ISSN- 2278-4519
PEER REVIEW JOURNAL/REFEREED JOURNAL
RNI : UPBIL/2012/44732
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‘स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम्’ में निरूपित भारतवर्ष के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की वीराङ्गना लक्ष्मीबाई

डॉ. शोभा मिश्रा
एसोसिएट प्रोफेसर – संस्कृत
वी.एस.एस.डी.कॉलेज, कानपुर

‘स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम्’1 संस्कृत साहित्य का विशालतम महाकाव्य है। आद्यन्त राष्ट्रीय भावना से आपूर्ण इस महाकाव्य की कथावस्तु प्रथम स्वाधीनता संग्राम की दिव्यज्योति , वीराङ्गना झाँसी की रानी से प्रारम्भ होकर वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी के प्रारम्भिक सात माह के कार्यकाल तक आती है। इसमें सन् 1857 की क्रान्ति से लेकर स्वाधीनता प्राप्त करने तक का वृत्तान्त तथा स्वातन्ष्योत्तर भारत का सन् 2014 तक का इतिहास विस्तार- पूर्वक वर्णित है। स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्य के रचयिता आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी2 हैं जो संस्कृत साहित्य जगत् में सनातनकवि के नाम से प्रसिद्ध हैं। आप काशी की विद्वत् परम्परा के मूर्धन्य विद्वान् रहे हैं। वर्तमान में संस्कृत में विरचित मौलिक ग्रंथ आपके यशःशरीर के परिचायक हैं। सनातनकवि स्वभावतः समसामयिक राजनीतिक घटनाओं को अपनी प्रवाहमान लेखनी से तत्काल काव्यमयी वाणी में उपनिबद्ध करते रहे हैं। सन् 1977 के लोकसभा चुनाव पर आधारित ‘‘सप्तर्षि काँग्रेसम्’’3 नामक नाटक (समवकार) तत्कालीन राजनीतिक घटनाक्रम का सजीव परिचायक है। इसीप्रकार घटनाओं के क्रमानुसार ‘स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम्’ की रचना भी विविध चरणों में हुई है-
1. सन् 1986 में ‘स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम्’ के प्रथम संस्करण में 28 सर्ग प्रकाशित हुए थे।
2. सन् 2001 में ‘स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम्’ के द्वितीय संस्करण में यह महाकाव्य 33 सर्गों का हो गया।
3. सन् 2011 में ‘स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम्’ का द्वितीय परिवर्द्धित संस्करण, कालिदाससंस्थानम््,
वाराणसी से प्रकाशित हुआ जिसमें 1 से 75 सर्ग तथा 6064 पद्य हैं।
4. जुलाई 2014 में सनातन कवि ने ‘नमोनिर्वाचनम्’ (मोदीविजयपंचशती)4 शीर्षक से प्रकाशित अपने ऐतिहासिक खण्डकाव्य को इस महाकाव्य में जोड़ कर 6सर्ग और बढ़ा दिये, जिससे
‘स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम्’ 81 सर्गों तथा 6587 पद्यों का सर्वाधिक विशलकाय महाकाव्य बन गया। सनातन कवि ने इतिहास की गतिमत्ता को सुरक्षित रखते हुए उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी किया है क्योंकि आपकी मान्यता है कि कविता मानवीय समग्रता को लिए बिना आदर नहीं पा सकती है।‘स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम्’ की कथावस्तु में यह समग्रता विद्यमान है। राष्ट्रीयता इस महाकाव्य की उदात्त कथावस्तु की रीढ़ है।‘स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम्’ की कथावस्तु जिस प्रकार इतिहास और कल्पना की मिश्रित भित्ति पर आधारित है, उसी प्रकार इस महाकाव्य के पात्रों के चरित्र-चित्रण में भी इतिहास और कल्पना का मनोरम समन्वय है। सनातन कवि अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर पात्रों की प्र.ति और प्रवृत्ति को प्रस्तुत करते हैं। पात्रों का उत्कर्ष और अपकर्ष उनके कार्यों के अनुपात पर ही आधारित होता है, फिर भी कवि की वर्णना शक्ति उसके स्वरूप में परिवर्तन और परिवर्द्धन कर ही देती है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में आवश्यकतानुसार परिवर्तन कविप्रतिभा का ही परिणाम है। सनातनकवि ने अपने पात्रों के बाह्य स्वरूप की अपेक्षा उनके आभ्यन्तर चरित्र का ही सर्वाधिक चित्रण किया है। इसका जीवन्त उदाहरण है- वीरांगना लक्ष्मीबाई का चरित्र। सनातनकवि स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्य में राजमाता गान्धारी ,पाण्डवश्री पा´्चाली (3.33), माता अहिल्या5 (3.30), रानी दुर्गावती (3.31) और माता चेन्नाम्बा (3.32) का अत्यन्त आदरपूर्वक स्मरण करते हैं तथा इन सभी माताओं के तेज के मिश्रण से लक्ष्मीबाई की दिव्य उत्पत्ति को स्वीकार करते हैं –
आसां समासां बल-वीर्य-धैर्य-स्थैर्य-श्रियां संघटनेन कच्चित्।
लक्ष्मीमिमां ब्रह्मविदां वरिष्ठो ब्रह्मा व्यधात् साध्वसवीतचित्ताम्।। स्वातन्ष्यसंभव0 -3.34
स्वातन्ष्यसंभवमहाकाव्य के ‘‘स्वातन्ष्यसंकल्पोदय’’6 नामक द्वितीय सर्ग में वीरांगना लक्ष्मीबाई का भव्य चरित्र चित्रित है जिसमें विद्वत्ता , कान्ति , धार्मिकता, योगसिद्धि, गम्भीरता, शूरता, दिव्यता, कोमलता, विशुद्धि, विशालता, गुरुता, व्यापकता, धीरता, कठोरता, वीरता, तेजस्विता, उदारता तथा देशभक्ति की भावना की प्रबलता आदि अनेक उदात्त गुणों का मंजुल मणिकांचन समवाय विद्यमान है। सनातनकवि ने झाँसी की रानी को भारतीय स्वातन्ष्यलक्ष्मी का प्रथम अभिधान माना है क्योंकि लक्ष्मीबाई ने ही सर्वप्रथम वैरिवंशों की लक्ष्मी को उड़ाया था –
अस्यां पुराऽजायत विप्रवंशे-लक्ष्मीर्विलक्ष्मी.त-वैरि-वंशा।
झाँसीश्वरीति प्रथिताभिधानः स्वातन्ष्यलक्ष्म्याः प्रथमोऽभिमानः।। स्वातन्ष्यसंभवम्-2.34
1. लक्ष्मीबाई का बाल्यकाल एवं शैशव – लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में एक ब्राह्मणकुल में हुआ था। लक्ष्मीबाई का जन्मस्थान काशी में अस्सी नामक गङ्गाघाट पर स्थित श्लाघनीय गणेशमठ था। सनातनकवि के अनुसार यहाँ मातृभूमि का महान् प्रेम शरीरधारण कर लक्ष्मी के रूप में प्रकट हुआ था(2.38)। लक्ष्मीबाई के पिताजी का नाम ढोंढाजी (मोरोपंत तांबे) तथा माता का नाम भागीरथी बाईसा था6। लक्ष्मीबाई का स्वरूप अत्यन्त भव्य था। पिता ढोंढा जी की वह पराम्बिका कन्या लक्ष्मी वसुधातल की कल्पवल्ली थी, मनुष्यवंश की कामधेनु थी और भारत की भाग्यलक्ष्मी की चिन्तामणि थी। उसका लक्ष्मी नाम सार्थक था-
सा कल्पवल्ली वसुधातलस्य सा कामधेनुर्मनुजान्वयस्य।
चिन्तामणिर्भारतभाग्यलक्ष्म्या लक्ष्मीर्यथार्थार्थयते स्म संज्ञाम्।। स्वातन्ष्यसंभवम् – 2.43।।
नारी तो वे देहमात्र में थी। उनके चित्त में शौर्यमात्र से भरा अत्यन्त बलशाली पौरुष (नरत्व) विद्यमान था। सनातन कवि ने लक्ष्मी की तुलना पुलोमजा (शची) में की है-
या देहमात्रेण बभूव नारी चित्तेन शौर्य्यैकधनेन किन्तु।
वीर्यातिभूमि प्रबलं नरत्वं तस्यां जजागार पुलोमजावत्।। स्वातन्ष्यसंभवम् – 2.37
लक्ष्मीबाई बाल्यकाल से ही अत्यन्त तेजस्विनी थीं। उनकी माँ मे उन्हें वैसे ही पाला था जैसे यशोदा माता के महामाया को पाला था। वह धीरे-धीरे बढ़ने लगी और कौमार के कह्लार सरोवर से आगे बढ़ कर उसने नवयौवन के अत्यन्त वासन्तिक साम्राज्य में पदार्पण किया(2.44)। माता भागीरथी बाईसा अपनी पुत्री लक्ष्मी को डरती डरती ही दुलारती थी मानों वह कराल कालरात्रि थी या वैसी ही जीभ लपलपाती भयंकर शिवदूती। पिता ढोंढेजी के भीतर भी उस कन्या के दर्शन से वात्सल्यधारा कम और आश्चर्यश्री अधिक उपतजी थी (2.40) बाल्यकाल में ही उसमें वेग असह्य और तेज भी स्वाभाविक से अधिक अतः वह ऐसी लगती थी मानो वर्षा की गङ्गा या अग्नि की निदाघकाल में धधकती उग्रतम ज्वाला हो(2.48)।
2. लक्ष्मीबाई का स्वरूप – सनातनकवि मानते हैं कि विधाता ने लक्ष्मीबाई का निर्माण विदेशी शासकों के विनाश के लिए अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक किया था-
वैदेशिकानां क्षपणाय भूमीभृतां सितानां पिशिताशनानाम्।
या निर्मिता विश्वसृजा प्रयत्नात् सौदामनीव द्युतलात् पतन्ती।। स्वातन्ष्यसंभवम्-2.36
लोग उसे देखते तो यह नहीं समझ पाते कि वह कुमार है या कुमारी। वह तो कान्ति में झिलमिलाती रत्न की पुतली थी, जिसके भीतर डूबे रहते थे सभी अङ्ग (2.45) वह तीव्र वेग वाले घोड़ों पर चढ़ती और उनकी चाल में सुख पाती थी (2.49)। अस्त्र-शस्त्रों में उसके हाथ थोड़ी ही उमर में निष्णात हो गए थे। उसका ललाट कौमार्य की दीप्ति से ललित था जिस पर तिलक के बहाने से विधाता ने लिख रखा था कि वह भारतभूमि के स्वातन्ष्ययुद्ध में प्रथम होगी (2.50)। कभी-कभी इस वीरांगना लक्ष्मी के सिर पर पगड़ी दिखाई देती जो मानो त्रैलोक्य पर ललनाओं के साम्राज्य के महान् अधिकार का पट्टाभिषेक थी (2.51)। लक्ष्मी की कमर में लटकता बढ़िया मूठवाला छुरा ऐसा लगता था जैसे सुमेरुशंृग पर निकला शत्रुकुल का घातक धूमकेतु हो (2.52)। लक्ष्मी ने कान में चमचमाते हुए सुवर्ण के दो ताटङ्क पहन रखे थे, जो उसकी मातृभूमि के स्वर्ग और अपवर्ग ही थे जो उस समय उसमें छिपकर रह रहे थे (2.53)।उसकी आँखों में धवलता थी, किन्तु वह अपनी गोद में अरुणिमा को लिए हुए थी। वह सुन्दर और बड़ी-बड़ी आँखें जिधर घुमा देती थी उधर तम को निगल जाने वाले हजार -हजार चन्द्रबिम्ब उदित हो उठते थे । यहाँ तम शब्द अंधकार के साथ ही राहु का भी द्योतक है (2.56)। वह जिस दिशा में जाती थी उस दिशा के द्युलोक में मानो महान् उत्सव आरम्भ हो जाता था और उसे देखने के लिए सैकड़ों काशी, लाखों उज्जयिनी और असंख्य कांची की भीड़ टूट पड़ती थी (2.57)। लक्ष्मी हाथों में लिए रहती थी एक एक तलवार जिनमें चमकती रहती थी असंख्य बिजलियाँ, जिनसे पृथिवी सहित द्युलोक का महान् अन्तराल भरा रहता था (2.58)। लक्ष्मीबाई ने घोड़े की पीठ पर जो जीन बाँधी थी उसी के साथ मानो बाँध दी शत्रुओं की असंख्य लक्ष्मियाँ (2.59)। जब यह लक्ष्मीबाई सो रही होती थी तो भी शत्रु-नारियों से नींद कोसों दूर रहती थी और वे डर से निरन्तर काँपती रहती थीं (2.61)।
3. लक्ष्मीबाई की विद्वत्ता – सनातनकवि के अनुसार लक्ष्मीबाई ने निगमों (वेद) और आगमों (शास्त्र-तंत्रों) में परम प्रवीणता को प्राप्त गुरुओं से पुरुषार्थ की विद्याएँ प्राप्त कीं तथा उन सभी को अपने मस्तिष्क में स्थिर भी कर लिया था –
शुश्राव लक्ष्मीर्निगमागमेषु प्रज्ञां पटिष्ठामधिजग्मिवद्भ्यः।
या या गुरुभ्यः पुरुषार्थविद्यास् तास्तत्र सर्वाः स्थिरतामवापुः।। स्वातन्ष्यसंभव0 – 2.60
4. लक्ष्मीबाई की कान्ति एवं धार्मिकता – सनातन कवि के अनुसार कुलीन कन्या लक्ष्मीबाई सनातन धर्म की प्रबल अवलम्ब थी। उसकी कान्ति को किसी सनातनी पूर्णकुम्भ ने अपने भीतर भरपूर मात्रा में भर लिया था। निश्चय ही सनातन धर्म रूपी घट की कुक्षि तो थी, परन्तु उसका प्रचार और प्रसार न होने के कारण वह चिरकाल से शून्य सी पड़ी थी। लक्ष्मीबाई ने सनातन धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करते हुए उसे समाज में पुनः स्थायित्व प्रदान किया-
कान्तिं तदीयां कुलकन्यकानां सानातनः कश्चन पूर्णकुम्भः।
आपूरयामास चिरस्य शून्ये स्निग्धे च कुक्षावुदरम्भरिर्नु।। स्वातन्ष्यसंभव0 – 2.46
5. लक्ष्मीबाई की योगसिद्धि – सनातन कवि के अनुसार उस लक्ष्मी को देखते ही युवकों के चंचल मन स्थिर हो जाते थे क्योंकि वह अद्भुत और अपूर्व कुलकन्या थी। उसे देखकर ऐसा लगता था जैसे कोई समाधि दीक्षा हो जो काम का तिरस्कार कर और रति का उपहास कर वृद्धि को प्राप्त हो रही होे (2.47)। सनातन कवि की दृष्टि में झाँसी की रानी बनने के बाद भी उसकी योगसिद्धि यथावत् बनी रही क्योंकि उसके राज्य में फलेच्छारहित कर्म की बहुत बड़ी विभूति ही राजा थी। वस्तुतः वह तो विदेहराज की कोई योगसिद्धि ही थी जो देहधारण कर उपस्थित हुई थी –
देहं श्रिता काचन योगसिद्धिर्विदेहराजस्य बभूव सैषा।
यत्राऽऽधिराज्ये व्यलसत् प्रजायै नैष्कर्म्यभूतिर्हि महाभियोगा।। स्वातन्ष्यसंभव0 ् – 2.55
6. लक्ष्मीबाई की धीरता एवं गम्भीरता – वीरांगना लक्ष्मीबाई स्वभावतः धीर एवं गंभीर थी। उसके तेजस्वी मुखमण्डल पर किसी ने कभी भी मुस्कुहराट नहीं देखी थी। उसे न तो कभी पसीना होता था और न ही उसकी आँखों में कटाक्ष का आकुंचन। उसका ललाट सदा ही प्रदीप्त रहता था(2.54)। लक्ष्मीबाई की धीरता भी अनुकरणीय है। भारतवर्ष की भाग्यलक्ष्मी को पुनः प्राप्त करवाने के संकल्प के साथ वह ‘जब सभी भूत सोते रहते हैं तब सुधीजन जागा करते हैं ’इस मंत्र को निरन्तर जपती रहती थी –
‘स्वपन्ति भूतानि यदा तदानीं महाधियो जाग्रति’ मन्त्रमेतम्।
साऽनारतं साधयति स्म लौल्याद् विना.ता भारतभाग्यलक्ष्मीः।। स्वातन्ष्यसंभव0 – 2.69
7. लक्ष्मीबाई की शूरता – सनातनकवि प्रतिपादित करते हैं कि 1857 की क्रान्ति के समय जब सिर पर शत्रु आरूढ़ थे तब अन्य राजे महाराजे श्रृंगार की अठखेलियों में लीन थे किन्तु लक्ष्मी की भ्रुकुटियाँ उसी समय शत्रुओं पर कालकूट बरसा रही थी। लक्ष्मीबाई अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए शूरतापूर्वक .तसंकल्प थी –
शिरस्सु गर्जत्स्वरिषु क्षितीन्द्राः शृङ्गारभङ्गीष्वपरेऽरमन्त।
लक्ष्म्यास्त्वमुष्या भ्रुकुटीभुजङ्ग्या ववर्षतां शत्रुषु कालकूटम्।। स्वातन्ष्यसंभव0 – 2.63
8. लक्ष्मीबाई की दिव्यता एवं तेजस्विता – सनातनकवि कहते हैं कि निश्चय ही विधाता ने लक्ष्मीबाई को किसी और ही मिट्टी से बनाया था क्योंकि इसके चित्त की गति सदा ही ऊपर की ओर रहती और उसमें निरन्तर स्वच्छता भी बनी रहती थी (2.64)। कम उम्र की होते हुए भी लक्ष्मीबाई की तेजस्विता का लोकचित्त पर प्रबल प्रभाव पड़ता था। वस्तुतः तेजस्वियों के तेज का ही प्रभाव पड़ा करता है, शरीर के मान का कोई भी प्रभाव नहीं होता है।
9. लक्ष्मीबाई की कोमलता एवं विशुद्धि – सनातनकवि कल्पना करते हैं कि आकाशगंगा के श्वेत राजहंसों की चोंच से गिरने वाली कमलिनी लता की जो कोमलता और विशुद्धि होती है वे दोनों ही इस लक्ष्मीबाई में आश्रय लिये हुए दिखलाई देती थीं ( स्वातन्ष्यसंभव0 – 2.65)।
10. लक्ष्मीबाई की चारित्रिक विशालता, गुरुता एवं व्यापकता -लक्ष्मीबाई के चरित्र में पृथिवी की विशालता, गिरियों की गुरुता और आकाश की व्यापकता इन तीनों का संमिश्रण अङ्कुरित हो रहा था(2.66)।
11. लक्ष्मीबाई की कठोरता, वीरता एवं देशभक्ति – सनातनकवि के अनुसार लक्ष्मीबाई के शरीर पर मानो लेप था असंख्य वज्रों का नहीं तो यह संभव ही कैसे होता कि उस (लक्ष्मी) का मार्दव राशिभूत सुकोमल नारी शरीर सदा ही आलस्यरहित दिखलाई देता –
तस्याः शरीरे प्रतिकर्म्म चक्रुर्वज्रावलीनामयुतानि नूनम्।
नो चेत् कथं मार्द्दवराशिभूताऽप्यसौ सदैवाऽनलसा ह्यलक्षि।। स्वातन्ष्यसंभव0 – 2.70
सनातनकवि स्वातन्ष्यसंकल्पोदयः के अन्तिम पद्य में वीरांगना लक्ष्मीबाई की देशभक्ति की भावना की प्रबलता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह भारतभूमि को अंग्रेजशासन से मुक्ति दिलाने हेतु हाथ में तलवार लेकर उद्यत थी क्योंकि अंग्रेजों ने भारतभूमि की विभूति को लूट लिया था। सनातनकवि लक्ष्मीबाई को माँ दुर्गा की उपमा देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार दैत्यों से स्वर्ग को मुक्त करवाने के लिए दुर्गा माता ने खड्ग धारण किया था उसी प्रकार लक्ष्मीबाई ने भी अंग्रेजों से भारतभूमि को मुक्त करवाने के लिए खड्ग धारण किया-
अङ्ग्रेजशासन-विना.त-भूति-योगां, सा भारतस्य वसुधामथ खड्गहस्ता।
दुर्गाम्बिकेव दिवमैच्छददित्यपत्यशत्रोर्विमोचयितुमाशु मनुष्यरूपात्।। स्वातन्ष्यसंभव0 – 2.72

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –
1.(अ) द्विवेदी रेवाप्रसाद, स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम् (1-28सर्ग), संस्करण प्रथम,1990 ई0।
(ब) द्विवेदी रेवाप्रसाद, स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम् (हिन्दी अनुवाद सहित 1-33सर्ग), अनुवादक-
द्विवेदी सदाशिव कुमार,काशी हिन्दू विश्व विद्यालय , वाराणसी-5, 2000 ई0।
(स) द्विवेदी रेवाप्रसाद, स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम् (1-75सर्ग), द्वितीय परिवर्द्धित संस्करण, कालिदास संस्थानम् वाराणसी-5, 2011 ई0।
2.(अ) सनातनस्य काव्यवैभवम्, सम्पादक द्विवेदी सदाशिव कुमार , राष्ट्रियसंस्कृत संस्थानम्
मानितविश्वद्यिालयः, नवदेहली, 2013 ई0।
(ब) संस्कृत साहित्य के वटवृक्ष (आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी), संपादक- शुक्ल विजयषंकर, द्विवेदी
सदाशिव कुमार, इन्दिरा गाँधी राष्ट्रिय कला केन्द्र, नई दिल्ली, 2018 ई0।
3. द्विवेदी रेवाप्रसाद, नमो निर्वाचनम् , कालिदास संस्थानम् वाराणसी-5, संस्करण प्रथम – 2014 ई0,
संस्करण द्वितीय-2015 ई0।
4. द्विवेदी रेवाप्रसाद, सप्तर्षिकङ्ग्रेसम् , कालिदास संस्थानम्, वाराणसी-5, संस्करण प्रथम, 2000 ई0।
5.- https://en.wikipedia.org/wiki/Ahilyabai_Holkar
भारतीय इतिहास में सर्वविदित है कि पेशवाओं की सेना होल्कर राज्य को जीतने की इच्छा से उज्जैन तक पहुँच चुकी थी किन्तु अहल्या माता के विवेक, शौर्य एवं दूरदर्शिता को समझकर पेशवा वहीं से लौट गए थे।
6. स्वातन्ष्यसंकल्पोदयः स्वातन्ष्यसम्भवमहाकाव्यम् का द्वितीय सर्ग है। इसमें 72 श्लोक हैं।
भारतवर्ष की स्वतन्त्रता के उदय के रूप में वीरांगना लक्ष्मीबाई का वर्णन है।

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