डॉ0 कालूराम
एसोसिएट प्रोफेसर (इतिहास)
मान्यवर कांशीराम राजकीय महाविद्यालय,
गभाना (उ0प्र0)
गुप्त युग शांति, समृद्धि एवं चतुर्मुखी विकास का युग था, कुछ इतिहासविदों ने इस युग की ‘आंगस्टन युग‘ से तुलना की है, भारतीय इतिहास में इस युग केा ‘स्वर्णयुग‘ के नाम से जाना जाता है। इस युग में कला, विज्ञान, साहित्य, वास्तुकला आदि के क्षेत्र में आशातीत विकास हुआ, उच्च कोटि की शासन व्यवस्था स्थापित हुई। अनेक दृष्टियों से गुप्त काल सर्वतोन्मुखी उन्नति का युग था। इस युग की सांस्कृतिक उपलब्धियां महान थी। किसी भी काल की सांस्कृतिक उन्नति व विकास उस युग की शान्ति, सुव्यवस्था, सुख व स्मृद्धि पर आधारित होती है। इस काल में हुई भारत की सर्वांगिक उन्नति को सभी विद्वान स्वीकार करते हैं और सभी उस समय की प्रशंसा करते है। इतिहास का बर्निट ने लिखा है कि प्राचीन इतिहास में गुप्तकाल का प्रायः वहीं स्थान है जो यूनान के इतिहास में ‘‘पेरक्लीन युग‘‘ का है। डॉ0 स्मिथ ने इस काल के बारे में लिखा है ‘‘प्राचीन हिन्दु इतिहास में सभी युगों की तुलना में महान गुप्त सग्राट का युग सर्वाधिक माननीय और सन्तोषजनक था।‘‘ साहित्य कला और विज्ञान की प्रगति असाधारण रूप से हुई और धीरे-धीरे होने वाले धार्मिक परिवर्तन बिना किसी धार्मिक अत्याचार के हुआ।
विशाल साम्राज्य उत्तर भारत की राजनीतिक एकता, महान सम्राटों की उपस्थिति, कुशल शासन, हिन्दु धर्म का पुनरूत्थान और विकास, संस्कृत भाषा की प्रगति और श्रेष्ठ साहित्य का निर्माण, विज्ञान की उन्नति, कृषि अद्योग- धन्धों का विकास व्यापार में वृद्धि के फलस्वरूप आर्थिक खुशहाली, भारतीय संस्कृति का विदेशों में प्रसार आदि सभी कुछ ऐसा हुआ जिससे कारक गुप्त युग को प्राचीन भारतीय इतिहास का श्रेष्ठतम काल स्वीकार किया जाता है, विशाल साम्राज्य, उदारतापूर्वक एवं सफलतापूर्वक शासन व्यवस्था, सम्राटों का संरक्षण, विदेशों से व्यापारिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध, भारतीयों के दृष्टिकोण की विशालता और उनकी खोज पूर्ण तकनीक ने इस असाधारण प्रगति में सहयोग दिया जिससे गुप्त काल प्राचीन भारत का स्वर्ण काल कहलाने का अधिकारी बना।
‘स्वर्णयुग‘ उस काल को कहते हैं जो सोने की तरह क्रांतिमय, गुणमय, सौन्दर्यमय, मूल्यवान, धनसम्पन्न और दृढ़शक्तिपूर्ण है। स्वर्णयुग में देश की राजनीतिक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक परिस्थितियां सर्वोत्कृष्ठ रहती है। ललित कलाओं, साहित्य के विभिन्न अंगों का और सांस्कृतिक जीवन का चरम विकास होता है। गुप्तकाल का आगमन होने से पूर्व भारत वर्ष विदेशी आक्रमणकारियों का क्रियास्थल बन गया था। शकों, पल्लवों, इण्डोयूनानी तथा कुशाणों ने भारत भूमि पर अधिकार जमाने की पूरी कोशिश की परन्तु गुप्त युग के उदय होने के कारण विदेशी आक्रान्ताओं का साहस कमजोर पड़ने लगा था। गुप्त शासकों के राष्ट्रवादी पक्ष के कारण भिन्न-भिन्न भारत भूमि पर एक राष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना हुई। अब सम्पूर्ण भारत वर्ष एक सुसंगठित शब्द के रूप में जाना जाने लगा। राष्ट्रीयता की भावना उसकी महत्ता को बढ़ा रही थी।
देश की राष्ट्रीय भावना तब तक ही स्थायी रह सकती है जबतक कि राजनीतिक एकता बनी रहती है। इससे देश की प्राकृतिक एवं भोगोलिक स्थिति भी सहायक मानी जाती है गुप्तकालीन सम्राट इस तथ्य से भलि भांति परिचित थे कि देश की राष्ट्रीय भावना केा बल प्रदान करने के लिए राजनीतिक एकता स्थापित करने की दिशा में जागरूक तथा कठिन परिश्रम करना है। समुद्रगुप्त ने इसी आशय को ध्यान में रखकर विजय अभियान शुरू किये। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने पिता तथा प्रदत्त साम्राज्य को सुगठित करके भारत राजनीतिक एकता को मूर्त रूप प्रदान किया। इस प्रकार गुप्त सम्राटों ने विदेशी शासकों की राजनीतिक प्रभुता और प्रधानता नष्ट कर अपनी छत्र छाया में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता दृढ़तापूर्वक स्थापित की। उन्होंने भारत की राजनीतिक एकता प्रदान करके सुसंगठित और सुव्यवस्थित किया। उन्होने अपनी दिग्विजयों से हिन्दु साम्राज्यवाद की नींव डाली और राष्ट्रीय पुनर्जाग्रति को खूब प्रोत्साहित किया। गुप्त सम्राटों ने समस्त देशों में एक समान प्रशासन व्यवस्था स्थापित की व्यवस्था पर पूर्ण नियन्त्रण रखा। गुप्तशासन का आधार प्रजावत्सला, प्रजाहित और परोपकारिता था। राज्य की ओर से दान धर्म की व्यवस्था की।
राजनीतिक एकता के साथ-साथ गुप्तों ने भारत में एक अपूर्ण सांस्कृतिक एकता की स्थापना की। गुप्त नरेश आर्य संस्कृति के परम उपासक तथा पोशक थे। गुप्त शासकों ने भारत की सांस्कृतिक एकता को स्थापना हेतु संस्कृत को भारत की राज भाषा घोषित करने का कार्य किया। गुप्तों द्वारा स्थापित भारत की भाशा की एकता ने दूरस्थ प्रदेशों को निकट लोने में विशेष योगदान दिया। गुप्त सम्राटों के शासनकाल में विदेशों से संस्कृतिक, धार्मिक और व्यापारिक सम्पर्क अत्याधिक बढ़े। मध्य एशिया के प्रदेशों चीन, रोम, मिस्र तथा अन्य पश्चिमी देशों से निरन्तर सम्पर्क बढ़ता रहा। इस युग में भारतीयों के दृष्टिकोण में विशालता ज्ञान प्राप्ति के प्रति असाधारण अनुराग और नम्रता, का आभाव, गुण तथा ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र मंे खोज की प्रवृत्ति थी। इससे कला, विज्ञान, दर्शन, साहित्य आदि की प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो सका।
गुप्त काल में हिन्दु धर्म का पुनरूद्वार हुआ, अतः यह स्वाभाविक ही था कि वर्ण व्यवस्था को भी बढ़ावा मिला होगा। वणव्यवस्था की प्राचीनतम मान्यताओं तथा कठोर नियमों का नयी परिस्थिति के साथ समन्वय आवश्यक था। देष की शांति तथा समृद्धि के लिए धार्मिक साहिस्णुता का होना परम उपेक्षित है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि गुप्त सम्राट हिन्दु धर्म के पोशक थे परन्तु वे धार्मिक साहिष्णु थे। आपने को ‘परमभागवत‘ गौरव अनुभव करने वाले गुप्त नरेशों ने अन्य धर्मों को समान आदर प्रदान किया। अशोक महान के अनुसार वे एक दूसरे धर्म का अनादर करना, स्वयं अपने धर्म के अनादर के समान मानते थे। गुप्तकाल में वैश्णव धर्म के अतिरिक्त बौद्धधर्म, जैन धर्म तथा अन्य अनेक धर्म समाज में पनप रहे थे। जहां भगवान विष्णु तथा अन्य हिन्दु देवी देवताओं की मूर्तियों का निर्माण हुआ वही महात्मा बुद्ध एवं जैन-तीर्थकरो की मूर्तियों का भी काफी संख्या में निर्माण किया गया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय का एक सेनापति बौद्ध था कुमार गुप्त के शासनकाल में बुद्ध मित्र नामक बौद्ध ने महात्मा बुद्ध की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। स्कन्दगुप्त के समय जैन अनुयायी ने आदि कर्तन की मूर्ति की स्थापना की इससे स्पष्ट होता है कि इस युग में धार्मिक साहिष्णुता मौजूद थी। गुप्त सम्राट योग्य शासक हेाने के साथ ही अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में सन्तोष जनक शासन व्यवस्था की नींव रखी थी। राजा जन प्रिय था, प्रजा पर निरर्थक राजनीतिक अंकुश नहीं था प्रजा स्वतन्त्रता पूर्वक जीवन जीती थी। न्यायप्रणाली निश्पक्ष थी अपराध भी कम होते थे। राजकीय अधिकारी/कर्मचारी प्रजा की भलाई के लिए सार्वजनिक कार्य ही करते थे। फाहयान ने कहा था ‘‘प्रजा प्रयूत तथा सुखी हो‘‘ नारद स्मृति के अनुसार गुप्त युग में चार प्रकार के न्यायालय थे कुल न्यायालय, श्रैणी न्यायालय, गुण न्यायालय तथा राजकीय न्यायालय इनमें प्रथम तीन जनता केे तथा चौथा सरकारी न्यायालय होता था। राजा की सहायता के लिए अनेक मन्त्री तथा अमात्य होते थे। मन्त्रियों की नियुक्ति में उसकी सैनिक योग्यता का प्रमुख स्थान होता था। गुप्त शासकों ने किसी नवीन शासन-व्यवस्था को जन्म नहीं दिया बल्कि उनके शासन का आधार परम्परागत शासन व्यवस्था ही रहा। गुप्त शासकों ने दो उच्च नवीन पदों का सृजन किया उनमें एक महा सन्धिविग्रहित (विदेशी मंत्री) तथा कुमारामात्यों का पद था जिन्हें जिलाधीश, जिला प्रशासन अधिकारी अथवा अन्य किसी भी महत्वपूर्ण प्रशासनिक कार्य पर लगाया जाता था।
आधुनिक विद्वानों ने गुप्त शासकों के प्रशासन की एक मुख्य विशेषता सामतवादी व्यवस्था केा प्रोत्साहन देना भी बताया है। महाभारत में और पुराणों में भूमि दान को एक पुण्य का कार्य बताया है। जिसके कारण शासकों द्वारा ब्राह्मणों, पुरोहितों को भूमि दान में देना एक धार्मिक उत्तरदायित्व माना गया। छठी सदी में राजाओं ने राज्य के प्रमुख अधिकारियों को भी वेतन के स्थान पर भूमि देने की व्यवस्था शुरू की थी। शासन की सुविधा की दृष्टि से सम्पूर्ण साम्राज्य प्रान्तों में बटा हुआ था जिन्हें ‘मुक्ति‘ ‘दिश‘ तथा ‘भोग‘ के नाम से पुकारते थे। गुप्त शासकों का शासन अत्यधिक सफल रहा साम्राज्य की दृढ़ता, शान्ति तथा नागरिको ंकी सर्वाधिक उन्नति इसके प्रमाण थे। तत्कालीन वाकाटक राजा और बाद के कलचूरी चालुक्य और राष्ट्रकूर वंश के शासकों ने गुप्त शासन व्यवस्था से प्रेरणा लेकर उसी आदर्श पर अपनी व्यवस्था स्थापित की।
गुप्त युग में गण्ति विज्ञान की अधिक प्रगति हुई तथा इस गणित के साथ ज्योतिश विज्ञान की भी उन्नति हुई। आर्यभट्ट ने ज्योतिश के विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था। सर्वप्रथम आर्य भट्ट ने ही गणित तथा नक्षत्र विद्या के सम्बन्ध में बताया उसने प्रथ्वी के गोलाकार होने तथा उसको अपने कक्ष के चारों तरफ घूमने पर प्रकाश डाला। इसी युग में भौतिक विज्ञान की वैशेषिक शाखा ने अणु सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस काल में उत्पन्न नागार्जुन रसायन एवं धातु विज्ञान का प्रकाश पंडित था। वराहमिहिर द्वारा वर्णित वज्रलेख से ज्ञात होता है कि इस काल में विभिन्न रासायनिक विधियां विद्यमान थी। इस युग में चिकित्सा विज्ञान में भी उन्नति हुई नागार्जुन ने रस चिकित्सा की खोज की थी। उसने खनिज धातुओं से रोग निवारण की शक्ति का पता लगाया। धन्वन्तरी इस युग का प्रकाण्ड चिकित्सक था। मानव चिकित्सा के साथ पशु चिकित्सा पर भी शोध हुआ।
सांस्कृतिक एकता के स्थापित करने में धर्म को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। गुप्त राजाओं ने इस क्षेत्र में अपनी दूरदर्शिता एवं चतुरता का परिचय दिया। वैश्णव धर्म, गुप्तों का राजधर्म था। इस धर्म का तत्कालीन भारत में बड़ा प्रचार हुआ। हिन्दु धर्म का पुनरूत्थान होने के कारण, गुप्तों ने अश्वमेघ यज्ञों का सम्पादन करने अपनी सार्वभौमिकता का प्रमाण प्रस्तुत किया। धार्मिक दृष्टि से गुप्त काल की मुख्य विषेशताएं मन्दिरों का निर्माण, हिन्दु धर्म का पुनरूत्थान, हिन्दुओं की उदार प्रवृत्ति, विदेशियों को हिन्दु धर्म में सम्मिलित किया। समाज का मूल आधार धार्मिक, सामाजिक तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता थी यही कारण है कि गुप्तकाल में समस्त सम्प्रदाय, वर्ग तथ वर्ण समान रूप से फल फूल रहे थे।
देश की शान्ति तथा स्मृद्धि के लिए धार्मिक सहिष्णुता का होना परम अपेक्षित है। हम जानते हैं कि गुप्त सम्राट हिन्दु धर्म के पोषक थे परन्तु वे धार्मिक सहिष्णु थे। गुप्तकाल आर्थिक समृद्धि की पराकाष्ठा का युग था राजनीतिक एकता के कारण विभिन्न व्यापारिक मार्ग प्रशस्त हुए। चन्द्रगुप्त द्वितीय की पश्चिम विजयों के कारण गुप्त साम्राज्य पश्चिमी समुद्र तट तक विस्तृत हो गया। इन कारणों से गुप्तकाल भारत की व्यापारिक उन्नति का युग बन गया। गुप्त कालीन मुद्राओं की अधिकता, विविधता तथा स्वर्ण मुद्राओं की विशुद्धता उन्नत व्यापार की धोतक है। इस काल में व्यापार उन्नत अवस्था में था राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों प्रकार के व्यापार प्रचलन में थे, व्यापार जल एव थल दोनों मार्गों से होता था, पेशावर, भडौच, उज्जयनी, वाराणसी, प्रयाग, पाटलीपुत्र, मथुरा, ताग्रलिप्ति तथा वैशाली आदि व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे। पश्चिमी एशिया, चीन तथा तिब्बत के साथ स्थल मार्ग तथा मिस्र, रोम, फारस व यूनान आदि के साथ जल मार्ग द्वारा व्यापार होता था।
साहित्य के विकास तथा देश की सुख शान्ति का सम्बन्ध ही कालीदास, हरिषेण, शुद्रक, विशाखदत्त, वात्स्यायन, आर्य भट्ट, वराहमिहिर, नागार्जुन, याज्ञवलक्य, बुद्धघोश आदि अनेक महान साहित्यक विभूतियों ने साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों को अपनी प्रतिमामयी रचनाओं द्वारा आलोकित किया। कला के क्षेत्र में गुप्तकाल को अपूर्ण योगदान इस समय भारतीय कला में एक क्रान्तिकारी युग का प्रादुर्भाव हुआ। राजनीतिक एकता तथा राष्ट्रीयता की प्रबल भावना की स्थापना के कारण भारत ने विदेशों में सम्भागीय स्थान प्राप्त किया। गुप्तयुग में विदेशी राज्यों ने स्वयं ही मैत्री के लिए हाथ बढ़ाये। प्रयाग प्रशस्ति में सम्राट समुद्रगुप्त के वैदेशिक प्रभाव का वर्णन किया गया है वास्तुकला के अन्तर्गत इस युग में विभिन्न मंदिर, गुफा, चैत्य विहार स्तूप तथा अट्टालिकाओं से युक्त वैभव शाही नगरों का निर्माण हुआ। गुप्त युग में मुद्रा कला का पर्याप्त विकास हुआ निर्मित मुद्राएं बहुमूल्य धातुओं की आकर्षक थी मुद्राओं पर अंकित मूर्ति तत्कालीन सम्राटों की मनोवृत्ति को स्पष्ट करती थी इस युग में सोने व चांदी की मुद्राओं का निर्माण हुआ चन्द्रगुप्त प्रथम के सिक्कों पर चन्द्रगुप्त व कुमार देवी के चित्र व नाम अंकित थे गुप्त युग में स्त्रिओं की स्थिति श्रेष्ठ नहीं थी। उन्हें सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त नहीं था बाल विवाह प्रथा को बढ़ावा मिला था। यद्यपि ‘‘स्त्री शिक्षक‘‘ का विवरण मिलता है राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं अन्य समस्त मानवोत्कर्ष की उपलब्धियों का प्रतिष्ठापन करने वाले गुप्त युग को स्वर्णयुग की संज्ञा प्रदान करने में हमें कोई संकोच नहीं होता है। सभी विद्वान इस विशय पर सहमत हैं। गुप्तकाल में हमें वैसी ही सर्वोपरि आभा, आकर्षण चमक दमक तथा बहुमूल्यता परिलक्षित होती है जैसे कि स्वर्ण में। गुण सम्पन्न होते हुए भी स्वर्ण निर्जीव होता है जबकि गुप्तकाल केवल गुणसम्पन्न ही नहीं, अपितु सर्वगुण सम्पन्न एंव सजीव था वास्तव में यह स्वर्णयुग था।
संदर्भ सूची:-
1. एम0पी0 श्रीवास्तव – प्राचीन भारतीय संस्कृति, कला एवं दर्शन।
2. प्रतियोगितादर्पण अतिरिक्तांक 2001 –
3. राधाकुमुद मुकर्जी – प्राचीन भारत।
4. राजबली प्राण्डेय – प्राचीन भारत।
5. रमाशंकर त्रिपाठी – प्राचीन भारत का इतिहास।
6. एल0पी0 शर्मा – प्राचीन भारत
7. बी0एन0 लूनिया – भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का विकास।
8. डॉ0 ईश्वरी प्रसाद – भारत का इतिहास भाग-1 और भाग-2
9. रामजी उपाध्याय – भारत की प्राचीन संस्कृति।
10. कौशाम्बी – भारतीय संस्कृति और अंहिसा।
11. हरिदत्त – भारत का सास्कृतिक इतिहास।
Timely publication plays a key role in professional life. For example timely publication...
Individual authors are required to pay the publication fee of their published
Start with OAK and build collection with stunning portfolio layouts.