1. डॉ0 विजय पाल 2. डॉ0 इन्द्रमणि
एसोसिएट प्रोफेसर एसोसिएट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग राजनीति विज्ञान विभाग
वी0एस0एस0डी0 कॉलेज, कानपुर वी0एस0एस0डी0 कॉलेज, कानपुर
3. डॉ0 देवेन्द्र अवस्थी 4 . डॉ0 उमेश चन्द्र यादव
एसोसिएट प्रोफेसर एसोसिएट प्रोफेसर
अर्थशास्त्र विभाग अर्थशास्त्र विभाग
वी0एस0एस0डी0 कॉलेज, कानपुर वी0एस0एस0डी0 कॉलेज, कानपुर
विदेशनीति अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मूल में निहित है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और विदेशनीति में परस्पर गहरा सम्बन्ध है, कई बार तो विद्वान लोग भी दोनों को पर्याय मानते हैं। लेक्सी ग्रास के अनुसार तो, ‘अंतर्राष्ट्रीय राजनीति विदेशनीति के अतरिक्त कुछ भी नहीं है।’ वास्तव में एक देश पर राष्ट्र सम्बन्धों में जो नीति बनाता और लागू करता है उसी विदेश नीति के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के स्टेट प्लेयर अपनी रूपरेखा तय करते हैं और अपने पारस्परिक सम्बन्धों को प्रायः शांति अथवा संधर्ष की भावना से संचालित करते हैं। जो राष्ट्र अथवा देश शांति एवं अनाक्र्रामकता को प्राथमिकता देते हैं वे प्रायः आदर्शवादी दृष्टिकोण के वाहक हैं पर जो राष्ट्र अथवा देश संघर्ष एवं आक्र्रामकता को श्रेष्ठ मानते है, यथार्थवादी दृष्टिकोण के वाहक हैं। वस्तुतः आज की वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति अपने साध्य की पवित्रता में विस्वास करती है, साधन जैसा भी हो अर्थात राष्ट्रहित में सब जायज है और राष्ट्रीय शक्ति की अभिवृद्धि परम आवश्यक है। ऐसे में शांति और सौहार्द्र विषयक आदर्शवादी दृष्टिकोण वर्तमान युग की कोरी कल्पना है। हम वर्तमान भारतीय संदर्भ में यह कह सकते है कि हमारी पंचशील जैसी आदर्शवादी विदेशनीति पर कुठाराघात एवं विश्वासघात करते हुए चीन भारतीय भूमि पर घुसपैठ कर चुका है फिर भी हम अभी भी चुप हैं। ऐसा पं्रतीत होता है कि आदर्शवादिता की कोई कद्र नहीं है।
उल्लेखनीय है प्रथम विश्व-युद्ध के बाद शान्ति स्थापना और संघर्ष की न्यूनता हेतु लीग ऑफ नेशन का निर्माण हुआ परन्तु यह संस्था भी अपने शान्ति स्थापना के उद्देश्य में सफल नहीं हो सकी। आदर्शवादी विचारधारा की एकलवादी सम्प्रभुता ने राज्यवाद को इतना पुष्ट किया कि 1920 के दशक में इटली में मुसोलिनी के नेतृत्व में फॉसीवाद और 1930 के दशक में जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में नाजीवाद ने विश्व के लोकतांत्रिक जमीन पर अशान्ति का पताका लेकर चुनौती देने लगा जिसकी परिणति दूसरे विश्व-युद्ध के रूप में विश्व के इतिहास में अंकित है। पूँजीवादी पश्चिमी देश 1917 के बोल्शेविक क्रान्ति के समय से ही सोवियत रूस के विरुद्ध थे, क्योंकि साम्यवाद एक विश्वव्यापी आन्दोलन था जिसका अन्तिम उद्देश्य पूँजीवाद को समाप्त कर अखिल विश्व में साम्यवाद का प्रसार करना था। सोवियत संघ की सरकार की स्थापना हो जाने के बाद भी पश्चिमी राष्ट्रों ने उसे मान्यता देने में बहुत आना-कानी की थी। बड़े संघर्ष के बाद सोवियत संघ की साम्यवादी सरकार को ब्रिटेन 1924 में और अमेरिका ने 1933 में मान्यता प्रदान की। विश्व में संघर्ष कायम रहे इस उद्देश्य से पश्चिमी देश हिटलर को सोवियत संघ पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित करते रहे।1 कुछ ही समय बाद वैचारिक मतभेद होने के बाद भी संयुक्त राज्य अमेरिका ने सोवियत संघ को मिलाकर इटली और जर्मनी के विरुद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध का आगाज कर दिया और युद्ध समाप्त होते-होते संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी शक्ति की क्षमता का प्रदर्शन करते हुए 1945 में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में पहली बार परमाणु हमला कर दिया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने इस कृत्य से जहाँ एक ओर अपने दुश्मनों पर अंकुश लगाया वहीं सोवियत संघ की बढ़ती शक्ति को भी संदेश दिया। और यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि हम शक्तिवादी, यथार्थवादी और विश्व नेतृत्वकर्ता हैं। अपने सत्ता का प्रदर्शन कर अक्टूबर 1945 को ही संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना करवा दिया जिसमें सर्वाधिक आर्थिक सहयोग उसने स्वयं किया और अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय को छोड़ दें तो संयुक्त राष्ट्र संघ के बाकी सभी अंगों का मुख्यालय एवं कार्यालय न्यूयार्क में स्थापित करवा लिया। अब वर्तमान में यही वैश्विक राजनीतिक संस्था है जिसे वैश्विक स्तर पर शान्ति स्थापित करनी है और संघर्षों पर विराम लगाना है।
अब आते हैं मूल प्रश्न पर। क्या शान्ति का विचार आदर्शात्मक है? क्या शान्ति स्थापित नहीं हो सकती? सच तो यह है कि सभी राष्ट्रीय राज्य शान्ति तो चाहते हैं परन्तु अपने राष्ट्रीय-हितों को शीर्ष पर रखकर। हितों की टकराहट स्वाभाविक है क्योंकि विवेक राजनीति का उच्चतम मूल्य है। विवेक बुद्धिवाद और तर्कवाद का परिचायक है जो स्वाभाविक रूप से लाभ के साथ रहना चाहता है और हानि से समझौता नहीं करता। करना भी नहीं चाहिए क्योंकि पौर्वात्य और पाश्चात्य दोनों अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के जानकारों ने राज्य-क्षेत्र की सुरक्षा और निरन्तर विस्तार को राजा का धर्म माना है। अतः विश्व राजनीति में शान्ति कोरी कल्पना है जिसे आदर्शवादियों ने सजा संवार कर रखा है। शान्ति में विकास होता होगा परन्तु यहाँ पर तो विस्तारवादी नीति ही विकास है जहाँ पर शान्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। भारत-चीन सम्बन्ध के हिन्दी-चीनी भाई-भाई वाले सन्दर्भ कहीं खो गए हैं, विस्तारवादी नीति वाले विकास के कलेवर में शान्ति को तिलाजंलि दे चुके हैं। इससे नवीन दृष्टान्त हमें देखने को नहीं मिलेगा। वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति एवं विदशनीति के संदर्भ में शान्ति एवं संघर्ष के सम्यक् विमर्श हेतु निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है-
1. दार्शनिक दृष्टिकोण 2. राजनीतिक दृष्टिकोण 3 सामरिक दृष्टिकोण
वस्तुतः शान्ति की अवधारणाएँ विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं में समृद्ध हुई है। मानव-चिन्तन के प्रारम्भ से ही यह स्पष्ट है कि संघर्ष अथवा युद्ध न ही प्राकृतिक घटना है और न ही ईश्वरकृत है। पूर्वी धर्मों में बौद्ध परम्पराएँ न्याय, समानता, अहिंसा, दूसरे के प्रति कल्याण की चिन्ता और प्राणियों के प्रति करुणा पर बल देती है। वैदिक साहित्य भी सभी के कल्याण की कल्पना से भरे हुए हैं। (ऊँ सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित दुख भागभवेत्)
पाश्चात्य धार्मिक परम्पराओं ने स्वाभाविक सद्भावना, निःस्वार्थ प्रेम, समग्रता और वैयक्तिक कल्याण के तथा विद्वेष समाप्ति के भी संदेश दिए हैं। प्रारम्भिक ईसाई समाज के आदर्श राज्य में प्रेमपूर्वक रहने पर बहुत बल दिया गया था। यूनानी दार्शनिकों ने नागरिक विद्रोह के अभाव के अनुसार शान्तिर्ण विश्व की संकल्पना की थी। रोमन और मध्यकालीन समय में शान्ति का अभिप्राय समाज की उन इकाइयों में स्थायी संबंध से था जो संगठित हिंसा को नियंत्रित करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विश्व के धर्म एवं दर्शन के गर्भ में शान्ति, सौहार्द, सह-अस्तित्व, सद्भावना, समरसता के विचार भरे पड़े हैं।
संघर्ष परस्पर विरोधी हितों के अनुसरण से उत्पन्न होता है। संघर्ष की स्थिति में एक पक्ष दूसरे पक्ष पर हावी होने के लिए शक्ति का प्रयोग करता है और अपने हितों की रक्षा करता है जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के लिए आवश्यक भी है। इस प्रकार स्पष्ट है कि शान्ति का अर्थ संघर्ष की अनुपस्थिति नहीं है बल्कि शान्ति के सिद्धान्तवादी संघर्ष को अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों का स्वाभाविक भाग स्वीकार करते हैं।
शान्ति और संघर्ष के इस विषय में आदर्शवादी दृष्टिकोण और यथार्थवादी दृष्टिकोण का विश्लेषण आवश्यक है। अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययन क्षेत्र में आदर्शवादी विचार का जन्म 18वीं शताब्दी में हुआ था। सन् 1795 में कौण्डरसेट ने अपने ग्रन्थ में एक ऐसी विश्व व्यवस्था की कल्पना की जिसमें न युद्ध के लिए कोई स्थान था, न विषमता के लिए और न अत्याचार के लिए। उसने यह विश्वास प्रकट किया कि मनुष्य अपनी बुद्धि, शिक्षा और विज्ञान के उपयोग से इतनी उन्नति कर लेगा कि भावी मानव समाज में हिंसा, हत्या, अनैतिकता, सत्तालोलुपता और शक्ति के लिए संघर्ष की भावना लुप्त हो जायेगी। आदर्शवाद भ्विष्य के ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय समाज की तस्वीर पेश करता है जो शक्ति राजनीति अनैतिकता और हिंसा से सर्वथा मुक्त है।2
परन्तु यथार्थवादी दार्शनिकों का विचार ठीक इसके विपरीत है। जहाँ आदर्शवाद इस बात पर बल देता है कि अन्तर्राष्ट्रीय संबंध का संचालन नैतिकता पर आधारित होना चाहिए वहीं यथार्थवाद का आधार ‘शक्ति की राजनीति’ और ‘राष्ट्रीय हित’ का संवर्द्धन है।
यथार्थवादियों में मैकियावली, ई.एच. कार से लेकर हॉस जेत्र मॉरगेन्थाऊ तक अनेक विद्वान शामिल हैं। यहाँ पर हाँस जे0 मॉरगेन्थाऊ के विचारों का जिक्र समीचीन प्रतीत होता है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘पोलिटिक्स एमंग नेशन’ में लिखा कि ‘‘विवेक राजनीति का उच्चतम मूल्य है।’’ और ‘‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति शक्ति के लिए संघर्ष है।’’ अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के लिए विवेक महत्वपूर्ण है, विवेक राष्ट्रीय-हित को प्राथमिकता में रखता है और राष्ट्रीय-हित शक्ति की अपेक्षा करती है क्योंकि हितों के टकराहट में शक्ति संवर्धन ही महत्वपूर्ण है नैतिकता और शान्ति के लिए कोई जगह नहीं है।
अतः स्पष्ट है कि उपर्युक्त दोनों दृष्टिकोण अतिवादी है परन्तु यह भी सच है कि शान्ति एवं संघर्ष दोनों ही विश्व-राजनीति में साथ-साथ रहे हैं। अपने दार्शनिक विश्लेषण के उपरान्त हमें यह समझना होगा कि हम न ही पूर्णतया आदर्शवादी दृष्टिकोण के साथ रह सकते हैं और न ही यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ। हमें दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाना होगा। जॉर्ज कैनन ने भी यथार्थवाद के साथ आदर्शवादी दृष्टिकोण का सामंजस्य बैठाया है। उनका मत है कि हम केवल अपने हितों को जान और समझ सकते हैं। कोई भी देश किसी दूसरे देश की संस्थाओं और जरूरतों के बारे में फैसला नहीं कर सकता। इसीलिए उनका सुझाव है कि एक ओर तो हमें अपनी विदेश नीति और अपनी राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुसार कार्य करना चाहिए और दूसरी ओर उन नैतिक और आचार संबंधी सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करना चाहिए जो हमारी सभ्यता की भावना के सहजात सिद्धान्त हैं।3
शांति, संघर्ष एवं विकास की संकल्पना किसी भी राज्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। राज्य के शासनाध्यक्ष के लिए आन्तरिक एवं बाह्य दोनों संदर्भों में उक्त विषय हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है और भविष्य में भी रहेगा। यहाँ पर हम परराष्ट्र संबंधों के संदर्भ में ही विश्लेषण कर रहे हैं। राज्य के अंदर राजा का दायित्व प्रजापालन, प्रजारक्षण एवं प्रजारंजन अथवा प्रजाकल्याण है जिसे हम राजा का प्राथमिक राजधर्म मानते हैं परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में राजा का धर्म अलग है जिसमें वह राष्ट्रहित को केन्द्र में रखते हुए अपनी विदेशनीति, कूटनीति तथा युद्धनीति का निर्माण करता है। क्योंकि वैदेशिक संबंधों में विश्व राजनीति विस्तारवादी नीति को जायज मानती है। विस्तारवादी नीति प्रायः साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद एवं बाजारवाद के रूप में प्रकट होती है। इन्हीं उपक्रमों के साथ विश्व के कुछराज्य अपनी शक्ति का निरन्तर संवर्द्धन करते हुए अन्य राज्यों के प्रति आक्रामक नीति अपनाते हैं जबकि कुछ अन्य शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व एवं अहिंसा का मार्ग अपनाते हुए आक्रमण का प्रतिरोध करते हैं। दृष्टांत के लिए क्रमशः चीन और भारत की विदेशनीति को देखा जा सकता है। अब यहाँ पर यह प्रश्नगत विचार महत्वपूर्ण होगा कि विश्व राजनीति में शान्ति के लिए कितनी जगह है और संघर्ष की क्या सम्भावनाएँ हैं। विकास का प्रश्न तो बहुआयामी एवं बहुसंदर्भी है। राजा महान एवं चक्रवर्ती तो तभी माना जाता है जब वह अपने क्षेत्र का विस्तार करे। कूटनीति से या युद्ध से। कुछ राजा तो तमाम राजवंशों को पराजित कर विश्व-विजय के लिए निकले थे और उसी को अपना विकास मानते थे।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में जिस राजा का विवेचन किया है वह उसे परराष्ट्र संबंधों के संदर्भ में ‘विजिगीषु राजा’ कहता है जिसका अर्थ है विजय की इच्छा रखने वाला राजा। कौटिल्य के अनुसार विजिगीषु राजा को सदैव अपने पड़ोसी राज्यों को जीत कर अपने में मिलाने का प्रयत्न करना चाहिए।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एवं संबंधों में शान्ति एवं संघर्ष को कौटिल्य द्वारा वर्णित ‘षाड्गुण्य नीति’ में ढूंढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए। पड़ोसी राजा और विशेषतया अन्य विदेशी राज्यों के प्रति व्यवहार के संबंध में 6 लक्षणों वाली नीति को ‘षाड्गुण्य नीति’ कहते हैं। इसके 6 लक्षण हैं- (1) सन्धि (2) विग्रह (युद्ध) (3) यान (शत्रु पर वास्तविक आक्रमण करना) (4) आसन (तटस्थता) (5) सश्रय (बलवान का आश्रय लेना) और (6) द्वैधीभाव (सन्धि और युद्ध का एक साथ प्रयोग)।4
इस प्रकार हम यहाँ देख सकते हैं कि जहाँ तक संभव हो वहाँ तक हमें शांति का मार्ग अपनाना चाहिए परन्तु संघर्ष और युद्ध राज-धर्म है। अतः आवश्यक हो जाने पर धर्म-युद्ध लड़ने में संकोच नहीं होना चाहिए। आज वर्तमान राष्ट्रीय राज्यों में भी राष्ट्रीय हितों के परिप्रेक्ष्य में शक्ति संवर्द्धन हेतु संघर्ष जारी है और भविष्य में भी रहेगा। राजनय के द्वारा स्टेटमैन शान्ति स्थापित करने का प्रयास करता है परन्तु अनुनय-विनय कब तक? एक समय आता है जब विरोधी को शक्ति द्वारा भयभीत करना पड़ता है।
अब तक विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि जमीन को लेकर नदियों के जल को लेकर, पहाड़ को लेकर, बाजार को लेकर, विचारधारा को लेकर एवं आवश्यक शक्ति संतुलन हेतु विश्व राजनीति में सदियों से संघर्ष कायम रहा है। इन संघर्षों को साम दाम भेद ओर दण्ड के द्वारा अथवा कूटनीति और युद्ध के द्वारा समाप्त करने का प्रयत्न किया जाता रहा है। विश्व ने अब तक अनगिनत द्वि-पक्षीय एवं बहु-पक्षीय युद्ध देखे हैं। इन युद्धों एवं युद्धों के परिणामों से विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि युद्ध शान्ति, संघर्ष और विकास को सीधे तौर पर प्रभावित करता है। युद्ध की तैयारी सभी राष्ट्र अपनी क्षमता एवं संसाधन के अनुसार करते हैं क्योंकि प्रत्येक राष्ट्र का प्राथमिक धर्म राष्ट्र-रक्षा है। आपको याद होगा ‘राफाल’ फाइटर विमान के स्वागत के समय भारत के प्रधानमंत्री ने राष्ट्र-रक्षा संदर्भ में एक संस्कृत के श्लोक को उद्धृत किया था- ‘‘राष्ट्ररक्षासमं पुण्यं, राष्ट्ररक्षासमं व्रतं, राष्ट्ररक्षासमं यज्ञो, दृष्टो नैव च नैव च।। अर्थात् राष्ट्र रक्षा के समान कोई पुण्य नहीं, राष्ट्र रक्षा के समान कोई व्रत नहीं और राष्ट्र रक्षा के समान कोई यज्ञ नहीं होता है।
सामरिक संदर्भों में प्रत्येक राष्ट्र को अपनी सेना, हथियार एवं आणविक हथियार पनडुब्बियाँ तथा आवश्यक आधुनिक तकनीक में उत्तरोत्तर विस्तार करते रहना चाहिए क्योंकि उससे शक्ति संतुलित होती रहती है। आसानी से कोई भी किसी पर आक्रमण करने से बचता है और संघर्ष-विराम बना रहता है। पर यह भी सत्य है कि वैश्विक विवाद अथवा द्विपक्षीय विवाद प्रायः युद्ध से हल नहीं हुए हैं उसके लिए वार्ता, द्विपक्षीय शान्ति वार्ता, मध्यस्थता अथवा वैश्विक संस्थाओं का हस्तक्षेप ही लाभकारी रहा है। भारत-पाक संबंध में कश्मीर विवाद, भारत-चीन संबंध में सियाचिन (कश्मीर) विवाद, अरब-इजरायल विवाद आदि करीब 70 दशक बाद भी जल के तस हैं। युद्ध एवं शान्ति जैसे परस्पर विरोधाभासी शब्द भारत पाकिस्तान के संदर्भ में देखें तो पता चलता है कि जहाँ पाकिस्तान की पृष्ठभूमि में संघर्ष एवं युद्ध की धारणा घनीभूत हुई है, वहीं भारत सदैव शान्ति का सन्देश लेकर अग्रसर होता रहा है। भारत विभाजन के समय की घृणा और अविश्वास ने दोनों ही देशों को आज तक युद्ध की तैयारी में लगाए रखा है। शायद माइकल ब्रेशर को इसी परिप्रेक्ष्य में कहना पड़ा था कि – ‘‘भारत और पाकिस्तान हमेशा अघोषित युद्ध की स्थिति में रहे हैं।’’5 कहने का तात्पर्य यह है कि एशिया महाद्वीप में जब से ब्रिटिश उपनिवेशवाद की समाप्ति हुई तब से एक नए संघर्ष की शुरुआत हुई, जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में ‘शान्ति’ शब्द के लोप के साथ अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में, सामाजिक सुरक्षा, समूहिक सुरक्षा एवं शक्ति सन्तुलन का बना-बनाया ढाँचा ही ध्वस्त हो गया। प्रारम्भ से ही दोनों देशों की सेनाएं एक दूसरे के आमने-सामने न केवल तैनात रहीं अपितु चार बड़े युद्ध लड़े, जिनमें चौथा युद्ध कारगिल संघर्ष था। सीमा पार से हो रही घुसपैठ जैसी एक छोटी सी चिन्गारी से किसी भी दिन पाँचवा युद्ध शुरु हो जाये तो आश्चर्य नहीं।
इन परिस्थितियों में श्री विनोबा का संग्राम नहीं राम अर्थात् रामराज्य चाहिए, क्रान्ति नहीं शान्ति चाहिए का फार्मूला बहुत कारगर सिद्ध हो सकता है। अतः शान्ति के पथ पर चलते हुए शनैः-शनैः समग्र विकास के लिए सहकारिता की भावना का पोषण करते रहना चाहिए।
उनका मानना था कि विवादों का हल कभी भी युद्ध से नहीं हो सकता, क्योंकि युद्ध वाद है, प्रति-युद्ध प्रतिवाद है एवं समग्र-युद्ध संवाद है। अर्थात् बड़े युद्ध छोटे युद्ध को समाप्त कर देते हैं, परन्तु शान्ति की ताकत पैदा नहीं कर सकते। अतः समाधान युद्ध से नहीं बातचीत से ही हो सकता है। इसी संदर्भ में विनोबा ने स्वयं लिखा- ‘‘युद्ध मानवता को शोभा नहीं देता। उसमें भी लड़ने वालों और न लड़ने वालों में फर्क न मानने वाला आज का यांत्रिक युद्ध तो निर्दयता की हद ही है। इस युद्ध के द्वारा मनुष्य पशु की अवस्था को पहुँचना चाहता है। उसमें किसी का भी लाभ होने वाला नहीं है।’’6
निष्कर्ष यह है कि युद्ध से प्रायः न तो विवाद एवं संघर्ष समाप्त होता है न ही शान्ति मिलती है। अर्थव्यवस्था पर चोट ऊपर से मिलती है। अतः शान्ति का प्रयास प्रत्येक जिम्मेदार राष्ट्र को गंभीरता से करना चाहिए। युद्ध अंतिम विकल्प के रूप में हो सकता है। यहाँ पर मनु के अन्तर्राष्ट्रीय शांति संतुलन के सिद्धान्त को उद्धृत किया जा सकता है। मनु ने राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवार के बीच सुन्दर समन्वय स्थापित किया है जो आज विश्व-शान्ति का आधार बन सकता है। मनु का यह विचार बहुत अधिक विवेक तथा दूरदर्शितापूर्ण है कि युद्ध को अन्तिम विकल्प के रूप में ही अपनाया जाना चाहिए तथा राजा के हितों की रक्षा के लिए युद्ध के अतिरिक्त राजनयिक व शांतिपूर्ण विकल्प खोजे जाने चाहिए।
संदर्भ-
1. सिंघल, डॉ0 सुरेश चन्द्र, समकालीन राजनीतिक मुद्दे, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, आगरा संस्करण षष्ठम् पृ0 3
2. फाड़िया, बी0एल0, ‘राजनीति विज्ञान’ साहित्य पब्लिकेशन आगरा, पृ0 18
3. जार्ज एफ0 कैनन, अमेरिकन डिप्लोमेसी (शिकागो, प्प्प् 1951) पृ0 100-101
4. जैन, डॉ0 पुखराज- राजनीति विज्ञान, साहित्य भवन पब्लिकेशन, आगरा, पृ0 73
5. प्रतियोगिता दर्पण- सितम्बर 2006- पृ0 286
6. चोलकर, पराग (सं0), ‘विनोबा-विचार-दोहन’, प्रकाशक-एन0बी0टी0 नई दिल्ली,पृ0 181
7. जैन, डॉ0 पुखराज- राजनीति विज्ञान, साहित्य भवन पब्लिकेशन, आगरा, पृ0 56
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