ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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इस्राइल-फिलिस्तीन संघर्ष (06.05.2021 से 16.05.2021 तक)

डा0 रश्मि फौजदार
प्राचार्या (कार्यवाहक)
मुस्लिम गर्ल्स डिग्री कॉलिज, बुलन्दशहर

ग्यारह दिन होते न होते इस्राइल और फिलिस्तीन के बीच हिंसा का एकाएक मिस्र के प्रयासों से खत्म हो जाने में कुछ भी अप्रत्याशित नहीं। कारण, 71 वर्ष लंबे समय से चली आ रही किसी भी लड़ाई का निर्णायक फैसला इतनी जल्दी नहीं आता। कालखंड का कोई विशेष क्षण ही होगा जब यह लड़ाई खत्म हुई कहीं जा सकेगी। बहरहाल, बीते ग्यारह दिनेां में इतना तो साफ हो गया कि वैश्विक मंच दिखावे भर के हैं। बड़े देश स्वयं इस्राइल और फिलिस्तीन के बीच हिंसा के दौरान अपने हित साधते दिखलाई पड़ें। उनके अपने एजेंडा थे, जिन्हें पूरा करने की जुगत में वे भिड़े पड़े थे। मुस्लिम देशों के झंडाबरदार बनने को आमादा देशों की ’जमीन’ का भी पता चला कि वे कहां खड़े हैं। भारत जो कूटनय दिखाया, वह भी अप्रत्याशित नहीं था। भारत का फिलिस्तीन पुराना मित्र है, इस्राइल के प्रति भी ऐसा ही भाव भारत का रहा है। लेकिन बीते तीन दशकों से भारत इस्राइल के ज्यादा करीब दिखा है। लेकिन भारत ने दोनों पक्षों के प्रति संतुलित प्रतिक्रिया दिखाते हुए कुशल राजनय का परिचय दिया है। बहरहाल, ’’लंबे समय से संघर्ष की मुद्रा में बने रहने वाले इन दोनों पक्षों की आपसी लड़ाई में फिलिस्तीन का गरीब अवाम पिसता रहा है। तमाम देश अपना वर्चस्व जमाए रखने और राजनीति के चलते फिलिस्तीनियों को गहरे घाव देते रहे हैं। बीते 71 वर्षों से यह सिलसिला अनवरत जारी है। अभी लड़ाई थम गई है, लेकिन यह पूर्ण विराम नहीं है।’’1
मध्य-पूर्व में लगी आग पर दो हफ्ते से भी कम समय में पानी पड़ जाना दुनिया के लिए खुशखबरी से कम नहीं है। इससे इस्राइल और फिलिस्तीन के बीच सुलगी आग कितनी ठंडी पड़ेंगी, यह भले बहस का विषय बना रहे, लेकिन फौरी तौर पर इतना जरूर होगा कि अगले कुछ दिनों या महीनों तक गाजा में गोला-बारूद का और बाकी दुनिया में तीसरे विश्व युद्ध का शोर कमजोर पड़ जाएगा। ग्यारह दिनों की जंग के दौरान दुनिया भर से हिंसा रोकने की आवाजें सुनाई देती रहीं, लेकिन आखिरकार काम पड़ोसी ही आया। 200 से ज्यादा जिंदगियों के बेरंग होने के बाद ही सहीं, लेकिन मिस्त्र की पहल पर इस्राइल को मध्यस्थता के लिए तैयार होना ही पड़ा।
ऐसी भी खबरें हैं कि इस दिशा में कतर और जॉर्डन के अलावा संयुक्त राष्ट्र ने भी अपने स्तर पर प्रयास किए। अमेरिका को भी सीजफायर का कुछ श्रेय दिया जा रहा है, जबकि सच तो यह है कि जो बाइडेन बेशक, सीजफायर का समर्थन करते रहे, लेकिन लड़ाई रोकने की अपील उन्होंने तब की, जब एक मध्यस्थ के रूप में मिस्त्र अपनी भूमिका को काफी व्यापक बना चुका था। पिछले कुछ दिनांे में मिस्त्र ने वेस्ट बैंक में रामल्लाह और इस्राइल के तेल अवीव में सीजफायर के लिए कई बार अपने प्रतिनिधिमंडल को भेजा। कोशिशें जिसकी भी रंग लाई हो, अच्छी बात यह है कि मध्य-पूर्व की चिंगारी किसी बड़ी आग में बदलने से पहले बूझा ली गई है। लेकिन इस घटनाक्रम ने उसी पुराने सवाल को नये सिरे से सुलगा दिया है कि क्या 73 साल की इस समस्या का कभी मानवीय समाधान हो सकेगा या दोनों देश सामरिक स्वार्थ के लिए इसी तरह जानमाल की कुर्बानी देते रहेंगे?
दुर्भाग्य से इस सवाल के दूसरे हिस्से में छिपी आशंका बार-बार पहले हिस्से की उम्मीद पर भारी पड़ती आई है। ताजा मामलें में भी दुनिया साफ तौर पर दो खेमों में बंटी दिखाई दी। अमेरिका समेत ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे कई यूरोपीय देशों ने फिलिस्तीन की सुरक्षा पर चिंता जताने का जुबानी जमाखर्च तो किया, वहीं खुले तौर पर इस्राइल के आत्मरक्षा के अधिकार का बचाव भी किया। घरेलु मोर्चे पर भ्रष्टाचार और अल्पमत की सरकार की चुनौतियों से जूझ रहे इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने भी इस समर्थन को हाथों हाथ लिया और जंग के बीचों बीच ट्विटर पर 25 देशों का शुक्रिया भी अदा कर दिया। दूसरे खेमे से तुर्की ने भ्ीा एक क्षेत्रीय संघर्ष को मुसलमानों की आन की लड़ाई की तरह पेश करने में कोई कंजूसी नहीं दिखाई। उसकी अगुवाई में इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाईजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) ने इस्राइल को भयानक नतीजों की चेतावनी तक दे डाली। शुक्र है कि इसकी नौबत नहीं आई, लेकिन जंग जारी रहने तक इस्राइल ने इस चेतावनी को कितनी गंभीरता से लिया, इसका अंदाजा गाजा में हुए नुकसान से लगाया जा सकता है।
दरअसल, यह नुकसान से लगाया जाा सकता है। ही ओआईसी की साख का भी हुआ है। 50 साल पुराने इस संगठन में 57 इस्लामिक देशों की हिस्सेदारी है। सदस्यता के लिहाज से संयुक्त राष्ट्र के अलावा दुनिया में इतना बड़ा दूसरा कोई संगठन नहीं है। 1971 में इसका नींव पड़ने का मकसद ही फिलिस्तीन को इस्त्राइल से बचाना था। लेकिन इसमें शामिल देशों के अपने-अपने स्वार्थ ने इसकी पहचान को एक धार्मिक संगठन तक कैद करके रख दिया है। सऊदी अरब एक तरफ अपनी छोटी-से-छोटी जरूरत के लिए अमेरिका के आसरे है, तो दूसरी तरफ वहाां के शाही परिवार का डॉलर में भारी-भरकम निवेश हे। तुर्की कहने को तो मुस्लिम देशों का सरपरस्त बनता है, लेकिन इस्त्राइल से उसके रिश्ते सात दशक पुराने हैं, जो आज कई बिलियन डॉलर के सालाना कारोबार में बदल चुके है। इस्लाम से संबंधित किसी मुद्दे पर उसका विरोध जुबानी जमाखर्च से ज्यादा नहीं होता। इसी तरह पूर्व अमेरिका राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में आए ‘अब्राहम अकॉर्ड’ के जरिए संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, सूडान और मोरक्को तक इस्त्राइल को मान्यता दे चुके हैं। पाकिस्तान जैसे चुनिंदा देशों को छोड़ दिया जाए, तो ओआईसी में शामिल लगभग हर बड़ा मुस्लिम देश किसी -न-किसी रूप में या तो इस्त्राइल से जुड़ा है, या उसका सायोग करता है।
इस पूरे विवाद पर भारत की ओर से एक जिम्मेदार देश की तरह सधी प्रतिक्रिया देखने को मिली। भारत नने दोनों देशों को संयम से काम लेने और बातचीत से मामला सुलझाने की नसीहत दी। भारत और इस्त्राइल के हाल के दिनों के रिश्तों को देखते हुए भारत का यह स्टैंड भले ही हैरान करे, लेकिन इतिहास ऐसे ही रूख की पैरावी करता रहा है। पिछले सात दशक के पहले चार दशकों तक भारत की छवि फिलिस्तीन समर्थक देश की रही हैं, जबकि पिछले तीन दशकों में भारत दोनों देशों के बीच संतुलन साधता रहा है। हाल के वर्षो में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और इस्त्राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू के बीच गर्मजोशी भरे रिश्तों के बाद दोनों देशों के सामरिक संबंधों ने नया दौर देखा है। इसके बावजूद इस्त्राइल के पक्ष में खुलकर खड़ा होना भी भारत के लिए संभव नहीं है। इसकी दो वजह हैं। पहली तो यह कि फिलिस्तीन की जमीन पर इस्त्राइल के कब्जे का समर्थन करने के बाद पाक अधिकृत कश्मीर और अक्साई चिन के मोर्चे र भारत के दावे की नैतिक दमदारीी कमजोर होती है। दूसरी इस्त्राइल का समर्थन मतलब अरब देशों की नाराजगी जिनके साथ भारत का करीब 121 अरब डॉलर का कारोबार है, जो कुल सालाना विदेशी कारोबार का 19 फीसद बैठता है। इसकी तुलना में इस्त्राइल से भारत केवल पांच अररब डॉलर का कारोबार करता है। केवल इतना ही नहीं अरब देशों से हमारा मेल वहां से आने वाले तेल और बडे़ पैमाने पर मिलने वाली नौकरियों से भी जाकर जुड़ता है।
द्विपक्षीय संबंधों से आगे बढ़कर देखें, तो सवाल फिर वहीं जाकर जुड़ता है। दुनिया के इस सबसे लंबे संघर्ष का भविष्य क्या है? आज जब हर कोई इस विषय पर अपनी राय रख रहा है, तो यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि बापू इस बारे में क्या सोच रखते थे। पांच मई, 1947 को उन्होंने रॉयटर को एक इंटरव्यू दिया था और उसका वक्त ही कह दिया था कि यह ऐसी समस्या बन चुका है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है। उस इंटरव्यू में बापू ने इस समस्या को यहूदी धर्म, राजनीतिक खींचतान, धार्मिक प्यास जैसे कई विषयों से जोड़ते हुए बहुत साारी काम की बातें कही थीं। इन्हीं में से एक काम की बात यहूदियों को अमेरिका और ब्रिटेन की चाल मेें नहीं फंसने की सलाह भी थी। दुर्भाग्य से यह सलाह नजर अंदाज हुई जो कालांतर में मध्य-पूर्व का नासूर बन गई। अब एक तरफ अमेरिका खडा है, जो इस्त्राइल के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी से कोई अंरराष्ट्रीय कार्रवाई नहीं होने देगा, दूसरी तरफ ईरान, तुर्की जैसे देश हैं, जो हमास जैसे संगठनों को खाद-पानी देकरर इस्लामी जिहाद को हवा देने का काम करते रहेंगे। इसलिए जो शांति पसंद हैं, वो बस उम्मीद ही कर कसते हैं कि इस लड़ाई का अंत एक नई जंग की शुरूआत न हो।
बहरहाल, अभी तक ’’यह लड़ाई फिलिस्तीन बनाम हमास अथवा अरब दुनिया और इस्त्राइल के बीच दिख रही थी लेकिन अब इसमें इस्लाम बनाम जियोनिज्म की निर्णायक फैक्टर बनता दिख रहा है। इस्त्राइली फिलिस्तीनियों का विद्रोह इसी से प्रेरित दिख रहा है।’’2 कारण यह कि कई इस्लामी देश जियोनिज्म अथवा यहूदीवाद को इस्त्राइल की मूल विशेषता मानते हैं। उनका यह भी मानना है कि इस्त्राइली नेतृत्व इसे दैवी हैसियत प्रदान कररने के लिए सैन्य शक्ति का प्रयोग करता है। इस्त्राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू स्वयं इसी दिशा में वढ रहे हैं। जाहिर सी बात हे कि इस्त्राइल के अंदर रह रहे फिलिस्तीनी (अरब) भी इससे अछूते नहीं रहेंगे। संभव है कि उनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी हो। इाकस मतलब हुआ कि यह लड़ाई उतनी सरल और एकल रेखीय नहीं है, जितना कि कभी-कभी मान लिया जाता है। यह बेहद जटिल और उलझी हुई है, और संभावना हे कि अभी और उलझेगी। तो क्या येरुशलम की धरती अभी और अशांत होगी?
निस्संदेह इस्त्राइल और हमास के बीच जारी भीषण संघर्ष विश्व समुदाय के साथ भारत के लिए भी विशेष चिंता का कारण होना चाहिए। कोरोना महाप्रकोप से जूझते हुए भी साउथ ब्लॉक की पश्चिम एशिया इकाई भी किसी न किसी रूप में वहां सक्रिय होगी इस्त्राइल राष्ट्र के निर्माण देशों से संबंध के ािरण राजनयिक संबंध स्थापित करने में भारत की हिचक कायम रही। प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने साहस दिखाया और 1992 में इस्त्राइल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित हुए। राव ने संयुक्त राष्ट्र में इस्त्राइल के खिलाफ जायनवाद बनाम नस्लवाद प्रस्ताव को खत्म करने के पक्ष में भी मत दिया। इसी तरह 15 नवम्बर, 1988 को जब फिलिस्तीनी मक्ति संगठन या पीएलओ ने स्वतंत्रता की घोषणा की वो उसे मान्यता देने वाले पहले देशों में भारत शामिल था। पीएलओ ने 1975 में भारत में अपना कार्यालय खोला और दोनों देशों के बीच 1980 में राजनयिक संबंध स्थापित हो गए। भारत ने 1996 में फिलस्तीनी नेशनल अथॉस्टिी में अपना कार्यालय खोला। जब फिलिस्तीन 2012 में संयुक्त राष्ट का नॉन मेंबर स्टेट यानी गैर-सदस्य देश बना तो भारत ने उसके पक्ष में तमदान किया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय पर फिलिस्तीनी ध्वज का भी समर्थन किया।
वे भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होने इस्त्राइल की यात्रा की। फिलिस्तीन की यात्रा करने वाले भी पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने। मोदी 4 से 6 जुलाई, 2017 को इस्त्राइल यात्रा पर थे ते 10 फरवरी 2018 को उन्होने फिलिस्तीन का दौरा किया। अगर इस्त्राइल से हमारे संबंध बहुआयागी गहराई तक पहुंचे हैं, तो फिलिस्तलन को भी हमने कभी नजरअंदाज नहीं किया। याद रखिए कि ’’जब अमेरिका ने येरुशलम को इस्त्राइल की राजधानी के रूप में मान्यता दी और भारत के अंदर इसका व्यापक समर्थन था तब भी भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इसके खिलाफ मतदान किया। इसलिए कहना बिल्कुल गलत है कि मोदी सरकार में फिलिस्तीन के प्रति भारत की नीति बदल गई है।’’प्रधानमंत्री मोदी की फिलिस्तीन यात्रा के दौरान राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने उन्हें विदेशियों को दिया जाने वाला सबसे बड़ा सम्मान ग्रैंड कॉलर प्रदान किया तथा कहा कि भारत और फिलिस्तीन के रिश्तों की बेहतरी के लिए मोदी द्वारा उठाए गए कदमों के लिए यह सम्मान दिया गया। मोदी सरकार के ही समय मई, 2017 में फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास भारत दौरे पर आए। प्रश्न है कि वर्तमान भीषण संघर्ष में भारत का रूख क्या होना चाहिए?
जैसा कि विदित है कि इस्त्राइल और फिलिस्तीन के बीच का विवाद कोई एक हफ्ते या एक महीने पुराना नहीं है, बल्कि वर्षों पुराना है। पिछले कुछ दिनों से चल रहे इस्त्राइल और फिलिस्तीनियों के बीच विवाद ने तब खूनी संघर्ष का रूप ले लिया जब इस्त्राइल सुप्रीम कोट के एक प्रत्याशित फैसले पर पूर्वी येरुशलम के कब्जे वाले इलाके शेख जर्राह से छह फिलिस्तीनी परिवारों के बेदखल करने की बात सामने आई। फैसले के विरोध में येरूशलम की अल-अक्सा मस्जिद में फिलिस्तीनियों और इस्त्राइल के सुरक्षा बलों के बीच हिंसक झड़प हुई। इसके बाद फिलिसतीन के आतंकवादी संगठन हमास ने इस्त्राइल पर रॉकेट से हमले शुरू कर दिए। जवाब में इस्त्राइल ने भी आत्म सुरक्षा में हमास के कब्जे वाले गाजा शहर में आतंकवादी ठिकानों पर अवाबी कार्रवाई की।
जबकि तुरंत युद्धविराम महत्वपूर्ण और आवश्यक है। लेकिन इससे ’’इस्त्राइल की समस्या हल होने वाली नहीं है। ऐसे उपाय करने होंगे जिनकी शर्ते इतनी कड़ी हों कि उन्हें तोड़ना संभव ही न हो अन्यथा हिंसा का नया दौर फिर शुरू हो जाएगा।’’4
इस्त्राइल को ’’हिंसा समाप्ति के बाद के परिदृश्य के लिए योजना बनानी होगी जिसका अभिप्रायः राजनीतिक बातचीत दोबारा शुरू करने से होगा।’’5 राष्ट्रपति महमूद अब्बास के नेतृत्व में कमजोर पड़ चुकी फिलिस्तीन नेशनल अथॉरिटी और हमाास निकट भविष्य में स्थायी समाधान के लिए तैयार नहीं हैं। ठीक इसी वक्त यद्यपि हमास के रॉकेटों का सैन्य तरीके से जवाब देना जरूरी है इस्त्राइल को फिलिस्तीन से विवाद के समाधान के लिए बातचीत के रासते पर लाने के रास्ते भी तलाशने होंगे।
इस्त्राइल और फिलिस्तीनी संघर्ष ’’क्या कभी न खत्म होने वाले मिथक जैसा है। कई सालों के बाद एक बार फिर संघर्ष खूनी मंजर को इस्तक दे चुका है।’’6 चरमपंथी संगठन हमास की कार्रवाई केे जवाब में इस्त्राइल द्वारा गाजा पट्टी पर जारी हमलों में सैकड़ों जान जा चुी हैं, जिनमें बच्चे भी शामिल हैं। हालिया बररसों में यह अब तक की सबसे बड़ी घटना है।
भारत के लिए यह संकट ’’गले की फांस बनता जा रहा है। वर्तमान सरकार ने इस्त्राइल के साथ संबंध धनिष्ठ किए हैं, और इनकी सामरिक संवेदनशीलता को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। तथापि हम अपने राजनय से यह संदेश नहीं दे सकते कि हमने फिलिस्तीनियों को उनके भाग्य पर छोड़ दिया है।’’7 रूस, चीन तथा तुर्की अपने भू-राजनैतिक हितों की रक्षा के लिए फिलिस्तीनियों को बेहिचक समर्थन देंगे, इससें संदेह नहीं। यह बदलाव भारत के लिए जटिल चुनौती ही पैदा कर सकता है।
मानवाधिकारों हनन की बात की जाए ’’तो फिलिस्तीनियों के लिए स्वतंत्र राज्य का गठन न होना अभी भी फिलिस्तीन-इस्त्राइल संघर्ष की जड़ है।’’8
यह सारा हंगामा 6 मई 2021 से शुरू हुआ जब इस्त्राइल के सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश जारी किया कि पूर्व येरूशलम से 6 फिलिस्तीनी परिवारों को विस्थापित किया जाए। इस्त्राइल में अभी भी कोई 15 लाख अरबी रहते हैं यानी इस्त्राइल की जनसंख्या के 20ः। इससे इस्त्राइल का नक्शा करीब-करीब वैसा ही बनता है जैसा बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तान का था। ऐसी अप्राकृतिक राजनीतिक संरचना साम्राज्यवाद की कुटिलता की देन है, जो हमेशा सावधान थी, और आज भी है कि वह कहीं से निकल भी जाए तो भी वहां उसकी दखलंदाजी चलती रहे। और इस्त्राइल तो साम्राज्यवादी ताकतों की सबसे दुष्टतापूर्ण संरचना है, जिसे यहूदियों के गले में जबरन बांध दिया गया जबकि उनके वहां होने का कोई औचित्य था ही नहीं।
अब तक के ’’सभी अरब-इजरायल युद्धों की तरह यह भी निर्णायक नही हुआ और दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी जीत का दावा किया।’’9 हमास का कहना है, उसने इजरायली हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया और इजरायल ने कहा कि उसने हमास के सैकड़ों लड़ाकों को मार गिराया। जीत के दावे अपनी जगह, लेकिन वास्तविकता यही है कि इस लड़ाई के असली शिकार भी दोनों पक्षों के आम नागरिक ही हैं। हमास का कहना है कि इस जंग में 253 फलस्तीनी मारे गए, जिनमें 65 बच्चे हैं। करीब 2,000 नागरिक इस लडाई में जख्मी हुए हैं। उधर इजरायल के 12 नागरिक मारे गए हैं, जिनमें एक सैनिक और एक बच्चा है। फलस्तीन में इस युद्ध से जो इमारतें गिरी हैं और बुनियादी सुविधाओं को नुकसान पहुंचा है, वह फलस्तीनियों के पहले से ही कठिन जीवन को और कठिन बना देगा। दूसरी ओर, इजरायल को पला चल गया है कि तमाम सैनिक वर्चस्व के बावजूद हमास पर निर्णायक जीत निकट भविष्य में संभव नहीं है और तमाम आयरन डोम सुरक्षा के उसके नागरिक पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। यह बहुत स्पष्ट है कि फलस्तीन-इजरायल विवाद का कोई निर्णायक हल युद्ध से नहीं निकल सकता। आखिरकार यह विवाद भी आपसी बातचीत और समझदारी से ही सुलझना है, लेकिन अभी दोनों पक्षों के पास ऐसा प्रभावी नेतृत्व नहीं है, जो शांति के लिए पहल कर सके, न अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में ऐसा कोई तटस्थ मध्यस्थ है, जिसकी ऐसी विश्वसनीयता हो। ऐसे विवादों में जो अक्सर होता है, वही यहां भी हुआ है कि दोनों तरफ के अतिवादियों ने मध्यमार्गी और शांतिप्रिय शक्तियों को हाशिये पर धकेल दिया है। लंबी खिंचती शांति-प्रक्रिया में धीरे-धीरे मध्यमार्गी फलस्तीनी मुक्ति संगठन और फलस्तीन के अधिकृत नेता महमूद अब्बास को अप्रासंगिक बना दिया है। उग्रवादी संगठन हमास के हाथों में असली ताकत है। हमास को इजरायल, अमेरिका और अन्य कई देश आतंकी संगठन मानते हैं। दूसरी तरफ, इजरायल में कट्टर दक्षिणपंथी ताकतें राजनीति में वर्चस्व बनाए हुए हैं।

संदर्भ सूची
1. उपेन्द्र राय, मुख्य कार्यकारिणी अधिकारी एवं एडिटर इन चीफ, सहारा न्यूज नेटवर्क, नई जंग की शुरूआत या लड़ाई का अंत, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 22 मई 2021
2. डॉ0 रहीस सिंह, वैदेशिक मामलों के जानकार, ’और अशांत हो सकती है येरूशलम की धरती’, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 22 मई 2021
3. अवधेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार, हमास रूकेगा तो इस्राइल रूकेगा, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 22 मई 2021
4. रितेश कुमार राय, सहायक प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय, भारत की भूमिका, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 22 मई 2021
5. प्रोफेसर, पीआर कुमारस्वामी, जेएनयू, तलाशने होंगे बातचीत के रास्ते, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 22 मई 2021
6. प्रेम आनंद मिश्र, शोधार्थी, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू, अमेरिकी प्रभाव के मायने, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 22 मई 2021
7. पुष्पेश पंत, जाने माने राजनीतिक टीकाकार, आत्मघाती डगर पर फिलिस्तीनी युवा, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 22 मई 2021
8. प्रो0 एके रामकृष्णन, संेटर फॉर वेस्ट एशियन स्टडीज, जेएनयू, संघर्ष और मानवाधिकार, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 22 मई 2021
9. कुमार प्रशान्त, लंगड़ी दुनिया की अंधी दौड़, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), नई दिल्ली, 22 मई 2021

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