डॉ0डी0आर0 यादव
एसो0प्रो0एवं अध्यक्ष
राजनीति विज्ञान विभाग
गायत्री विद्यापीठ (पी0जी0) कालेज
रिसिया, बहराइच
महिलाओं के विकास के सम्बन्ध में अम्बेडकर का दृष्टिकोण सुधारवादी था। जाति व्यवस्था तथा अश्पृश्यता के उन्मूलन पर जोर देने के साथ ही महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति में सुधार के लिए उनका प्रयास प्रशंसनीय रहा। महिलाओं की नवजागृति के बिना दलितोद्धार आन्दोलन पूर्ण नहीं हो सकता था। अम्बेडकर के शब्दों में ’’कि याद रखिए हमारा यह आन्दोलन तब तक सफलता की चोटी पर नहीं पहुँच सकता जब तक कि हमारी महिलाएं भी इसमें सक्रिय रूप से हिस्सा नहीं लेंगी।’’ दलित वर्ग की मुक्ति का कार्य तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक कि महिलाओं को पुरूषों के समान ही उनके व्यक्तित्व के विकास का अवसर उपलब्ध नहीं होता और उसी प्रकार के अधिकार और स्वतन्त्रताएं प्रदान नहीं की जाती हैं जैसा कि पुरूषों को प्राप्त है। उनकी यह स्पष्ट धारणा थी कि औरतों के बिना एकता अर्थहीन है और शिक्षित औरतों के बिना हमारी शिक्षा की भूमिका अर्थहीन है। साथ ही यदि उनकी शक्ति सामाजिक आन्दोलन से नहीं जुड़ती तो वह आन्दोलन भी महत्वहीन हो जाता है। इसलिए अम्बेडकर की प्रबल इच्छा थी कि सामाजिक पुनर्रचना में पुरूषों के समान ही महिलाओं की सहभागिता होनी चाहिए। उन्होंने अपने दलितों द्वारा संघर्ष में दलित महिलाओं को सहभागी बनाने का उपक्रम किया। डॉ0 अम्बेडकर हिन्दू समाज में स्त्रियों की दीन-हीन दशा के लिए वे हिन्दू धर्म ग्रन्थों और मुख्य रूप से मनुस्मृति को उत्तरदायी मानते थे जिसके अनुसार उनके सम्बंध में यह प्रतिपादित किया गया कि वे बाल्यकाल में पिता के संरक्षण में, युवाकाल में पति के संरक्षण में तथा वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहें, अर्थात उन्हें अपने जीवन के किसी भी काल में स्वतन्त्रता पूर्वक जीने का अधिकार न हो तथा हर काल में किसी न किसी रूप में उनके लिए पुरूष का संरक्षण अनावश्यक है।1
20 जुलाई 1924 को बहिस्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की थी इसका लक्ष्य अश्पृश्यता उन्मूलन के लिए संघर्ष करना था और दलितों में शिक्षा का प्रसार कर उनकी चेतना को जागृत करना था। इस संस्था के संघर्ष एवं कार्यक्रमों में अम्बडेकर की प्रेरणा से महिलाएं आगे आयीं और धीरे-धीरे बढ़चढ़कर भाग लेने लगी। मंदिर प्रवेश के लिए अमरावती में हुए 13 नवम्बर 1927 के सम्मेलन में महिलाओं ने एक बड़ी संख्या में भागीदारी की। महाड़ सत्याग्रह में भी महिलाओं ने अति उमंग एवं उत्साह के साथ भाग लिया था। जनवरी 1928 ई0 में मुम्बई में महिला मण्डल की स्थापना की गई और इसकी अध्यक्षा अम्बेडकर की पत्नी रमाबाई थी। आगे चलकर हम देखतें हैं कि अम्बेडकर के द्वारा चलाये गये सभी कार्यक्रमों एवं आन्दोलनों को सफल बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
शूद्रों एवं अश्पृश्यता की अमानवीय स्थिति के समान ही वे भारत में स्त्री जाति के अधोगति के प्रति बहुत संवेदनशील थे। स्त्रियों की अधोगीत के लिए वे ब्राहमणवादी व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराते थे। उनका मानना था कि प्राचीन काल में स्त्रियों को पुरूषों के समान ही स्थिति प्राप्त थी। राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के योगदान के सम्बन्ध में भले ही साक्ष्य उपलब्ध न हो पर बौद्धिक तथा सामाजिक क्षेत्र में उनका स्थान काफी ऊँचा था।2
वैदिक काल में महिलाओं का उपनयन संस्कार भी होता था और वेदाध्ययन भी कर सकती थीं। वे आचार्य पद को सुशोभित करती थी और पुरूषों से शास्त्रार्थ भी करती थीं। इनमें सुलभा, गार्गी, मैत्रेयी तथा विधाधरी के शास्त्रार्थ बहुत प्रसिद्ध हैं।3
उस युग में स्त्रियों को सम्मान प्राप्त था। लेकिन कालातंर में ब्राहमणवाद के प्रभावी हो जाने से हिन्दू समाज में स्त्रियों की स्थिति शूद्रवत हो गयी। समाज में स्त्रियों की अधोगति हो गयी और पुरूशों का वर्चस्व स्थापित हो गया पर बौद्धधर्म अम्युदय से इस स्थिति को चुनौती मिली। गौतमबुद्ध ने स्त्रियों भिक्षुणी बनाने की आज्ञा देकर स्त्रियों को पुरूषों के समक्ष ला खड़ा कर दिया। यह बहुत बड़ी क्रान्तिकारी दृष्टि थी। फलतः स़्ित्रयां बौद्ध धर्म की ओर आकर्शित हुई। इससे ब्राहमणवाद की नींव हिलने लगी। मनु ने ब्राहमणवाद के बचाव व समर्थन मंे मनुस्मृति में ऐसी व्यवस्थाएं कर दीं कि स्त्रियां सदा के लिए पूरी तरह पंगु बनकर रह जायें और पुरूषों के व्यक्तित्व में समाहित हो जाये। अम्बेडकर के शब्दों में -’’ बौद्ध काल मंे समाज में दो वर्ग, (स्त्रियां तथा शूद्र) बौद्ध धर्म में अधिक श्रद्धा रखते थे, यही (ये दोनों वर्ग) बहुत बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म को ग्रहण कर रहे थे। इसके कारण ब्राहम्ण धर्म की नींव ही हिली जा रही थीं।
अतः अपने धर्म की रक्षा के लिए मनुस्मृतिकार स्त्रियों का झुकाव बुद्ध-धर्म की ओर से मोड़ना चाहते थे। यही कारण है कि मनु ने स्त्रियों पर इतनी पावन्दिंया लगा दी, ताकि वे बिल्कुल और सदा के लिए पंगु हो जाय। भारतीय समाज शूद्रों एवं अश्पृश्यों के सदृश ही स्त्रियों की स्थिति व्यवहारिक दृष्टि से निकृष्ट एवं सोचनीय रही। मनु ने हिन्दू समाज के विरोधाभास को ही अभिव्यक्ति दी है। मनुस्मृति में कहा गया है कि जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता लोग निवास करते हैं।
अर्थात स्त्रियों का सम्मान सभ्य समाज का लक्षण है। किन्तु इसी मनुस्मृति में महिलाओं को धर्म कार्य से वंचित कर दिया गया। पति की सेना-शुश्रुशा ही उसका धर्म बन गया। स्त्रियों के बध को हल्का अपराध माना गया। मनु के विधान में स्त्रियों को पति से सम्बन्ध विच्छेद का अधिकार नहीं है। उसके लिए अनेक नियोग्यताओं एवं निशेधों की सृष्टि कर उसकी स्थिति अधम और अमानवीय बना दी गयी। वह पुरूषों की गुलाम और सम्पत्ति बनकर रह गयी। उसका स्वतन्त्र अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया। इसका भारत के सामाजिक जीवन पर व्यापक कुप्रभाव पड़ा। अम्बेडकर के शब्दों में ’’यह मान लेना गलत न होगा कि किसी मनुष्य द्वारा दूसरे के साथ ऐसे पाशविक व्यवहार करना ही ब्राहमण धर्म हैं, क्योंकि ब्राहम्णों ने समाज की पवित्रतम प्रथा को शह दी, जिससे भारत में स्त्रियों को जितने घोर कष्ट उठाने पड़े, उनकी संसार के किसी अन्य भाग से तुलना नहीं की जा सकती। भारत में विधवाओं को सती होने के नाम पर जीवित आग में झोंक दिया जाता था। ब्राहमणों ने सती प्रथा को पूर्ण समर्थन दिया। विधवा स्त्री को पुनर्विवाह करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। ब्राहमणों ने इस आचरण को दृढ़ता से स्थापित किया। बालिकाओं का विवाह आठ वर्ष की अवस्था से पहले कर दिया जाता था और पति को अधिकार था कि किसी भी समय वह विवाह तोड़ सकता था, चाहे वह लड़की पूर्ण यौवन प्राप्त कर रजस्वला आयु की हुई हो अथवा नहीं। ब्राहमणों ने इस सिद्धान्त को पूरा प्रोत्साहन दिया। शूद्रों, अछूतों, और नारी के लिए ब्राहमणों ने जो घृणित विधान रचे। संसार के किसी भाग में किसी बौद्धिक वर्ग में उसका सानी नहीं। वह स्त्री जो आपकी जननी रही हो, आपकी बहन रही हो, आपकी पुत्री रही हो, तथा और भी अन्य सामाजिक सम्बन्धों से जुड़ती हो, वह निकृष्ट एवं घृणित बना दी जाय और मान ली जाय, यह समाज के किस सोंच का परिचायक है, ऐसे सोंच को व्यवहत कर हम किस संस्कृति एवं सम्यता का गौरव गान करते हैं? पुरूष सतात्मक समाज का यह कौन सा चरित्र है? निश्चित रूप से पुरूष तथा स्त्री के मध्य कुछ जैविक भिन्नताएं हैं। इससें उनके स्वभाव एवं गुण में भी भिन्न्ता की सृष्टि होती है किन्तु यह भिन्नताएं परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है। समाज में सम्पूर्णता की सृष्टि एवं सम्यक विकास दोनों की समान सहभागिता पर निर्भर है।
अम्बेडकर भारत के मुस्लिम समाज की महिलाओं को लेकर भी चिंतित थे, उनके अनुसार मुस्लिम कानून में भले ही महिलाओं को सुरक्षा एवं सम्मान की स्थिति प्रदान की गयी हो किन्तु व्यवहार में उनका जीवन विश्वभर में सर्वाधिक असहाय अवस्था में है। तलाक की दृष्टि से उसका वैवाहिक जीवन असुरक्षित है, पति को बहुविवाह करने तथा रखैल रखने की व्यवस्था होने के कारण उसका जीवन दुखदायी है। पर्दाप्रथा के कारण उसका जीवन नारकीय हो गया है। इससे महिला पुरूष के बीच पृथक्ता का भाव जन्म लेता है। यह अलगांव की वृत्ति स्वस्थ समाज के विकास की दृष्टि से अनुचित है। इसका महिलाओं पर व्यापक दुष्प्रभाव परिलक्षित है।4
अम्बेडकर जी के शब्दों में ’’यह कहने के लिए किसी मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता नहीं कि ऐसी सामाजिक प्रणाली से जो पुरूषों और महिलाओं के बीच के सम्पर्क को काटकर यौनाचार के प्रति ऐसी अस्वस्थ प्रवृत्ति का सृजन होता है जो अप्राकृतिक एवं अन्य दूषित आदतों और साधनों को अपनाने के लिए प्रेरित करती है। बाल-विवाह से भी मुस्लिम महिलाओं की स्थिति अवनति को प्राप्त हुई। मुसलमानों द्वारा 1930 ई0 में बाल-विवाह विरोधी विधेयक का विरोध किये जाने को अम्बेडकर ने अनुचित माना। अम्बेडकर का कथन है कि’’ विवाहित मुस्लिम महिला को अपने आत्म बोध की आजादी नहीं है और हमेशा के लिए अपने उस पति से बँधी रहती है जिसकी धार्मिक आस्था उसके लिए पूर्णतः घृणास्पद है।
आधुनिक भारतीय इतिहास का यह एक प्रशंसनीय पक्ष माना जाना चाहिए कि इस दौरान महिलाओं की समस्या के प्रति संवेदनशीलता का परिचय मिलता है। समाज सुधारकों ने उनकी दुर्गति को अनुचित माना और उनकी स्थिति को सुधारने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाये गये। ब्रम्ह समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज तथा रामकृष्ण मिशन आदि संस्थाओं तथा इनके संस्थापकों ने दूरदृष्टि का परिचय दिया और स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए काफी प्रयास किये। डॉ0 अम्बेडकर ने इस सम्बंध में क्रान्तिकारी दृष्टि का परिचय देते हुए ठोस सुधारात्मक कदम उठाये। जहाँ अन्य लोग सामाजिक चेतना जाग्रत कर उनकी स्थिति सुधारने हेतु जी तोड़ प्रयास करते रहे वहाँ अम्बेडकर ने दोहरा कार्य किया। उन्होंने सामाजिक चेतना को जागृत करने के लिए तो कार्य किया ही साथ ही व्यवहारिक स्तर पर पुरूषों के समक्ष स्त्रियों को लाने का उपक्रम भी सतत् करते रहे। उन्होंने दलित वर्ग की स्त्रियों की चेतना में क्रान्तिकारी परिवर्तन के बीज बोये। स्त्रियाँ और इनमें भी दलित वर्ग की स्त्रियों की दुर्दशा अवर्णनीय है। इन्हें दोहरी मार झेलनी पड़ती है। अपने समुदाय की तथा उच्च वर्ण की सामंतवादी प्रवृत्ति की।5 इस स्थिति को समाप्त करने के लिए उन्होंने अपने क्रान्तिकारी विचारों के साथ ही वैधानिक साधनों का सहारा लिया जिससे सम्पूर्ण स्त्री वर्ग का सभ्य समाज के अनुरूप सुधार किया जा सकें।
भारतीय संविधान के निर्माण में उनकी भूमिका अहम् थी और हमारा संविधान प्रत्येक दृष्टि से स्त्री-पुरूष समानता की सृष्टि करता है। संवैधानिक स्तर पर स्त्रियों को पुरूषों के समान ला देना क्रान्तिकारी कदम था। सार्वभौम मताधिकार की व्यवस्था से लोकतन्त्र की गतिशीलता में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी। भारत के प्रथम कानून मंत्री की हैसियत से स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए ’’हिन्दू कोड बिल’’ का अम्बेडकर ने निर्माण किया गया और 5 फरवरी,1951 को संसद के समक्ष रखा। इस विधेयक के माध्यम से वे स्त्रियों की अधोगति के लिए उत्तरदायी कारकों को जड़ से समाप्त करना चाहते थे। स्त्रियों की वैवाहिक स्थिति में तार्किक परिवर्तन, साम्पत्तिक उत्तराधिकार की व्यवस्था तथा सम्माननीय दर्जा देने से सम्बन्धित प्राविधानों की उन्होंने व्यवस्था की। इसके लिए उन्होंने बौद्धिक तथा तार्किक समर्थन के साथ-साथ शास्त्रों के आधार पर भी पाण्डित्य पूर्ण उद्धरण प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि बृहस्पति स्मृति मेें स्त्रियों को सम्पत्ति का अधिकार मान्य है तथा तलाक को पाराशर स्मृति इजाजत देता हैं। उनके इस प्रयास को सनातनी एवं कट्टर हिन्दू धर्म पर प्रहार समझा और उनके विरोध के कारण यह विधेयक स्थगित कर दिया गया। इसके लिए उन्होंने मंत्री पद छोड़ना उचित समझा किन्तु उन्होंने अवसरवादी तथा समझौतावादी दृष्टि नहीं अपनायी। इसी से पता चलता है कि स्त्रियों के प्रति उनमें कितनी संवेदनशीलता थी यह उनके व्यक्तित्व की अद्वितीय विलक्षणता थी कि उन्होंने अन्यायों एवं दबावों से कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने ’’हिन्दू कोड बिल’’ प्रस्तुत कर स्त्रियों के उद्वार एवं प्रगति के बीज बो दिये थे, उनका प्रयास व्यर्थ नहीं गया। कालान्तर में वही उपबन्ध आगे चलकर संसद ने पारित किये। यह उनके द्वारा किये गये प्रयास के दबाव का ही परिणाम था कि स्त्रियों की दशा में सुधार हेतु अनेक क्रान्तिकारी कदम कानूनी स्तर पर उठाये गये और यह प्रक्रिया आज तक जारी है।
डॉ0 अम्बेडकर के दलित मुक्ति आन्दोलन में स्त्रियों की मुक्ति की भी छटपटाहट है इसलिए अम्बेडकर का कहना था कि’’आप यह देखे कि आपके इस मुक्ति आन्दोलन में आपकी महिलाएं तो पीछे नहीं रह जाती। उन्होंने महिलाओं को प्रेरित किया कि वे स्वयं आगे आकर अपनी नियत का निर्माण करें। उनका स्पष्ट विचार था कि पुरूषों पर निर्भरता छोड़कर उन्हें स्वयं अपनी स्थिति सुधारने के प्रयास में लग जाना चाहिए। महिलाओं के बीच जब भी उन्हें बोलने का अवसर मिला, उन्होंने महिलाओं को इस दिशा में अवश्य प्रेरित किया। डॉ0 अम्बेडकर का कथन है कि ’’मेरा मत है कि महिलाओं का संगठन हो। महिलाओं को अपने कर्तव्य की महत्ता मालूम पड़ने पर वे समाज सुधार का कार्य कर सकेंगी। समाज में घातकी रीति रिवाजों का उद्घाटन कर आपने बड़ी सेवा की है। आपकी उन्नति के बारे में मुझे समाधान और भरोसा लगता है। आप साफ सुथरे रहना सीखें। दुर्गुणों से दूर रहें। बच्चों को शिक्षा दें। उनके मन में महात्वाकांक्षा जागृत करें। उनके मन पर प्रतिविम्बित की भावना हटा दें। विवाह करने में जल्दबाजी न करें। विवाह एक जिम्मेदारी होती है। आपकी संतानों की उस जिम्मेदारी को आर्थिक दृष्टि से सहने में समर्थ हुए बिना वह जिम्मेदारी उन पर न लादें। विवाह करने वालों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि ज्यादा बच्चे पैदा करना पाप है। खुद की अपेक्षा जीवन में उच्च स्तर पर अपनी प्रत्येक संतान का आरम्भ करा देना माँ-बाप का फर्ज है। सबसे महत्वपूर्ण बात यानी प्रत्येक लड़की को शादी के बाद अपने पति के साथ एक निष्ठ रहना चाहिए। उसके साथ मित्रता और समानता के रिश्ते के साथ बर्ताव करना चाहिए। उसकी दास नही बनना चाहिए। अगर आप इस उपदेश के साथ बर्ताव करेंगी तो आपको सम्मान और वैभव प्राप्त हुए बिना नहीं रहेगा। यह अम्बेडकर की महिलाओं के प्रति अन्तर्दृष्टि थी और उनकी सीख भी। अन्नतः महिलाओं की स्थिति के प्रति वे चिंतित थे और यह चाहते थे कि उनका प्रत्येक दृष्टि से विकास हो। डॉ0 अम्बेडकर के समूचे राजनीतिक व सामाजिक योगदान से यह स्पष्ट है कि उनका चिंतन बहुआयमी है तथा इस कारण उन्होंने प्रभावकारी ढ़ंग से समाज की हर समस्या पर विचार किया, चाहे वह समस्या संस्कृति की हो, या धर्म की, अर्थनीति की हो या राजनीति की, पूरे समाज की हो या वर्ग विशेष की, विधि की हो या संविधान की। वे एक राजनेता होने के साथ-साथ एक दार्शनिक, समाजशास्त्री, एक शिक्षाविद्, एक विधिवेत्ता, एक संविधान ज्ञाता और इन सबसे बड़े वे एक मानवतावादी थे तथा सम्पूर्ण मानवता का हित उनका आराध्य या ईष्ट था। अपनी इस विशेषता के कारण वे जहाँ एक ओर सर्वोपरि दलित उद्धारक या उनके मुक्ति दाता थे, वही दूसरी तरफ वे सम्पूर्ण भारतीय समाज के प्रमुख राजनेता और आधुनिक ‘मनु’ के रूप में उसके प्रमुख पुनर्गठनकर्ता एवं संविधान निर्माता के रूप में उसके ‘नवसंहिताकार’ भी थे। इस दृष्टि से उनका दिया गया, योगदान स्तुत्य ही नहीं वरन चिरस्मरणीय भी है। वह भारतीय इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डॉ0 जे0सी0 जौहारी, डॉ0 रश्मी शर्मा, डॉ0 अरूण कुमार -राजनीति विज्ञान, प्रकाशन, एस0बी0पी0डी0 पब्लिकेशन, आगरा, पृष्ठ-192
2. बाबा साहब डॉ0 अम्बेडकर, हिन्दू नारी का उत्थान और पतन, अनुवादक-श्री वर्द्धन जी, प्रकाशन बहुजन कल्याण प्रकाशन, सहादतगंज लखनऊ
3. उपरोक्त-पृष्ठ-26
4. खण्ड-15, उपरोक्त, पृष्ठ-224
5. अभय कुमार दूबे (सम्पादक), आधुनिकता के आयने में दलित, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-230-243
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