ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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पारिवारिक संबंधों के यथार्थ को चित्रित करती हृदयेश की कहानियाँ

कु0 दुर्गेश
(शोध छात्रा) हिंदी विभाग,
डी॰ए॰वी॰ (पी॰जी॰) कॉलिज, बुलन्दशहर (उ॰प्र॰)

जीवन और साहित्य का संबंध अटूट है। साहित्यकार भी अपनी कलम चलाने के लिए किसी अन्य संसार को नहीं अपितु अपने निकट परिवेश में घट रही घटनाओं से प्रभावित होकर साहित्य सृजन कीं ओर उन्मुख होता है। आदिकाल के वैदिक ग्रंथों व उपनिषद्ों से लेकर वर्तमान साहित्य ने मनुष्य जीवन को सदैव ही प्रभावित भी किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल साहित्य को ‘जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब’ मानते हैं तो बालकृष्ण भट्ट साहित्य को ‘जनसमूह के हृदय का विकास’ जैसे-जैसे युग एवं परिवेश में परिवर्तन हुए वैसे ही साहित्यकार भी उन परिवर्तनों से गुजरता हुआ अनुभूत किए गए यथार्थ को हमारे समक्ष उपस्थित करता रहा है। स्वतंत्रता से पूर्व की स्थितियों में जो साहित्य लिखा गया वह उस काल के परिवेश को समक्ष लाया जहाँ व्यक्ति स्वतंत्र परिवेश मिलने की आशा व स्वप्न संजोये संघर्षरत् था। साहित्यकार भी एक आदर्श स्थापित करते हुए तत्कालीन संदर्भों (सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक) को विभिन्न विधाओं के माध्यम से चित्रित करते हैं। प्रेमचंद का आदर्श धीरे-धीरे यथार्थ की ओर उन्मुख जहाँ होता दिखायी दिया वहीं स्वातंष्योत्तर युग के साहित्यकारों की चेतना और दूरदर्शिता भी उनके साहित्य में स्पष्ट रुप से दिखायी देती है। परिवर्तन समय की माँग भी थी और हिंदी कथा साहित्य में इन्हें हम विभिन्न कहानी आंदोलनों के रुप में देख भी सकते हैं। व्यक्ति को समकालीन संदर्भों में चित्रित करने की चेतना के परिणामस्वरूप यथार्थ की ठोस भूमि तैयार होने लगी जो कि एक उपलब्धि रही। स्वातंष्योत्तर काल के कहानीकारों ने परिवर्तित होते वातावरण में जीवन यथार्थ को प्रधानता दी। हृदयेश नारायण महरोत्रा स्वातंष्योत्तर युग के कथाकार के रुप में ही है जिन्होंने मध्यमवर्गीय जीवन में निम्न मध्यमवर्ग को आधार बनाया है जिसके लिये ‘हृदयेश’ अपना मार्ग चुनते हैं। आलोचक मधुरेश लिखते हैं- ‘‘हृदयेश अपने उन अनेक परवर्ती कहानीकारों से अलग है जिन्होंने आम आदमी की कहानी के नाम पर निम्न मध्यवर्गीय जीवन की कुण्ठाओं, पस्ती और हताशा की कहानियाँ लिखी हैं। हृदयेश इस वर्ग की अदम्य जिजीविषा, संघर्ष चेतना और मूल्य-बोध को गहरी सजगता से अंकित करते हैं।’’
इन्हीं के मध्य परिवर्तित परिवेश में व्यक्ति की प्रथम पाठशाला कहीं जाने वाली सामाजिक संस्था ‘परिवार’ की संकल्पना भी प्रभावित होनी स्वाभाविक थी। जहाँ हमारे सामाजिक मापदंड़ औद्योगीकरण तथा वैज्ञानिकता बोध के आधार पर निर्मित होना प्रारम्भ हुए वहीं हमारे पारिवारिक संबंधों का स्वरूप भी पारंपरिकता से विच्छिन्न होता दिखायी दिया। परिवार के साथ ही जो अस्तित्व की कल्पना की गई थी वह अब निराधार मानी जाने लगी और परिवार से पृथक़ व्यक्ति का अस्तित्व स्वीकृत होने लगा। मैकाइवर और पेज के अनुसार- ‘‘परिवार उस समूह का नाम है जो यौन संबंधों पर आश्रित है और इतना छोटा व शक्तिशाली है, जो संतान के उत्पादन और पालन-पोषण की व्यवस्था करता है।’’
इस पारिवारिक व्यवस्था के संबंधों के यथार्थ रुप को ‘हृदयेश’ ने बड़े ही सहज व सरल रुप में चित्रित किया है। इनमें हम ग्रामीण समाज के निम्न मध्यम वर्ग के साथ-साथ शहरी जीवन की पारिवारिक स्थिति व संबंधों को भी देख सकते हैं। माता-पिता व संतान के संबंध, भाई-भाई व भाई-बहन के संबंध, पति-पत्नी संबंध, देवरानी-जेठानी संबंध, सास-बहू व ससुर व पुत्रवधू के संबंधों को हम हृदयेश की कहानियों में यथार्थ रुप में पाते हैं। ‘परदे की दीवार’ कहानी में लेखक ने प्रयत्नपूर्वक बचाये गये संयुक्त परिवार की टूटन का चित्र यथार्थ रुप में प्रस्तुत किया है, जो कि हृदय पर आघात ही नहीं करता अपितु परिवार को शोक व संकट में ले जाता है। कहानी पारिवारिक संबंधों की कलह के साथ-साथ परिवार के मुखिया मुंशी बख्तावरलाल की घुटन व पीड़ा को सामने लाती है। बहुओं के झगड़े के कारण उनके शारीरिक व मानसिक कष्ट का एक चित्र वे इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं- ‘‘दोनों को ऐसे चुप होते न देख मुंशी जी ने हुमककर सीने में दो घूंसे मारे और आँगन में चारों खाने चित्त गिर पड़े। रोकर बोले, खूब लड़ो। मेरी लाश पर लड़ो। मैं मरूं तो रोना मत, कसम है लड़ती रहना। हाय बुढ़ापे में मेरी बनी-बनाई इज्जत धूल में मिल गई।’’
संयुक्त परिवार का विघटन होने के साथ-साथ संबंधों के औपचारिक रुप भी उभरे हैं। समाज की नींव कहे जाने वाला ‘परिवार’ परंपरागत मान्यताओं और नैतिकता बोध के अभाव में जीवनगत् आस्थाओं से कटा हुआ दृष्टिगत होता है। माता-पिता व संतान का संबंध सबसे मजबूत व विश्वसनीय माना जाता है, जिसमें संतान का माता-पिता के प्रति श्रद्धा भाव हमारी संस्कृति में सर्वोपरि रहा है, किंतु इस संबंध का कटु व यथार्थ रुप हृदयेश ने ‘सुहागिन माँ’ में दिखाया है। जहाँ पिता व पुत्र के तनावपूर्ण वातावरण में द्वंद्वपूर्ण मानसिक स्थिति से जूझती माँ है, जो पिता व पुत्र के मध्य सामंजस्य बिठाने में असफल है। शराबी पुत्र पिता की हत्या करने पर उतारु है- ‘‘आज जान लेकर ही रहूँगा। मेरा बाप नहीं वह दुश्मन है, दुश्मन। मुझे जो सबके सामने पीटा उसका बदला लेकर रहूँगा।’’
‘गिरत’ कहानी के हरचरनदास परिवार में सभी संबंधों के बावजूद भी अकेलापन अनुभव करते हैं। बुजुर्गों को सम्मान व सुरक्षा के स्थान पर नई पीढ़ी उनसे तर्क करके भौतिकता को केंद्र में रखकर चलती है। आज ‘अर्थकेंद्रित’ व्यक्ति संबंधों को लेकर संवेदनशील नहीं बौद्धिक है। पिता परिवार में जब स्वयं की देखरेख की अपेक्षा करते हैं तब पुत्र का यथार्थ रुप देखिए- ‘‘हम जिस तरह से दिन काट रहे हैं, देखते हुए भी आप नहीं देखते हैं। कट-कटाकर तनख्वाह के सौ रुपल्ली मिलते हैं, उस पर गिरानी की यह मार। आप अपने से हम लोगों का मिलानकर लीजिए।’’
पिता-पुत्र संबंधों के साथ ही हम पिता-पुत्री व माता-पुत्री के संबंध को आधार बनाकर लिखी गई कहानियाँ ‘वह अपने से कह रही थी’, ‘माँ और बेटी’, ‘माँ’ को देख सकते हैं। ‘वह अपने से कह रही थी’ की नायिका किरण पिता के समक्ष स्वयं को विवश महसूस करती है जिस प्रकार उसकी माँ उसके पिता के समक्ष कभी सहज नहीं रह सकी। इस कहानी में माता-पिता व पुत्री के संबंध का मनोविज्ञान सूक्ष्मता के साथ चित्रित किया गया है। ‘माँ और बेटी’ की डोरा व डोली के मध्य जहाँ तनाव है वहीं मित्रवत् व्यवहार भी है। यहाँ वे मात्र पारंपरिक माँ-बेटी नहीं हैं। इसी प्रकार ‘माँ’ कहानी की माँ का संबंध हम उसकी पुत्री के साथ देख सकते हैं, जिसमें पारंपरिकता के साथ आधुनिक परिवेश का प्रभाव भी देखा जा सकता है। यह परिवेश ग्रामीण न होकर शहरी है, जहाँ पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव व आधुनिक दृष्टि से संबंध यांत्रिक से लगते हैं। पुरानी व नई पीढ़ी के मध्य वैचारिक दूरियों के साथ ही संबंधों में प्रेम की ऊष्मा छिजती दिखाई देने लगी है। माँ नवीनता का स्वीकार करने को विवश है किंतु संस्कारगत परंपराएँ भी नहीं छोड़ी जा सकती। पुत्री के मित्र को घर आया देखकर वह इसे स्वीकार करती है किंतु विवाह पर बल देती है ‘‘तुझे पसन्द है तो शादी की बात क्यों नहीं करती है?’’ माँ का चेहरा यह कहकर शर्म के रंग से रंग गया . . . आशा उसे विस्मय भरी निगाह से ताकने लगी। फिर मुँह पर साड़ी का पल्ला रख ठठाकर हँस पड़ी, ‘‘माँ तेरे सिड़ीपन का भी जवाब नहीं।’’
हृदयेश की कहानियों में हम परिवार के बदलते दृष्टिकोण के साथ परंपरागत रुपों का भी चित्रण देखते हैं जिनमें पारंपरिक संयुक्त परिवार के साथ एकल पारिवारिक व्यवस्था और आपसी संबंधों के बीच तनावपूर्ण वातावरण का चित्रण है। पुरानी पीढ़ी के मूल्य व परंपराएँ हैं, तो आधुनिकता का दंभ भरती नवीन पीढ़ी की दृष्टि है। स्वार्थी प्रवृत्ति ने ‘परिवार’ नामक संस्था पर प्रश्नचिह्न लगाने प्रारंभ कर दिए हैं। स्वातंष्योत्तर काल में बदलती सामाजिक-पारिवारिक स्थितियों पर टिप्पणी करते हुए केवल गोस्वामी लिखते हैं- ‘‘स्वतंत्रता संघर्ष के समय देखे गए सपने टूट रहे थे। जीवन-यापन कठिन होता जा रहा था। स्वार्थ की आँधी ने पारम्परिक नैतिक मूल्यों को जड़ से उखाड़ दिया था। समाज का पुराना ढाँचा चरमरा गया। जटिल जीवन के साथ नए संबंधों का निर्माण हुआ। किंतु गंतव्य स्पष्ट न होने के कारण जिसके जहाँ सींग समाये वह उधर को मुड़ गया।’’
इन सब स्थितियांें को हृदयेश अपनी कहानियों में उनकी संपूर्ण यथार्थता के साथ चित्रित करते हैं। भाई-भाई के संबंधों को आधार बनाकर लिखी गई कहानी ‘दो भाई’ में भाईयों की आपसी कलह व मनोवैज्ञानिक स्थिति दर्शायी गयी है। ‘हृदयेश’ ने जहाँ इस संबंध पर आधुनिक परिवेश व उससे उत्पन्न विवशता का चित्रण किया है वहीं दो भाईयों के बीच की संवेदनशील स्थिति को सूक्ष्मता के साथ अभिव्यक्त किया है। भाई की दैन्य स्थिति देखर भाई का हृदय भर आता है- ‘‘दादा के जूते पर उसकी आज नजर गई थी। आगे के हिस्से के टाँके उखड़ गए थे और किनारे के फटे हुए भाग में से उनकी अंगुलियाँ झांकती थी। दूसरा ले नहीं सकते तो दादा को उसकी मरम्मत करा लेना चाहिए था। दादा उन जूतों में कितने निरीह दिखते हैं।’’
‘परतों के बीच’ कहानी में पति-पत्नी संबंध के साथ एक बहन का भाई के प्रति प्रेम चित्रित है जो कि हमें कहीं न कहीं एक जीवन यथार्थ की ओर ले जाता है। भाई की मृत्यु से आहत बहन जल्दी ही जीवन के दूसरे पक्षें को स्वीकार कर लेती है जिसे लेखक ने व्यवहारिकता के धरातल पर ले जाकर सिद्ध भी किया है। मृत भाई की बात पर वह कहती है- ‘‘उसने अपने माँ बाप से कह दिया है कि उनका पुत्र अब चला ही गया है। उसकी पत्नी यदि अपनी दूसरी शादी के लिए इच्छा प्रकट करती है, तो वे कोई बाधा न उपस्थित करें।’’ भाई-बहन के संबंध का एक ऐसा ही रुप ‘माँ’ कहानी की आशा के माध्यम से व्यक्त हुआ है, जो स्वतंत्र अलग शहर में रहते हुए आत्मनिर्भर और संबंधों को केवल औपचारिकता में जीती है। भाई की बीमारी का समाचार पाकर भी वह सामान्य व्यवहार करते हुए माँ से कहती है- ‘‘बता दिया कि कोई खास बात नहीं थी। बीरु की छाती में दर्द उठा था, पर अब ठीक है।’’
हृदयेश ने सास-बहू जैसे अति संवेदनशील संबंध को भी अपनी अनेक कहानियों में चित्रित किया है जिनमें परंपरागत व आधुनिक दोनों रुपों की झलक दिखाई देती है, इस कड़ी में हम ‘बिल्ली’, ‘माँ’, ‘भग्गो ताई’ जैसी कहानियों को प्रमुखता से रख सकते हैं। भौतिकतावादी प्रवृत्ति ने व्यक्ति को अपने ही घर में अजनबी बनाकर रख दिया है। इसी संबंध में बुजुर्गों के प्रति सम्मान हाशिये पर चला गया है। ‘बिल्ली’ कहानी की सास की स्थिति का चित्र देखिए- ‘‘अम्मा से कोई डरता नहीं है। अम्मा खुद से डरती है। नहाने के वस्त्र, साबुन की टिक्की उठाती है, फिर रख देती है। ‘अम्मा, क्या साबुन की जरूरत थी? . . . अम्मा मालूम है कंघी कितने दामों की आती है?’ बत्ती देर से जलाती है और जल्दी बुझा देती है। ‘अम्मा, बिजली का बिल इन दिनों बढ़कर आ रहा है।’ अम्मा, फिजूल-खर्ची आजकल जहर है।’’
‘माँ’ कहानी की बहू पति के गलत आचरण पर माँ को गलत सिद्ध करती है वहीं ‘भग्गो ताई’ में सास का दुर्व्यवहार बहू को लेकर दिखाया गया है, जो पूर्णतः पारम्परिक सास की भाँति है। सास-बहू जैसे संबंध के साथ ही हम देवरानी-जेठानी जैसे संबंध को ‘परदे की दीवार’ कहानी में देख सकते हैं, जहाँ कलह व झगड़े के मूल में देवरानी-जेठानी ही है, जिसमें प्रताड़ित देवरानी का आत्महत्या का कदम उठाना पारिवारिक संबंधों के एक ओर यथार्थ को उद्घाटित करता है- ‘‘कोठरी के कड़े से बँधी धोती के फंदे में जैसे ही छोटी बहू ने गर्दन डाली, वैसे ही बाहर खड़ी परदे की दीवार टेकों की अवहेलना कर अरराकर गिर पड़ी।’’ पारिवारिक संबंधों में परिवार की नींव कहे जाने वाला संबंध हैं पति-पत्नी संबंध। इसे हमारे भारतीय धर्मशास्त्रों में तो जन्म-जन्मांतर का संबंध तक कहा गया है और जिसका प्रारंभ ‘विवाह’ जैसी संस्था से ही माना गया है। वही पति-पत्नी संबंध आज सर्वाधिक संकट में कहे जा सकते हैं। हृदयेश ने अपनी कहानियों में इसे सहज व असहज दोनों रुपों के साथ यथार्थ रुप में चित्रित किया है। अपने-अपने अस्तित्व की लड़ाई के साथ ही पारंपरिक संबंध का रुप भी स्वातंष्योत्तर समाज में देखा जा सकता है। ‘‘स्वातंष्योत्तर भारत में सामाजिक संदर्भों, संस्कारगत मान्यताओं एवं दाम्पत्य संबंधों में तेजी से परिवर्तन आया है, उसने आज के शिक्षित एवं विशिष्ट संस्कारों में पले पति-पत्नी के आपसी ‘एडजस्टमेंट’ की समस्या पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है।’’
पति-पत्नी संबंध के विभिन्न रुपों को हम ‘परतों के नीचे’, ‘हम झुके नहीं’, ‘पति-पत्नी और वह’, ‘उजला गीलापन’, ‘पतिव्रता’, ‘जलता मैदान’ जैसी कहानियों के माध्यम से देख सकते हैं, जिनमें ‘हम झुके नहीं’ व ‘उजला गीलापन’ के पति-पत्नी संबंध जहाँ सहज व मधुर हैं, वहीं ‘जलता मैदान’ के पति-पत्नी तलाक तक जा चुके हैं- ‘‘पर फिर नोटिस आ गया। इसके बाद अदालत में मुकदमा दायर होने की सूचना और सम्मन। संबंध विच्छेद के लिए वही बदचलनी को आधार बनाया गया था।’’ ‘भय मुक्त’ कहानी का नायक भी संबंध विच्छेद कर चुका है और अब ‘पत्नी’ के नाम से भी तनाव में है। ‘पतिव्रता’ की पत्नी रुप में हम पारंपरिक पत्नी रुप को देख सकते हैं, जो बीमार पति के दुर्व्यवहार के पश्चात् भी अपना धर्म निभाती है- ‘‘आत्मा स्वीकारती नहीं थी कि वह व्रत में चाय पिए। सात निर्जल व्रत रख चुकी है। आज आठवाँ भी बीत गया। चार वह ऐसे ही ओर रख डालेगी। काटने को सब कट जाता है।’’
‘सुहागिन माँ’ की पत्नी-पुत्र से पति की प्राण रक्षा करने हेतु पुत्र की हत्या तक करने में नहीं सकुचाती। पति-पत्नी संबंधों में तनाव का कारण हम विवाहेत्तर संबंध भी होते हैं, जिन्हें हृदयंेश की ‘माँ’ कहानी में बीरु व उसकी पत्नी के माध्यम से सामने लाया गया है। इसके विपरीत ‘परतों के नीचे’ का नायक पत्नी के प्रति समर्पण भाव ही नहीं रखता अपितु स्वयं को आदर्श रुप में सिद्ध भी करती है। ‘हृदयेश’ जैसे लेखक ने परिवर्तित मूल्यों व आधुनिकता की चपेट में आए इस संबंध का बड़ा ही यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है, जो किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित न होकर सहज प्रवाह कहा जा सकता है। यह सत्य है कि ये संबंध भी जटिल होती परिस्थितियों के ग्रास बनते जा रहे हैं। निर्मल सिंघल की टिप्पणी भी इसी ओर संकेत करती है- ‘‘नारी और पुरुष के संबंध या यों कहें पारिवारिक संबंध उतने अविचल और सनातन नहीं रह गए हैं। इस दृष्टि से परंपरागत परिवार के टूटने का चित्रण अनेक नए कहानीकारों में दिखायी पड़ता है। परंपरागत परिवार टूटने का प्रभाव केवल स्त्री-पुरुष संबंधों या प्रेम के क्षेत्र में ही दिखाई नहीं पड़ता बल्कि अन्य संबंधों में भी दिखाई पड़ा।’’
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पारिवारिक संबंधों पर पड़ने वाले प्रभावों का सूक्ष्मता के साथ चित्रण करने वाले ‘हृदयेश’ न केवल इन संबंधों का चित्र प्रस्तुत करते हैं अपितु हमें उनके तीखे यथार्थ रुप का भी सीधा अनुभव कराते हैं। रक्त-संबंधों के साथ ही अन्य पारिवारिक संबंध यथा- सास-बहू, देवरानी-जेठानी, ससुर-वधू, ननद-भाभी का यथार्थ चित्रण भी हृदयेश की कहानियों में स्पष्ट देखा जा सकता हैं। सर्वाधिक चित्र मध्यमवर्गीय परिवारों से ही ‘हृदयेश’ द्वारा अपनी लेखनी के माध्यम से उकेरे गये हैं, जहाँ ग्रामीण व शहरी दोनों ही परिवेश में इन संबंधों की यथार्थ स्थिति ज्ञात होती है। इन सबके मूल में विद्यमान व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व आर्थिक दशा किस सीमा तक अपनी भूमिका निभाती हैं, उन्हें लेखक ने बड़ी सूक्ष्मता के साथ अपनी कहानियों में विश्लेषित किया है। ये संबंध कहीं सहज व सरल रुप में भी दिखायी देते हैं तो कहीं इनकी असहजता से परिवार विघटित हो चुका है, जिसके मूल में वस्तुतः ‘अर्थ’ एक ठोस व यथार्थ रुप में है। जिसे लेखक ने ‘परदे की दीवार’, ‘हम झुके नहीं’ कहानी में कुशलतापूर्वक दिखाया है। अतः मध्यमवर्गीय समाज व छोटे शहर के निम्न मध्यवर्गीय जीवन और परिवेश के संबंधों पर केंद्रित हृदयेश नारायण महरोत्रा की कहानियों में हमें यथार्थ के निकट जाकर हमें परिवर्तित पारिवारिक संबंधों के अक्स यथार्थ रुप में दिखाई देते हैं।
संदर्भ ग्रंथ सूची
स हृदयेश- संपूर्ण कहानियाँ भाग-1, भावना प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (2011) (भूमिका से)
स एस॰पी॰ गुप्त एवं बी॰के॰ अग्रवाल- हिंदी समाजशास्त्र की रूपरेखा, प्रकाशन-साहित्य भवन प्रकाशन, आगरा (1972), पृ॰ 131
स हृदयेश- संपूर्ण कहानियाँ, पृ॰ 43
स वही, पृ॰ 100
स वही, पृ॰ 560
स (सं॰) केवल गोस्वामी- श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ (1960-1970), पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा॰लि॰, प्रथम संस्करण, जनवरी 2010 (भूमिका से)
स हृदयेश- संपूर्ण कहानियाँ भाग-1, पृ॰ 275
स वही, पृ॰ 608
स वही, पृ॰ 582
स वही, पृ॰ 560
स वही, पृ॰ 475
स वही, पृ॰ 46
स समीक्षा पत्रिका, जुलाई 1971, पृ॰ 4-5
स हृदयेश- संपूर्ण कहानियाँ भाग-1, पृ॰ 505
स वही, पृ॰ 449
स निर्मल सिंघल- नई कहानी और अमरकांत, राधाकृष्ण प्रकाशन, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, दिल्ली, पृ॰ 230

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