंघ्उनकी रचना धर्मिता ने समय और समाज को गहराई तक प्रभावित किया हैं। उन्होंने हिंदी की अनेक विधाओं में साहित्य रचा है। वे अपने लेखन में विवेक सम्मत, तर्कवादी और वैज्ञानिक विचार चिंतन को लेकर चलने वाले लेखक रहे हैं। उनके साहित्य में देश की जटिल सामाजिक संरचना के महत्त्वपूर्ण भाग की तर्क सम्मत आलोचना मिलती है। ‘अर्धवृत्त’ मुद्राराक्षस द्वारा रचित एक वृहत उपन्यास है। इस उपन्यास की काल्पनिक कहानी में उपन्यासकार के जीवन का यथार्थ चित्र भी चित्रित हो जाता है तथा रचनाकार समाज का यथार्थ चित्रण करते हुए अपने समय की पुनर्रचना करता है।
प्रश्न उठता है यथार्थ क्या है ? यथार्थ शब्द दो शब्दों के योग से मिलकर बना है यथा$अर्थ,अर्थात् जैसा है वैसा“यथार्थ के अंतर्गत वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं,जिनका आदमी अनुभव एवं परिज्ञान करने के सिलसिले में भागीदार है। वस्तुतः यथार्थ उन सभी विषयों को अपने परिधि में लेता है जो मानव तथा जीवन से जुड़े हैं। इसकी सार्थकता मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को साकार करने में निश्चित है।”1
व्यक्ति,परिवार और विविध वर्गों के तालमेल से ही समाज बनता है। इसके बिना समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकतीं। सामाजिक यथार्थ के अंतर्गत पारिवारिक यथार्थ, ग्रामीण संबंधों का यथार्थ, दलित एवं आदिवासी समाज का यथार्थ तथा जीवन के बदलते नैतिक मूल्यों के यथार्थ का चित्रण मुद्राराक्षस ने सफलता पूर्वक किया है।
(क)पारिवारिक संबंधों का यथार्थ-आजादी के बाद भारत के गाँवों में निवास करने वाले लोग अपनी स्थिति समझने लगे हैं। आज गाँव में रहने वाला हर व्यक्ति अलगाववादी सोच के कारण अपने परिवार में रहते हुए भी अकेलापन महसूस करने लगा है। उसकी स्थिति ऐसी है कि वह न तो परिवार से पूर्ण रूप से जुड़ पाता है और न ही अलग हो पाता है। जिसका कारण है व्यक्ति का अपना स्वार्थ। ‘अर्धवृत्त’ उपन्यास में पारिवारिक संबंधों का यथार्थ नंदिता और उपन्यासकार के वार्तालाप से स्पष्ट है। जहाँ उपन्यासकार नंदिता से कहता है-“तुम क्या समझती हो हमारे जाति के लोग आपस में मिलते हैं तो पूछते हैं, कहो सब कुशल मंगल तो है। वहाँ न किसी की कोई कुशल होती है और न मंगल। हमारे बीच से कब कौन गायब हो गया इसकी फ़िक्र करने का वक्त किसके पास होता है? कौन किससे मिला या नहीं मिला इसकी परवाह कोई करने लगे तो अपनी ज़िंदगी कैसे चलाए।”2
आज के संयुक्त परिवार में पितृसत्ता का बोल-बाला है। पत्नी को वही करना पड़ता है जो पति कहता है। इतना ही नहीं परिवार में स्त्री और पुरुष का कार्य भी अलग-अलग निर्धारित किया गया है। पितृसत्तात्मक समाज में उसका जीवन पराधीनता में व्यतीत होता है। स्त्री जीवन की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि पति के द्वारा कठोर से कठोर दंड दिए जाने पर भी उसका विरोध नहीं कर सकती-“परिवार तंत्र जहाँ ज्यादातर स्त्रियों को दासी के समकक्ष रखता है, हिंदू धर्म-विवाह को आध्यात्मिक घटना बताकर स्त्री की पराधीनता पर मुहर लगा देता है। यह पराधीनता का कर्म काण्ड हिन्दू-स्त्रियों को इतना ज्यादा अस्मिता विहीन बनाता है कि जबर्दस्ती जला दी गई विधवा स्त्री की चिता स्त्रियाँ ही सबसे ज्यादा पूजती हैं। दासता से मुक्ति को लेकर उनकी हत चेतना की सीमा यह है कि दहेज के नाम पर जीवित जला दी जाने वाली बहुओं में से अनेक पति के विरुद्ध बयान देना पाप समझने लगती हैं।”3
मुद्रा जी‘अर्धवृत्त’ उपन्यास में जहाँ एक तरफ स्त्री की दीन-हीन स्थितियों का अंकन करते हैं, वहीं दूसरी तरफ स्त्री की अपनी अस्मिता की रक्षा करने हेतु परिवार एवं समाज से संघर्ष करते हुए भी दिखाया है। उपन्यास की पात्र नंदिता इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जो आजीवन संघर्ष करते हुए गोलियों का शिकार होती है। यह संघर्ष केवल एक नंदिता का संघर्ष नहीं है, बल्कि न जाने कितनी नंदिता अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही हैं-“वैश्वीकरण के इस दौर में जहाँ समाज के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन और विकास हुआ है, वहीं महिलाओं ने भी अभूतपूर्व प्रगति की है। आम महिलाओं के संगठन तो उन्नीसवीं सदी के आरम्भ से ही चले आ रहे हैं।”4
(ख) ग्रामीण संबंधों का यथार्थ- वर्तमान में गाँवों में निवास करने वाले लोगों के संबंध प्रतिदिन बनते-बिगड़ते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि पहले गाँवों में इस प्रकार आपसी संबंध बनते और बिगड़ते नहीं थे, परन्तु आज के मानव किसी एक घटना को लेकर मन में एक तरह की गाँठ बना लेते हैं और आपसी संबंधों को प्रेम-पूर्ण दिखाते हुए दुश्मनी का मौका तलाशते रहते हैं। यही कारण है कि ग्रामीण संबंध नारकीय होते जा रहे हैं। ग्रामीण संबंध वहाँ तो और विकृत हो जाते हैं, जहाँ दो संप्रदाय या दो संस्कृतियों का टकराव होता है। इस प्रकार की साम्प्रदायिकता मानव-मानव के बीच प्रेम की भावना को समाप्त करके नफरत का बीज बो देती है-“भारत में 1980 के दशक से विकृत पूँजीवादी विकास से उत्पन्न तनावों ने सामाजिक विक्षोभ उत्पन्न किया जिसके परिणाम स्वरूप आरक्षण विरोधी आंदोलन, हिन्दू-सिख दंगे,हिन्दू-मुस्लिम दंगे,ईसाई विरोधी दंगे विभिन्न अवसरों पर अलग-अलग राज्यों में होते रहे हैं।”5
रचनाकार ‘मुद्राराक्षस’ने हिन्दू-मुस्लिम और हिन्दू-सिख साम्प्रदायिकता का चित्रण ‘अर्धवृत्त’ उपन्यास में बखूबी किया है। बादरगंज का हिन्दू-मुसलमान दंगा दिल दहलाने वाला है, जिसमें एक सौ आठ हत्याएँ होती हैं, उनसठ मकान जला दिए जाते हैं। जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों की गिरफ़्तारी होती है।
हिन्दू और सिख साम्प्रदायिकता तो पूरे उपन्यास में भरी पड़ी है। साम्प्रदायिक ताकतों ने सरदार दिलीप सिंह के घर में आग लगा दी थी। दरवाजे और खिड़कियाँ तोड़ दिए गए थे। मुद्रा जी उस घटना का वर्णन करते हैं-“घर में किसी तरह का कोई सामान नहीं था। लकड़ी का सारा सामान, सड़क पर इकट्ठा किया गया था और उसमें आग लगा दी गई थी। मगर सिर्फ इतना ही नहीं हुआ था, दिलीप को उसके घर वालों सहित तारों से बाँधकर उसी आग में डाल दिया गया था। जब हम वहाँ पहुँचे उस वक्त भी वे वहीं थे, जले-अधजलेप एक बूढ़ी सरदारनी कोयले से मैले हो रहे कपड़ों में वहाँ बैठी थी, अपने हाथों से मक्खियों को उड़ाने की कोशिश करती हुई। क्या वह दिलीप की माँ थी?”6 इस प्रकार मुद्रा जी ने ग्रामीण संबंधों के बनते-बिगड़ते यथार्थ का चित्रण गहराई से किया है।
(ग) दलित एवं आदिवासी समाज का यथार्थ- मुद्राराक्षस नेदलित और आदिवासी समाज का चित्रण बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है। सदियों से दबे, कुचले और वर्ग विशेष द्वारा सताए गए समाज का चित्रण करके वह समता मूलक समाज की स्थापना करना चाहते हैं-“दलित प्रश्न पर मुद्रा जी केवल सामाजिक समरसता, समता और स्वतंत्रता तथा बंधुत्व की ही उदारचेता बुध्दि वृत्ति के पक्षधर हैं। जहाँ सदियों से उपेक्षित, पीड़ित, त्रासित और वंचित जनों की स्वतंत्रता एवं समता के लिए सुखद स्वप्न एवं उनकी पीड़ा के प्रति आक्रोश एवं वर्णवादी शोषकों के प्रतिक्षोभ का स्वर है।”7
दलित जीवन की त्रासदी का यथार्थ नंदिता के उस कथन में चित्रित है, जहाँ उसे असह्य पीड़ाएँ झेलनी पड़ीं क्योंकि उसके पास जीवन गुजारने के कोई संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। उस दलित की पीड़ा को नंदिता अपने शब्दों में अभिव्यक्त करती है-“इनके पास ज़मीन नहीं है। इन्हें जीवन में कभी किसी दवा की एक टिकिया नहीं मिलीप इनके बच्चों को शिक्षा नहीं मिली। इनके पास कोई काम, कोई रोजगार,कोई धंधा नहीं है।”8
दलित समाज के यथार्थ के साथ-साथ रचनाकार आदिवासी समाज की सच्चाई को भी सामने लाता है कि किस प्रकार से उसका आदिवासी दोस्त खेत से बड़ी मुश्किल से चूहे पकड़ता है। हलवाई की दुकान से आग लाता है और उसे भूनता है। चूहे के साथ महुए का पका-अधपका फल भी उसी आग में डालकर भूनता है। ऐसा नहीं की यह कार्य किसी मज़बूरी बस किया जा रहा है, यह तो आदिवासी समाज के जीवन-यापन की प्रक्रिया का एक अंग है। चाहे महुए के पके-अधपके फल की बात हो या चूहे भूनने की बात यह आदिवासी समाज के यथार्थ को पूर्ण रूपेण चित्रित करता है-“चूहे लगभग भुन ही गए थे। मुसहर नोहरी ने चूहे निकाल लिए पनोहरी ने कमर में लपेटे कपड़े से नमक की एक कंकड़ी निकाल लीप दाँत से तोड़ कर उसका एक टुकड़ा मुझे भी दिया। भूख भी जायका बनाती है। यह नहीं है कि हम कोई अकाल पीड़ित थे और बेहद भूखे थे मगर जो कुछ भी खाने के अभ्यस्त थे वही हमारे जायके का निर्धारण करता था।”9
(घ) जीवन के बदलते नैतिक मूल्यों का यथार्थ- ‘अर्धवृत्त’ उपन्यास में रचनाकार की विवेकपूर्ण दृष्टि समाज की हर समस्याओं पर पड़ी है जिसके कारण सामाजिक यथार्थ अनेक रूपों में दिखाई देता है। उपन्यास का यथार्थ भोगे हुए व्यक्ति का अनुभव जान पड़ता है। सामाजिक यथार्थ को उद्घाटित करने के लिए रचनाकार कई प्रकार की समस्याओं को पाठक के सामने लाता है। व्यक्ति के जीवन में त्याग, उदारता,सत्यवादिता, परोपकार,विनम्रता, क्षमा,सहानुभूति आदि जो नैतिक मूल्य हैं उसके स्थान परचोरी, डकैती,शोषण, छेड़खानी,अत्याचार, भ्रष्टाचार आदि बढ़ता जा रहा है। हमारे जीवन के जो नैतिक मूल्य थे वे परिवर्तित होते जा रहे हैं।
किस प्रकार से प्रभावशाली लोग भोली-भाली जनता को अपने शिकंजे में फँसाकर उनका शोषण करते हैं, जिससे समाज में अनेक प्रकार का भ्रष्टाचार व्याप्त हो जाता है। इस कार्य में सरकारी अफसर और पुलिस प्रशासन भी पीछे नहीं रहती। पुलिस किस प्रकार से अपने कर्त्तव्यों के विरुद्ध कार्य करते हुए भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है। जिस समाज की सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस प्रशासन की है, वह खुद ही समाज में अराजकता फैलाने का कार्य करता है। मुद्राजी ने एक साथ जीवन के बदलते कई नैतिक मूल्यों का यथार्थ चित्रित कर दिया है-“हैरानी की बात है तो यह है कि ज़मींन हड़पने, फ़सल पर क़ब्ज़ा करने, औरतों को उठवा लेने, सिर्फ उठकर सलाम न करने पर मृत्युदण्ड देने वाले इन सुखासिनों के विरुद्ध पुलिस एक रिपोर्ट तक नहीं लिखती। अगर रिपोर्ट लिख ली तो रिपोर्ट लिखाने वाले का नाम-पता अत्याचारी को पहुँचाती है और फिर अत्याचारी अफसर पुलिस की मौजूदगी में रिपोर्ट करने वाले को सरेआम फूँस के ढेर में लिपटवा कर मिट्टी का तेल डालता है और ज़िंदा जला देता है।”10
सामाजिक यथार्थ के अन्तर्गत सामाजिक कुरीतियों, ढोंग और अंधविश्वास का चित्रण भी अर्धवृत्त उपन्यास में दिखाई देता है। ‘मुद्रा’जी ने ‘अर्धवृत्त’ में अन्ध-विश्वास के अंतर्गत कर्मकाण्ड, धार्मिक विश्वास,तंत्र-मंत्र, जादू-टोना और भूत-प्रेत आदि का यथार्थ चित्रण किया है। कब्रिस्तान की घटना का वर्णन करके उस यथार्थ को दिखाने का प्रयास किया है कि लोगों को भूत-प्रेत के नाम पर कैसे डराया जाता है-“कुछेक वरष बाद मुझे पता चला बच्चे कब्रिस्तान से बहुत डरते थे क्योंकि उनके परिवार वाले उन्हें बताते थे कि कब्रिस्तान जैसी जगहों पर भूत और प्रेत रहते थे। किसी को देखकर वे कब्रों से बाहर आ जाते थे और नोच-नोच कर चबा डालते थे।”11
इन अंधविश्वासों और ढोंग आदि में भोले-भाले ग्रामीण जन आज भी फँसे हुए हैं। गाँव में ओझा-सोखा लोग भूत-प्रेत,जादू-टोना आदि के माध्यम से ग्रामीणों को मानसिक तौर पर परेशान करते हैं और उनके अन्दर दहशत का भाव पैदा करते हैं। सोखा लोग राख की भभूत बनाकर देते हैं और उससे सभी प्रकार की आशंकाओं और बाधाओं के दूर हो जाने का भरोसा देते हैं। मुद्रा जी ने इसे ‘अर्धवृत्त’ में इस प्रकार चित्रित किया है-
“अबे ये क्या है? सर, ये भभूत है।
भभूत? मेरे घर में?
सर, आपके लिए नहीं, मेरे अपने लिए है। इससे आपकी बाँधाएं दूर हो जाएँगी।”12
अनेक अन्धविश्वास जब अधिक दिनों तक किसी समाज में बने रहते हैं तो वे रूढ़ियों का स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। ‘मुद्रा’ जी ‘अर्धवृत्त’ में दिखाते हैं कि हमारे समाज में यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस व्यक्ति को दो जून की रोटी नसीब नहीं होती, शरीर ढकने को वस्त्र नहीं मिल पाता उसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद बड़े-बड़े मृत्यु-भोज आयोजित किये जाते हैं।‘अर्धवृत्त’ उपन्यास का ऐसा ही एक पात्र है महेन्द्र। छत की रेलिंग टूट जाने से महेन्द्र नीचे आ गिरता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। बड़े ही विधि-विधान से उसका अंतिम संस्कार होता है। उपन्यासकार टिप्पणी करता है-“उसे बड़े धार्मिक कर्मकाण्ड से जलाया गया, उसके बेटे का सिर घुटाकर। आखिर किसलिए? क्या मिलना था इससे महेन्द्र को?… क्या रिश्ता हो सकता था उस कर्मकाण्ड और महेन्द्र में।”13
इस प्रकार से हमारे समाज में तमाम तरह की रूढ़ियाँ और कर्मकाण्ड व्याप्त हैं। एक और रूढ़ि को चित्रित करते हुए ’मुद्रा’जी कहतें हैं कि किस प्रकार से उनकी माँ, उनके पिता का नाम न लेकर ए जी, ओ जी कहकर बुलाती थीं। सर्प का नाम न लेकर उसे कीड़ा कहती थीं क्योंकि ऐसी धारणा थी कि साँप का नाम लेने से साँप सचमुच निकल आता है। मुद्रा जी इस प्रकार के कर्मकाण्ड और रूढ़ियों को समाज के लिए घातक मानते थे, इस कारण उसके यथार्थ चित्र को समाज के सम्मुख उजागर किया।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि ‘अर्धवृत्त’ उपन्यास में चित्रित सामाजिक यथार्थ के अंतर्गत ‘मुद्रा’ जी ने समाज का वास्तविक अंकन किया है। उन्होंने जो कुछ भी लिखा है भोगा हुआ यथार्थ लिखा है। उस यथार्थ को जाना है, परखा है, उसके वह खुद साक्षी हैं। उनमें जीवन यथार्थ से टकराने की हिम्मत है, यही कारण है कि सामाजिक यथार्थ से जुड़े चित्रों को उभरा है। परिवार में मतभेद, कलह, परिवार का टूटना, सामाजिक सम्बन्धों में खटास, साम्प्रदायिकता, ऊँच-नीच का भेदभाव, जातिगत पीड़ा, अन्धविश्वास, और सामाजिक कुरीतियाँ आदि समाज में आज भी व्याप्त हैं। इन सभी बुराइयों पर कुठाराघात करने के लिए सामाजिक यथार्थ को चित्रित करना आवश्यक है। ‘मुद्रा’ जी ने ‘अर्धवृत्त’ उपन्यास में इसी सामाजिक यथार्थ को चित्रित करने का सफल प्रयास किया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-
1. मिश्र शिवकुमार, यथार्थवाद, द मैकमिलन कम्पनी ऑफ इण्डिया लिमिटेड, दिल्ली, 1983, पृष्ठ- 156
2. मुद्राराक्षस, अर्धवृत्त, किताब घर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृष्ठ- 419
3. मुद्राराक्षस, आलोचना और रचना की उलझनें, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृष्ठ- 27
4. ठाकुरहरिनारायण, दलित साहित्य का समाजशास्त्र, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन,नई दिल्ली, पृष्ठ- 379
5. तिवारीप्रो. जयकान्त, भारत का समाजशास्त्र,अवध पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ, तृतीय संस्करण, 2018,पृष्ठ- 79
6. मुद्राराक्षस, अर्धवृत्त, किताब घर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृष्ठ-88
7. दासविनय, मुद्राराक्षस सृजन एवं सन्दर्भ, गरिमा प्रकाशन, बाराबंकी, पृष्ठ- 61
8. मुद्राराक्षस, अर्धवृत्त, किताब घर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृष्ठ- 510
9. वही, पृष्ठ- 360
10. वही, पृष्ठ- 514
11. वही, पृष्ठ- 33
12. वही, पृष्ठ- 502
13. वही, पृष्ठ- 166

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