ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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गांधी-धर्म, सभ्यता-संस्कृति एवं शासन

डॉ0 विजय प्रताप मल्ल
एसो0 प्रो0 (राज0शा0)
जवाहरलाल नेहरू पी0जी0 कालेज, बाराबंकी

गांधी जी एक व्यवहारिक चिंतक थे। उनका जीवन उनके चिंतन को व्यक्त करता है। गांधी जी की धर्म विषयक अवधारणा एक व्यावहारिक और गंभीर जीवन दर्शन है। गांधी जी का समस्त जीवन धर्म से ही परिचालित था। गांधी जी कहते थे- ‘‘मनुष्य का समग्र कार्य व्यवहार एक अविभाज्य इकाई है हम सामाजिक आर्थिक राजनीति क तथा विशुद्ध रूप से धार्मिक क्रियाओं को विभिन्न अंशों में विभक्त नहीं कर सकते। मानव क्रिया से अतिरिक्त मैं किसी धर्म को नहीं जानता। धर्म ही समस्त क्रियाओं को वह नैतिक आधार प्रदान करता है जो उनमें अन्यथा नहीं रहेगा। धर्म के अभाव में जीवन एक निरर्थक रूप में ही रह जाएगा।‘‘ सवाल यह है कि गांधी की धर्म विषयक समझ क्या है? क्या यह किसी विशेष धर्म अथवा विभिन्न धर्मों से ली गई है अथवा मौलिक है?
वस्तुतः गांधीजी हिदंू ,ईसाई, इस्लाम तथा जैन धर्म से प्रभावित थे लेकिन उनके धार्मिक विचार इन विशेष धर्मो ंसे आगे जाकर अपनी जमीन तलाशते हैं। ईश्वर में विश्वास इसकी बुनियाद है। गांधी की सोच थी कि ईश्वर शब्द से किसी व्यक्ति या चीज का बोध ध्वनित होता था, इसलिए वह सनातन नियम, सर्वोच्च चेतना, या शुद्ध प्रज्ञा शब्द के प्रयोग को प्राथमिकता देते थे। फिर ईश्वर को उन्होंने सत्य कहा। गांधी के अनुसार ईश्वर को सत्य कहना सही और पूर्णता प्रासंगिक है। भारतीय दार्शनिक परपंरा का अनुसरण करते हएु उन्होंने अस्तित्व के आधार के रूप में सत्य का प्रयोग किया। सत्य ही है जो बदलाव के दौर में भी कायम रहता है और इस संपूर्ण जगत को बांधे रहता है। लंबे समय तक उन्होंने कहा कि ईश्वर ही सत्य है। जिसका एक अभिप्राय था कि सत्य ईश्वर के अनके गुणों में से एक गुण है और ईश्वर सत्य से पूर्व उपस्थित है, यानी ईश्वर पहले है और सत्य बाद में। 1926 में उन्होंने इस कथन को बदल दिया और कहा ‘सत्य ही ईश्वर है‘। इस कथन को उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण खोजों में से एक बताया और इसे वर्षो ंके गहन चिंतन का सार कहा। पुराने कथन की तुलना में इस नए कथन के कई फायदे थे। यह मानव केंद्रित हो जाने से बचाता था और इसके अनुसार सत्य पहले है और ईश्वर बाद में। सत्य को ईश्वर कहने से इसमें कुछ नया नहीं जुड़ जाता था। सच्चा नास्तिक भी अपने तरीके से इस जगत के रहस्यों को सुलझाने की कोशिश और सत्य की तलाश करता था इसलिए नया कथन नास्तिक और आस्तिक के बीच संवाद का सामान आधार प्रदान करता था। गांधी अनके नास्तिकों से परिचित हैं जिन्हें आध्यात्मिक और गुड़ अनुभूति यां थी। वह इन्हें धार्मिक विमर्श की सीमा से बाहर नहीं रखना चाहते थे।
गांधी के लिए सर्वव्यापक चेतना या सत्य नैतिकता सहित तमाम गुणों से परे था। उन्होंने इसे इस तरह प्रस्तुत किया कि वस्तुतः ईश्वर निराकार और वर्णनातीत है। ईश्वर के लिए जो भी विशेषण शुद्ध उद्देश्यों के साथ हम प्रयोग करते हैं वे हमारे लिए तो सच्चे हैं किंतु मूलतः वे झूठे हैं। आगे वे कहते हैं ईश्वर को हमारा तर्क समझ नहीं सकता। सर्वव्यापक चेतना व्यक्तित्व आदि गुणों से परे थी, फिर भी गांधी ने तर्क दिया कि मनुष्यों के लिए इसके मानवीकरण से खुद को बचाना कठिन था। इद्रिंयों के वशीभूत मानव मस्तिष्क को जब गुणों से परे सोचने के लिए कहा जाए तो वह कुछ समझ नहीं पाता था। मनुष्य ना केवल सोचता बल्कि महसूस भी करता था इसलिए दिल और दिमाग की आवश्यकताएं भी अलग अलग थी। गुणों से परे सर्वोच्च चेतना या शुद्ध प्रज्ञा का विचार दिमाग को तो संतुष्ट करता था परतंु दिल की संतुष्टि के लिए अलग अमूर्त और तटस्थ था ।
इस हृदय को एक ऐसे ह्रदय युक्त अस्तित्व की जरूरत थी जिसमें गहरी भावनाए ंहो और जिससे हर कोई भावनात्मक रूप से जुड़ सकें। इसलिए एक व्यक्ति गत ईश्वर की जरूरत थी। जहां तक धर्म का प्रश्न है गांधी के लिए धर्म एक मार्ग है जिससे हम ईश्वर को समझ सकते हैं एवं उससे जुड़ सकते हैं। गांधी ने ईश्वर की निर्वैयक्तिक एव ंवैयक्तिक दोनों अवधारणाए ंप्रस्तुत कीं। उन्होंने धर्म के दो अलग स्तरों में भेद किया । औपचारिक, प्रथागत या ऐतिहासिक धर्म ईश्वर की विशिष्ट अवधारणा पर आधारित थे जिसमें उन्होंने ईश्वर को मानवीय मस्तिष्क की सीमित श्रेणियों में बदल दिया था और मानवरूपी गुण प्रदान कर दिए थे। इन धर्मो ंमें प्रार्थना, पूजा, कर्मकांड, ईश्वर से प्राप्त की इच्छा और अन्य बातें सभी संप्रदायवादी थी। गांधी के लिए प्रचलित हिदं,ू इस्लाम, ईसाई, यहूदी और सभी अन्य धर्म इस श्रेणी में शामिल थे। सच्चा, शुद्ध या सनातन धर्म इन धर्मो ंसे आगे जाता था। इसने धर्म को कर्मकांडों, पूजा और रूढ़ियों से अलग किया और सर्वव्यापी चेतना में आस्था व जीवन के हर क्षेत्र में इसे अनुभव करने की प्रतिबद्धता को शामिल किया। ऐसा धर्म आध्यात्मिकता के शुद्धतम स्वरूप को प्रस्तुत करता था और बताता था कि दैवीय भाव को किसी एक धर्म में समा लेना जटिल था। ऐसा धर्म संगठित धर्मो ंसे परे अवश्य जाता था परतंु उनका अतिक्मण नहीं करता था। वह उन सब के लिए समान आधार और संपर्क सूत्र का काम करता था, जबकि संगठित धर्म वैध थे और ईश्वर की सीमित छवि पेश करते थे। गांधी के लिए धर्म का मतलब इस बात से था कि कोई व्यक्ति अपनी जिदंगी किस तरह जिया, ना कि इस बात से कि वह किस पर आस्था रखता था । धर्म का संबधं जीवित एवं जागृत अवस्था से था ना कि रूढ़ियों के सूखे ढेर से।
धर्मशास्त्रों का इससे संबधं नहीं था इन्होंने धर्म का अति बौद्धिकीकरण किया, इसे मतों में सीमित किया और स्तरीकृत सामाजिक व्यवस्था एवं उससे जुड़े विशेषाधिकारों की व्यवस्था पर बल दिया। गांधी के लिए धर्म का मर्म नैतिकता थी ना कि धर्मशास्त्र। नैतिकता का निर्णय ईसाई मिशनरियों द्वारा किए गए दावों के अनुसार दार्शनिक संगतता व आस्था की गुणवत्ता से नहीं बल्कि इसके स्थान पर धर्म के आदर्शो ंऔर जीवन की गुणवत्ता से किया जाना था। गांधी के अनुसार दुनिया भर में व्याप्त असत्यों में से सर्वाधिक प्रमुख असत्य धर्मशास्त्र हैं। मैं नहीं कहता कि उनकी जरूरत नहीं है। दुनिया में ऐसी बहतु सी संदेह युक्त चीजें हैं, जो मांग में है। लेकिन जिनका साबका रोजाना धर्मशास्त्रों से पड़ता है, उन्हें तो इन्हें बचाना चाहिए। मैं ऐसे दो ईसाई मित्रों को जानता हूं जिन्होंने धर्म शास्त्रों को छोड़कर ईशा की सीख के अनुसार जीवन जीने का निर्णय लिया। गांधी के अनुसार हर प्रमुख धर्म में ईश्वर के प्रति अपना अलग नजरिया बनाया और उन्हें भिन्न गुणों से विभूषित किया। ईश्वर को एक दयालु पिता के तौर पर पेश करने और साथ में वैश्विक प्रेम, क्षमा और सहनशील पीड़ा पर जोर देने का काम सबसे ज्यादा ईसाई धर्म ने कि या। ‘‘ मैं यह नहीं कह सकता कि यह एक धर्म तक सीमित है या यह दूसरेे धर्मो ंमें नहीं पाया जाता लेकिन इसकी प्रस्तुति अनोखी है।‘‘ इस्लाम में आडबंर हीन व कठोर एकेश्वरवाद, अल्लाह और मनुष्य के बीच मध्यस्थ का अस्वीकार और समानता की भावना को खूबसूरती से पिरोया गया था। ईश्वर की वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक अवधारणा, संसार में रहते हएु इससे अनासक्त रहना, जीवन की एकात्मकता का सिद्धांत व अहिसंा का भाव हिदंू धर्म की विशेषता थी।
गांधी के अनुसार हर धर्म एक विशेष तिक एवं आध्यात्मिक स्वभाव रखता था और एक अलग आध्यात्मिक बनावट पेश करता था। इन सब में सत्य था लेकिन नैतिक इसका अर्थ यह नहीं था कि वे सभी सत्य थे, बल्कि उनमें कुछ असत्य भी शामिल था। गांधी कहते थे ‘‘मेरा विश्वास है कि दुनिया के विभिन्न धर्मो ंके गुणों को आँकना असंभव है‘‘, इन्हें पदानुक् रम में रखना वैसे ही असंभव है जैसे विभिन्न में कलात्मक और गायन परपंराओं या महान साहित्यिक रचनाओं की तुलना करना। अनके भारतीय चिंतकों की तरह गांधी अवतार वाले धर्म के विचार के प्रति असहज थे। उन्होंने इस विचार को तार्किक और तिक तौर पर गड़बड़ पाया। तार्कि क समस्या यह थी कि यह वि चार ईश्वर की एक मानव रूप में कल्पना करता था और नैतिक समस्या यह थी कि इसमें यह कुछ लोगों को अन्य लोगों पर प्राथमि कता देता था। ईश्वर सच्चे जिज्ञासु की मदद करता था और गंभीर संकट में उन्हें मार्ग भी दिखाता था। खुद गांधी ने दावा कि या है कि उन्होंने भी ऐसा मार्गदर्शन प्राप्त किया । लेकिन यह धारणा परपंरागत दिव्य आत्म-रहस्योद्घाटन से बहतु भिन्न थी। गांधी के लिए ईसा, मोहम्मद, मूसा और अन्य ये सभी महान आध्यात्मिक अन्वेषक और वैज्ञानि क थे, जिन्होंने एक अनुकरणीय जीवन जिया, मानवीय अस्तित्व के गहनतम सत्यों की खोज की और अपनी जिदंगी में संकट के समय दैवीय . पा पाई। लेकि न यह सभी ना तो पूर्ण थे, ना ईश्वर की संतान थे और ना ही दैवीय दूत थे।
ईश्वर उन सभी के सामने प्रकट हो सकता था जिन्होंने अपने जीवन की गुणवत्ता से खुद को इस काबिल बना लिया था और संकट के समय में वह मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। चूंकि ईश्वर अनतं था, इसलिए सीमित मानव मस्तिष्क उसके केवल अंश को ही जान सकता था, जो कि अपने आप में अपर्याप्त था। प्रत्येक धर्म अनिवार्यतः आंशिक और सीमित था। यह बात उन धर्मो ंपर भी लागू होती थी, जी कथित तौर पर खुद ईश्वर ने बनाये थे। आखिर ये धर्म मनुष्य के समक्ष ही तो प्रकट हएु थे और आवश्यक रूप से अपर्याप्त मानवीय भाषा में रचे गए थे। इसलिए धर्म एक दूसरे को काफी सिखा सकते थे और सद्भाव पूर्ण संवाद के जरिए एक दूसरे े का लाभ ले सकते थे। दूसरे धर्म के प्रति उचित दृष्टि सहिष्णुता या सम्मान की नहीं बल्कि सद्भाव की थी । उदारता की दष्टिृ में यह निहित था कि दसूरा धर्म गलत था, कई कारणों से वह धर्म को सहन करते थे और उनका अपना धर्म सच्चा था और उसे दूसरे धर्मो ंसे सीखने की जरूरत नहीं थी। इसे आध्यात्मिक अहकंार और अपमान की बू आती थी। सम्मान एक ज्यादा बेहतर नजरिया था, लेकिन इसमें भी दूसरे धर्मो ंसे ना सीखने और उनसे सुरक्षित दुरी बनाए रखना शामिल था। इनकी तुलना में सद्भाव में आध्यात्मिक विनम्रता, दूसरे े धर्मो ंसे लगाव और उनके फलने फूलने और सीखने की इच्छा जाहिर होती थी।
गांधी के लिए धर्म जीवन का आधार एवंसमस्त गतिविधियों का सर्जक था। धर्म को खंडों में विभाजित या सप्ताह के विशिष्ट दिनों या अवसरों के लिए आरक्षित नही ंकिया जा सकता था। इसे परलोक की तैयारी के तौर पर देखना भी उचित नहीं था। धार्मिक होने का अर्थ निरतंर ब्रह्मांडीय एवं सर्वव्यापी चेतना के सानिध्य में रहना और जीवन के हर कर्म में उसे अभिव्यक्त करना था। यह जिदंगी की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी गतिविधियों को प्रभावित करता था। प्रत्येक व्यक्ति अपनी जिदंगी के हर क्षेत्र में धार्मिक विश्वासों का पालन करता था, यहां तक कि राजनीतिक क्षेत्र में भी, इसलिए गांधी कहते थे कि ‘जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई वास्ता नही ंहै, वह धर्म का अर्थ नहीं जानते‘। इसका अर्थ धर्मतत्रं या सेक्युलर राज्य को नकारने से नहीं था, बल्कि इसका अर्थ मुक्त और सच्चे विश्वास को रखना और पीड़ा के सभी स्वरूपों से इनकार था। चूंकि राज्य एक बल प्रयोग कर सकने वाला संस्थान था और यह सेक्युलर सिर्फ इस अर्थ में था कि यह किसी धर्म का पक्ष नहींलेगा, संस्थानीकरण नहीं करेगा और सभी धर्मो ंको समान रूप से सहयोग करेगा। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं था कि राजनीतिक जीवन सेक्युलर हो और धार्मिक अपीलों तर्को ंया कार्यो ंका निषेध करे। ऐसा करना नागरिकों की धार्मिक अखंडता और उनकी धार्मिक पहचान को प्रदर्शित करने वाली अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता को बाधित करना था। सामान्य तौर पर धर्मो ंको बदं संसार की तरह देखा जाता है। जिस तरह संप्रभु राज्य पूरे जोश के साथ अपनी सीमाओं की रक्षा करते दिखाई देते हैं, धर्मो ंमें भी ऐसा ही होता है। धर्म के अनुयायियों को एक धर्म से अधिक धर्म मानने की आज्ञा नहीं है और अपनी धार्मिक पहचान के धुंधले होने की चिंता यह शर्मिदगी के बगैर वह दसूरे धर्म के विचारों एवं व्यवहारों को अपना नहीं सकते थे। गांधी ने बिल्कुल अलग नजरिया अपनाया। उनके लिए धर्म सत्तावादी, विशिष्ट और विचारों व व्यवहारों की विशालकाय संरचना मात्र नहींथा बल्कि एक स्रोत था जि समे से जिसे जो भी प्रेरणादायक लगे, वह ले सकता था। इस प्रकार यह साझी मानवीय संपत्ति और मानव जाति की साझी धरोहर थी। हर व्यक्ति एक विशिष्ट धार्मिक परपंरा में जन्म लेता था और वह परपंरा उस व्यक्ति को गढ़ती भी थी। यह परपंरा उसका मूल आध्यात्मिक आधार थी लेकिन दूसरे धर्मो ंके लिए भी दरवाजे खुले रहते थे। गांधी कहते थे कि हिंदू होने के नाते वह हिंदू धर्म की समृद्धि व प्राचीन धरोहर के उत्तराधिकारी थे। एक भारतीय होने के नाते वह भारत की वि विधतापूर्ण धार्मिक व सांस्कृति क परपंम्परा के विशेषाधिकृत उत्तराधिकारी थे। एक मनुष्य होने के नाते सभी महान धर्म उनकी आध्यात्मिक विरासत थे जिसमें किसी भी धर्म के अनुयाई की तरह वह उस धर्म में अधिकार रखते थे। अपनी धार्मिक परपंरा से गहरे रूप में जुड़े रहते हएु भी गांधी अन्य धर्मों के नैतिक व आध्यात्मिक स्रोतों की ओर आकर्षित होने में संकोच नहीं करते थे। अपने धर्म से गहन जुड़ाव और मुक्तता- इन दो केंर्दीय तत्वों को प्रस्तुत करते हएु वह एक ऐसे घर का रूपक देते थे जिसकी खिड़कियां खुली हो, घर दीवारों से घिरा हो जो उसे सुरक्षा और जुड़ाव का बोध दे सके । इस घर की खुली खिड़कियां सभी देशों की संस्.तियों की सुभाषित वायु को घर में बहने देंगी। ‘आनोभर्दाक्रतवो यन्तु विश्वतः‘ अर्थात हमारे लिए सभी ओर से कल्याणकारी विचार आए, यह उनकी मनपसंद सूक्ति थी।
अपने बुनियादी विश्लेषण में गांधी का तर्क था कि ना तो कोई हिदंू था और ना ही कोई ईसाई, बल्कि यह मनुष्य था जिसने अपने नैतिक व आध्यात्मिक स्रोतों एवं अन्य महान धार्मिक परपंराओं से खुले तौर पर मदद ली। कोई व्यक्ति ईसा को महान आत्मा मानने के साथ ही बुद्ध, मूसा और अन्य को भी सम्मान दे सकता था। ऐसा व्यक्ति अपने धर्म के साथ जुड़ा रह कर अन्य धर्मो ंसे भी जुड़ा रह सकता था। ऐसे व्यक्ति ईसाई मुस्लिम या बौद्ध सिर्फ इस अर्थ में थे की ये धार्मिक परपंराएं उनके मूल में थी या उनके आध्यात्मिक झुकाव का स्रोत थीं और उन्हें सबसे ज्यादा संतुष्टि प्रदान करती थीं। फिर भी ये अन्य धार्मिक परपंराओं के प्रति आकर्षित हएु तथा अपने धर्म में रहते हुए इन्हें साथ में शामिल किया। एक सच्चा आध्यात्मिक जिज्ञासु सभी मूल्यवान अंर्तवृष्टियों का स्वागत करेगा तथा सत्य की अपनी अंतहीन यात्रा में एक सत्य से दसूरे सत्य की ओर बढ़ेगा। गांधी के लिए ईश्वर के प्रति खुलापन सभी धर्मो ंके प्रति खुलापन था। सत्य के विनम्र एवं अथक अन्वेषण ने गांधी को विभिन्न धर्मो ंके सार तत्वों के मध्य सृजनात्मक संश्लेषण करने के लिए प्रेरित किया। फिर उन्होंने एक बहुसुांस्कृतिक एवं बहुधुार्मिक समाज में शांति विकास और न्याय के लिए सर्व धर्म सद्भाव का नारा दिया। सभ्यता-संस्कृति किसी समाज के जीवन दर्शन, वैचारिकी और आत्मबोध को दर्शाती है। यह ना सिर्फ समाज के समक्ष आने वाली विभिन्न परिस्थितिगत चुनौतियां का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास करती है बल्कि संबधिंत समाज के अंतर्निहित गुणों और उच्चतम आदर्शो ंको भी प्रतिबिंबित करती हैं। संस्कृति तत्कालीन समाज के वैचारिकी, कार्यप्रणाली, खानपान, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है।
जवाहरलाल नेेहरू के अनुसार ‘‘संस्कृति की कोई निश्चित परिभाषा नही ंकी जा सकती परतंु संस्कृति के लक्षण देखे जा सकते हैं। हर जाति अपनी संस्कृति को विशिष्ट मानती है। संस्.ति एक अनवरत मूल्यधारा है। यह जातियों के आत्मबोध से शुरू होती है। इस मूल्यधारा में संस्.ति की दूसरी धाराएं मिल जाती हैं तथा उनका समन्वय होता जाता है। इसलिए किसी जाति या देश की संस्कृति उसी मूल रूप में नहीं रहती, बल्कि समन्वय से वह और अधिक सम्पन्न तथा व्यापक हो जाती है।‘‘ अब जहाँ तक सभ्यता का प्रश्न है तो सभ्यता संस्कृति का ही बाह्य पक्ष है, उसका भौतिक स्वरूप है। सभ्यता में मनुष्य के राजनीति क प्रशासनिक, आर्थिक, प्रौद्योगिकी कला रूपों का प्रदर्शन होता है जो जीवन को सुखमय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं तो वही संस्कृति में कला विज्ञान संगीत नृत्य और मानव जीवन की उच्चतर उपलब्धियां सम्मिलित हैं। सभ्यता वह है जो हम बनाते हैं तथा संस्कृति वह है जो हम हैं। गांधी के लिए सभ्यता एव ंसंस्कृति उस घर के समान है जो व्यक्ति को बाहरी प्रति कूल दशाओं से बचाता है तथा उसे आत्मबोध कराता है। और संबधिंधित व्यक्ति और समाज के भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नयन के लिए आवश्यक होता है। कि सी समाज के लिए उसके सभ्यता और संस्कृति उस आधारशिला के रूप में होती है जिस पर उस समाज की उत्तरजीविता निर्भर करती है और सम्बन्धित समाज के समक्ष आने वाली विभिन्न चुनौतियों से निपटने की क्षमता देती है। गांधी के लिए यद्यपि संस्कृति एक वैचारिक और आध्यात्मिक या घर के समान था, तथापि यह यह घर कोई बदं घर नहीं था बल्कि इसमें ऐसी खिड़कियां लगी थी, जो विभिन्न संस्कृतियों के अच्छे तत्वों और विचारों से इस घर को प्रकाशित और सुवासित करती थीं। इस रूप में गांधी सांस्कृतिक श्रेष्ठतावाद का समर्थन नहीं करते थे बल्कि सांस्कृति क समन्वय से विश्व बधंुत्व और वसुधैव कुटुंबकम के विचार का समर्थन करते थे।
गांधी का कहना था, जब किसी समाज में बहतु सारी संस्कृति और धर्म के लोग एक साथ रहते हों तब उन्हें एक रूप बनाने या नियमों के सार्वभौमीकरण करने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा प्रयास अवांछनीय हैं क्योंकि सांस्कृतिक विविधता राज्य की एकता को दुर्बल नहीं करती बल्कि इसे नैतिक एवं सांस्कृतिक गहराई देती है। ऐसा प्रयास खतरनाक इसलिए भी है क्योंकि सुस्थापित समुदायों का विखंडन असंतोष व प्रतिरोध को जन्म देता है और इसके सदस्यों में शक्ति हीनता एवं जड़ों से उजड़ने का भाव भरता है। इस कारण गांधी ने जोर देकर कहा की विस्तृत समाज को अपने सांस्कृतिक समुदायों को सँजोना चाहिए। उसे इनकी भाषा संस्कृतियों, संस्थाओ,ं व्यक्तिगत कानूनों तथा शैक्षणिक संस्थाओं का सम्मान करना चाहिए। ऐसा करने से ना सिर्फ वह संस्कृति सम्बन्धित समाज में अपने अस्तित्व को सुरक्षित पाती बल्कि सांस्कृतिक विविधता की परिस्थितियों में वह अपने आप को संवर्धित भी करती है।
गांधी ने शासन की संकल्पना को स्पष्ट करते हएु एक आधारभूत सिद्धांत को सामने रखा है। यह सिद्धांत है स्वराज का सिद्धांत जिसमें राज्य की संप्रभुता पर जन संप्रभुता को प्रमुखता दी गई है। जन संप्रभुता की संकल्पना जहां एक तरफ प्रत्येक नागरिक के आत्म निर्णय का अधिकार की वकालत करती है वहीं दूसरी तरफ जब राज्य अपनी शक्ति का दूरुपयोग करें तब जनता को उसका प्रतिरोध करने का नैतिक बल भी प्रदान करती है। गांधीजी ने आधुनिक राज्य और इसकी कार्यप्रणाली का मूल्यांकन करते हएु यह निष्कर्ष निकाला कि आधुनिक राज्य शक्ति का दुरुपयोग करता है और बिना सोचे विचारे कार्य करता है। उन्होंने हमें जन संप्रभुता के बारे में बताया है। इस प्रकार से उनकी राज्य की संकल्पना को नीचे से बनना चाहिए। उसे पिरामिड के रूप में शुरू होना चाहिए। उनकी शासन की रूपरेखा निचले स्तर के संगठनों पर आधारित है। इसकी मुख्य विशेषता यह है कि इसे नीचे से भारी तथा ऊपर से हल्का होना चाहिए। अर्थात जमीनी स्तर पर नागरिकों को शासन में ज्यादा सहभागी होना चाहिए। गांधीजी स्वराज की संकल्पना प्रस्तुत करते हएु जनता और उनके कार्यो ंको स्पष्ट तौर पर केंद्र में रखा है। यह स्वराज व्यक्ति केंद्रित और सहभागिता केंद्रित होगा। गांधी ने वर्तमान बड़े राज्य, शक्ति की भूखी सरकार और लाभ के भूखे बाजार का विरोध किया है। एक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की सार्थकता इस बात में निहित है कि उसके द्वारा समाज के अंतिम पायदान पर खड़े तथा हाशिए पर ढकेल दिए गए लोगों के सशक्ति करण के लिए आवश्यक प्रयास किए जाए।ं इससे विकास की उपलब्धि के लिए सरकारी संस्थाओं के प्रबधंन करने की लोगों की कुशलता, क्षमता और योग्यता बढ़ जाएगी । ऐसा होने से विकास उनके लिए कोई खैरात की वस्तु ना बनकर अधिकार बन जाएगा। और इस तरह से निचले स्तर पर सशक्त शासन का निर्माण होगा।
अपने विश्लेषण में गांधी ने पाया की वर्तमान में राज्य द्वारा अधिकांश लोगों को विकास की प्रक्रिया से बाहर कर दिया जाता है । क्योंकि राज्य का कोई मानव केंद्रित दष्टिकोण नहीं है। इसके अतिरिक्त विकास और शासन की प्रक्रिया को पाश्चात्य संसार से लिया गया है। निर्णायक तौर पर इसने लोगों, विशेषकर गरीबों को शासन व विकास से दूर रहने के लिए प्रेरित किया है। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में औपनिवेशिक राज्य व्यवस्था से संघर्ष करते हएु व्यापक अनुभव अर्जित किए और इसके आधार पर उन्होंने अपने विचारों को आगे बढ़ाया। उन्होंने राज्य की शोषणकारी प्रकृति को रेखांकित किया है। वर्तमान शासन व्यवस्था इतनी जटिल है कि कवल कुछ लोग ही इसे समझ सकते हैं और इसका निर्देशन कर सकते हैं। आम लोगों को सरकार और प्रशासन तक पहंचुने के लिए एक समर्थनकारी ढांचे की आवश्यकता रहती है। गांधीवादी शासन योजना में जनता और उनके संगठनों को अधिक उत्तरदायित्व दिया जाएगा। शासन और प्रशासन से जोड़ने की प्रक्रिया में लोगों को सशक्त समर्थ और क्षमतावान बनाया जाएगा। गांधी ने हमारे सामने इस प्रक्रिया की ऐसी रूपरेखा बनाई है जहां जनता आत्मानुशासन के साथ अपने अधिकारों का प्रयोग करते हएु सशक्त हो सकेगी। गांधी ने व्यक्ति के समग्र विकास के लिए राज्य के नियत्रंण की अपेक्षा आत्मनियत्रंण को रेखांकित किया है। इस प्रकार से उन्होंने समाज और राज्य के बीच सौहार्दपूर्ण संबधं की बात कही है जहां राज्य समाज के अधीन रहेगा। जनता के संगठनों को अधिक उत्तरदायित्व प्रदान किया जाएगा। इन उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते हएु समाज उत्तरदायी और अधिक सभ्य बनता चला जाएगा। समाज के ऊपर राज्य के नियत्रंण की आवश्यकता नहीं पड़ेगी जब राज्य अपनी सीमाओं का उल्लंघन करेगा तब लोगों के पास उसका प्रति रोध करने की शक्ति होगी यहां गांधी के आलोचकों का मानना है कि गांधी के पदसोपानीय समाज में एक सशक्त समुदाय और असक्त राज्य के बीच अत्यधिक भ्रम और संघर्ष पैदा होगा। इस तरह, उन्हें अराजकतावादी कहा गया है।
गांधी चाहते थे कि अर्थ, राजनीति और शासन के क्षेत्र में होने वाली मानवीय गतिविधियों के केंद्र में जनता हो। शासन व्यवस्था इस प्रकार हो कि जनता नीति निर्माण, कार्यान्वयन और उसके मूल्यांकन में सहभागिता कर सके और इस प्रकार से विकास व शासन में जनता को जोड़ा जाएगा। गांधी ने जनता को विकास और शासन से जोड़ने के लिए ऐसी शासन व्यवस्था की संकल्पना की है इसमें जमीनी स्तर पर अत्यधिक शक्ति नि हित होगी। यह शासन व्यवस्था सरल कार्य प्रणाली पर आधारित होगी और जनता इससे आसानी से जुड़ सकेगी जिससे सच्चे अर्थो ंमें लोकतत्रं स्थापित होगा। यही होगा गांधी का पचंायती राज । गांधी ने जिस पचंायती राज व्यवस्था की संकल्पना हमारे सामने रखी है उसमें इस व्यवस्था पर जनता की आवश्यकताओं पर आधारित सामाजिक निर्माण और संपोषित आर्थिक प्रगति के लिए महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व होगा। जनता को शासन की प्रक्रिया में सार्थक सहभागिता करने के लिए आवश्यक होगा कि वे अपने अंतःकरण की आवाज के अनुसार कार्य करे। साथ ही आत्मनियत्रंण का विकास करें। गांधी का मानना था कि व्यक्ति को स्वशासन के लक्ष्य को पाने के लिए सबसे पहले स्व पर शासन करने की कला आनी चाहिए। गांधी ने आत्मनियत्रंण के विकास के लिए निश्चित मौलिक अनुशासन निर्धारित किए हैं । ये 11 व्रत के रूप में प्रसिद्ध हैं। ये हैंः
1- सत्य, 2- अहिसंा 3- अस्तेय 4- आत्म अनुशासन, 5- अपरिग्रह 6- शारीरिक श्रम 7- अस्वाद् 8-अभय 9- सर्वधर्म समभाव 10- स्वदेशी 11- अस्पृश्यतानिवारण
इन व्रतों के पालन से ना सिर्फ व्यक्ति का भौतिक और आध्यात्मिक विकास होगा बल्कि समाज के सशक्तिकरण के लिए और सतत एवं समावेशी विकास के लिए ये अति आवश्यक होंगे। ये व्रत वर्तमान के उपभोक्तावादी संस्कृति से कुप्रवृत्तियों तथा बाजारवाद की वि.तियों को निर्मूल करने में सक्षम हैं। गांधी व्यक्ति में स्वावलंबन एवं स्वाभिमान के विकास के लिए रचनात्मक कार्यो ंपर जोर देते थे। इन रचनात्मक कार्यो ंको वे समाज के सशक्तिकरण एवं गतिशीलता के लिए अति आवश्यक मानते थे। इन रचनात्मक कार्यो ंमें सांप्रदायिक एकता, अस्पृश्यता निवारण, मद्यनिषेध, खादी ग्राम उद्योग, स्वच्छता, बुनियादी शिक्षा, वयस्क शिक्षा, स्त्रियों का विकास, आरोग्य व स्वच्छता के बारे में शिक्षा, प्रादेशिक भाषा का प्रयोग, राष्ट्रभाषा, आर्थिक विषमता को खत्म करने का प्रयास, कृषकों, मजदूरो ंऔर आदिवासियों का विकास आदि शामिल हैं।
गांधी का मानना था एक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए कानूनों की अपेक्षा नैतिक नियमों और मानदडंों की महत्ता है। इसलिए संविधान के द्वारा स्थापित कानूनों के अपेक्षा नैतिक नियमों द्वारा व्यक्ति या समुदाय के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक आचरण का नियत्रंण ज्यादा प्रभावी होगा। गांधी ने विकास की प्राप्ति के लिए आत्म नियत्रंण और आत्म अनुशासन के महत्व को रेखांकित किया है और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सरल गति विधियों की पहचान भी की है।
गांधी ने स्पष्ट तौर पर प्रकाश डाला है कि व्यक्ति परिवार समुदाय और समाज जब एक साझे लक्ष्य के लिए कार्य कर रहे होते हैं तब इनमें अंतः निर्भरता बनी रहती है। गांधी सामुदायिक हितों से अलग व्यक्तिगत हितों को नहीं देखते थे। समाज के कल्याण के लिए वह व्यक्ति और समुदाय के हितों में समन्वय को स्थापित करने का प्रयास करते थे। गांधी जीवन के मर्म को व्यक्ति और समुदाय के अंतर निर्भरता में ही देखते थे। व्यक्ति से समुदाय का पारस्परिक संबधं छोटी से छोटी इकाइयों का बड़ी इकाइयोंके कल्याण के लिए त्याग की भावना की व्याख्या करता है। गांधी पचंायतों के माध्यम से ही इस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करते थे। ग्राम गणतत्रं के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पचंायतों की महती भूमिका को स्वीकार करते थे। गांधी का मानना था कि स्थानीय रचनात्मक कार्यो ंके द्वारा वैश्विक समस्याओ ंका हल किया जा सकता है। इस रूप में वह पचंायतों को वैश्विक समस्याओं के समाधान का यत्रं मानते थे। पचंायतों के सशक्ति करण से लोगों में शासन के प्रति जागरूकता एवं संवेदनशीलता का संचार होता है। साथ ही लोगों में राजनीतिक सक्रियता से एक नई शासन संस्.ति का विकास होता है। शासन में प्रत्यक्ष सहभागिता से लोग ना सिर्फ अपने व्यक्ति गत बल्कि सामुदायिक हितों के प्रति संवेदनशील होकर उन्हें पाने का प्रयास करते हैं। गांधी पचंायत के नेतृत्व कर्ताओं को रचनात्मक कार्यो ंके प्रशिक्षण देने के हिमायती थे। जिससे पचंायत स्थानीय स्तर पर शासन एवं विकास के वैकल्पिक दष्टिकोण का निर्माण कर सकें। ऐसे कदम उठाकर स्थानीय स्तर पर जीवतं लोकतत्रं की एक नई संस्कृति का विकास किया जा सकता है और लोकतत्रं को समावेश बनाया जा सकता है।
संदर्भ
1 गांधी, हिंद स्वराज
2 सिंह प्रह्लाद, गांधीगिरी
3 अशरफ अली, गांधी के द्रष्टि में विकास
4 हरदयाल, वर्त्मन समय में गांधी
5 पियर्सन, गांधी और हमारा युग
6 आधुनिक विज्ञापन में महात्मा गांधी के विभिन्न चेहरे
7 महात्मा गांधी की आर्थिक मान्यताएं – बिजनेस टुडे अक्टूबर 2,2018
8 गांधी, सत्य के साथ मेरे प्रयोग
9 सूचना और प्रसारण मंत्रालय, महात्मा गांधी के कार्यों का संग्रह

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